अग्नि पुराण - एक सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 131 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 131 Chapter !

एक सौ इकतीसवाँ अध्याय घातचक्र आदिका वर्णन घातचक्रादि

अग्नि पुराण - एक सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 131 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ इकतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 131 Chapter !

ईश्वर उवाच
प्रदक्षिणमकारादीन् स्वरान् पूर्वादितो लिखेत् ।१३१.००१
चैत्राद्यं भ्रमणाच्चक्रं प्रतिपत्पूर्णिमा तिथिः ॥१३१.००१

त्रयोदशी चतुर्दशी अष्टम्येका च सप्तमी ।१३१.००२
प्रतिपत्त्रयोदश्यन्तास्तिथयो द्वादश स्मृताः ॥१३१.००२

चैत्रचक्रे तु संस्पर्शाज्जयलाभादिकं विदुः ।१३१.००३
विषमे तु शुभं ज्ञेयं समे चाशुभमीरितम् ॥१३१.००३

युद्धकाले समुत्पन्ने यस्य नाम ह्युदाहृतम् ।१३१.००४
मात्रारूढन्तु यन्नाम आदित्यो गुरुरेव च ॥१३१.००४

जयस्तस्य सदाकालं सङ्ग्रामे चैव भीषणे ।१३१.००५
ह्रस्वनाम यदा योधो म्रियते ह्यनिवारितः ॥१३१.००५

प्रथमो दीर्घ आदिस्थो द्वितीयो मध्ये अन्तकः ।१३१.००६
द्वौ मध्येन प्रथमान्तौ जायेते नात्र संशयः ॥१३१.००६

पुनश्चान्ते यदा चादौ स्वरारूढन्तु दृश्यते ।१३१.००७
ह्रस्वस्य मरणं विद्याद्दीर्घस्यैव जयो भवेत् ॥१३१.००७

नरचक्रं प्रवक्ष्यामि ह्यृक्षपिण्डात्मकं यथा ।१३१.००८
प्रतिमामालिखेत्पूर्वं पद्यादृक्षाणि विन्यसेत् ॥१३१.००८

शीर्षे त्रीणि मुखे चैकं द्वे ऋक्षे नेत्रयोर्न्यसेत् ।१३१.००९
वेदसङ्ख्यानि हस्ताभ्यां कर्णे ऋक्षद्वयं पुनः ॥१३१.००९

हृदये भूतसङ्ख्यानि षडृक्षाणि तु पादयोः ।१३१.०१०
नाम ह्यृक्षं स्फुटं कृट्वा चक्रमध्ये तु विन्यसेत् ॥१३१.०१०

नेत्रे शिरोदक्षकर्णे याम्यहस्ते च पादयोः ।१३१.०११
हृद्ग्रीवावामहस्ते तु पुनर्गुह्ये तु पादयोः ॥१३१.०११

यस्मिन्नृक्षे स्थितः सूर्यः सौरिर्भौमस्तु सैंहिकः ।१३१.०१२
तस्मिन् स्थाने स्थिते विद्याद्घातमेव न संशयः ॥१३१.०१२

जयचक्रं प्रवक्ष्यामि आदिहान्तांश्च वै लिखेत् ।१३१.०१३
रेखास्त्रयोदशालिख्य षड्रेखास्तिर्यगालिखेत् ॥१३१.०१३

दिग्ग्रहा मुनयः सूर्या ऋत्विग्रुद्रस्तिथिः क्रमात् ।१३१.०१४
मूर्छनास्मृतिवेदर्क्षजिना अकडमा ह्यधः ॥१३१.०१४

आदित्याद्याः सप्तहृते नामान्ते बलिनो ग्रहाः ।१३१.०१५
आदित्यसौरिभौमाख्या जये सौम्याश्च सन्धये ॥१३१.०१५

रेखा द्वादश चोद्धृत्य षट्च यास्यास्तथोत्तराः ।१३१.०१६
मनुश्चैव तु ऋक्षाणि नेत्रे च रविमण्डलं ॥१३१.०१६

तिथयश्च रसा वेदा अग्निः सप्तदशाथवा ।१३१.०१७
वसुरन्ध्राः समाख्याता अकटपानधो न्यसेत् ॥१३१.०१७

एकैकमक्षरन्न्यस्त्वा शेषाण्येवङ्क्रमान्न्यसेत् ।१३१.०१८
नामाक्षरकृतं पिण्डं वसुभिर्भाजयेत्ततः ॥१३१.०१८

वायसान्मण्डलोऽत्यग्रो मण्डलाद्रासभो वरः ।१३१.०१९
रासभाद्वृषभः श्रेष्ठा वृषभात्कुञ्जरो वरः ॥१३१.०१९

कुञ्जराच्चैव पुनः सिंहः सिंहाश्चैव खरुर्वरः ।१३१.०२०
खरोश्चैव बली धूम्रः एवमादि बलाबलं ॥१३१.०२०

इत्याग्नेये महापुराणे घातचक्रादिर्नामैकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ इकतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 131 Chapter!-In Hindi

शंकरजी कहते हैं- पूर्वादि दिशाओंमें प्रदक्षिणक्रमसे अकारादि स्वरोंको लिखे। उसमें शुक्लपक्षकी प्रतिपदा, पूर्णिमा, त्रयोदशी, चतुर्दशी, केवल शुक्लपक्षकी एक अष्टमी (कृष्णपक्षकी अष्टमी नहीं), सप्तमी, कृष्णपक्षमें प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक (अष्टमीको छोड़कर) द्वादश तिथियोंका न्यास करे। इस चैत्र-चक्रमें पूर्वादि दिशाओंमें स्पर्श-वर्णोंको लिखनेसे जय- पराजयका तथा लाभका निर्णय होता है। विषम दिशा, विषम स्वर तथा विषम वर्णमें शुभ होता है और सम दिशा आदिमें अशुभ होता है॥ १-३॥ 
(अब युद्धमें जय-पराजयका लक्षण बतलाते हैं-) युद्धारम्भके समय सेनापति पहले जिसका नाम लेकर बुलाता है, उस व्यक्तिके नामका आदि-अक्षर यदि 'दीर्घ' हो तो उसकी घोर संग्राममें भी विजय होती है। यदि नामका आदि वर्ण 'ह्रस्व' हो तो निश्चय ही मृत्यु होती है। जैसे - एक सैनिकका नाम 'आदित्य' और दूसरेका नाम है- 'गुरु'। इन दोनोंमें प्रथमके नामके आदिमें 'आ' दीर्घ स्वर है और दूसरेके नामके आदिमें 'उ' हस्व स्वर है; अतः यदि दीर्घ स्वरवाले व्यक्तिको बुलाया जायगा तो विजय और ह्रस्ववालेको बुलानेपर हार तथा मृत्यु होगी ॥ ४-७॥ 
(अब 'नरचक्र' के द्वारा घाताङ्गका निर्णय करते हैं) नक्षत्र-पिण्डके आधारपर नर- चक्रका वर्णन करता हूँ। पहले एक मनुष्यका आकार बनावे। तत्पश्चात् उसमें नक्षत्रोंका न्यास करे। सूर्यके नक्षत्रसे नामके नक्षत्रतक गिनकर संख्या जान ले। पहले तीनको नरके सिरमें, एक मुखमें, दो नेत्रमें, चार हाथमें, दो कानमें, पाँच हृदयमें और छः पैरोंमें लिखे। फिर नाम-नक्षत्रका स्पष्ट रूपसे चक्रके मध्यमें न्यास करे। इस तरह लिखनेपर नरके नेत्र, सिर, दाहिना कान, दाहिना हाथ, दोनों पैर, हृदय, ग्रीवा, बायाँ हाथ और गुह्याङ्गमेंसे जहाँ शनि, मङ्गल, सूर्य तथा राहुके नक्षत्र पड़ते हों, युद्धमें उसी अङ्गमें घात (चोट) होता है॥ ८-१२॥ 
(अब जयचक्रका निर्णय करते हैं) पूर्वसे पश्चिमतक तेरह रेखाएँ बनाकर पुनः उत्तरसे दक्षिणतक छः तिरछी रेखाएँ खींचे। (इस तरह लिखनेपर जयचक्र बन जायगा।) उसमें अ से ह तक अक्षरोंको लिखे और १०।९।७।१२।४। ११।१५।२४।१८। ४।२७। २४-इन अङ्कोंका भी न्यास करे। अङ्कोंको ऊपर लिखकर अकारादि अक्षरोंको उसके नीचे लिखे। शत्रुके नामाक्षरके स्वर तथा व्यञ्जन वर्णके सामने जो अङ्क हों, उन सबको जोड़कर पिण्ड बनाये। उसमें सातसे भाग देनेपर एक आदि शेषके अनुसार सूर्यादि ग्रहोंका भाग जाने। १ शेषमें सूर्य, २ में चन्द्र, ३ में भौम, ४ में बुध, ५ में गुरु, ६ में शुक्र, ७ में शनिका भाग होता है- यों समझना चाहिये। जब सूर्य, शनि और मङ्गलका भाग आये तो विजय होती है तथा शुभ ग्रहके भागमें संधि होती है ॥ १३-१५॥ 
उदाहरण - जैसे किसीका नाम देवदत्त है, इस नामके अक्षरों तथा ए स्वरके अनुसार अङ्क क्रमसे १८+४+२४+१८+ १५-७९ (उन्यासी) योग हुआ। इसमें सातका भाग दिया ११ लब्धि तथा २ २. शेष हुआ। शेषके अनुसार सूर्यसे गिननेपर चन्द्रका भाग हुआ, अतः संधि होगी। इससे यह निश्चय हुआ कि 'देवदत्त' नामका व्यक्ति संग्राममें कभी पराजित नहीं हो सकता। इसी तरह और नामके अक्षर तथा मात्राके अनुसार जय-पराजयका ज्ञान करना चाहिये।  (अब द्वितीय जयचक्रका निर्णय करते हैं) पूर्वसे पश्चिमतक बारह रेखाएँ लिखे और छः रेखाएँ याम्योत्तर करके लिखी जाय। इस तरह यह 'जयचक्र' बन जायगा। उसके सर्वप्रथम ऊपरवाले कोष्ठमें १४।२७ । २ । १२ । १५ । ६ । ४।३।१७।८।८- इन अङ्कोंको लिखे और कोष्ठों में 'अकार' आदि स्वरोंसे लेकर 'ह' तकके अक्षरोंका क्रमशः न्यास करे। तत्पश्चात् नामके अक्षरोंद्वारा बने हुए पिण्डमें आठसे भाग दे तो एक आदि शेषके अनुसार वायस, मण्डल, रासभ, वृषभ, कुञ्जर, सिंह, खर, धूम्र- ये आठ शेषोंके नाम होते हैं। इसमें वायससे प्रबल मण्डल और मण्डलसे प्रबल रासभ- यों उत्तरोत्तर बली जानना चाहिये। संग्राममें यायी तथा स्थायीके नामाक्षरके अनुसार मण्डल बनाकर एक-दूसरेसे बली तथा दुर्बलका ज्ञान करना चाहिये ॥ १६-२० ॥ 
उदाहरण-जैसें यायी रामचन्द्र तथा स्थायी रावण- इन दोनोंमें कौन बली है- यह जानना है। अतः रामचन्द्रके अक्षर तथा स्वरके अनुसार ३-१५, आा-२७, म्-२, अ-१४, च्-३, अ-१४, ३-१७, ५-४, ३-१५, अ-१४-इनका योग १२५ हुआ। इसमें ८ का भाग दिया तो शेष ५ रहा। तथा रावणके अक्षर और स्वरके अनुसार र्-१५, आ०२७, व्०४, अ-१४, २०१७, अ १४ इनका योग हुआ ९१। इसमें ८ से भाग देनेपर ३ शेष हुआ। ३ शेषसे ५ बली है, अतः रामचन्द्र रावणके संग्राममें रामचन्द्र ही बली हो रहे हैं।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'घातचक्रोंका वर्णन' नामक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३१ ॥

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