अग्नि पुराण - एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 127 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 127 Chapter !

एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय विभिन्न बलोंका वर्णन ! श्राद्धकल्पः पार्वणश्राद्ध. पार्वण श्राद्ध विधि !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 127 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 127 Chapter !

श्वर उवाच |
विष्कुम्भे घटिकास्तिस्रः शूले पंच विवर्जयेत |
षष्टशः गण्डेऽनिगण्डे च नवा व्याद्यतवज्रयोः || 1 ||

परिघे च व्यतिपते उभयोरपि तद्दीनम् |
वैधृते तद्दिनश्चैव यत्रैयुद्धादिकान्त्यजेत || 2 ||

ग्रहैः शुभाशुभं वक्ष्ये देवि मेषादिराशितः |
चन्द्रशुक्रौ च जन्मस्थौ वर्जितौ शुभदायकौ || 3 ||

द्वितीयो मंगलोऽतर्कः सौरिश्चैव तु सैंहिकाः |
द्रव्यनाशमलभञ्च अहावे भगमादिशेत् || 4 ||

सोमो बुधो भृगुर्जिमो द्वितीयस्थः शुभवाहः |
तृतियास्थो यदा भानुः शनिर्भौमो भृगुस्तथा || 5 ||

बुधश्चैवेन्दु राहुश्च सर्वे ते फलदा ग्रहः |
बुधशुक्रौ चतुर्थौ तु शेषाश्चैव भयवाहः || 6 ||

पंचमस्थो यदा जीवः शुक्रः सौम्यश्च चन्द्रमाः |
ददेत सेप्सितं लाभं षष्ठे स्थाने शुभो रविः || 7 ||

चन्द्रः सौरिमंगलश्च ग्रहा देवि स्वराशितः |
बुधाश्च शुभद: षष्ठे त्यजेत्षष्ठं गुरुं भृगुम् || 8 ||

सप्तमोऽर्कः शनिर्भौमो राहुर्हण्यै सुखाय च |
जीवो भृगुश्च सौम्यश्च जनशुक्रो चष्टमौ शुभौ || 9 ||

शेष ग्रहस्थ हन्यै ज्ञानभृगु नवमौ शुभौ |
शेषा हन्यै च लाभाय दशमौ भृगुभास्करौ || 10 ||

शनिर्भौमश्च राहुश्च चन्द्रः सौम्यः शुभवाहः |
शुभाश्चैकादशे सर्वे वर्जयेद्दशमे गुरुम् || 11 ||

बुधशुक्रौ द्वादशस्तौ शेषां द्वादशगंस्त्यजेत |
अहोरात्रे द्वादश स्यु रसयस्तां वदाम्यहम् || 12 ||

मिनो मेषोऽथा मिथुनञ्चतस्त्रो नन्दयो वृषः |
षटकारकसिहंकन्याश्च तुला पंच च वृश्चिक : || 13 ||

धनुर्नक्रो घटश्चैव सूर्यगो राशिरद्यकः |
चरस्थिरादद्विःस्वभाव मेशाद्यः सूर्य्यथाक्रमम् || 14 ||

कुलिरो मकरश्चैव तुलामेषादयश्चरः |
कारक्यं जयं काममाकारेच्च शुभाशुभम् || 15 ||

स्थिरो वृषो हरिः कुम्भो वृश्चिकः स्थिरकार्यके |
शिघ्रः समागमो नास्ति रोगर्तो नैव मुच्यते || 16 ||

मिथुनं कन्यका मौनी धनुषश्च द्विस्भावकः |
द्विस्वभावः शुभाश्चैते सर्वकार्येषु नित्यशः || 17 ||

यात्रावाणिज्यसंग्रामे विवाहे राजदर्शन |
वृद्धिं जयन्तथा लाभं युद्धे जयमवाप्नुयात् || 18 ||

अश्विनी विंशताराश्च तुरगस्याकृतिर्यथा |
यद्यत्र कुरुते वृषिमेकरात्रं प्रवर्षति || 19 ||

यमाभे तु यदा वृषिः पक्षमेकंतु वर्षति || 
इत्याग्नेये महापुराणे श्राद्धकल्पो नाम सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 127 Chapter!-In Hindi

शंकरजी कहते हैं- 'विष्कुम्भ योग' की तीन घड़ियाँ, 'शूल योग' की पाँच 'गण्ड' तथा 'अतिगण्ड योग' की छः 'व्याघात' तथा 'वज्र योग' की नौ घड़ियोंको सभी शुभ कार्योंमें त्याग देना चाहिये। 'परिघ', 'व्यतीपात' और 'वैधृति' योगोंमें पूरा दिन त्याज्य बतलाया गया है। इन योगोंमें यात्रा-युद्धादि कार्य नहीं करने चाहिये ॥ १-२॥ देवि ! अब मैं मेषादि राशि तथा ग्रहोंके द्वारा शुभाशुभका निर्णय बताता हूँ- जन्म-राशिके चन्द्रमा तथा शुक्र वर्जित होनेपर ही शुभदायक होते हैं। जन्म-राशि तथा लग्नसे दूसरे स्थानमें सूर्य, शनि, राहु अथवा मङ्गल हो तो प्राप्त द्रव्यका नाश और अप्राप्तका अलाभ होता है तथा युद्धमें पराजय होती है। चन्द्रमा, बुध, गुरु, शुक्र- ये दूसरे स्थानमें शुभप्रद होते हैं। सूर्य, शनि, मङ्गल, शुक्र, बुध, चन्द्रमा, राहु- ये तीसरे घरमें हों तो शुभ फल देते हैं। बुध, शुक्र चौथे भावमें हों तो शुभ तथा शेष ग्रह भयदायक होते हैं। बृहस्पति, शुक्र, बुध, चन्द्रमा- ये पञ्चम भावमें हों तो अभीष्ट लाभकी प्राप्ति कराते हैं। देवि! अपनी राशिसे छठे भावमें सूर्य, चन्द्र, शनि, मङ्गल, बुध-ये ग्रह शुभ फल देते हैं; किंतु छठे भावका शुक्र तथा गुरु शुभ नहीं होता। सप्तम भावके सूर्य, शनि, मङ्गल, राहु हानिकारक होते हैं तथा बुध, गुरु, शुक्र सुखदायक होते हैं। अष्टम भावके बुध और शुक्र- शुभ तथा शेष ग्रह हानिकारक होते हैं। नवम भावके बुध, शुक्र शुभ तथा शेष ग्रह अशुभ होते हैं। दशम भावके शुक्र, सूर्य लाभकर होते हैं तथा शनि, मङ्गल, राहु, चन्द्रमा-बुध शुभकारक होते हैं। ग्यारहवें भावमें प्रत्येक ग्रह शुभ फल देता है, परंतु दसवें बृहस्पति त्याज्य हैं। द्वादश भावमें बुध-शुक्र शुभ तथा शेष ग्रह अशुभ होते हैं। एक दिन-रातमें द्वादश राशियाँ भोग करती हैं। अब मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३-१२॥ (राशियोंका भोगकाल एवं चरादि संज्ञा तथा प्रयोजन कह रहे हैं) मीन, मेष, मिथुन- इनमें प्रत्येकके चार दण्ड; वृष, कर्क, सिंह, कन्या इनमें प्रत्येकके छः दण्ड; तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ - इनमें प्रत्येकके पाँच दण्ड भोगकाल हैं। सूर्य जिस राशिमें रहते हैं, उसीका उदय होता है और उसी राशिसे अन्य राशियोंका भोगकाल प्रारम्भ होता है। मेषादि राशियोंकी क्रमशः 'चर', 'स्थिर' और 'द्विस्वभाव' संज्ञा होती है। जैसे- मेष, कर्क, तुला, मकर-इन राशियोंकी 'चर' संज्ञा है। इनमें शुभ तथा अशुभ स्थायी कार्य करने चाहिये। वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भ- इन राशियोंकी 'स्थिर' संज्ञा है। इनमें स्थायी कार्य करना चाहिये। इन लग्नोंमें बाहर गये हुए व्यक्तिसे शीघ्र समागम नहीं होता तथा रोगीको शीघ्र रोगसे मुक्ति नहीं प्राप्त होती। मिथुन, कन्या, धनु, मीन- इन राशियोंकी 'द्विस्वभाव' संज्ञा है। ये द्विस्वभावसंज्ञक राशियाँ प्रत्येक कार्यमें शुभ फल देनेवाली हैं। इनमें यात्रा, व्यापार, संग्राम, विवाह एवं राजदर्शन होनेपर वृद्धि, जय तथा लाभ होते हैं और युद्धमें विजय होती है। अश्विनी नक्षत्रकी बीस ताराएँ हैं और घोड़ेके समान उसका आकार है। यदि इसमें वर्षा हो तो एक राततक घनघोर वर्षा होती है। यदि भरणीमें वर्षा आरम्भ हो तो पंद्रह दिनतक लगातार वर्षा होती रहती है॥ १३-१९॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'विभित्र बलोंका वर्णन' नामक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२७॥

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