अग्नि पुराण - एक सौ पचीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 125 Chapter
एक सौ पचीसवाँ अध्याय युद्धजयार्णव-सम्बन्धी अनेक प्रकारके चक्रोंका वर्णन ! युद्धजयार्णवीयनानाचक्राणि !अग्नि पुराण - एक सौ पचीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 125 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ पचीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 125 Chapter !
ईश्वर उवाच
ओं ह्रीं कर्णमोटानि बहुरूपे बहुदंष्ट्रे ह्रूं
फट्ओं हः ओं ग्रस ग्रस कृन्त कृन्त छक छक छक ह्रूं फट् नमः
पठ्यमानो ह्ययं मन्त्रः क्रुद्धः संरक्तलोचनः ।
मारणे पातने वापि मोहनोच्चाटने भवेत् ॥१
कर्णमोटी महाविद्या सर्ववर्णेषु रक्षिका ।
नानाविद्या
पञ्चोदयं प्रवक्ष्यामि स्वरोदयसमश्रितं ॥२
नाभिहृद्यन्तरं यावत्तावच्चरति मारुतः ।
उच्चाटयेद्रणादौ तु कर्णाक्षीणि प्रभेदयेत् ॥३
करोति साधकः क्रुद्धो जपहोमपरायणः ।
हृदयात्पायुकं कण्ठं ज्वरदाहारिमारणे ॥४
कण्ठोद्भवो रसो वायुः शान्तिकं पौष्टिकं रसं ।
दिव्यं स्तम्भं समाकर्षं गन्धो नासान्तिको भ्रुवः ॥५
गन्धलीनं मनः कृत्वा स्तम्भयेन्नात्र संशयः ।
स्तम्भनं कीलनाद्यञ्च करोत्येव हि साधकः ॥६
चण्डघण्टा कराली च सुमुखी दुर्मुखी तथा ।
रेवती प्रथमा घोरा वायुचक्रेषु ता यजेत् ॥७
उच्चाटकारिका देव्यः स्थितास्तेजसि संस्थिताः ।
सौम्या च भीषणी देवी जया च विजया तथा ॥८
अजिता चापराजिता महाकोटी च रौद्रया ।
शुष्ककाया प्राणहरा रसचक्रे स्थिता अमूः ॥९
विरूपाक्षी परा दिव्यास्तथा चाकाशमातरः ।
संहारी जातहारी च दंष्ट्राला शुष्करेवती ॥१०
पिपीलिका पुष्टिहरा महापुष्टिप्रवर्धना ।
भद्रकाली सुभद्रा च हद्रभीमा सुभद्रिका ॥११
स्थिरा च निष्ठुरा दिव्या निष्कम्पा गदिनी तथा ।
द्वात्रिंशन्मातरश्चक्रे अष्टाष्टक्रमशः स्थिताः ॥ १२
एक एव रविश्चन्द्र एकश्चैकैकशक्तिका ।
भूतभेदेन तीर्थानि यथा तोयं महीतले ॥१३
प्राण एको मण्डलैश्च भिद्यते भूतपञ्जरे ।
वामदक्षिणयोगेन दशधा सम्प्रवर्तते ॥१४
बिन्दुमुण्डविचित्रञ्च तत्त्ववस्त्रेण वेष्टितं ।
ब्रह्माण्डेन कपालेन पिवेत परमामृतं ॥१५
पञ्चवर्गबलाद्युद्धे जयो भवति तच्छृणु ।
अ,आकचटतपयाः श आस्यो वर्ग ईरितः ॥ १६
इ,ईखछठथफराः षो वर्गश्च द्वितीयकः ।
उ,ऊगजडदबलाः सो वर्गश्च तृतीयकः ॥१७
ए,ऐघझढधभवाः सो वर्गश्च चतुर्थकः ।
ओ औ अं अः ङञणना मो वर्गः पञ्चमो भवेत् ॥१८
वर्णाश्चाभ्युदये नॄणां चत्वारिंशच्च पञ्च च ।
बालः कुमारो युवा स्याद्वृद्धो मृत्युश्च नामतः ॥१९
आत्मपीडा शोषकः स्यादुदासीनश्च कालकः ।
कृत्तिका प्रतिपद्भौम आत्मनो लाभदः स्मृतः ॥२०
षष्ठी भौमो मघा पीडा आर्द्रा चैकादशी कुजः ।
मृत्युर्मघा द्वितीया ज्ञो लाभश्चार्द्रा च सप्तमी ॥२१
बुधे हानिर्भरणी ज्ञः श्रवणं काल ईदृशः ।
जीवो लाभाय च भवेत्तृतीया पूर्वफल्गुनी ॥१२२
जीवोऽष्टमी[७] धनिष्ठार्द्रा जीवोऽश्लेषा त्रयोदशी ।
मृत्यौ शुक्रश्चतुर्थी स्यात्पूर्वभाद्रपदा श्रिये ॥२३
पूर्वाषाढा च नवमी शुक्रः पीडाकरो भवेत् ।
भरणी भूतजा शुक्रो यमदण्डो हि हानिकृत् ॥ २४
कृत्तिकां पञ्चमी मन्दो लाभाय तिथिरीरिता ।
अश्लेषा दशमी मन्दो योगः पीडाकरो भवेत्॥२५
मघा शनिः पूर्णिमा च योगो भृत्युकरः स्मृतः ।
तिथियोगः
पूर्वोत्तराग्निनैर्ऋत्यदक्षिणानिलचन्द्रमाः ॥२६
ब्रह्माद्याः स्युर्दृष्टयः स्युः प्रतिपन्नवमीमुखाः ।
राशिभिः सहिता दृष्टा ग्रहाद्याः सिद्धये स्मृताः ॥२७
मेषाद्याश्चतुरः कुम्भा जयः पूर्णेऽन्यथा मृतिः ।
सूर्यादिरिक्ता पूर्णा च क्रमादेवम्प्रदापयेत् ॥२८
रणे सूर्ये फलं नास्ति सोमे भङ्गः प्रशाम्यति ।
कुजेन कलहं विद्याद्बुधः कामाय वै गुरुः ॥२९
जयाय मनसे शुक्रो मन्दे भङ्गो रणे भवेत् ।
देयानि पिङ्गलाचक्रे सूर्यगानि च भानि हि ॥३०
मुखे नेत्रे ललाटेऽथ शिरोहस्तोरुपादके ।
पादे मृतिस्त्रिऋक्षे स्यान्त्रीणि पक्षेऽर्थनाशनम् ॥ ३१
मुखस्थे च भवेत्यौडा शिरस्थे कार्यनाशनम् ।
कुक्षिस्थिते फलं स्याच्च राहुचक्रं वदाम्यहम् ॥३२
इन्द्राच्च नैर्ऋतङ्गच्छेन्नैर्ऋतात्सोममेव च ।
सोमाद्धुताशनं वह्नेराप्यमाप्याच्छिवालयं ॥३३
रुद्राद्यमं यमाद्वायुं वायोश्चन्द्रं व्रजेत्पुनः ।
भुङ्क्ते चतस्रो नाड्यस्तु राहुपृष्ठे जयो रणे ॥३४
अग्रतो मृत्युमाप्नोति तिथिराहुं वदामि ते ।
आग्नेयादिशिवान्तं च पूर्णिमामादितः प्रिये ॥३५
पूर्वे कृष्णाष्टमीं यावद्राहुदृष्टौ भयो भवेत् ।
ऐशान्याग्नेयनैर्ऋत्यवायव्ये फणिराहुकः ॥३६
मेषाद्या दिशि पूर्वादौ यत्रादित्योऽग्रतो मृतिः ।
तृतीया कृष्णपक्षे तु सप्तमी दशमी तथा ॥३७
चतुर्दशी तथा शुक्ले चतुर्थ्येकादशी तिथिः ।
पञ्चदशी विष्टयः स्युः पूर्णिमाग्नेयवायवे ॥३८
अकचटतपयशा वर्गाः सूर्यादयो ग्रहाः ।
गृध्रोलूकश्येनकाश्च पिङ्गलः कौशिकः क्रमात् ॥३९
सारसश्च मयूरश्च गोरङ्कुः पक्षिणः स्मृताः ।
आदौ साध्यो हुतो मन्त्र उच्चाटे पल्लवः स्मृतः ॥४०
वश्ये ज्वरे तथाकर्षे प्रयोगः सिद्धिकारकः ।
शान्तो प्रीतो नमस्कारो वौषट्पुष्टौ वशादिषु ॥४१
हुं मृत्यौ प्रीतिसन्नाशे विद्वेषोच्चाटने च फट् ।
वषट् सुते च दीप्त्यादौ मन्त्राणां जातयश्च षट् ॥४२
ओषधीः सम्प्रवक्ष्यामि महारक्षाविधायिनीः ।
महाकाली तथा चण्डी वाराही चेश्वरी तथा ॥४३
सुदर्शना तथेन्द्राणी गात्रस्था रक्षयन्ति तम् ।
बला चातिबला भीरुर्मुसली सहदेव्यपि ॥ ४४
जाती च मल्लिका यूथौ गारुडी भृङ्गराजकः ।
चक्ररूपा महोषध्यो धारिता विजयादिदाः ॥ ४५
ग्रहणे च महादेवि उद्धृताः शुभदायिकाः ।
मृदा तु कुञ्जरङ्कृत्वा सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ ४६
तस्य पादतले कृत्वा स्तम्भयेच्छत्रुमात्मनः ।
नगाग्रे चैकवृक्षे च वज्राहतप्रदेशके ॥४७
वल्मीकमृदामाहृत्य मातरौ योजयेत्ततः ।
ओं नमो महाभैरवाय विकृतदंष्ट्रोग्ररूपाय पिङ्गलाक्षाय त्रिशूलखड्गधराय वौषट्
पूजयेत्कर्दमं देवि स्तम्भयेच्छस्त्रजालकम् ॥४८
अग्निकार्यं प्रवक्ष्यामि रणादौ जयवर्धनम् ।
श्मशाने निशि काष्ठाग्नौ नग्नी मुक्तशिखो नरः ॥४९
दक्षिणास्यस्तु जुहुयान्नृमांसं रुन्धिरं विषं ।
तुषास्थिखण्डमिश्रन्तु शत्रुनाम्ना शताष्टकम् ॥५०
ओं नमो भगवति कौमारि लल लल लालय लालय घण्टादेवि अमुकं मारय सहसा नमोऽस्तु ते भगवति विद्ये स्वाहा
अनया विद्यया होमाद्बन्धत्वञ्जायते रिपोः ।
अष्टत्रिंशच्छतन्देवि हनुमान् सर्वकुम्भकृत् ॥५१
पटे हनूमत्सन्दर्शनाद्भङ्गमायान्ति शत्रवः ॥५२
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे नानाचक्राणि नाम पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ पचीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 125 Chapter!-In Hindi
शंकरजीने कहा -' ॐ ह्रीं कर्णमोटनि बहुरूपे बहुर्दष्टे हूं फद, ॐ हः, ॐ ग्रस ग्रस, कृन्त कृन्तच्छक च्छक हूं फट् नमः।' इस मन्त्रका नाम 'कर्णमोटी महाविद्या' है। यह सभी वर्णोंमें रक्षा करनेवाली है। इस मन्त्रको केवल पढ़नेसे ही मनुष्य क्रोधाविष्ट हो जाता है तथा उसके नेत्र लाल हो जाते हैं। यह मन्त्र मारण, पातन, मोहन एवं उच्चाटनमें उपयुक्त होता है ॥ १-२ ॥ अब स्वरोदयके साथ पाँच प्रकारके वायुका स्थान तथा उसका प्रयोजन कहता हूँ। नाभिसे लेकर हृदयतक जो वायुका संचार होता रहता है, उसको 'मारुतचक्र' कहते हैं। जप तथा होम कार्यमें लगा हुआ क्रोधी साधक उससे संग्रामादि कार्योंमें उच्चाटन कर्म करता है। कानसे लेकर नेत्रतक जो वायु है, उससे प्रभेदन-कार्य करे एवं हृदयसे गुदामार्गतक जो वायु है, उससे ज्वर-दाह तथा शत्रुओंका मारण-कार्य करना चाहिये। इसी वायुका नाम 'वायुचक्र' है। हृदयसे लेकर कण्ठतक जो वायु है, उसका नाम 'रस' है। इसे ही 'रसचक्र' कहते हैं। उससे शान्तिका प्रयोग किया जाता है तथा पौष्टिक रसके समान उसका गुण है। भौंहसे लेकर नासिकाके अग्रभागतक जो वायु है, उसका नाम 'दिव्य' है। इसे ही 'तेजश्चक्र' कहते हैं। गन्ध इसका गुण है तथा इससे स्तम्भन और आकर्षण-कार्य होता है। नासिकाग्रमें मनको स्थिर करके साधक निस्संदेह स्तम्भन तथा कीलन कर्म करता है। उपर्युक्त वायुचक्रमें चण्डघण्टा, कराली, सुमुखी, दुर्मुखी, रेवती, प्रथमा तथा घोरा - इन शक्तियोंका अर्चन करना चाहिये। उच्चाटन करनेवाली शक्तियाँ तेजश्चक्रमें रहती हैं। सौम्या, भीषणी, देवी, जया, विजया, अजिता, अपराजिता, महाकोटी, महारौद्री, शुष्ककाया, प्राणहरा- ये ग्यारह शक्तियाँ रसचक्रमें रहती हैं॥ ३-९३ ॥
विरूपाक्षी, परा, दिव्या, ११ आकाश-मातृकाएँ, संहारी, जातहारी, दंष्ट्राला, शुष्करेवती, पिपीलिका, पुष्टिहरा, महापुष्टि, प्रवर्धना, भद्रकाली, सुभद्रा, भद्रभीमा, सुभद्रिका, स्थिरा, निष्ठुरा, दिव्या, निष्कम्पा, गदिनी और रेवती- ये बत्तीस मातृकाएँ कहे हुए चारों चक्रों (मारुत, वायु, रस, दिव्य) में आठ आठके क्रमसे स्थित रहती हैं ॥ १०-१२३ ॥
सूर्य तथा चन्द्रमा एक ही हैं तथा उनकी शक्तियाँ भी भूतभेदसे एक-एक ही हैं। जैसे भूतलपर नदीके जलकी स्थानभेदसे 'तीर्थ' संज्ञा हो जाती है, शरीरके अस्थिपञ्जरमें रहनेवाला एक ही प्राण कई मण्डलों (चक्रों) से विभक्त हो जाता है। जैसे वाम तथा दक्षिण अङ्गके योगसे वही वायु दस प्रकारका हो जाता है, वैसे ही वही वायु तत्त्वरूपी वस्त्रमें छिपकर विचित्र बिन्दुरूपी मुण्डके द्वारा कपालरूपी ब्रह्माण्डके अमृतका पान करता है ॥ १३-१५॥
अब पञ्चवर्गके बलसे जिस प्रकार युद्धमें विजय होती है, उसे सुनो-'अ, आ, क, च, ट, त, प, य, श' - यह प्रथम वर्ग कहा गया है। 'इ, ई, ख, छ, ठ, थ, फ, र, ष' यह द्वितीय वर्ग है। 'उ, ऊ, ग, ज, ड, द, ब, ल, स'- यह तृतीय वर्ग है। 'ए, ऐ, घ, झ, ढ, ध, भ, व, ह'- यह चौथा वर्ग है। 'ओ, औ, अं, अः, ङ ञ, ण, न, म'- यह पश्चम वर्ग है। ये पैंतालीस अक्षर मनुष्योंके अभ्युदयके लिये हैं। इन वर्गोंके क्रमसे बाल, कुमार, युवा, वृद्ध और मृत्यु-ये पाँच नाम हैं॥ १६-१९३ ॥ (अब तिथि, वार और नक्षत्रोंके योगसे काल-ज्ञानका वर्णन करते हैं) आत्मपीड़, शोषक, उदासीन- ये तीन प्रकारके काल होते हैं। मङ्गलवारको प्रतिपदा तिथि तथा कृत्तिका नक्षत्र हों तो वे प्राणीके लिये लाभदायक होते हैं। मङ्गलवारको षष्ठी तिथि तथा मघा नक्षत्र हों तो पीड़ाकारक होते हैं। मङ्गलवारको एकादशी तिथि और आर्द्रा नक्षत्र हों तो वे मृत्युदायक होते हैं। बुधवार, द्वितीया तिथि तथा मघा नक्षत्रका योग एवं बुधवार, सप्तमी तिथि और आर्द्रा नक्षत्रका योग लाभदायक होते हैं। बुधवार और भरणी नक्षत्रका योग हानिकारक होता है। इसी प्रकार बुधवार तथा श्रवण नक्षत्रके योगमें 'कालयोग' होता है। बृहस्पतिवार, तृतीया तिथि और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रका योग लाभकारक होता है। बृहस्पतिवार, अष्टमी तिथि, धनिष्ठा तथा आर्द्रा नक्षत्र एवं गुरुवार, त्रयोदशी तिथि, आश्लेषा नक्षत्र - ये योग मृत्युकारक होते हैं। शुक्रवार, चतुर्थी तिथि और पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रका योग श्रीवृद्धि करता है। शुक्रवार, नवमी तिथि और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र - यह योग दुःखप्रद होता है। शुक्रवार, द्वितीया तिथि और भरणी नक्षत्रका योग यमदण्डके समान हानिकर होता है। शनिवार, पञ्चमी तिथि और कृत्तिका नक्षत्रका योग लाभके लिये कहा गया है। शनिवार, दशमी तिथि और आश्लेषा नक्षत्रका योग पीड़ाकारक होता है। शनिवार, पूर्णिमा तिथि और मघा नक्षत्रका योग मृत्युकारक कहा गया है ॥ २०-२६ ॥
( अब दिशा-तिथि-दिनके योगसे हानि-लाभ कहते हैं) पूर्व, उत्तर, अग्नि, नैऋत्य, दक्षिण, वायव्य, पश्चिम, ऐशान्य - ये इनमेंसे एक-दूसरेको देखते हैं। प्रतिपदा तथा नवमी आदि तिथियोंमें मेषादि राशियोंके साथ ही रवि आदि वारको भी मिलाये। यह योग कार्यसिद्धिके लिये होता है। जैसे पूर्व दिशा, प्रतिपदा तिथि, मेष लग्न, रविवार - यह योग पूर्व दिशाके लिये युद्ध आदि कार्योंमें सिद्धिदायक होता है। ऐसे और भी समझने चाहिये। मेषसे चार राशियाँ अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क एवं कुम्भ- ये लग्न पूर्ण विजयके लिये होते हैं। शेष राशियाँ मृत्युके लिये होती हैं। सूर्यादि ग्रह तथा रिक्ता, पूर्णा आदि तिथियोंका इसी तरह क्रमशः न्यास करना चाहिये, जैसा कि पहले दिशाओंके साथ कहा गया है। सूर्यके सम्बन्धसे युद्धमें कोई उत्तम फल नहीं होता। सोमका सम्बन्ध संधिके लिये होता है। मङ्गलके सम्बन्धसे कलह होता है। बुधके सम्बन्धसे संग्राम करनेसे अभीष्टसाधनकी प्राप्ति होती है। गुरुके सम्बन्धसे विजयलाभ होता है। शुक्रके सम्बन्धसे अभीष्ट सिद्ध होता है एवं शनिके सम्बन्धसे युद्धमें पराजय होती है ॥ २७ - ३० ॥
(पिङ्गला (पक्षि)-चक्रसे शुभाशुभ कहते हैं-) एक पक्षीका आकार लिखकर उसके मुख, नेत्र, ललाट, सिर, हस्त, कुक्षि, चरण तथा पंखमें सूर्यके नक्षत्रसे तीन-तीन नक्षत्र लिखे। पैरवाले तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे मृत्यु होती है तथा पंखवाले तीन नक्षत्रोंमें धनका नाश होता है। मुखवाले तीन नक्षत्रोंमें पीड़ा होती है और सिरवाले तीन नक्षत्रोंमें कार्यका नाश होता है। कुक्षिवाले तीन नक्षत्रोंमें रण करनेसे उत्तम फल होता है ॥ ३१-३२ ॥
(अब राहुचक्र कहते हैं) पूर्वसे नैऋत्यकोणतक, नैऋत्यकोणसे उत्तर दिशातक, उत्तर दिशासे अग्निकोणतक, अग्निकोणसे पश्चिमतक पश्चिमसे ईशानतक, ईशानसे दक्षिणतक, दक्षिणसे वायव्यकोणतक, वायव्यकोणसे उत्तरतक चार- चार दण्डतक राहुका भ्रमण होता है। राहुको पृष्ठकी ओर रखकर रण करना विजयप्रद होता है तथा राहुके सम्मुख रहनेसे मृत्यु हो जाती है।॥ ३३-३४ ॥
प्रिये! मैं तुमसे अब तिथि-राहुका वर्णन करता हूँ। पूर्णिमाके बाद कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे अग्निकोणसे लेकर ईशानकोणतक अर्थात् कृष्णपक्षको अष्टमी तिथितक राहु पूर्व दिशामें रहता है। उसमें युद्ध करनेसे जय होती है। इसी तरह ईशानसे अग्निकोणतक और नैऋत्यकोणसे वायव्यकोणतक राहुका भ्रमण होता रहता है। मेषादि राशियोंको पूर्वादि दिशामें रखना चाहिये। इस तरह रखनेपर मेष, सिंह, धनु राशियाँ पूर्वमें; वृष, कन्या, मकर- ये दक्षिणमें; मिथुन, तुला, कुम्भ- ये पश्चिममें; कर्क, वृश्चिक, मीन-ये उत्तरमें हो जाती हैं। सूर्यकी राशिसे सूर्यकी दिशा जानकर सम्मुख सूर्यमें रण करना मृत्युकारक होता है ॥ ३५-३७ ॥
(भद्राकी तिथिका निर्णय बताते हैं-) कृष्णपक्षमें तृतीया, सप्तमी, दशमी तथा चतुर्दशीको 'भद्रा' होती है। शुक्लपक्षमें चतुर्थी, एकादशी, अष्टमी और पूर्णिमाको 'भद्रा' होती है। भद्राका निवास अग्निकोणसे वायव्यकोणतक रहता है। अ, क, च, ट, त, प, य, श-ये आठ वर्ग होते हैं, जिनके स्वामी क्रमसे सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु ग्रह होते हैं। इन ग्रहोंके वाहन क्रमसे गृध्र, उलूक, बाज, पिङ्गल, कौशिक (उलूक), सारस, मयूर, गोरङ्क नामके पक्षी हैं। पहले हवन करके मन्त्रोंको सिद्ध कर लेना चाहिये। उच्चाटनमें मन्त्रोंका प्रयोग पल्लवरूपसे करना चाहिये ॥ ३८-४०॥ वश्य, ज्वर एवं आकर्षणमें पल्लवका प्रयोग सिद्धिकारक होता है। शान्ति तथा मोहन-प्रयोगोंमें | 'नमः' कहना ठीक होता है। पुष्टिमें तथा वशीकरणमें 'वौषट्' एवं मारण तथा प्रीतिविनाशके प्रयोगमें 'हुम्' कहना ठीक होता है। विद्वेषण तथा उच्चाटनमें 'फट्' कहना चाहिये। पुत्रादि प्राप्तिके प्रयोगमें तथा दीसि आदिमें 'वषट्' कहना चाहिये। इस तरह मन्त्रोंकी छः जातियाँ होती है ॥ ४१-४२ ॥
अब हर तरहसे रक्षा करनेवाली ओषधियोंका वर्णन करूँगा - महाकाली, चण्डी, वाराही (वाराहीकंद), ईश्वरी, सुदर्शना, इन्द्राणी (सिंधुवार) - इनको शरीरमें धारण करनेसे ये धारककी रक्षा करती हैं। बला (कुट), अतिबला (कंघी), भीरु (शतावरी अथवा कंटकारी), मुसली (तालमूली), सहदेवी, जाती (चमेली), मल्लिका (मोतिया), यूथी (जूही), गारुड़ी, भृङ्गराज (भटकटैया), चक्ररूपा - ये महौषधियाँ धारण करनेसे युद्धमें विजयदायिनी होती हैं। महादेवि ! ग्रहण लगनेपर पूर्वोक्त ओषधियोंका उखाड़ना शुभदायक होता है ॥ ४३-४६ ॥ ॥ ला
हाथीकी सर्वाङ्गसम्पन्न मिट्टीकी मूर्ति बनाकर, उसके पैरके नीचे शत्रुके स्वरूपको रखकर, स्तम्भन-प्रयोग करना चाहिये। अथवा किसी पर्वतके ऊपर, जहाँपर एक ही वृक्ष हो, उसके नीचे, अथवा जहाँपर बिजली गिरी हो, उस प्रदेशमें, वल्मीककी मिट्टीसे एक स्त्रीकी प्रतिकृति बनाये। फिर ' 'ॐ नमो महाभैरवाय विकृतदंष्टोग्ररूपाय पिंगलाक्षाय त्रिशूलखङ्गधराय वौषट्।' हे देवि ! इस मन्त्रसे उस मृत्तिकामयी देवीकी पूजा करके (शत्रुके) शस्त्रसमूहका स्तम्भन करना चाहिये ॥ ४७-४९ ॥ अब संग्राममें विजय की दिलानेवाले अग्निकार्यका वर्णन करूँगा - रातमें श्मशानमें जाकर नंग-धड़ंग, शिखा खोलकर, दक्षिणमुख बैठकर जलती हुई चितामें मनुष्यका मांस, रुधिर, विष, भूसी और हड्डीके टुकड़े मिलाकर नीचे लिखे मन्त्रसे आठ सौ बार शत्रुका नाम लेकर हवन करे -'ॐ नमो भगवति कौमारि लल लल लालय लालय घण्टादेवि! अमुकं मारय मारय सहसा नमोऽस्तु ते भगवति विद्ये स्वाहा।'- इस विद्यासे हवन करनेपर शत्रु अंधा हो जाता है ॥ ५०-५३ ॥ (सब प्रकारकी सफलताके लिये हनुमान्जीका मन्त्र कहते हैं-) 'ॐ वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिलपिङ्गल करालवदनोर्ध्वकेश महाबल रक्तमुख तडिज्जिह्न महारौद्र दंष्ट्रोत्कट कटकरालिन् महादृढप्रहार लङ्केश्वरसेतुबन्ध शैलप्रवाह गगनचर, एह्येहि भगवन्महाबलपराक्रम भैरवो ज्ञापयति, एोहि महारौद्र दीर्घलाडूलेन अमुकं वेष्टय वेष्टय जम्भय जम्भय खन खन वैते हूं फट्।' देवि! इस मन्त्रको ३८०० बार जप कर लेनेपर श्रीहनुमान्जी सब प्रकारके कार्योंको सिद्ध कर देते हैं। कपडेपर हनुमान्जीकी मूर्ति लिखकर दिखानेसे शत्रुओंका विनाश होता है ॥ ५४-५५ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'युद्धजयार्णव-सम्बन्धी विविध चक्रोंका वर्णन' नामक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२५ ॥
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