अग्नि पुराण - एक सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 123 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 123 Chapter !

एक सौ तेईसवाँ अध्यायानमार्ग कल युद्धजयार्णव-सम्बन्धी विविध योगोंका वर्णन ! युद्धजयार्णवीयनानायोगाः !

अग्नि पुराण - एक सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 123 Chapter ! 

अग्नि पुराण - एक सौ तेईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 123 Chapter ! 

वक्ष्ये जयशुभाद्यर्थं सारं युद्धजयार्णवे ।१२३.००१
अ+इ+उ+ए+ओ स्वराः स्युः क्रमान्नन्दादिका तिथिः ॥१२३.००१

कादिहान्ता भौमरवी ज्ञसोमौ गुरुभार्गवौ ।१२३.००२
स्वराः
तिथयः नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा
१।६।११ २।७।१२ ३।८.१३ ४।९।१४ ५।१०।१५
वर्णाः
स्वामिनः सूर्य बुध बृह० शनि सूर्य
मंगल चन्द्र शुक्र मं० श०
संज्ञा बाल कुमार युवा वृद्ध मृत्यु
शनिर्दक्षिणनाड्यान्तु भौमार्कशनयः परे ॥१२३.००२

खार्णवः खससैर्गुण्यो रुद्रैर्भागं समाहरेत् ।१२३.००३
रसाहतन्तु तत्कृत्वा पूर्वभागेन भाजयेत् ॥१२३.००३

वह्निभिश्चाहतं कृत्वा रूपन्तत्रैव निक्षिपेत् ।१२३.००४
स्पन्दनं नाड्याः फलानि सप्राणस्पन्दनं पुनः ॥१२३.००४

अनेनैव तु मानेन उदयन्ति दिने दिने ।१२३.००५
स्फुरणैस्त्रिभिरुच्छ्वास उच्छ्वासैस्तु पलं स्मृतम् ॥१२३.००५

षष्टिभिश्च पलैर्लिप्ता लिप्ताषष्टिस्त्वहर्निशं ।१२३.००६
पञ्चमार्धोदये बालकुमारयुववृद्धकाः ॥१२३.००६

मृत्युर्येनोदयस्तेन चास्तमेकादशांशकैः ।१२३.००७
कुलागमे भवेद्भङ्गः समृत्युः पञ्चमोऽपिवा ॥१२३.००७

स्वरोदयञ्चक्रं
शनिचक्रे चार्धमासङ्ग्रहाणामुदयः क्रमात् ।१२३.००८
विभागैः पञ्चदशभिः शनिभागस्तु मृत्युदः ॥१२३.००८

शनिचक्रं
दशकोटिसहस्राणि अर्बुदान्यर्बुदं हरेत् ।१२३.००९
त्रयोदशे च लक्षाणि प्रमाणं कूर्मरूपिणः ॥१२३.००९

मघादौ कृत्तिकाद्यन्तस्तद्देशान्तः शनिस्थितौ ।१२३.०१०
इति कूर्मचक्रं राहुचक्रम्।.
राहुचक्रे च सप्तोर्ध्वमधः सप्त च संलिखेत् ॥१२३.०१०

वाय्वग्न्योश्चैव नैर्ऋत्ये पूर्णिमाग्नेयभागतः ।१२३.०११
अमावास्यां वायवे च राहुर्वै तिथिरूपकः ॥१२३.०११

रकारं दक्षभागे तु हकारं वायवे लिखेत् ।१२३.०१२
प्रतिपदादौ ककारादीन् सकारं नैर्ऋते पुनः ॥१२३.०१२

राहोमुखे तु भङ्गः स्यादिति राहुरुदाहृतः ।१२३.०१३
विष्टिरग्नौ पौर्णमास्यां करालीन्द्रे तृतीयकं ॥१२३.०१३

घोरा याम्यान्तु सप्तम्यां दशम्यां रौद्रसौम्यगा ।१२३.०१४
चतुर्दश्यान्तु वायव्ये चतुर्थ्यां वरुणाश्रये ॥१२३.०१४

शुक्लाष्टम्यां दक्षिणे च एकादश्यां भृशन्त्यजेत् ।१२३.०१५
रौद्रश्चैव तथा श्वेतो मैत्रः सारभटस्तथा ॥१२३.०१५

सावित्रो विरोचनश्च जयदेवोऽभिजित्तथा।१२३.०१६
रावणो विजयश्चैव नन्दी वरुण एव च ॥१२३.०१६

यमसौम्यौ भवश्चान्ते दशपञ्चमुहूर्तकाः ।१२३.०१७
रौद्रे रौद्राणि कुर्वीत श्वेते स्नानादिकं चरेत् ॥१२३.०१७

मैत्रे कन्याविवाहादि शुभं सारभटे चरेत् ।१२३.०१८
सावित्रे स्थापनाद्यं वा विरोचने नृपक्रिया ॥१२३.०१८

जयदेवे जयं कुर्याद्रावणे रणकर्म च ।१२३.०१९
विजये कृषिवाणिज्यं पटबन्धं च नन्दिनि ॥१२३.०१९

वरुणे च तडागादि नाशकर्म यमे चरेत् ।१२३.०२०
सौम्ये सौम्यादि कुर्वीत भवेल्लग्नमहर्दिवा ॥१२३.०२०

योगा नाम्ना विरुद्धाः स्युर्योगा नाम्नैव शोभनाः ।१२३.०२१
राहुरिन्द्रात्समीरञ्च वायोर्दक्षं यमाच्छिवम् ॥१२३.०२१

शिवादाप्यञ्जलादग्निरग्नेः सौम्यन्ततस्त्रयम् ।१२३.०२२
ततश्च सङ्क्रमं हन्ति चतस्रो घटिकाभ्रमन् ॥१२३.०२२

राहुचक्रं
चण्डीन्द्राणी वाराही च मुशली गिरिकर्णिका ।१२३.०२३
बला चातिबला क्षीरी मल्लिकाजातियूथिकाः ॥१२३.०२३

यथालाभं धारयेत्ताः श्वेतार्कश्च शतावरी ।१२३.०२४
गुडूची वागुरी दिव्या ओषध्यो धारिता जये ॥१२३.०२४

ओं नमो भैरवाय खड्गपरशुहस्ताय ओं ह्रूं विघ्नविनाशाय ओं ह्रूं फट्
अनेनैव तु मन्त्रेण शिखाबन्धादिकृज्जये ।१२३.०२५
तिलकञ्चाञ्जनञ्चैव धूपलेपनमेव च ॥१२३.०२५

स्नानपानानि तैलानि योगधूलिमतः शृणु ।१२३.०२६
शुभगा मनःशिला तालं लाक्षारससमन्वितं ॥१२३.०२६

तरुणीक्षीरसंयुक्तो ललाटे तिलको वशे ।१२३.०२७
विष्णुक्रान्ता च सर्पाक्षी सहदेवञ्च रोचना ॥१२३.०२७

अजादुग्धेन संपिष्टं तिलकोवश्यकारकः ।१२३.०२८
प्रियङ्गुकुङ्कुमं कुष्ठं मोहनी तगरं घृतं ॥१२३.०२८

तिलको वश्यकृत्तच्च रोचना रक्तचन्दनं ।१२३.०२९
निशा मनःशिला तालं प्रियङ्गुसर्षपास्तथा ॥१२३.०२९

मोहनी हरिता क्रान्ता सहदेवी शिखा तथा ।१२३.०३०
मातुलङ्गरसैः पिष्टं ललाटे तिलको वशे ॥१२३.०३०

सेन्द्राः सुरा वशं यान्ति किं पुनः क्षुद्रमानुषाः ।१२३.०३१
मञ्जिष्ठा चन्दनं रक्तं कट्कन्दा विलासिनी ॥१२३.०३१

पुनर्नवासमायुक्तो लेपोऽयं भास्करो वशे ।१२३.०३२
चन्दनं नागपुष्पञ्च मञ्जिष्ठा तगरं वचा ॥१२३.०३२

लोध्नप्रियङ्गुरजनीमांसीतैलं वशङ्करं ।१२३.०३३

इत्याग्नेये महापुराणे नानायोगा नाम त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ तेईसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 123 Chapter!-In Hindi

अग्निदेव कहते हैं- (अब स्वरके द्वारा  विजय-साधन कह रहे हैं) मैं इस पुराणके  युद्धजयार्णव-प्रकरणमें विजय आदि शुभ कार्योंकी सिद्धिके लिये सार वस्तुओंको कहूँगा। जैसे अ,इ, उ, ए, ओ ये पाँच स्वर होते हैं। इन्हींके क्रमसे नन्दा (भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा) आदि  तिथियाँ होती हैं। 'क'से लेकर 'ह' तक वर्ण होते हैं और पूर्वोक्त स्वरोंके क्रमसे सूर्य-
मङ्गल, बुध-चन्द्रमा, बृहस्पति शुक्र, शनि-मङ्गल तथा सूर्य-शनि-ये ग्रह-स्वामी होते हैं ॥ १-२ ॥
चालीसको साठसे गुणा करे। उसमें ग्यारहसे भाग दे। लब्धिको छःसे गुणा करके गुणनफलमें फिर ग्यारहसे ही भाग दें। लब्धिको तीनसे गुणा करके गुणनफलमें एक मिला दे तो उतनी ही बार नाडीके स्फुरणके आधारपर पल होता है। इसके बाद भी अहर्निश नाडीका स्फुरण होता ही रहता है। ११ उदाहरण - जैसे ४००६०-२४००।०००- २१९ लब्धि स्वल्पान्तरसे हुई। इसे छःसे गुणा किया तो २१९४६-१३१४ गुणनफल हुआ। इसमें फिर ११ से भाग दिया तो १२१४-११९ लब्धि, शेष०५, शेष छोड़ दिया। लब्धि ११९ को ३ से गुणा किया तो गुणनफल ३५७ हुआ। इसमें १ मिलाया तो ३५८ हुआ। इसको स्वल्पान्तरसे ३६० मान लिया। अर्थात् करमूलगत नाडीका ३६० बार स्फुरण होनेके आधारपर ही पल होते हैं, जिनका ज्ञानप्रकार आगे कहेंगे। इसी तरह नाड़ीका स्फुरण अहर्निश होता रहता है और इसी मानसे अकारादि स्वरोंका उदय भी होता रहता है ॥ ३-४ ई ॥ 
(अब व्यावहारिक काल-ज्ञान कहते हैं-) तीन बार स्फुरण होनेपर १ 'उच्छास' होता है अर्थात् १ 'अणुर होता है, ६ 'उच्छास'का १ 'पल' होता है, ६० पलका एक 'लिप्सा' अर्थात् १ 'दण्ड' होता है, (यद्यपि 'लिप्ता' शब्द कला- वाचक है, जो कि ग्रहोंके राश्यादि विभागमें लिया जाता है, फिर भी यहाँ काल-मानके प्रकरणमें 'लिप्ता' शब्दसे 'दण्ड' ही लिया जायगा; क्योंकि 'कला' तथा 'दण्ड' - ये दोनों भचक्रके षष्ट्यंश-विभागमें ही लिये गये हैं।) ६० दण्डका १ अहोरात्र होता है। उपर्युक्त अ, इ, उ, ए, ओ-स्वरोंकी क्रमसे बाल, कुमार, युवा, वृद्ध, मृत्यु- ये पाँच संज्ञाएँ होती हैं। इनमें किसी एक स्वरके उदयके बाद पुनः उसका उदय पाँचवें खण्डपर होता है। जितने समयसे उदय होता है, उतने ही समयसे अस्त भी होता है। इनके उदयकाल एवं अस्तकालका मान अहोरात्रके अर्थात् ६० दण्डके एकादशांशके समान होता है-जैसे ६० में ११ से भाग देनेपर ५ दण्ड २७ पल लब्धि होगी तो ५ दण्ड २७ पल उक्त स्वरोंका उदयास्तमान होता है। किसी स्वरके उदयके बाद दूसरा स्वर ५ दण्ड २७ पलपर उदय होगा। इसी तरह पाँचोंका उदय तथा अस्तमान जानना चाहिये। इनमेंसे जब मृत्युस्वरका उदय हो, तब युद्ध करनेपर पराजयके साथ ही मृत्यु हो जाती है ॥५-७॥
(अब शनिचक्रका वर्णन करते हैं) शनिचक्रमें १५ दिनोंपर क्रमशः ग्रहोंका उदय हुआ करता है। इस पञ्चदश विभागके अनुसार शनिका भाग युद्धमें मृत्युदायक होता है। (विशेष- जब कि शनि एक राशिमें ढाई साल अर्थात् ३० मास रहता है, उसमें दिन-संख्या ९०० हुई। ९०० में १५ का भाग देनेसे लब्धि ६० होगी। ६० दिनका १ पञ्चदश विभाग हुआ। शनिके राशिमें प्रवेश करनेके बाद शनि आदि ग्रहोंका उदय ६० दिनका होगा; जिसमें उदयसंख्या ४ बार होगी। इस तरह जब शनिका भाग आये, उस समय युद्ध करना निषिद्ध है) ॥८॥
(अब कूर्मपृष्ठाकार शनि-बिम्बके पृष्ठका क्षेत्रफल कहते हैं) दस कोटि सहस्र तथा तेरह लाखमें इसीका दशांश मिला दे तो उतने ही योजनके प्रमाणवाले कूर्मरूप शनि-बिम्बके पृष्ठका क्षेत्रफल होता है। अर्थात् ११००, १४३०००० ग्यारह अरब चौदह लाख तीस हजार योजन शनि-बिम्ब पृष्ठका क्षेत्रफल है। (विशेष - ग्रन्थान्तरोंमें ग्रहोंके बिम्ब-प्रमाण तथा कर्मप्रमाण योजनमें ही कहे गये हैं। जैसे 'गणिताध्याय' में भास्कराचार्य - सूर्य तथा चन्द्रका बिम्बपरिमाण-कथनके अवसरपर- 'बिम्बं रवेर्द्विद्विशरर्तुसंख्यानीन्दोः खनागा- म्बुधियोजनानि।' आदि। यहाँ भी संख्या योजनके प्रमाणवाली ही लेनी चाहिये।) मघाके प्रथम चरणसे लेकर कृत्तिकाके आदिसे अन्ततक शनिका निवास अपने स्थानपर रहता है, उस समय युद्ध करना ठीक नहीं होता ॥ ९॥
(अब राहु-चक्रका वर्णन करते हैं) राहु- चक्रके लिये सात खड़ी रेखा एवं सात पड़ी रेखा बनानी चाहिये। उसमें वायुकोणसे नैऋत्यकोणको लिये हुए अग्निकोणतक शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे लेकर पूर्णिमातककी तिथियोंको लिखना चाहिये एवं अग्निकोणसे ईशानकोणको लिये हुए वायुकोणतक कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे लेकर अमावास्यातककी तिथियोंको लिखना चाहिये। इस तरह तिथिरूप राहुका न्यास होता है। 'र' कारको दक्षिण दिशामें लिखे और 'ह' कारको वायुकोणमें लिखे। प्रतिपदादि तिथियोंके सहारे 'क'कारादि अक्षरोंको भी लिखे। नैर्ऋत्यकोणमें 'सकार' लिखे। इस तरह राहुचक्र तैयार हो जाता है। राहु-मुखमें यात्रा करनेसे यात्रा-भङ्ग होता है ॥ १०-१२ ॥ 
(अब तिथिके अनुसार भद्रा-निवासकी दिशाका | वर्णन करते हैं-) पौर्णमासी तिथिको भद्राका नाम 'विष्टि' होता है और वह अग्निकोणमें रहती है। तृतीया तिथिको भद्राका नाम 'कराली' होता है और वह पूर्व दिशामें वास करती है। सप्तमी तिथिको भद्राका नाम 'घोरा' होता है और वह दक्षिण दिशामें निवास करती है। सप्तमी तथा दशमी तिथियोंको भद्रा क्रमसे ईशानकोण तथा उत्तर दिशामें, चतुर्दशी तिथिको वायव्य कोणमें, चतुर्थी तिथिको पश्चिम दिशामें, शुक्लपक्षकी अष्टमी तथा एकादशीको दक्षिण दिशामें रहती है। इसका प्रत्येक शुभ कार्योंमें सर्वथा त्याग करना चाहिये ॥ १३-१४॥ 
(अब पंद्रह मुहूर्तीका नाम एवं नामानुकूल कार्योंका वर्णन कर रहे हैं) रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र, विरोचन, जयदेव, अभिजित्रा वण, विजय, नन्दी, वरुण, यम, सौम्य, भव - ये पंद्रह मुहूर्त हैं। 'रौद्र' मुहूर्तमें भयानक कार्य करना चाहिये। 'श्वेत' मुहूर्तमें स्नानादिक कार्य करना चाहिये। 'मैत्र' मुहूर्तमें कन्याका विवाह शुभ होता है। 'सारभट' मुहूर्तमें शुभ कार्य करना चाहिये। 'सावित्र' मुहूर्तमें देवोंका स्थापन, 'विरोचन' मुहूर्तमें राजकीय कार्य, 'जयदेव' मुहूर्तमें विजय- सम्बन्धी कार्य तथा 'रावण' मुहूर्तमें संग्रामका कार्य करना चाहिये। 'विजय' मुहूर्तमें कृषि तथा व्यापार, 'नन्दी' मुहूर्तमें षट्कर्म, 'वरुण' मुहूर्तमें तडागादि और 'यम' मुहूर्तमें विनाशवाला कार्य करना चाहिये। 'सौम्य' मुहूर्तमें सौम्य कार्य करना चाहिये। 'भव' मुहूर्तमें दिन-रात शुभ लग्न ही रहता है, अतः उसमें सभी शुभ कार्य किये जा सकते हैं। इस प्रकार ये पंद्रह योग अपने नामानुसार ही शुभ तथा अशुभ होते हैं ॥ १५-२० ॥
(अब राहुके दिशा-संचारका वर्णन कर रहे हैं-) (दैनिक राहु) राहु पूर्वदिशासे वायुकोणतक, वायुकोणसे दक्षिण दिशातक, दक्षिण दिशासे ईशानकोणतक, ईशानकोणसे पश्चिमतक, पश्चिमसे अग्निकोणतक एवं अग्निकोणसे उत्तरतक तीन तीन दिशा करके चार घटियोंमें भ्रमण करता है॥ २१-२२ ॥ (अब ओषधियोंके लेपादिद्वारा विजयका वर्णन कर रहे हैं -) चण्डी, इन्द्राणी (सिंधुवार), वाराही (वाराहीकंद), मुशली (तालमूली), गिरिकर्णिका (अपराजिता), बला (कुट), अतिबला (कंघी), क्षीरी (सिरखोला), मल्लिका (मोतिया), जाती (चमेली), यूथिका (जूही), श्वेतार्क (सफेद मदार), शतावरी, गुरुच, वागुरी - इन यथाप्राप्त दिव्य ओषधियोंको धारण करना चाहिये। धारण करनेपर ये युद्धमें विजय-दायिनी होती हैं ॥ २३-२४ ॥
'ॐ नमो भैरवाय खङ्गपरशुहस्ताय ॐ हूं विघ्नविनाशाय ॐ हूं फट्।' - इस मन्त्र शिखा बाँधकर यदि संग्राम करे तो विजय अवश्य होती है। (अब संग्राममें विजयप्रद) तिलक, अञ्जन, धूप, उपलेप, स्नान, पान, तैल, योगचूर्ण इन पदार्थोंका वर्णन करता हूँ, सुनो - सुभगा (नीलदूर्वा), मनःशिला (मैनसिल), ताल (हरताल)- इनको लाक्षारसमें मिलाकर, स्त्रीके दूधमें घोंटकर ललाटमें तिलक करनेसे शत्रु वशमें हो जाता है। विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), सर्पाक्षी (महिषकंद), सहदेवी (सहदेइया), रोचना (गोरोचन)- इनको बकरीके दूधमें पीसकर लगाया हुआ तिलक शत्रुओंको वशमें करनेवाला होता है। प्रियंगु (नागकेसर), कुङ्कुम, कुष्ठ, मोहिनी (चमेली), तगर, घृत - इनको मिलाकर लगाया हुआ तिलक वश्यकारक होता है। रोचना (गोरोचन), रक्तचन्दन, निशा (हल्दी), मनःशिला (मैनसिल), ताल (हरताल), प्रियंगु (नागकेसर), सर्षप (सरसों), मोहिनी (चमेली), हरिता (दूर्वा), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), सहदेवी, शिखा (जटामांसी)- इनको मातुलुङ्ग (बिजौरा नीबू) के रसमें पीसकर ललाटमें किया हुआ तिलक वशमें करनेवाला होता है। इन तिलकोंसे इन्द्रसहित समस्त देवता वशमें हो जाते हैं, फिर क्षुद्र मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। मञ्जिष्ठ, रक्तचन्दन, कटुकन्दा (सहिजन), विलासिनी, पुनर्नवा (गदहपूर्णा)- इनको मिलाकर लेप करनेसे सूर्य भी वशमें हो जाते हैं। मलयचन्दन, नागपुष्प (चम्पा), मञ्जिष्ठ, तगर, वच, लोध्र, प्रियंगु (नागकेसर), रजनी (हल्दी), जटामाँसी - इनके सम्मिश्रणसे बना हुआ तैल वशमें करनेवाला होता है॥ २५-३३॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'युद्धजयार्णवसम्बन्धी विविध योगोंका वर्णन' नामक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२३

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