अग्नि पुराण - एक सौ बाईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 122 Chapter !
एक सौ बाईसवाँ अध्याय कालगणना - पञ्चाङ्गमान-साधन ! कालगणनं !अग्नि पुराण - एक सौ बाईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 122 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ बाईसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 122 Chapter !
अग्निरुवाच
कालः समागणो वक्ष्ये गणितं कालबुद्धये ।१२२.००१
कालः समागणोऽर्कघ्नो मासैश्चैत्रादिभिर्युतः ॥१२२.००१
द्विघ्नो द्विस्ट्ःः सवेदः स्यात्पञ्चाङ्गष्टयुतो गुणः ।१२२.००२
त्रिष्ठो मध्यो वसुगुणः पुनर्वेदगुणश्च सः ॥१२२.००२
अष्टरन्ध्राग्निहीनः स्यादधः सैकरसाष्टकैः ।१२२.००३
मध्यो हीनः षष्टिहतो लब्धयुक्तस्तथोपरि ॥१२२.००३
न्यूनः सप्तकृतो वारस्तदधस्तिथिनाडयः ।१२२.००४
सगुणो द्विगुणश्चोरोद्ध्वं त्रिभिरूनो गुणः पुनः ॥१२२.००४
अधः स्वरामसंयुक्तो रसार्काष्टफलैर्युतः ।१२२.००५
अष्टाविंशच्छेषपिण्डस्तिथिनाड्या अधः स्थितः ॥१२२.००५
गुणस्तिसृभिरूनोर्धं द्वाभ्यां च गुणयेत्पुनः ।१२२.००६
मध्ये रुद्रगुणः कार्यो ह्यधः सैको नवाग्निभिः ॥१२२.००६
लब्धहीनो भवेन्मध्यो द्वाविंशतिविवर्जितः ।१२२.००७
षष्टिशेषे ऋणं ज्ञेयं लब्धमूर्ध्वं विनिक्षिपेत् ॥१२२.००७
सप्तविंशतिशेषस्तु ध्रुवो नक्षत्रयोगयोः ।१२२.००८
मासि मासि क्षिपेद्वारन्द्वात्रिंशद्घटिकास्तिथौ ॥१२२.००८
द्वे पिण्डे द्वे च नक्षत्रे नाड्य एकादश ह्यृणे ।१२२.००९
वारस्थाने तिथिन्दद्यात्सप्तभिर्भार्गवमाहरेत् ॥१२२.००९
शेषवाराश्च सूर्याद्या घटिकासु च पातयेत् ।१२२.०१०
पिण्डिकेषु तिथिन्दद्याद्धरेच्चैव चतुर्दश ॥१२२.०१०
ऋणं धनं धनमृणं क्रमाज्ज्ञेयं चतुर्दशे ।१२२.०११
प्रथमे त्रयोदशे पञ्च द्वितीयद्वादशे दश ॥१२२.०११
पञ्चदशस्तृतीये च तथाचैकादशे स्मृतां ।१२२.०१२
चतुर्थे दशमे चैव भवेदेकोनविंशतिः ॥१२२.०१२
पञ्चमे नवमे चैव द्वाविंशतिरुदाहृताः ।१२२.०१३
षष्ठाष्टमे त्वखण्डाः स्युश्चतुर्विंशतिरेव च ॥१२२.०१३
सप्तमे पञ्चविंशः स्यात्खण्डशः पिण्डिकाद्भवेत् ।१२२.०१४
कर्कटादौ हरेद्राशिमृतुवेदत्रयैः क्रमात् ॥१२२.०१४
तुलादौ प्रातिलोम्येन त्रयो वेदरसाः क्रमात् ।१२२.०१५
मकरादौ दीयते च रसवेदत्रयः क्रमात् ।१२२.०१५
मेषादौ प्रातिलोम्येन त्रयो वेदरसाः क्रमात् ।१२२.०१६
खेषवः खयुगा मैत्रं मेषादौ विकला धनम् ॥१२२.०१६
कर्कटे प्रातिलोम्यं स्यादृणमेतत्तुलादिके ।१२२.०१७
चतुर्गुणा तिथिर्ज्ञेया विकलाश्चेह सर्वदा ॥१२२.०१७
हन्याल्लिप्तागतागामिपिण्डसङ्ख्याफलन्तरैः ।१२२.०१८
षष्ट्याप्तं प्रथमोच्चार्ये हानौ देयन्धने धनम् ॥१२२.०१८
द्वितीयोच्चरिते वर्गे वैपरीत्यमिति स्थितिः ।१२२.०१९
तिथिर्द्विगुणिता कार्या षड्भागपरिवर्जिता ॥१२२.०१९
रविकर्मविपरीता तिथिनाडीसमायुता ।१२२.०२०
ऋणे शुद्धे तु नाड्यः स्युर्ऋणं शुध्येत नो यदा ॥१२२.०२०
सषष्टिकं प्रदेयन्तत्षष्ट्याधिक्ये च तत्त्यजेत्।१२२.०२१
नक्षत्रं तिथिमिश्रं स्याच्चतुर्भिर्गुणिता तिथिः ॥१२२.०२१
तिथिस्त्रिभागसंयुक्ता ऋणेन च तथान्विता ।१२२.०२२
तिथिरत्र चिता कार्या तद्वेदाद्योगशोधनं ॥१२२.०२२
रविचन्द्रौ समौ कृत्वा योगो भवति निश्चलः ।१२२.०२३
एकोना तिथिर्द्विगुणा सप्तभिन्ना कृतिर्द्विधा ॥१२२.०२३
तिथिश्च द्विगुणैकोना कृताङ्गैः करणन्निशि ।१२२.०२४
कृष्णचतुर्दश्यन्ते शकुनिः पर्वणीह चतुष्पदं ॥१२२.०२४
प्रथमे तिथ्यर्धतो हि किन्तुघ्नं प्रतिपन्मुखे ॥२५॥१२२.०२५
इत्याग्नेये महापुराणे कालगणनं नाम द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ बाईसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 122 Chapter!-In Hindi
अग्निदेव कहते हैं - मुने ! (अब मैं) वर्षोंके समुदायस्वरूप 'काल' का वर्णन कर रहा हूँ और उस कालको समझनेके लिये मैं गणित बतला रहा हूँ। (ब्रह्म-दिनादिकालसे अथवा सृष्ट्यारम्भकालसे अथवा व्यवस्थित शकारम्भसे) वर्षसमुदाय-संख्याको १२ से गुणा करे। उसमें चैत्रादि गत मास-संख्या मिला दे। उसे दोसे गुणा करके दो स्थानोंमें रखे। प्रथम स्थानमें चार मिलाये, दूसरे स्थानमें आठ सौ पैंसठ मिलाये। इस तरह जो अङ्क सम्पन्न हो, वह 'सगुण' कहा गया है। उसे तीन स्थानोंमें रखे; उसमें बीचवालेको आठसे गुणा करके फिर चारसे गुणित करे। इस तरह मध्यका संस्कार करके गोमूत्रिका-क्रमसे रखे हुए तीनोंका यथास्थान संयोजन करे। उसमें प्रथम स्थानका नाम 'ऊर्ध्व', बीचका नाम 'मध्य' और तृतीय स्थानका नाम 'अधः' ऐसा रखे। अधः-अङ्कमें ३८८ और मध्याङ्कमें ८७ घटाये। तत्पश्चात् उसे ६० से विभाजित करके शेषको (अलग) लिखे। फिर लब्धिको आगेवाले अङ्कमें मिलाकर ६० से विभाजित करे। इस प्रकार तीन स्थानोंमें स्थापित अङ्कोंमेंसे प्रथम स्थानके अङ्कमें ७ से भाग देनेपर शेष बची हुई संख्याके अनुसार रवि आदि वार निकलते हैं। शेष दो स्थानोंका अङ्क तिथिका ध्रुवा होता है। सगुणको दोसे गुणा करे। उसमें तीन घटाये। उसके नीचे सगुणको लिखकर उसमें तीस जोड़े। फिर भी ६, १२, ८- इन पलोंको भी क्रमसे तीनों स्थानोंमें मिला दे। फिर ६० से विभाजित करके प्रथम स्थानमें २८ से भाग देकर शेषको लिखे। उसके नीचे पूर्वानीत तिथि- ध्रुवाको लिखे। सबको मिलानेपर ध्रुवा हो जायगा। फिर भी उसी सगुणको अर्द्ध करे। उसमें तीन घटा दे। दोसे गुणा करे। मध्यको एकादशसे गुणा करे। नीचेमें एक मिलाये। द्वितीय स्थानमें उनतालीससे भाग देकर लब्धिको प्रथम स्थानमें घटाये, उसीका नाम 'मध्य' है। मध्यमें बाईस घटाये। उसमें ६० से भाग देनेपर शेष 'ऋण' है। लब्धिको ऊर्ध्वमें अर्थात् नक्षत्र ध्रुवामें मिलाना चाहिये। २७ से भाग देनेपर शेष नक्षत्र तथा योगका ध्रुवा हो जाता है ॥ १-७३ ॥ अब तिथि तथा नक्षत्रका मासिक ध्रुवा कह रहे हैं। (२।३२।००) यह तिथि ध्रुवा है और (२।११।००) यह नक्षत्र ध्रुवा है। इस ध्रुवाको प्रत्येक मासमें जोड़कर, वार-स्थानमें ७ से भाग देकर शेष वारमें तिथिका दण्ड-पल समझना चाहिये। नक्षत्रके लिये २७ से भाग देकर अश्विनीसे शेष संख्यावाले नक्षत्रका दण्डादि जानना चाहिये ॥ ८-१० ॥
(पूर्वोक्त प्रकारसे तिथ्यादिका मान मध्यममानसे निश्चित हुआ। उसे स्पष्ट करनेके लिये संस्कार कहते हैं।) चतुर्दशी आदि तिथियोंमें कही हुई घटियोंको क्रमसे ऋण-धन तथा धन-ऋण करना चाहिये। जैसे चतुर्दशीमें शून्य घटी तथा त्रयोदशी और प्रतिपदामें पाँच घटी क्रमसे ऋण तथा धन करना चाहिये। एवं द्वादशी तथा द्वितीयामें दस घटी ऋण-धन करना चाहिये। तृतीया तथा एकादशीमें पंद्रह घटी, चतुर्थी और दशमीमें १९ घटी, पञ्चमी और नवमीमें २२ घटी, षष्ठी तथा अष्टमीमें २४ घटी तथा सप्तमीमें २५ घटी धन- ऋण-संस्कार करना चाहिये। यह अंशात्मक फल चतुर्दशी आदि तिथिपिण्डमें करना होता है॥ ११-१३३ ॥
(अब कलात्मक फल-संस्कारके लिये कहते हैं) कर्कादि तीन राशियोंमें छः, चार, तीन (६।४।३) तथा तुलादि तीन राशियोंमें विपरीत तीन, चार, छः (३।४।६) संस्कार करनेके लिये 'खण्डा' होता है। "खेषवः-५०", "खयुगाः- ४०", "मैत्रं-१२" - इनको मेषादि तीन राशियोंमें धन करना चाहिये। कर्कादि तीन राशियोंमें विपरीत १२, ४०, ५० का संस्कार करना चाहिये। तुलादि छः राशियोंमें इनका ऋण संस्कार करना चाहिये। चतुर्गुणित तिथिमें विकलात्मक फल-संस्कार करना चाहिये। 'गत' तथा 'एष्य' खण्डाओंके अन्तरसे कलाको गुणित करे। ६० से भाग दे। लब्धिको प्रथमोच्चारमें ऋण-फल रहनेपर भी धन करे और धन रहनेपर भी धन ही करे। द्वितीयोच्चारित वर्ग रहनेपर विपरीत करना चाहिये। तिथिको द्विगुणित करे। उसका छठा भाग उसमें घटाये। सूर्य-संस्कारके विपरीत तिथि-दण्डको मिलाये। ऋण-फलको घटानेपर स्पष्ट तिथिका दण्डादि मान होता है। यदि ऋण-फल नहीं घटे तो उसमें ६० मिलाकर संस्कार करना चाहिये। यदि फल ही ६० से अधिक हो तो उसमें ६० घटाकर शेषका ही संस्कार करना चाहिये। इससे तिथिके साथ-साथ नक्षत्रका मान होगा। फिर भी चतुर्गुणित तिथिमें तिथिका त्रिभाग मिलाये। उसमें ऋण-फलको भी मिलाये। तष्टित करनेपर योगका मान होता है। तिथिका मान तो स्पष्ट ही है, अथवा सूर्य-चन्द्रमाको योग करके भी 'योग' का मान निश्चित आता है। तिथिकी संख्यामेंसे एक घटाकर उसे द्विगुणित करनेपर फिर एक घटाये तो भी चर आदि करण निकलते हैं। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके परार्धसे शकुनि, चतुरङ्घ्रि (चतुष्पद), किंस्तुघ्न और अहि (नाग)- ये चार स्थिर करण होते हैं। इस तरह शुक्लपक्षकी प्रतिपदा तिथिके पूर्वार्द्धमें किंस्तुघ्न करण होता है ॥ १४-२४ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ज्यौतिष शास्त्रके अन्तर्गत कालगणना' नामक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२२ ॥
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