अग्नि पुराण - एक सौ बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 120 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 120 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ बीसवाँ अध्याय भुवनकोश-वर्णन ! भुवनकोषः !

अग्नि पुराण - एक सौ बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 120 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ बीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 120 Chapter !

अग्निरुवाच
विस्तारस्तु स्मृतो भूमेः सहस्राणि च सप्ततिः ।
उच्छ्रायो दशसाहस्रं पातालञ्चैकमेककं ॥१२०.००१

अतलं वितलञ्चैव नितलञ्च गभस्तिमत् ।
महाख्यं सुतलञ्चाग्र्यं पातालञ्चापि सप्तमं ॥१२०.००२

कृष्णपीतारुणाः शुक्लशर्कराशैलकाञ्चनाः ।
भूमयस्तेषु रम्येषु सन्ति दैत्यादयः सुखं ॥१२०.००३

पातालानामधश्चास्ते शेषो विष्णुश्च तामसः ।
गुणानन्त्यात्स चानन्ततः शिरसा धारयन्महीं ॥१२०.००४

भुवोऽधो नरका नैके न पतेत्तत्र वैष्णवः ।
रविणा भासिता पृथ्वी यावत्तायन्नभो मतं ॥१२०.००५

भूमेर्योजनलक्षन्तु विशिष्ठरविमण्डलं ।
रवेर्लक्षेण चन्द्रश्च लक्षान्नाक्षत्रमिन्दुतः ॥१२०.००६

द्विलक्षाद्भाद्बुधश्चास्ते बुधाच्छुक्रो द्विलक्षतः ।
द्विलक्षेण कुजः शुक्राद्भौमाद्द्विलक्षतो गुरुः ॥१२०.००७

गुरोर्द्विलक्षतः सौरित्ल्लक्षात्सप्तर्षयः शनेः ।
लक्षाद्ध्रुवो ह्यृषिभ्यस्तु त्रैलोक्यञ्चोच्छ्रयेण च ॥१२०.००८

ध्रुवात्कोट्या महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः ।
जनो द्विकोटितस्तस्माद्यत्रासन् सनकादयः ॥१२०.००९

जनात्तपश्चाष्तकोट्या वैराजा यत्र देवताः ।
षणवत्या तु कोटीनान्तपसः सत्यलोककः ॥१२०.०१०

अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः ।
पादगम्यस्तु भूल्लोको भुवः सूर्यान्तरः स्मृतः ॥१२०.०११

स्वर्गलोको ध्रुवान्तस्तु नियुतानि चतुर्दश ।
एतदण्डकटाहेन वृतो ब्रह्माण्डविस्तरः ॥१२०.०१२

वारिवह्न्यनिलाकाशैस्ततो भूतादिना वहिः ।
वृतं दशगुणैरण्डं भूतादिर्महता तथा ॥१२०.०१३

दशोत्तराणि शेषाणि एकैकस्मान्मामुने ।
महान्तञ्च समावृत्य प्रधानं समवस्थितं ॥१२०.०१४

अनन्तस्य न तस्यान्तः सङ्ख्यानं नापि विद्यते ।
हेतुभूतमशेषस्य प्रकृतिः सा परा मुने ॥१२०.०१५

असङ्ख्यातानि शाण्डानि तत्र जातानि चेदृशां ।
दारुण्यग्निर्यथा तैलं तिले तद्वत्पुमानिति ॥१२०.०१६

प्रधाने च स्थितो व्यापी चेतनात्मात्मवेदनः ।
प्रधानञ्च पुमांश्चैव सर्वभूतात्मभृतया ॥१२०.०१७

विष्णुशक्त्या महाप्राज्ञ वृतौ संश्रयधर्मिणौ ।
तयोः सैव पृथग्भावे कारणं संश्रयस्य च ॥१२०.०१८

क्षोभकारणभूतश्च सर्गकाले महामुने ।
यथा शैत्यं जले वातो विभर्ति कणिकागतं ॥१२०.०१९

जगच्छक्तिस्तथा विष्णोः प्रधानप्रतिपादिकां ।
विष्णुशक्तिं समासाद्य देवाद्याः सम्भवन्ति हि ॥१२०.०२०

स च विष्णुः स्वयं ब्रह्म यतः सर्वमिदं जगत् ।
योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव ॥१२०.०२१

ईशादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम ।
सार्धकोटिस्तथा सप्तनियुतान्यधिकानि वै ॥१२०.०२२

योजनानान्तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितं ।
त्रिनाभिमतिपञ्चारं षण्णेमि द्व्ययनात्मकं ॥१२०.०२३

संवत्सरमयं कृत्स्नं कालचक्रं प्रतिष्ठितं ।
चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वितीयाक्षो विवस्वतः ॥१२०.०२४

पञ्चान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य महामते ।
अक्षप्रमाणमुभयोः प्रमाणन्तदद्युगार्धयोः ॥१२०.०२५

ह्रस्वोऽक्षस्तद्युगार्धञ्च ध्रुवाधारं रथस्य वै ।
हयाश्च सप्त छन्दांसि गायत्र्यादीनि सुव्रत ॥१२०.०२६

उदयास्तमनं ज्ञेयं दर्शनादर्शनं रवेः ।
यावन्मात्रप्रदेशे तु वशिष्ठोऽवस्थितो ध्रुवः ॥१२०.०२७

स्वयमायाति तावत्तु भूमेराभूतसम्प्लवे ।
ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः ॥१२०.०२८

एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भास्वरं ।
निर्धूतदोषपङ्कानां यतीनां स्थानमुत्तमं ॥१२०.०२९

ततो गङ्गा प्रभवति स्मरणात्पाशनाशनी ।
दिवि रूपं हरेर्ज्ञेयं शिशुमाराकृति प्रभो ॥१२०.०३०

स्थितः पुच्छे ध्रुवस्तत्र भ्रमन् भ्रामयति ग्रहान् ।
स रथोऽधिष्ठिता देवैरादित्यैर्ऋषिभिर्वरैः ॥१२०.०३१

गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ग्रामणीसर्पराक्षसैः ।
हिमोष्णवारिवर्षाणां कारणं भगवान् रविः ॥१२०.०३२

ऋग्वेदादिमयो विष्णुः स शुभाशुभकारणं ।
रथस्त्रिचक्रः सोमस्य कुन्दाभास्तस्य वाजिनः ॥१२०.०३३

वामदक्षिणतो युक्ता दश तेन चरत्यसौ ।
त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च ॥१२०.०३४

त्रयस्त्रिंशत्तथा देवाः पिबन्ति क्षणदाकरं ।
एकां कलाञ्च पितर एकामारश्मिसंस्थिताः ॥१२०.०३५

वाय्वग्निद्रव्यसम्भूतो रथश्चन्द्रसुतस्य च ।
अष्टाभिस्तुरगैर्युक्तो बुधस्तेन चरत्यपि ॥१२०.०३६

शुक्रस्यापि रथोऽष्टाश्वो भौमस्यापि रथस्तथा ।
बृहस्पते रथोऽष्टाश्वः शनेरष्टाश्वको रथः ॥१२०.०३७

स्वर्भानोश्च रथोऽष्टाश्वः केतोश्चाष्टाश्वको रथः ।
यदद्य वैष्णवः कायस्ततो विप्र वसुन्धरा ॥१२०.०३८

पद्माकरा समुद्भूता पर्वताद्यादिसंयुता ।
ज्योतिर्भुवननद्यद्रिसमुद्रवनकं हरिः ॥१२०.०३९

यदस्ति नास्ति तद्विष्णुर्विष्णुज्ञानविजृम्भितं ।
न विज्ञानमृते किञ्चिज्ज्ञानं विष्णुः परम्पदं ॥१२०.०४०

तत्कुर्याद्येन विष्णुः स्यात्सत्यं ज्ञानमनन्तकं ।
पठेद्भुवनकोषं हि यः सोऽवाप्तसुखात्मभाक् ॥१२०.०४१

ज्योतिःशास्त्रादिविध्याश्च शुभाशुभाधिपो हरिः॥२४॥१२०.०४२

इत्याग्नेये महापुराणे भुवनकोषो नाम विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ बीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 120 Chapter!-In Hindi

अग्निदेव कहते हैं - वसिष्ठ ! भूमिका विस्तार | सत्तर हजार योजन बताया गया है। उसकी ऊँचाई दस हजार योजन है। पृथ्वीके भीतर सात पाताल हैं। एक-एक पाताल दस-दस हजार योजन विस्तृत है। सात पातालोंके नाम इस प्रकार हैं- अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल, सुतल, तलातल और सातवाँ रसातल या पाताल। इन पातालोंकी भूमियाँ क्रमशः काली, पीली, लाल, सफेद, कँकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी हैं। वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं। उनमें दैत्य और दानव आदि सुखपूर्वक निवास करते हैं।  समस्त पातालोंके नीचे शेषनाग विराजमान हैं, जो भगवान् विष्णुके तमोगुण प्रधान विग्रह हैं। उनमें अनन्त गुण हैं, इसीलिये उन्हें 'अनन्त' भी कहते हैं। वे अपने मस्तकपर इस पृथ्वीको धारण करते हैं ॥ १-४॥ 
पृथ्वीके नीचे अनेक नरक हैं, परंतु जो भगवान् विष्णुका भक्त है, वह उन नरकोंमें नहीं पड़ता है। सूर्यदेवसे प्रकाशित होनेवाली पृथ्वीका जितना विस्तार है, उतना ही नभोलोक (अन्तरिक्ष या भुवर्लोक) का विस्तार माना गया है। वसिष्ठ ! पृथ्वीसे एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है। सूर्यसे लाख योजनकी दूरीपर चन्द्रमा विराजमान हैं। चन्द्रमासे एक लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल प्रकाशित होता है। नक्षत्रमण्डलसे दो लाख योजन ऊँचे बुध विराजमान हैं। बुधसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र हैं। शुक्रसे दो लाख योजनकी दूरीपर मङ्गलका स्थान है। मङ्गलसे दो लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं। बृहस्पतिसे दो लाख योजन ऊपर शनैश्चरका स्थान है। उनसे लाख योजन ऊपर सप्तर्षियोंका स्थान है। सप्तर्षियोंसे लाख योजन ऊपर ध्रुव प्रकाशित होता है। त्रिलोकीकी इतनी ही ऊँचाई है, अर्थात् त्रिलोकी (भूर्भुवः स्वः) के ऊपरी भागकी चरम सीमा ध्रुव ही है॥५-८॥ ध्रुवसे कोटि योजन ऊपर 'महर्लोक' है, जहाँ कल्पान्तजीवी भृगु आदि सिद्धगण निवास करते हैं। महर्लोकसे दो करोड़ ऊपर 'जनलोक 'की स्थिति है, जहाँ सनक, सनन्दन आदि सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। जनलोकसे आठ करोड़ योजन ऊपर 'तपोलोक' है, जहाँ वैराज नामवाले देवता निवास करते हैं। तपोलोकसे छानबे करोड़ योजन ऊपर 'सत्यलोक' विराजमान है। सत्यलोकमें पुनः मृत्युके अधीन न होनेवाले पुण्यात्मा देवता एवं ऋषि-मुनि निवास करते हैं। उसीको 'ब्रह्मलोक' भी कहा गया है। जहाँतक पैरोंसे चलकर जाया जाता है, वह सब 'भूलोक' है। भूलोकसे सूर्यमण्डलके बीचका भाग 'भुवर्लोक' कहा गया है। सूर्यलोकसे ऊपर ध्रुवलोकतकके भागको 'स्वर्गलोक' कहते हैं। उसका विस्तार चौदह लाख योजन है। यही त्रैलोक्य है और यही अण्डकटाहसे घिरा हुआ विस्तृत ब्रह्माण्ड है। यह ब्रह्माण्ड क्रमशः जल, अग्नि, वायु और आकाशरूप आवरणोंद्वारा बाहरसे घिरा हुआ है। इन सबके ऊपर अहंकारका आवरण है। ये जल आदि आवरण उत्तरोत्तर दसगुने बड़े हैं। अहंकाररूप आवरण महत्तत्त्वमय आवरणसे घिरा हुआ है ॥ ९-१३ ॥
महामुने ! ये सारे आवरण एकसे दूसरेके क्रमसे दसगुने बड़े हैं। महत्तत्त्वको भी आवृत करके प्रधान (प्रकृति) स्थित है। वह अनन्त है; क्योंकि उसका कभी अन्त नहीं होता। इसीलिये उसकी कोई संख्या अथवा माप नहीं है। मुने ! वह सम्पूर्ण जगत्का कारण है। उसे ही 'अपरा प्रकृति' कहते हैं। उसमें ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए हैं। जैसे काठमें अग्नि और तिलमें तेल रहता है, उसी प्रकार प्रधानमें स्वयंप्रकाश चेतनात्मा व्यापक पुरुष विराजमान है ॥ १४-१६ ई महाज्ञान मुने! ये संश्रयधर्मी (परस्पर संयुक्त हुए) प्रधान और पुरुष सम्पूर्ण भूतोंकी आत्मभूता विष्णुशक्तिसे आवृत हैं। महामुने ! भगवान् विष्णुकी स्वरूपभूता वह शक्ति ही प्रकृति और पुरुषके संयोग और वियोगमें कारण है। वही सृष्टिके समय उनमें क्षोभका कारण बनती है। जैसे जलके सम्पर्कमें आयी हुई वायु उसकी कणिकाओंमें व्याप्त शीतलताको धारण करती है, उसी प्रकार भगवान् विष्णुकी शक्ति भी प्रकृति-पुरुषमय जगत्को धारण करती है। विष्णु-शक्तिका आश्रय लेकर ही देवता आदि प्रकट होते हैं। वे भगवान् विष्णु स्वयं ही साक्षात् ब्रह्म हैं, जिनसे इस सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति होती है ॥ १७ - २० ॥
मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ सहस्र योजन है तथा उस रथका ईषादण्ड (हरसा) इससे दूना बड़ा अर्थात् अठारह हजार योजनका है। उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लंबा है, जिसमें उस रथका पहिया लगा हुआ है। उसमें पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्नरूप तीन नाभियाँ हैं। संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर - ये पाँच प्रकारके वर्ष उसके पाँच अरे हैं। छहों ऋतुएँ उसकी छः नेमियाँ हैं और उत्तर- दक्षिण दो अयन उसके शरीर हैं। ऐसे संवत्सरमय रथचक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र प्रतिष्ठित है। महामते ! भगवान् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस हजार योजन लंबा है। दोनों धुरोंके परिमाणके। तुल्य ही उसके युगाौंका परिमाण है ॥ २१-२५॥  उस रथके दो धुरोंमेंसे जो छोटा है वह, और उसका युगार्द्ध ध्रुवके आधारपर स्थित है। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुने ! गायत्री, बृहती, उष्णिक्, जगती, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप् और पंक्ति - ये सात छन्द ही सूर्यदेवके सात घोड़े कहे गये हैं। सूर्यका दिखायी देना उदय है और उनका दृष्टिसे ओझल हो जाना ही अस्तकाल है, ऐसा जानना चाहिये। वसिष्ठ! जितने प्रदेशमें ध्रुव स्थित है, पृथ्वीसे लेकर उस प्रदेश-पर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है। सप्तर्षियोंसे उत्तर दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है, आकाशमें वह दिव्य एवं प्रकाशमान स्थान ही वियरूपधारी भगवान् विष्णुका तीसरा पद है। पुण्य और पापके क्षीण हो जानेपर दोषरूपी पङ्कसे रहित संयतचित्त महात्माओंका यही परम उत्तम स्थान है। इस विष्णुपदसे ही गङ्गाका प्राकट्य हुआ है, जो स्मरणमात्रसे सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली हैं॥ २६-२९३ ॥आकाशमें जो शिशुमार (सूँस) की आकृतिवाला ताराओंका समुदाय देखा जाता है, उसे भगवान् विष्णुका स्वरूप जानना चाहिये। उस शिशुमारचक्रके पुच्छभागमें ध्रुवकी स्थिति है। यह ध्रुव स्वयं घूमता हुआ चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहोंको घुमाता है। भगवान् सूर्यका वह रथ प्रतिमास भिन्न-भिन्न आदित्य देवता, श्रेष्ठ ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, ग्रामणी (यक्ष), सर्प तथा राक्षसोंसे अधिष्ठित होता है। भगवान् सूर्य ही सर्दी, गर्मी तथा जल वर्षाके कारण हैं। वे ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदमय भगवान् विष्णु हैं; वे ही शुभ और अशुभके कारण हैं ॥ ३०-३२ ॥ चन्द्रमाका रथ तीन पहियोंसे युक्त है। उस रथके बायें और दायें भागमें कुन्द-कुसुमकी भाँति श्वेत रंगके दस घोड़े जुते हुए हैं। उसी रथके द्वारा वे चन्द्रदेव नक्षत्रलोकमें विचरण करते हैं। तैंतीस हजार तैंतीस सौ तैंतीस देवता चन्द्रदेवकी अमृतमयी कलाओंका पान करते हैं। अमावास्याके दिन 'अमा' नामक एक रश्मि (कला) में स्थित हुए पितृगण चन्द्रमाकी बची हुई दो कलाओंमेंसे एकमात्र अमृतमयी कलाका पान करते हैं। चन्द्रमाके पुत्र बुधका रथ वायु और अग्निमय द्रव्यका बना हुआ है। उसमें आठ शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं। उसी रथसे बुध आकाशमें विचरण करते हैं ॥ ३३-३६ ॥ शुक्रके रथमें भी आठ घोड़े जुते होते हैं। मङ्गलके रथमें भी उतने ही घोड़े जोते जाते हैं। बृहस्पति और शनैश्चरके रथ भी आठ-आठ घोड़ोंसे युक्त हैं। राहु और केतुके रथोंमें भी आठ-आठ ही घोड़े जोते जाते हैं। विप्रवर! भगवान् विष्णुका शरीरभूत जो जल है, उससे पर्वत और समुद्रादिके सहित कमलके समान आकारवाली पृथ्वी उत्पन्न हुई। ग्रह, नक्षत्र, तीनों लोक, नदी, पर्वत, समुद्र और वन-ये सब भगवान् विष्णुके ही स्वरूप हैं। जो है और जो नहीं है, वह सब भगवान् विष्णु ही हैं। विज्ञानका विस्तार भी भगवान् विष्णु ही हैं। विज्ञानसे अतिरिक्त किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है। भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप ही हैं। वे ही परमपद हैं। मनुष्यको वही करना चाहिये, जिससे चित्तशुद्धिके द्वारा विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करके वह विष्णुस्वरूप हो जाय। सत्य एवं अनन्त ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही 'विष्णु' हैं ॥ ३७ - ४० ॥  जो इस भुवनकोशके प्रसंगका पाठ करेगा, वह सुखस्वरूप परमात्मपदको प्राप्त कर लेगा। अब ज्यौतिषशास्त्र आदि विद्याओंका वर्णन करूँगा। उसमें विवेचित शुभ और अशुभ - सबके स्वामी भगवान् श्रीहरि ही हैं ॥ ४१-४२ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'भुवनकोशका वर्णन' नामक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२० ॥

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