अग्नि पुराण - एक सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana - 116 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana - 116 Chapter 

 अग्नि पुराण अध्याय गयामें श्राद्धकी विधि ! गयायात्राविधिः !

अग्नि पुराण - एक सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana - 116 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सोलहवाँ अध्याय ! Agni Purana - 116 Chapter !

अग्निरुवाच
गायत्र्यैव महानद्यां स्नातः सन्ध्यां समाचरेत् ।
गायत्र्या अग्रतः प्रातः श्राद्धं पिण्डमथाक्षयं ॥११६.००१

मध्याह्ने चोद्यति स्नात्वा गीतवाद्यैर्ह्युपास्य च ।
सावित्रीपुरतः सन्ध्यां पिण्डदानञ्च तत्पदे ॥११६.००२

अगस्त्यस्य पदे कुर्याद्योनिद्वारं प्रविश्य च ।
निर्गतो न पुनर्योनिं प्रविशेन्मुच्यते भवात्॥११६.००३

बलिं काकशिलायाञ्च कुमारञ्च नमेत्ततः।
स्वर्गद्वार्यां सोमकुण्डे वायुतीर्थेऽथ पिण्डदः ॥११६.००४

भवेदाकशगङ्गायां कपिलायाञ्च पिण्डदः ।
कपिलेशं शिवं नत्वा रुक्मिकुण्डे च पिण्डदः ॥११६.००५

कोटीतीर्थे च कोटीशं नत्वामोघपदे नरः ।
गदालोले वानरके गोप्रचारे च पिण्डदः ॥११६.००६

नत्वा गावं वैतरण्यामेकविंशकुलोद्धृतिः ।
श्राद्धपिण्डप्रदाता स्यात्क्रौञ्चपदे च पिण्डदः ॥११६.००७

तृतीयायां विशालायां निश्चिरायाञ्च पिण्डदः ।
ऋणमोक्षे पापमोक्षे भस्मकुण्डेऽथ भस्मना ॥११६.००८

स्नानकृन्मुच्यते पापान्नमेद्देवं जनार्दनम् ।
एष पिण्डो मया दत्तस्तव हस्ते जनार्दन ॥११६.००९

परलोकगते मह्यमक्ष्यय्यमुपतिष्ठतां ।
गयायां पितृरूपेण स्वयमेव जनार्दनः ॥११६.०१०

तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं मुच्यते वै ऋणत्रयात् ।
मार्कण्डेयेश्वरं नत्वा नमेद्गृध्रेश्वरं नरः ॥११६.०११

मूलक्षेत्रे महेशस्य धारायां पिण्डदो भवेत् ।
गृध्रकूटे गृध्रवटे धौतपादे च पिण्डदः ॥११६.०१२

पुष्करिण्यां कर्दमाले रामतीर्थे च पिण्डदः ।
प्रभासेशन्नमेत्प्रेतशिलायां पिण्डदो भवेत् ॥११६.०१३

दिव्यान्तरीक्षभूमिष्ठाः पितरो बान्धवादयः ।
प्रेतादिरूपा मुक्ताः स्युः पिण्डैर्दत्तैर्मयाखिलाः ॥११६.०१४

स्थानत्रये प्रेतशिला गयाशिरसि पावनी ।
प्रभासे प्रेतकुण्डे च पिण्डदस्तारयेत्कुलम् ॥११६.०१५

वसिष्ठेशन्नमस्कृत्य तदग्रे पिण्डदो भवेत् ।
गयानाभौ सुषुम्णायां महाकोष्ट्याञ्च पिण्डदः ॥११६.०१६

गदाधराग्रतो मुण्डपृष्ठे देव्याश्च सन्निधौ ।
मुण्दपृष्ठं नमेदादौ क्षेत्रपालादिसंयुतम् ॥११६.०१७

पूजयित्वा भयं न स्याद्विषरोगादिनाशनम् ।
ब्रह्माणञ्च नमस्कृत्य ब्रह्मलोकं नयेत्कुलम् ॥११६.०१८

सुभद्रां बलभद्रञ्च प्रपूज्य पुरुषोत्तमम् ।
सर्वकामसमायुक्तः कुलमुद्धृत्य नाकभाक् ॥११६.०१९

हृषीकेशं नमस्कृत्य तदग्रे पिण्डदो भवेत् ।
माधवं पूजयित्वा च देवो वैमानिको भवेत् ॥११६.०२०

महालक्ष्मीं प्रार्च्य गौरीं मङ्गलाञ्च सरस्वतीम् ।
पितॄनुद्धृत्य स्वर्गस्थो भुक्तभोगोऽत्र शास्त्रधीः ॥११६.०२१

द्वादशादित्यमभ्यर्य वह्निं रेवन्तमिन्द्रकम् ।
रोगादिमुक्तः स्वर्गी स्याच्छ्रीकपर्दिविनायकम् ॥११६.०२२

प्रपूज्य कार्त्तिकेयञ्च निर्विघ्नः सिद्धिमाप्नुयात् ।
सोमनाथञ्च कालेशङ्केदारं प्रपितामहम् ॥११६.०२३

सिद्धेश्वरञ्च रुद्रेशं रामेशं ब्रह्मकेश्वरम् ।
अष्टलिङ्गानि गुह्यानि पूजयित्वा तु सर्वभाक् ॥११६.०२४

नारायणं वराहञ्च नारसिंहं नमेच्छ्रिये ।
ब्रह्मविष्णुमहेशाख्यं त्रिपुरघ्नमशेषदम् ॥११६.०२५

सीतां रामञ्च गरुडं वामनं सम्प्रपूज्य च ।
सर्वकामानवाप्नोति ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् ॥११६.०२६

देवैः सार्धं सम्प्रपूज्य देवमादिगदाधरम् ।
ऋणत्रयविनिर्मुक्तस्तारयेत्सकलं कुलम् ॥११६.०२७

देवरूपा शिला पुण्या तस्माद्देवमयी शिला ।
गयायां नहि तत्स्थानं यत्र तीर्थं न विद्यते ॥११६.०२८

यन्नाम्ना पातयेत्पिण्डं तन्नयेद्ब्रह्म शाश्वतम् ।
फल्ग्वीशं फल्गुचण्डीं च प्रणम्याङ्गारकेश्वरम् ॥११६.०२९

मतङ्गस्य पदे श्राद्धी भरताश्रमके भवेत् ।
हंसतीर्थे कोटितीर्थे यत्र पाण्डुशिलान्नदः ॥११६.०३०

तत्र स्यादग्निधारायां मधुस्रवसि पिण्डदः ।
रुद्रेशं किलिकिलेशं नमेद्वृद्धिविनायकम् ॥११६.०३१

पिण्डदो धेनुकारण्ये पदे धेनोर्नमेच्च गाम् ।
सर्वान् पितॄंस्तारयेच्च सरस्वत्याञ्च पिण्डदः ॥११६.०३२

सन्ध्यामुपास्य सायाह्ने नमेद्देवीं सरस्वतीम् ।
त्रिसन्ध्याकृद्भवेद्विप्रो वेदवेदाङ्गपारगः ॥११६.०३३

गयां प्रदक्षिणीकृत्य गयाविप्रान् प्रपूज्य च ।
अन्नदानादिकं सर्वं कृतन्तत्राक्षयं भवेत् ॥११६.०३४

स्तुत्वा सम्प्रार्थयेदेवमादिदेवं गदाधरम् ।
गदाधरं गयावासं पित्रादीनां गतिप्रदम् ॥११६.०३५

धर्मार्थकाममोक्षार्थं योगदं प्रणमाम्यहम् ।
देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्राणाहङ्कारवर्जितम् ॥११६.०३६

नित्यशुद्धं बुद्धियुक्तं सत्यं ब्रह्म नमाम्यहम् ।
आनन्दमद्वयं देवं देवदानववन्दितम् ॥११६.०३७

देवदेवीवृन्दयुक्तं सर्वदा प्रणमाम्यहम् ।
कलिकल्मषकालार्तिदमनं वनमालिनम् ॥११६.०३८

पालिताखिललोकेशं कुलोद्धरणमानसम् ।
व्यक्ताव्यक्तविभक्तात्माविभक्तात्मानमात्मनि ॥११६.०३९

स्थितं स्थिरतरं सारं वन्दे घोराघमर्दनम् ।
आगतोऽस्मि गयां देव पितृकार्ये गदाधरः ॥११६.०४०

त्वं मे साक्षी भवाद्येह अनृणोऽहमृणत्रयात् ।
वन्देहमरिमर्दनमिति ङ.. । वन्दे संसारमर्दनमिति ज..
साक्षिणः सन्तु मे देवा ब्रह्मेशानादयस्तथा ॥११६.०४१

मया गयां समासाद्य पितॄणां निष्कृतिः कृता ।
गयामाहात्म्यपठनाच्छ्राद्धादौ ब्रह्मलोकभाक् ॥११६.०४२

पितॄणामक्षयं श्राद्धमक्षयं ब्रह्मलोकदम् ॥४३॥
इत्याग्नेये महापुराणे गयामाहात्म्ये गयायात्रा नाम षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ सोलहवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 116 Chapter!-In Hindi

अग्निदेव कहते हैं- गायत्री मन्त्रसे ही महानदीमें स्नान करके संध्योपासना करे। प्रातःकाल गायत्रीके सम्मुख किया हुआ श्राद्ध और पिण्डदान अक्षय होता है। सूर्योदयके समय तथा मध्याह्नकालमें स्नान करके गीत और वाद्यके द्वारा सावित्री देवीकी उपासना करे। फिर उन्हींके सम्मुख संध्या करके नदीके तटपर पिण्डदान करे। तदनन्तर अगस्त्यपदमें पिण्डदान करे। फिर 'योनिद्वार' (ब्रह्मयोनि) में प्रवेश करके निकले। इससे वह फिर माताकी योनिमें नहीं प्रवेश करता, पुनर्जन्मसे मुक्त हो जाता है। तत्पश्चात् काकशिलापर बलि देकर कुमार कार्तिकेयको प्रणाम करे। इसके बाद स्वर्गद्वार, सोमकुण्ड और वायु-तीर्थमें पिण्डदान करे। फिर आकाशगङ्गा और कपिलाके तटपर पिण्ड दे। वहाँ कपिलेश्वर शिवको प्रणाम करके रुक्मिणीकुण्डपर पिण्डदान करे ॥ १-५ ॥ 
कोटि-तीर्थमें भगवान् कोटीश्वरको नमस्कार करके मनुष्य अमोघपद, गदालोल, वानरक एवं गोप्रचार-तीर्थमें पिण्डदान दे। वैतरणीमें गौको नमस्कार एवं दान करके मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। वैतरणीके तटपर श्राद्ध एवं पिण्डदान करे। उसके बाद क्रौञ्चपादमें पिण्ड दे। तृतीया तिथिको विशाला, निश्चिरा, ऋणमोक्ष तथा पापमोक्ष-तीर्थमें भी पिण्डदान करे। भस्मकुण्डमें भस्मसे स्नान करनेवाला पुरुष पापसे मुक्त हो जाता है। वहाँ भगवान् जनार्दनको प्रणाम करे और इस प्रकार प्रार्थना करे- 'जनार्दन! यह पिण्ड मैंने आपके हाथमें समर्पित किया है। परलोकमें जानेपर यह मुझे अक्षयरूपमें प्राप्त हो।' गयामें साक्षात् भगवान् विष्णु ही पितृदेवके रूपमें विराजमान हैं ॥ ६-१०॥
उन भगवान् कमलनयनका दर्शन करके मानव तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। तदनन्तर मार्कण्डेयेश्वरको प्रणाम करके मनुष्य गृधेश्वरको नमस्कार करे। महादेवजीके मूलक्षेत्र धारामें पिण्डदान करना चाहिये। इसी प्रकार गृध्रकूट, गृध्रवट और धौतपादमें भी पिण्डदान करना उचित है। पुष्करिणी, कर्दमाल और रामतीर्थमें पिण्ड दे। फिर प्रभासेश्वरको नमस्कार करके प्रेतशिलापर पिण्डदान दे। उस  समय इस प्रकार कहे - 'दिव्यलोक, अन्तरिक्षलोक तथा भूमिलोकमें जो मेरे पितर और बान्धव आदि सम्बन्धी प्रेत आदिके रूपमें रहते हों, वे सब लोग इन मेरे दिये हुए पिण्डोंके प्रभावसे मुक्ति-लाभ करें।' प्रेतशिला तीन स्थानोंमें अत्यन्त पावन मानी गयी है- गयाशीर्ष, प्रभासतीर्थ और प्रेतकुण्ड। इनमें पिण्डदान करनेवाला पुरुष अपने कुलका उद्धार कर देता है ॥ ११-१५ ॥ 
वसिष्ठेश्वरको नमस्कार करके उनके आगे पिण्डदान दे। गयानाभि, सुषुम्ना तथा महाकोष्ठीमें भी पिण्डदान करे। भगवान् गदाधरके सामने मुण्डपृष्ठपर देवीके समीप पिण्डदान करे। पहले क्षेत्रपाल आदिसहित मुण्डपृष्ठको नमस्कार कर लेना चाहिये। उनका पूजन करनेसे भयका नाश होता है, विष और रोग आदिका कुप्रभाव भी दूर हो जाता है। ब्रह्माजीको प्रणाम करनेसे मनुष्य अपने कुलको ब्रह्मलोकमें पहुँचा देता है। सुभद्रा, बलभद्र तथा भगवान् पुरुषोत्तमका पूजन करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त करके अपने कुलका उद्धार कर देता और अन्तमें स्वर्गलोकका भागी होता है। भगवान् हृषीकेशको नमस्कार करके उनके आगे पिण्डदान देना चाहिये। श्रीमाधवका पूजन करके मनुष्य विमानचारी देवता होता है॥ १६-२०॥
भगवती महालक्ष्मी, गौरी तथा मङ्गलमयी सरस्वतीकी पूजा करके मनुष्य अपने पितरोंका उद्धार करता, स्वयं भी स्वर्गलोकमें जाता और वहाँ भोग भोगनेके पश्चात् इस लोकमें आकर शास्त्रोंका विचार करनेवाला पण्डित होता है। फिर बारह आदित्योंका, अग्निका, रेवन्तका और इन्द्रका पूजन करके मनुष्य रोग आदिसे छुटकारा पा जाता है और अन्तमें स्वर्गलोकका निवासी होता है। 'श्रीकपर्दि विनायक' तथा कार्तिकेयका पूजन करनेसे मनुष्यको निर्विघ्नतापूर्वक सिद्धि प्राप्त होती है। सोमनाथ, कालेश्वर, केदार, प्रपितामह, सिद्धेश्वर, रुद्रेश्वर, रामेश्वर तथा ब्रह्मकेश्वर- इन आठ गुप्त लिङ्गोंका पूजन करनेसे मनुष्य सब कुछ पा लेता है। यदि लक्ष्मीप्राप्तिकी कामना हो तो भगवान् नारायण, वाराह, नरसिंहको नमस्कार करे। ब्रह्मा, विष्णु तथा त्रिपुरनाशक महेश्वरको भी प्रणाम करे। वे सब कामनाओंको देनेवाले हैं ॥ २१-२५ ॥
सीता, राम, गरुड़ तथा वामनका पूजन करनेसे मानव अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ प्राप्त कर लेता है और पितरोंको ब्रह्मलोककी प्राप्ति करा देता है। देवताओंसहित भगवान् श्रीआदि-गदाधरका पूजन करनेसे मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर अपने सम्पूर्ण कुलको तार देता है। प्रेतशिला देवरूपा होनेसे परम पवित्र है। गयामें वह शिला देवमयी ही है। गयामें ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ तीर्थ न हो। गयामें जिसके नामसे भी पिण्ड दिया जाता है, उसे वह सनातन ब्रह्ममें प्रतिष्ठित कर देता है। फल्लवीश्वर, फल्गुचण्डी तथा अङ्गारकेश्वरको प्रणाम करके श्राद्धकर्ता पुरुष मतङ्गमुनिके स्थानमें पिण्डदान दे। फिर भरतके आश्रमपर भी पिण्ड दे। इसी प्रकार हंस-तीर्थ और कोटि-तीर्थमें भी करना चाहिये। जहाँ पाण्डुशिला नद है, वहाँ अग्निधारा तथा मधुस्रवा तीर्थमें पिण्डदान करे। तत्पश्चात् इन्द्रेश्वर, किलकिलेश्वर तथा वृद्धि-विनायकको प्रणाम करे; तदनन्तर धेनुकारण्यमें पिण्डदान करे, धेनुपदमें गौको नमस्कार करे। इससे वह अपने सम्पूर्ण पितरोंका उद्धार कर देता है। फिर सरस्वती-तीर्थमें जाकर पिण्ड दे। सायंकाल संध्योपासना करके सरस्वती देवीको प्रणाम करे। ऐसा करनेवाला पुरुष तीनों कालकी संध्योपासनामें तत्पर वेद वेदाङ्गोंका पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होता है॥ २६- ३३ ॥ 
गयाकी परिक्रमा करके वहाँके ब्राह्मणोंका पूजन करनेसे गया-तीर्थमें किया हुआ अन्नदान आदि सम्पूर्ण पुण्य अक्षय होता है। भगवान् गदाधरकी स्तुति करके इस प्रकार प्रार्थना करे 'जो आदिदेवता, गदा धारण करनेवाले, गयाके निवासी तथा पितर आदिको सद्गति देनेवाले हैं, उन योगदाता भगवान् गदाधरको मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके लिये प्रणाम करता हूँ। वे देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकारसे शून्य हैं। नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, द्वैतशून्य तथा देवता और दानवोंसे वन्दित हैं। देवताओं और देवियोंके समुदाय सदा उनकी सेवामें उपस्थित रहते हैं; मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। वे कलिके कल्मष (पाप) और कालकी पीड़ाका नाश करनेवाले हैं। उनके कण्ठमें वनमाला सुशोभित होती है। सम्पूर्ण लोकपालोंका भी उन्हींके द्वारा पालन होता है। वे सबके कुलोंका उद्धार करनेमें मन लगाते हैं। व्यक्त और अव्यक्त- सबमें अपने स्वरूपको विभक्त करके स्थित होते हुए भी वे वास्तवमें अविभक्तात्मा ही हैं। अपने स्वरूपमें ही उनकी स्थिति है। वे अत्यन्त स्थिर और सारभूत हैं तथा भयंकर पापोंका भी मर्दन करनेवाले हैं। मैं उनके चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। देव! भगवान् गदाधर ! मैं पितरोंका श्राद्ध करनेके निमित्त गयामें आया हूँ। आप यहाँ मेरे साक्षी होइये। आज मैं तीनों ऋणोंसे मुक्त हो गया। ब्रह्मा और शंकर आदि देवता मेरे लिये साक्षी बनें। मैंने गयामें आकर अपने पितरोंका उद्धार कर दिया।' श्राद्ध आदिमें गयाके इस माहात्म्यका पाठ करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकका भागी होता है। गयामें पितरोंका श्राद्ध अक्षय होता है। वह अक्षय ब्रह्मलोक देनेवाला है ॥ ३४-४३ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'गयामें श्राद्धकी विधि' विषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११६ ॥

click to read 👇

[अग्नि पुराण अध्यायः १०१[अग्नि पुराण  अध्यायः १०२[अग्नि पुराण अध्यायः १०३]

[अग्नि पुराण अध्यायः १०४[अग्नि पुराण अध्यायः १०५[अग्नि पुराण अध्यायः १०६]

[अग्नि पुराण अध्यायः १०७] [अग्नि पुराण अध्यायः १०८] [अग्नि पुराण अध्यायः १०९]

[अग्नि पुराण अध्यायः ११०[अग्नि पुराण अध्यायः १११[अग्नि पुराण अध्यायः ११२]

[अग्नि पुराण अध्यायः ११३[अग्नि पुराण अध्यायः ११४[अग्नि पुराण अध्यायः ११५]

[अग्नि पुराण अध्यायः ११६[अग्नि पुराण अध्यायः ११७[अग्नि पुराण अध्यायः ११८]

[अग्नि पुराण अध्यायः ११९[अग्नि पुराण अध्यायः १२०[अग्नि पुराण अध्यायः १२१]

टिप्पणियाँ