अग्नि पुराण - एक सौ पाँचवाँ अध्याय ! Agni Purana - 105 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पाँचवाँअध्याय ! Agni Purana - 105 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ पाँचवाँ अध्याय - नगर, गृह आदिकी वास्तु-प्रतिष्ठा-विधि !

अग्नि पुराण - एक सौ पाँचवाँ अध्याय ! Agni Purana - 105 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ पाँचवाँ अध्याय ! Agni Purana - 105 Chapter !

ईश्वर उवाच
नगरग्रामदुर्गाद्या गृहप्रासादवृद्धये ।
एकाशीतिपदैर्वस्तुं पूजयेत्सिद्धये ध्रुवं ॥१०५.००१

प्रागास्या दशधा नाड्यास्तासां नामानि च ब्रुवे ।
शान्ता यशोवती कान्ता विशाला प्राणवाहिनी ॥१०५.००२

सती वसुमती नन्दा सुभद्राथ मनोरमा ।१०५.००३
उत्तरा द्वादशान्याश्च एकाशीत्यङ्घ्रिकारिका ॥१०५.००३

हरिणी सुप्रभा लक्ष्मीर्विभूतिर्विमला प्रिया ।
जया ज्वाला विशोका च स्मृतास्तत्रपादतः॥१०५.००४

ईशाद्यष्टाष्टकं दिक्षु यजेदीशं धनञ्जयं ।
शक्रमर्कं तथा सत्यं भृशं व्योम च पूर्वतः ॥१०५.००५

हव्यवाहञ्च पूर्वाणि वितथं भौममेव च ।
कृतान्तमथ गन्धर्वं भृगं मृगञ्च दक्षिणे ॥१०५.००६

पितरं द्वारपालञ्च सुग्रीवं पुष्पदन्तकं ।
वरुणं दैत्यशेषौ च यक्ष्माणं पश्चिमे सदा ॥१०५.००७

रोगाहिमुख्यो भल्लाटः सौभाग्यमदितिर्दितिः ।
नवान्तः पदगो ब्रह्मा पूज्योर्धे च षडङ्घिगाः ॥१०५.००८

ब्रह्मेशान्तरकोष्ठस्थ मायाख्यान्तु पद्द्वये ।
तदधश्चापवत्साख्यं केन्द्रन्तरेषु षट्पदे ॥१०५.००९

मरीचिकाग्निमध्ये तु सविता द्विपदस्थितः ।
सावित्री तदधो द्व्यंशे विवस्वान् षट्पदे त्वधः ॥१०५.०१०

पितृब्रह्मान्तरे विष्णुमिन्दुमिन्द्रं त्वधो जयं ।
वरुणब्रह्मणोर्मध्ये मित्राख्यं षट्पदे यजेत् ॥१०५.०११

रोगब्रह्मान्तरे नित्यं द्विपञ्च रुद्रदासकम् ।
तदधो द्व्यङ्घ्रिगं यक्ष्म षट्सौम्येषु धराधरं ॥१०५.०१२

चरकीं स्कन्दविकटं विदारीं पूतनां क्रमात् ।
जम्मं पापं पिलिपिच्छं यजेदीशादिवाह्यतः ॥१०५.०१३

एकाशीपदं वेश्म मण्डपश्च शताङ्घ्रिकः ।
पूर्ववद्देवताः पूज्या ब्रह्मा तु षोडशांशके ॥१०५.०१४

मरीचिश्च विवस्वांश्च मित्रं पृथ्वीधरस्तथा ।
दशकोष्ठस्थिता दिक्षु त्वन्ये बेशादिकोणगाः ॥१०५.०१५

दैत्यमाता तथेशाग्नी मृगाख्यौ पितरौ तथा ।
पापयक्ष्मानिलौ देवाः सर्वे सार्धांशके स्थिताः ॥१०५.०१६

यत्पाद्योकः प्रवक्ष्यामि सङ्क्षेपेण क्रमाद्गुह ।
सदिग्विंशत्करैर्दैर्घ्यादष्टाविंशति विस्तरात् ॥१०५.०१७

शिशिराश्रयः शिवाख्यश्च रुद्रहीनः सदोभयोः ।
रुद्रद्विगुणिता नाहाः पृथुष्णोभिर्विना त्रिभिः ॥१०५.०१८

स्याद्ग्रहद्विगुणं दैर्घ्यात्तिथिभिश्चैव विस्तरात् ।
सावित्रः सालयः कुड्या अन्येषां पृथक्स्त्रिंशांशतः ॥१०५.०१९

कुड्यपृथुपजङ्घोच्चात्कुड्यन्तु त्रिगुणोच्छयं ।
कुड्यसूत्रसमा पृथ्वी वीथी भेदादनेकधा ॥१०५.०२०

भद्रे तुल्यञ्च वीथीभिर्द्वारवीथी विनाग्रतः ।
श्रीजयं पृष्ठतो हीनं भद्रोयं पार्श्वयोर्विना ॥१०५.०२१

गर्भपृथुसमा वीथी तदर्धार्धेन वा क्वचित् ।
वीथ्यर्धेनोपवीथ्याद्यमेकद्वित्रिपुरान्वितम् ॥१०५.०२२

सामान्यानाथ गृहं वक्ष्ये सर्वेषां सर्वकामदं ।
एकद्वित्रिचतुःशालमष्टशालं यथाक्रमात् ॥१०५.०२३

एकं याम्ये च सौमास्यं द्वे चेत्पश्चात्पुरोमुखम् ।
चतुःशालन्तु साम्मुख्यात्तयोरिन्द्रेन्द्रमुक्तयोः ॥१०५.०२४

शिवास्यमम्बुपास्यैष इन्द्रास्ये यमसूर्यकं ।
प्राक्सौम्यस्थे च दण्दाख्यं प्राग्याम्ये वातसञ्ज्ञकं ॥१०५.०२५

आप्येन्दौ गृहवल्याख्यं त्रिशूलं तद्विनर्धिकृत् ।
पूर्वशलाविहीनं स्यात्सुक्षेत्रं वृद्धिदायकं ॥१०५.०२६

याम्ये हीने भवेच्छूली त्रिशालं वृद्धिकृत्परं ।
यक्षघ्नं जलहीनौकः सुतघ्नं बहुशत्रुकृत् ॥१०५.०२७

इन्द्रादिक्रमतो वच्मि ध्वजाद्यष्टौ गृहाण्यहं ।
प्रक्षालानुस्रगावासमग्नौ तस्य महानसं ॥१०५.०२८

याम्ये रसक्रिया शय्या धनुःशस्त्राणि रक्षसि ।
धनमुक्त्यम्वुपेशाख्ये सम्यगन्धौ च मारुते ॥१०५.०२९

सौम्ये धनपशू कुर्यादीशे दीक्षावरालयं ।
स्वामिहस्तमितं वेश्म विस्तारायामपिण्डिकं ॥१०५.०३०

त्रिगुणं हस्तसंयुक्तं कृत्वाष्टांशैहृतं तथा ।
तच्छेषोयं स्थितस्तेन वायसान्तं ध्वजादिकं ॥१०५.०३१

त्रयः पक्षाग्निवेदेषु रसर्षिवसुतो भवेत् ।
सर्वनाशकरं वेश्म मध्ये चान्ते च संस्थितं ॥१०५.०३२

तस्माच्च नवमे भागे शुभकृन्निलयो मतः ।
तन्मधे मण्डपः शस्तः समो वा द्विगुणायतः ॥१०५.०३३

प्रत्यगाप्ये चेन्दुयमे हट्ट एव गृहावली ।
एकैकभवनाख्यानि दिक्ष्वष्टाष्टकसङ्ख्यया॥१०५.०३४

ईशाद्यदितिकान्तानि फलान्येषां यथाक्रमं ।
भयं नारी चलत्वं च जयो वृद्धिः प्रतापकः ॥१०५.०३५

धर्मः कलिश्च नैस्व्यञ्च प्राग्द्वारेष्वष्टसु ध्रुवं ।
दाहोऽसुखं सुहृन्नाशो धननाशो मृतिर्धनं ॥१०५.०३६

शिल्पित्वं तनयः स्याच्च याम्यद्वारफलाष्टकम् ।
आयुःप्राव्राज्यशस्यानि धनशान्त्यर्थसङ्क्षयाः ॥१०५.०३७

शोषं भोगं चापत्यञ्च जलद्वारफलानि च ।
रोगो मदार्तिमुख्यत्वं चार्थायुः कृशता मतिः ॥१०५.०३८

मानश्च द्वारतः पूर्व उत्तरस्यां दिशि क्रमात् ।१०५.०३९

इत्याग्नेये महापुराणे गृहादिवास्तुर्नाम पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ पाँचवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 105 Chapter!-In Hindi

भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! नगर, ग्राम तथा दुर्ग आदिमें गृहों और प्रासादोंकी वृद्धि हो, इसकी सिद्धिके लिये इक्यासी पदोंका वास्तुमण्डल बनाकर उसमें वास्तु-देवताकी पूजा अवश्य करनी चाहिये। (दस रेखा पश्चिमसे पूर्वकी ओर और दस दक्षिणसे उत्तरकी ओर खींचनेपर इक्यासी पद तैयार होते हैं।) पूर्वाभिमुखी दस रेखाएँ दस नाडियोंकी प्रतीकभूता हैं। उन नाडियोंके नाम इस प्रकार बताये गये हैं- शान्ता, यशोवती, कान्ता, विशाला, प्राणवाहिनी, सती, वसुमती, नन्दा, सुभद्रा और मनोरमा। उत्तराभिमुख प्रवाहित होनेवाली दस नाडियाँ और हैं, जो उक्त नौ पदोंको इक्यासी पदोंमें विभाजित करती हैं; उनके नाम ये हैं-हरिणी, सुप्रभा, लक्ष्मी, विभूति, विमला, प्रिया, जया, (विजया,) ज्वाला और विशोका। सूत्रपात करनेसे ये रेखामयी नाडियाँ अभिव्यक्त होकर चिन्तनका विषय बनती हैं। १-४॥ ईश आदि आठ-आठ देवता 'अष्टक' हैं, जिनका चारों दिशाओंमें पूजन करना चाहिये। (पूर्वादि चार दिशाओंके पृथक् पृथक् अष्टक हैं।) ईश, घन (पर्जन्य), जय (जयन्त), शक्र (इन्द्र), अर्क (आदित्य या सूर्य), सत्य, भृश और व्योम (आकाश) - इन आठ देवताओंका वास्तुमण्डलमें पूर्व दिशाके पदोंमें पूजन करना चाहिये। हव्यवाह (अग्नि), पूषा, वितथ, सौम (सोमपुत्र गृहक्षत), कृतान्त (यम), गन्धर्व, भृङ्ग (भृङ्गराज) और मृग-इन आठ देवताओंकी दक्षिण दिशाके पदोंमें अर्चना करनी चाहिये। पितर, द्वारपाल (या दौवारिक), सुग्रीव, पुष्पदन्त, वरुण, दैत्य (असुर), शेष (या शोष) और यक्ष्मा (पापयक्ष्मा) - इन आठोंका सदा पश्चिम दिशाके पदोंमें पूजन करनेकी विधि है। रोग, अहि (नाग), मुख्य, भल्लाट, सोम, शैल (ऋषि), अदिति और दिति- इन आठोंकी उत्तर दिशाके पदोंमें पूजा होनी चाहिये। वास्तुमण्डलके मध्यवर्ती नौ पदोंमें ब्रह्माजी पूजित होते हैं और शेष अड़तालीस पदोंमेंसे आधेमें अर्थात् चौबीस पदोंमें वे देवता पूजनीय हैं, जो अकेले छः पदोंपर अधिकार रखते हैं। ब्रह्माजीके चारों ओर एक-एक करके चार देवता षट्पदगामी हैं- जैसे पूर्वमें मरीचि (या अर्यमा), दक्षिणमें विवस्वान्, पश्चिममें मिन्त्र देवता तथा उत्तरमें पृथ्वीधर । ॥५-८॥ ब्रह्माजी तथा ईशके मध्यवर्ती कोष्ठकोंमें जो दो पद हैं, उनमें 'आप' की तथा नीचेवाले दो पदोंमें 'आपवत्स' की पूजा करे। इसके बाद छः पदोंमें मरीचिकी अर्चना करे। मरीचि और अग्निके बीचमें जो कोणवर्ती दो पद हैं, उनमें सविताकी स्थिति है और उनसे निम्नभागके दो पदोंमें सावित्र तेज या सावित्रीकी। उसके नीचे छः पदोंमें विवस्वान् विद्यमान हैं। पितरों और ब्रह्माजीके बीचके दो पदोंमें विष्णु-इन्दु स्थित हैं और नीचेके दो पदोंमें इन्द्र-जय विद्यमान हैं, इनकी पूजा करे। वरुण तथा ब्रह्माके मध्यवर्ती छः पदोंमें मित्र-देवताका यजन करे। रोग तथा ब्रह्माके बीचवाले दो पदोंमें रुद्र-रुद्रदासकी पूजा करे और नीचेके दो पदोंमें यक्ष्मकी। फिर उत्तरके छः पदोंमें धराधर (पृथ्वीधर)-का यजन करे। फिर मण्डलके बाहर ईशानादि कोणोंके क्रमसे चरकी, स्कन्द, बिदारीविकट, पूतना, जम्भ, पापा (पापराक्षसी) तथा पिलिपिच्छ (या पिलिपित्स) - इन बालग्रहोंकी पूजा करे ॥९-१३॥ 
यह इक्यासी पदवाले वास्तुचक्रका वर्णन हुआ। एक शतपद-मण्डप भी होता है। उसमें भी पूर्ववत् देवताओंकी पूजाका विधान है। शतपदचक्रके मध्यवर्ती सोलह पदोंमें ब्रह्माजीकी पूजा करनी चाहिये। ब्रह्माजीके पूर्व आदि चार दिशाओंमें स्थित मरीचि, विवस्वान्, मित्र तथा पृथ्वीधरकी दस-दस पदोंमें पूजाका विधान है। अन्य जो ईशान आदि कोणोंमें स्थित देवता हैं, जैसे दैत्योंकी माता दिति और ईश; अग्नि तथा मृग (पूषा) और पितर तथा पापयक्ष्मा और अनिल (रोग)-वे सब-के-सब डेढ़-डेढ़ पदमें अवस्थित हैं ॥ १४-१६ ॥
स्कन्द ! अब मैं यज्ञ आदिके लिये जो मण्डप होता है, उसका संक्षेपसे तथा क्रमशः वर्णन करूँगा। तीस हाथ लंबा और अट्ठाईस हाथ चौड़ा मण्डप शिवका आश्रय है। लंबाई और चौड़ाई दोनोंमें ग्यारह ग्यारह हाथ घटा देनेपर उन्नीस हाथ लंबा और सत्रह हाथ चौड़ा मण्डप शिव- संज्ञक होता है। बाईस हाथ लम्बा और उन्नीस हाथ चौड़ा अथवा अठारह हाथ लम्बा तथा पन्द्रह हाथ चौड़ा मण्डप हो तो वह सावित्र-संज्ञावाला कहा गया है। अन्य गृहोंका विस्तार आंशिक होता है। दीवारकी जो मोटी उपजङ्घा (कुर्सी) होती है, उसकी ऊँचाईसे दीवारकी ऊँचाई तिगुनी होनी चाहिये। दीवारके लिये जो सूतसे मान निश्चित किया गया हो, उसके बराबर ही उसके सामने भूमि (सहन) होनी चाहिये। वह वीथीके भेदसे अनेक भेदवाली होती है ॥ १७ - २० ॥
'भद्र' नामक प्रासादमें वीथियोंके समान ही 'द्वारवीथी' होती है; केवल वीथीका अग्रभाग  द्वारवीथीमें नहीं होता है।' श्रीजय' नामक प्रासादमें जो द्वारवीथी होती है, उसमें वीथीका पृष्ठभाग नहीं होता है। वीथीके पार्श्वभागोंको द्वारवीथीमें कम कर दिया जाय, तो उससे उपलक्षित प्रासादकी भी 'भद्र' संज्ञा ही होती है। गर्भके विस्तारकी ही भाँति वीथीका भी विस्तार होता है। कहीं-कहीं उसके आधे या चौथाई भागके बराबर भी होता है। वीथीके आधे मानसे उपवीधी आदिका निर्माण करना चाहिये। वह एक, दो या तीन पुरोंसे युक्त होता है। अब अन्य साधारण गृहोंके विषयमें बताया जाता है; गृहका वैसा स्वरूप हो तो वह सबकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होता है। वह क्रमशः एक, दो, तीन, चार और आठ शालाओंसे युक्त होता है। एक शालावाले गृहकी शाला दक्षिणभागमें बनती है और उसका दरवाजा उत्तरकी ओर होता है। यदि दो शालाएँ बनानी हों तो पश्चिम और पूर्वमें बनवाये और उनका द्वार आमने-सामने पूर्व- पश्चिमकी ओर रखे। चार शालाओंवाला गृह चार द्वारों और अलिन्दोंसे युक्त होनेके कारण सर्वतोमुख होता है। वह गृहस्वामीके लिये कल्याणकारी है। पश्चिम दिशाकी ओर दो शालाएँ हों तो उस द्विशाल-गृहको 'यमसूर्यक' कहा गया है। पूर्व तथा उत्तरकी ओर शालाएँ हों तो उस गृहकी 'दण्ड' संज्ञा है तथा पूर्व-दक्षिणकी ओर दो शालाएँ हों तो वह गृह 'वात' संज्ञक होता है। जिस तीन शालावाले गृहमें पूर्व दिशाकी ओर शाला न हो, उसे 'सुक्षेत्र' कहा गया है, वह बुद्धिदायक होता है ॥ २१-२६ ॥ यदि दक्षिण दिशामें कोई शाला न हो (और
अन्य दिशाओंमें हो) तो उस घरकी 'विशाल' संज्ञा है। वह कुलक्षयकारी तथा अत्यन्त भयदायक होता है। जिसमें पश्चिम दिशामें ही शाला न बनी हो, उस विशाल गृहको 'पक्षघ्न' कहते हैं। वह पुत्र-हानिकारक तथा बहुत-से शत्रुओंका उत्पादक होता है। अब मैं पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे 'ध्वज' आदि आठ गृहोंका वर्णन करता हूँ। (ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृषभ, खर (गधा), हाथी और काक-ये ही आठोंके नाम हैं।) पूर्व दिशामें स्नान और अनुग्रह (लोगोंसे कृपापूर्वक मिलने) के लिये घर बनावे। अग्निकोणमें उसका रसोईघर होना चाहिये। दक्षिण दिशामें रस-क्रिया तथा शय्या (शयन) के लिये घर बनाना चाहिये। नैर्ऋत्यकोणमें शस्त्रागार रहे। पश्चिम दिशामें धन- रत्न आदिके लिये कोषागार रखे। वायव्यकोणमें सम्यक् अन्नागार स्थापित करे। उत्तर दिशामें धन और पशुओंको रखे तथा ईशानकोणमें दीक्षाके लिये उत्तम भवन बनवावे। गृहस्वामीके हाथसे नापे हुए गृहका जो पिण्ड है, उसकी लंबाई- चौड़ाईके हस्तमानको तिगुना करके उसमें आठ-से भाग दे। उस भागका जो शेष हो, तदनुसार यह ध्वज आदि आय स्थित होता है। उसीसे ध्वजादि-काकान्त आयका ज्ञान होता है। दो, तीन, चार, छः, सात और आठ शेष बचे तो उसके अनुसार शुभाशुभ फल हो। यदि मध्य (पाँचवें) और अन्तिम (काक) में गृहकी स्थिति हुई तो वह गृह सर्वनाशकारी होता है। इसलिये आठ भागोंको छोड़कर नवम भागमें बना हुआ गृह शुभकारक होता है। उस नवम भागमें ही मण्डप उत्तम माना गया है। उसकी लंबाई- चौड़ाई बराबर रहे अथवा चौड़ाईसे लंबाई दुगुनी रहे ॥ २७ - ३३ ॥
पूर्वसे पश्चिमकी ओर तथा उत्तरसे दक्षिणकी ओर बाजारमें ही गृहपडि देखी जाती है। एक- एक भवनके लिये प्रत्येक दिशामें आठ-आठ द्वार हो सकते हैं। इन आठों द्वारोंके क्रमशः फल भी पृथक् पृथक् कहे जाते हैं। भय, नारीकी चपलता, जय, वृद्धि, प्रताप, धर्म, कलह तथा निर्धनता - ये पूर्ववर्ती आठ द्वारोंके अवश्यम्भावी फल हैं। दाह, दुःख, सुहनाश, धननाश, मृत्यु, धन, शिल्पज्ञान तथा पुत्रकी प्राप्ति- ये दक्षिण दिशाके आठ द्वारों के फल हैं। आयु, संन्यास, सस्य, धन, शान्ति, अर्थनाश, शोषण, भोग एवं संतानकी प्राप्ति- ये पश्चिम द्वारके फल हैं। रोग, मद, आर्ति, मुख्यता, अर्थ, आयु, कृशता और मान-ये क्रमशः उत्तर दिशाके द्वारके फल हैं ॥ ३४-३८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नगरगृह आदिकी वास्तु-प्रतिष्ठा-विधिका वर्णन' नामकारकत एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

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