भगवती दुर्गा के तीन विलक्षण स्वरूप,Bhagavatee Durga Ke Teen Vilakshan Svaroop

 भगवती दुर्गा के तीन विलक्षण स्वरूप

  1. चतुर्भुजी दुर्गा (जय दुर्गा)
  2. अष्ट-भुजी दुर्गा 
  3. दश-भुजी दुर्गा

भगवती दुर्गा 

हिन्दुओं के समस्त देवताओं के हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र व वराभय आदि मुद्राएँ देखी जाती हैं। हमें अपने इष्ट देवता की उसी के रूप के ध्यानानुगत भाव से चिन्ता करनी होती है। इष्ट-देव के कर में स्थित आयुध आदि हमारे पूर्व-जन्मार्जित आसुरी वृत्तियों का विनाश कर हमारे चित्त को दैवी-सम्पद् की ओर अग्रसर करा देते हैं।
'ध्यान' का अर्थ केवल संस्कृत के श्लोक का पाठ करना ही मात्र नहीं है। अपितु देव-देह का सूक्ष्म परिचय ज्ञात कर; अन्तर में उसकी प्रतिष्ठा कर; उसकी शक्ति से शक्तिमान होकर अपनी आसुरी वृत्तियों के विनाश के लिए बद्ध-परिकर होना है। 'ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ञेय' के ऐक्य भाव का स्थिरीकरण ही 'ध्यान' का मुख्य उद्देश्य है।
इष्ट-देवता की दैवी शक्ति आदर्श रूप में सदैव सम्मुख विराज रही है। उसको देखते हुए सदैव उसी के ध्यान में तन्मय होना होगा। हँसते-बोलते, चलते-फिरते उसे ध्याना होगा। केवल पूजा के समय ही उसका ध्यान कर निश्चिन्त होने से काम नहीं चलेगा। नित्य अपने इष्ट-देवता के आयुध-समन्वित आदर्श स्वरूप को सन्मुख रखकर, स्वयं भी वैसे आयुध-घारी होकर अपनी अन्तः आसुरी प्रवृत्तियों से युद्ध करना होगा, तभी इष्ट देवता की शक्ति से समर-विजयी होकर आत्मोन्नति प्राप्त होगी।
भगवती दुर्गा महा-शक्ति को चतुर्भुजा, अष्ट भुजा, दश-भुजा, षोडश-भुजावाली मानकर पूजा करते हैं। उनके इन विलक्षण स्वरूपों का रहस्य क्या है, यह हम नहीं जानते। अन्तस्तात्पर्य को न समझने से महा-शक्ति दुर्गा का वह सानिध्य प्राप्त नहीं होता, जो हमारे ऋषियों का लक्ष्य रहा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भगवती दुर्गा के प्रसिद्ध ध्यानों का तत्त्व-निरूपण यहाँ संक्षेप में दिया जाता है। यथा-

Bhagavatee Durga Ke Teen Vilakshan Svaroop

चतुर्भुजी दुर्गा (जय दुर्गा) चार हाथवाली - शङ्ख, चक्र, धनुष,. शर-ये 'पञ्च-तन्मात्रा

1 चतुर्भुजी दुर्गा (जय दुर्गा)

'श्रीदुर्गा सप्तशती' के चतुर्थ अध्याय में 'चतुर्भुजी दुर्गा' का ध्यान इस प्रकार है- 
कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुल-भयदां मौलि-बद्धेन्दु-रेखां,
 शङ्ख चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रि-नेत्राम्। 
सिंह-स्कन्धाधि-रूढां त्रि-भुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं,
 ध्यायेद् दुर्गा जयाख्यां त्रि-दश-परिवृतां सेवितां सिद्ध-कामैः ॥

अर्थात् काले मेघ के समान श्याम आभावाली; कटाक्षों से शत्रु-समूह को भय प्रदान करनेवाली; मस्तक पर आबद्ध चन्द्रमा की शोभायमान रेखा, हाथों में शङ्ख, चक्र, कृपाण एवं त्रिशूल धारण करनेवाली, तीन नेत्र, सिंह के कन्धे पर सवार, तेज से तीनों लोक परिपूर्ण, देवताओं से परिवेष्ठित, सिद्धकामी जनों से सेवित जया नामक दुर्गा का ध्यान करे (करता हूँ)। भगवती दुर्गा के एकाक्षर वा अष्टाक्षर मन्त्र के अनुसार चतुर्भुजी दुर्गा का 'तन्त्रोक्त ध्यान' इस प्रकार है

सिंहस्था शशि - शेखरा मरकत - प्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः,
शङ्ख चक्रं - धनुः शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिश्शोभिता।
आमुक्ताङ्गद - हार-कङ्कण रणत् काञ्ची क्वणन्नपुरा,
 दुर्गा दुर्गति - हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला ।।

अर्थात् सिंह पर बैठी, चन्द्र (अर्ध-चन्द्र) को शिर पर धारण करनेवाली, मरकत मणि अर्थात् हरित वर्णवाली, चार भुजावाली, जिनमें शङ्ख, चक्र, धनुष और वाण हैं, त्रि-नयना, सम्बद्ध केयूर, हार, कङ्कण पहिने हुई, झनझन करनेवाली काशी और नूपुर तथा रत्नों के कुण्डल को धारण किए 'दुर्गा' हम सबकी दुर्गति-हारिणी हो।
चतुर्भुजी दुर्गा के उक्त दोनों ध्यानों का तत्त्व-निरूपण इस प्रकार है-
  • सिंहासन-आसन, अधिष्ठान का सूचक है। अव्यक्ता परमा प्रकृति या महा-चिति किसी वस्तु या तत्त्व को आधार बना कर ही व्यक्त होती है अर्थात् प्रकट होती है। इसके अधिष्ठान अर्थात् वाहन के तीन गुण हैं, जिनके द्योतक रक्त कमल, सिंह और प्रेत अर्थात् शव हैं। 'कमल' से इच्छा-शक्ति अर्थात् ब्रह्मा अर्थात् 'रजो' गुण, 'सिंह' से 'ज्ञान' शक्ति अर्थात् 'विष्णु' अर्थात् 'सत्त्व'-गुण और 'शब' से 'क्रिया' शक्ति अर्थात् शिव अर्थात् 'तमो' गुण। शास्त्रों में दो मत हैं। एक जैसा अभी उल्लिखित हुआ है और दूसरा कि क्रिया-शक्ति- 'विष्णु' है और 'ज्ञान- शक्ति'-'शिव'। इन तीनों से सृजन, स्थिति और संहति शक्तियों का बोध है।
'सिंहासन' का रहस्यार्थ है कि यह तीनों का संयुक्त-गुण-बोधक आसन है। तात्पर्य कि 'सिंह' से ब्रह्मा, विष्णु और शिव के संयुक्त गुण का बोध होता है। 'देवी-पुराण' भी ऐसा कहता है कि 'सिंह' की ग्रीवा पर विष्णु, शिर पर शिव आदि की अवस्थिति है। इसी हेतु रहस्यासन है- 'सिंह' पर 'कमल' और 'कमल' पर 'शिव' अर्थात् 'शव'। इस रहस्य-ध्यान से ही 'पराम्बा दुर्गा' वर और अभय दोनों देती है।
 यथा-
सिंहोपरि-स्थितं पद्यं, रक्तं तस्योर्ध्वगः शवः। 
तस्योपरि महा-माया, वरदाभय-दायिनी।। 
एवं रूपेण यो ध्यात्वा, पूजयेत् सततं शिवां। 
ब्रह्म-विष्णु-शिवास्तेन, पूजिताः स्युर्न संशयः।।
  • शशि-शेखरा-जिसके शिखर अर्थात् मस्तक पर 'शशि' वा 'चन्द्र' हो। 'शशि' के अनेक अर्थ हैं। साधारणतया इसका अर्थ है 'चन्द्र'। परन्तु यह शब्द 'शश्' धातु का बना है, जिसका प्रयोग कूदते हुए चलने में होता है। इस भाव में 'शशि' से तीव्र उत्क्रामिणी शक्ति का बोध है। तात्पर्य कि वह गमन-शक्ति हैं, जो रेखा-वाहिनी नहीं है। इसको विहङ्गम गति कहते हैं। व्यष्टि में आत्म-शक्ति की यह दूसरी गति है, प्रथम प्रकार की गति है-पिप्पिलिका-गति। ये दोनों समष्टि भाव में भी हैं। इसी से अघटन-घटनाएँ अर्थात् असाधारण घटनाएँ होती है।
अथवा जब 'शशि' अर्थात् शश-धारक पद के रौदिक अर्थ 'चन्द्र' और 'चन्द्रमा' हैं, तो इससे परं ज्योतिर्मयी का बोध होता है।
  • 'चन्द्र' पद से श्रेष्ठत्व का भी बोध होता है, रामचन्द्र (रामों में श्रेष्ठ), कृष्णचन्द्र (कृष्णों में श्रेष्ठ), पुरुषचन्द्र (पुरुषों में श्रेष्ठ)। इस भाव में 'चन्द्र' धारण से परमा-सत्ता को धारण करनेवाली का बोध है। यद्वा 'चन्द्र' का अर्थ है-सुख देनेवाला। इस प्रकार सर्व-सुख-दात्री शक्ति-शीला का बोध होता है। यह चित्-चन्द्र है, भूत-चन्द्र नहीं। यह अमृत-स्रावक है, जिसकी स्थिति व्यष्टि में आज्ञा- चक्र से ऊपर 'सोम' मण्डल में है। इस भाव में 'शशि' ब्रह्म की अमृतत्व और अमृत-करत्व लक्षणा-द्वय का बोधक है। इससे भगवती की निर्वाण-मोक्ष-दायिका धर्म-शक्ति की सूचना मिलती है। 'शशि' के पर्याय-वाचक शब्द 'चन्द्रमस्' के रूप में 'शशि शेखरा' पद से ज्योतिर्मय यद्वा कर्पूर-जैसा स्वच्छ बनानेवाली शक्ति का बोध होता है। कर्पूर को 'चन्द्र' कहते हैं और 'मा' का अर्थ है बनानेवाला (चन्द्रमा असि उणादि)। तात्पर्य कि जिसको इस 'चन्द्र' का दर्शन होता है, वह आनन्द-मय, ज्योतिर्मय और स्वच्छ हो जाता है। जो कोई योग क्रिया अर्थात् प्राण- योग-क्रिया द्वारा इस 'चन्द्र' से निःसृत अमृत-रस का पान करता है, वह अमरत्व प्राप्त करता है।
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  • मरकत-प्रख्या- 'मरकत'-मणि के सदृश वर्णवाली। 'मरकत' का रङ्ग हरा होता है। यह नील और पीत का मध्यवर्ती वर्ण है, जिसमें हरितत्त्व का अंश अधिक है। 'मत्स्य' पुराण और 'कालिका' पुराण में तीसी के फूल के जैसा वर्ण बताया है। इससे यह समझ पड़ता है कि दुर्गा भगवती का वर्ण नीलाभ-हरित है अथवा खूब गहरा हरा है, जिससे कभी उसमें नीलिमा की और कभी हरीतिमा की आभा झलकती है। 'ब्रह्म' की साकारोपासना में, जिसका प्रतिपादन ब्रह्म-सूत्र 'रूपोपन्यासाच्च' करता है, श्रुतियाँ शुक्ल, नील, पिङ्गल, लोहित वर्ण के साथ-साथ हरित वर्ण की भी व्यवस्था रखती हैं। ऐसा उल्लेख वृहदारण्यक (४।४।९) करता है-' तस्मिन् छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणोहानु वित्तस्ते नैति ब्रह्म-वित् पुण्य-कृत- तैजसश्च।'
जिस प्रकार 'कृष्ण'-वर्ण से 'निर्गुणत्व' का, 'नील'-वर्ण से 'शब्द-ब्रह्मत्व' का, 'रक्त' से 'रजो '-गुण प्रधान ब्रह्मत्व का बोध है, उसी प्रकार 'हरित'-वर्ण-'प्राण'-ज्योति के आदि रूप का सूचक है। इसका अनुभव हमें प्रत्यक्ष हो सकता है। यथा- एक 'दीप-शिखा' के मध्य-भाग का वर्ण पीताभ होता है, परन्तु 'दीप-शिखा' के निम्न भाग में अर्थात् आदि भाग में देखने से नीलाभ- वर्ण देखने में आता है। इससे जाना जाता है कि 'दीप-शिखा' ज्योति के सदृश 'प्राण' ज्योति का आदि-रूप नील-कान्त मणि (मरकत) जैसा है। इस प्रकार सिद्ध है कि 'मरकत' प्रख्या से 'प्राण'-शक्ति, जो ज्योति स्वरूपा है, आद्या-शक्ति है, जिसकी परिवर्तित अवस्थाओं के अनुकूल रक्त आदि रूपों के ध्यान है, उसका प्रकृत-वर्ण 'मरकत' व अतसी पुष्प जैसा है और अन्य वर्ण अप्रकृत अर्थात् परिवर्तन-जन्य हैं। इसका ज्ञान ग्राहक की ग्रहण-शक्ति पर निर्भर करता है। तात्पर्य कि हम जैसा इसको समझें, यह हमारे लिए वही और वैसी ही है।
  • चतुर्भुजा चार हाथवाली। चारों भुजाओं में क्रमशः १ शङ्ख, २ चक्र, ३ धनुष और ४ शर हैं। ये चारों आयुध भगवती काली, तारा और षोडशी महा-विद्या के आयुधों के पर्याय- वाचक है। 'शङ्ख'-'वर' का, 'चक्र'-'अभय' का, 'धनुष' और 'शर'-'खड्ङ्ग' और 'मुण्ड' के द्योतक है। इसी भाव के द्योतक भगवान् कृष्ण के शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म नामक चार आयुध हैं। इनके तात्पर्य निम्न प्रकार हैं-

शङ्ख- 

'शम् शान्ति करणे ख उणादि' के अनेक अर्थ हैं। शब्दार्थ है- उपाधि को शान्त करनेवाला। इसकी ध्वनि सुनकर दुष्ट प्रेतात्माएँ भाग जाती हैं। यह बहु-संख्या-वाचक भी है, जिससे बहु शक्ति का बोध होता है। इसका अन्य अर्थ है-कुबेर का अक्षय भण्डार। इससे यह 'बर' का द्योतक है।

चक्र- 

इसका एक अर्थ है गोलाकार अख, जिससे अपने भक्तों की रक्षा करती है। यह 'अभय' का सूचक है। अथवा इससे चक्र के सदृश घूमनेवाले संसार का बोध होता है। इस भाव में 'चक्र-धारिणी' से विश्व-धारिणी का ज्ञान होता है। तात्पर्य कि विश्व की स्थिति का कारण यही भगवती है।

धनुष- 

इसका रहस्यार्य शाखों में कहीं 'मन' कहा गया है, तो कहीं 'प्राण'। इससे उस सङ्कल्प-विकल्प-रहित मन या परिमार्जित चित्त-वृत्ति का बोध होता है, जो महा-वाक्यों वा मन्त्रों के शर से अपने लक्ष्य को विद्ध करती है। इसका रहस्यार्थ क्रिया-योग और ज्ञान-योग में भिन्न होता हुआ भी एक ही तात्पर्य का बोधक है। 'श्रुति' में बताया है-' धनुगृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपास निशितं सन्दधीत। आयम्य तद्-भाव-गतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि।' (मुण्डक २।२।३)। तात्पर्य कि धनुष लेकर उस पर उपनिषत्-रूपी शर को, जो उपासना द्वारा तीक्ष्ण हो गया है, रख, धनुष को खींच, निशाना लगा, अक्षर अर्थात् ब्रह्म-रूपी लक्ष्य को बेधना है।

शर-

ये 'पञ्च-तन्मात्रा' या 'पञ्च-ज्ञानेन्द्रिय' हैं। इन्हें लक्ष्य पर फेंक कर अर्थात् अन्तर्मुखी करके ही इष्ट वा ध्येय वा साध्य की प्राप्ति होती है। संक्षेप में जिस प्रकार भगवती आद्या वा काली के रूप में 'खड्ङ्ग' अर्थात् ज्ञान, 'मुण्ड' अर्थात् तत्त्व-ज्ञान देकर मोक्ष देती है, उसी प्रकार इस रूप में तत्त्व-ज्ञान रूपी 'धनुष' पर मन्त्र- रूपी 'शर' को चढ़ा भक्तों से लक्ष्य विद्ध करवाती है अर्थात् मोक्ष देती हैं। निदिध्यासन की  चार बाधाओं-१ लय, २ विक्षेप, ३ कषाय और ४ रसास्वाद को दूर करना ही इन चार आयुधों का रहस्य है। इन चारों बाधाओं की व्याख्या इस प्रकार है- 
  • चित्त की खण्डाकार-वृत्ति में अर्थात् पूर्ण द्वैत भाव की निष्क्रिय अवस्था को 'लय' कहते हैं। अर्थात् चित्त-वृत्ति की जड़ता ही 'लय' है। यह दो प्रकार का है-एक 'पर-लय', जो बाञ्छित है और दूसरा 'अपर-लय', जो अवाञ्छित या अनिष्टकारी है। यही दूसरा (किकर्त्तव्य- विमूढ़ता) विघ्न या बाधा-स्वरूप है। प्रथम है परमानन्द में चिरकाल अर्थात् अनेक जन्मों में अष्टाङ्ग- सहित समाधि के अभ्यास से 'लय' और दूसरा है बहिर्मुखी वृत्तियों की विषय-लीनता का भाव यद्वा मूच्र्छावस्था, जैसे आलस्य-वश स्तब्धी-भाव-लक्षण, निद्रा-रूप।
  • राग को 'विक्षेप' कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है-१ पर-राग, अनुराग या पर- वासना। यह राग का परिमार्जित रूप है, जो केन्द्रीभूत होकर अखण्डाकार-वृत्ति का या पर-मन का नित्यानन्द में अनुराग है। यह वाञ्छनीय है। २ विषय राग, जो यथार्थ ज्ञान से रहित है। यही विघ्न या बाधक है, जो मन को असार और अनित्य विषयों के उपभोग की तरफ खींचता है।
  • अखण्डाकार-वृत्ति अर्थात् केन्द्रित चित्त-वृत्ति से सत्य-शिव-सुन्दर वस्तु के ग्रहण में पूर्व-जन्मार्जित कुसंस्कार-वश अनिच्छा को 'कषाय' भाव कहते हैं। तात्पर्य कि सजातीय चित्त- प्रवाह को भङ्ग कर देनेंवाला विघ्न 'कषाय' है।
  • सविकल्पानन्द-बाह्य प्रपञ्च-निवृत्ति-जन्य आनन्द अर्थात् चित्त-वृत्ति की बहिर्मुखता के हटने से जो आनन्द होता है, उसी को 'रसास्वाद' कहते हैं। यह ब्रह्मानन्द अर्थात् अन्तर्मुखी आनन्द से भिन्न है। अतएव ब्रह्मानन्द की प्राप्ति में यह बाधा करता है। अर्थात् अपूर्ण आनन्द से पूर्णानन्द की प्राप्ति में बाधा पहुँचती है। यह  निवर्चनीय है क्योंकि ज्ञातृ, ज्ञान, ज्ञेय की त्रिपुटी के लय हो जाने पर क्या रहता है, यह कहने की वस्तु नहीं है। इसी से इसको चतुर्थी अवस्था कहते हैं। ५ त्रिनेत्रा-तीन नेत्र-वाली। शास्त्रों में ये तीनों नेत्र 'सूर्य' (दाहिना), 'चन्द्र' (याँयाँ) और भू-मध्यस्थ अर्थात् दोनों नेत्रों के बीच में 'अग्नि' के बोधक बतलाए गए हैं। 
'त्रि-नेत्रा' से निम्न नौ प्रकार के रहस्यों का बोध होता है-
  1. सर्व-साक्षिणी। दिन में सूर्य-नेत्र से, रात्रि में चन्द्र-नेत्र से और सन्ध्या-समयों में अग्नि-नेत्र से देखती है।
  2. त्रिगुणा या त्रिशक्ति-शीला। चन्द्र, सूर्य और अग्नि से इच्छा, ज्ञान, क्रिया-इन तीन शक्तियों का बोध होता है।
  3. सृष्टि-स्थिति-संहार-त्रि-शक्ति-रूपिणी। चन्द्र से सृष्टि, सूर्य से स्थिति और अग्नि से संहार-क्रिया का सम्पादन होता है।
  4. त्रि-कालज्ञा अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्य की जाननेवाली। भगवती अनादि सर्व-व्यापिनी नित्या सत्ता है। भूत को देखनेवाली से 'आद्या' अर्थात् अनादि है। वर्तमान को देखनेवाली होने से 'सर्व-व्यापिका' और भविष्य को देखनेवाली होने से 'नित्या' वा 'अपरिणामिनी सत्ता' है। अभेद-भाव दिखलानेवाली और स्वयं तद्-भावापना तीन नेत्रों से क्रमशः तीनों मण्डलों वा भुवनों अर्थात् तीनों लोकों को देखती है। इन तीनों लोकों या भुवनों से ज्ञातृ, ज्ञान, ज्ञेय (प्रमातृ, प्रमाण, प्रमेय)-इस त्रिपुटी का बोध होता है। इस त्रिपुटी को देखती है, जिससे यह अभेद-भाव दिखलानेवाली ऋतम्भरा प्रज्ञा है।
  5.  भगवती स्वयं सब कुछ है अर्थात् प्रमाता भी वही है, प्रमाण भी वही और प्रमेय भी वही है।
  6. त्रि-विध आत्मा अर्थात् १ जीवात्मा, २ अन्तरात्मा और ३ परमात्मा की ऐक्य- कारिका महा-विद्या।सोम-सूर्यानलात्मक त्रि-नेत्र मातृका मन्त्र के तीन खण्डों के द्योतक हैं। इन खण्डों की अधिष्ठात्री देवताएँ हैं-सावित्री, गायत्री और सरस्वती अर्थात् महाकाली, महा-लक्ष्मी और महा-सरस्वती, जो वाक् (शब्द) की ऋक्, साम और यजुस-रूपी त्रि-शक्ति-रूपा है।
  7. त्रि-नेत्र वा त्रि-दर्शन से १ अद्वैत, २ विशिष्टाद्वैत और ३ द्वैत-इन तीन दर्शनों का बोध होता है। इस प्रकार भगवती त्रि-विध दर्शनों की प्रतिपादिता परा-विद्या है।
  8. अङ्गद (केयूर), हार, कङ्कण, काची, नूपुर-पञ्च-आभरणों से भूषिता- 'आभरण' का रहस्यार्थ क्या है, जब कि शरीर, आयुध आदि के सदृश ये स्थूल रूप के अङ्ग नहीं है? श्रुति बताती है कि 'आभरण' से धर्मी-शक्ति के निर्विषयत्व, निरञ्जनत्व, अशोकत्व, अमृतत्व आदि धर्मो का बोध होता है। देखिए 'भावनोपनिषत्'। अङ्गद से, जिसका शब्दार्थ है शरीर घटक पदार्थ वा तत्त्व अर्थात् शरीरांश' अङ्गं ददातीत्यङ्गदम्' - निर्विषयत्व का बोध होता है। 'हार'- 'शोकं दुःखं वा हरतीति हारः 'अशोकत्व का और 'कङ्कण' के कण-शब्दे अच्-मनोहारी शब्द- कारक पदार्थ या अनाहत-ध्वनिकारक तत्त्व का सूचक है, जिसका अन्तस्तात्पर्य है- 'निरञ्जनत्व'। 'काञ्ची'-'कचि प्रकाशे इन् वा ङीप् से अमृतत्त्व का और 'नूपुर' से 'अजरत्व' का बोध होता है। यद्वा 'नू-पुर'- 'नू आभरणं पूरयति' -से सभी धर्मों की पूर्ति करनेवाले धर्म का बोध है। ये सभी आभरण 'आमुक्त' हैं अर्थात् सम्बद्ध है। इससे अविना-भाव-सम्बन्ध का बोध होता है अर्थात् इन धर्मों से धर्मी अर्थात् भगवती का नित्य सम्बन्ध है। 'आमुक्त' -'आ समन्तान् मुक्तः ' से सब प्रकार से अनावृत अर्थात् पूर्णतया प्रकट का ज्ञान होता है।
  9. रत्नोल्लसत्-कुण्डला-रत्न के सदृश प्रकाशवान कुण्डलोंवाली। 'रत्न' शब्द 'रम्'- धातु से बना है, अर्थ है रमणीय। अतः रमणीयता से उल्लसित 'कुण्डल' अर्थात् गोलाकार घनी-भूत शक्ति को धारण करनेवाली।
अथवा इससे श्रेष्ठ आनन्द-मयी प्राण-शक्ति का बोध होता है- 

'रत्नं श्रेष्ठं उल्लसितं आनन्द-विग्रहं कुण्डलमेव कुण्डला।'
अथवा सृष्टि-कारिणी सृजन-शक्ति की धारणा करनेवाली'
 कुं पृथ्वीं उलयति विस्तारयति इति कुण्डलो यस्याः सा'।

अथवा रक्षण-शक्ति की धरित्री महा-शक्ति- 'कुण्डि रक्षणे कुण्डलाति इति कुण्डलः'। अथवा स्वयं परमानन्द-मयी कुण्डला (कुण्डली) स्वरूपा। यही तात्पर्य युक्त-तम है।

  • दुर्गति-हारिणी-'दुर्गति' का अर्थ है बुरी गति। यह सब प्रकार की बुरी गति को नष्ट करती है। गति से शारीरिक, आर्थिक, मानसिक आदि सभी प्रकारों की गतियों से तात्पर्य है। 'दुर्गति' अर्थात् तापों को अर्थात् भौतिक, दैविक और आत्मिक त्रि-तापों को नष्ट करनेवाली, भोग और मोक्ष दोनों को देनेवाली भगवती है।

अष्ट-भुजी दुर्गा - 

अष्ट-भुजा-आठ भुजाओं से १ पृथ्वी, २ जल, ३ अग्नि, ४ वायु, ५ आकाश, ६ मन, ७ बुद्धि और ८ अहङ्कार
  • अष्ट-भुजी दुर्गा

'नवार्ण मन्त्र' के अनुसार इस भगवती का तेजो-रूप (अनलात्मक) ध्यान है- 

विद्युद्दाम-सम-प्रभां मृग-पति-स्कन्ध-स्थितां भीषणाम्।
कन्याभिः करवाल-खेट-विलसद् हस्ताभिरासेविताम्।।
 हस्तैश्चक्र-गदाऽसि-खेट-विशिखांश्चापं गुणं तर्जनीम्।
विभ्राणामनलात्मिकां शशि-धरां दुर्गा त्रिनेत्रा भजे।।

बिजली के सदृश वर्णवाली, मृग-पति अर्थात् सिंह के स्कन्ध वा ग्रीवा पर सवार, भीषणा अर्थात् कराल (डरावनी) आकृतिवाली, कन्याओं अर्थात् कुमारी-गण से, जिनके हाथों में करवाल अर्थात् खड्ग और खेट अर्थात् ढाल हैं, वेष्टित, (आठों) भुजाओं में चक्र, गदा, खड्ङ्ग, ढाल, शर, धनुष, गुण (रक्षा का एक साधन) और तर्जनी मुद्रा (सावधानकारक) रखती हुई अनलात्मिका अर्थात् तेजोराश्यात्मिका चन्द्र-धारिणी, तीन नेत्रवाली दुर्गा को भजता हूँ।
विद्युद्-दाम-सम-प्रभा-यह ध्यान तेजः स्वरूपा 'दुर्गा' का है। 'विद्युल्लता'- चित्-शक्ति की द्योतक है। 'तैत्तरीय' श्रुति कहती है कि 'विद्युत्'- 'ब्रह्म' है, 'शक्ति' है- 'बलमिति विद्युति'। 'ब्रह्म' वा परात्परा शक्ति को 'विद्युत्' क्यों कहते हैं? इसलिए कि इसके स्मरण-मात्र से अन्धकार का नाश हो, प्रकाश का आविर्भाव होता है। अथर्वशिर उपनिषत् कहता है- 'अथ कस्मादुच्यते वैद्युतम् यस्मादुच्चार्यमाण एव व्यक्ते महसि तमसि द्योतयति तस्मादुच्यते वैद्युतम्।' 'वृहदारण्यक' भी कहता है- 'विद्युद् ब्रह्म..... (५१७)। 'तन्त्र' का भी कहना यही है।
'मन्त्र-महोदधि' कहता है कि 'विद्युल्लता' ही 'चित्-शक्ति' है। यही 'प्राण-शक्ति' है, जिसके बिना किसी पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है। जड़ पदार्थों यथा मिट्टी, पत्थर आदि में यह शक्ति (चेतना व प्राण) सोती रहती है, वनस्पति आदि में इसकी स्वप्नावस्था और जीवों में जाग्रदवस्था है। २. मृगपति-इससे सिंह और शव-रूपी शिव दोनों का बोध होता है। पशुपति शिव को भी कहते हैं, कारण ये पशुओं-देवताओं के पति वा स्वामी हैं। शरभोपनिषत् श्रुति भी कहती है-  

' सर्वे देवाः पशुतामवापुः स्वयं तस्मात् पशुपतिर्बभूव।'

भीषणा- अर्थात् कराला ! भीषणत्व या करालत्व-ब्रह्म की एक विशिष्ट लक्षणा है, जिसे गीता 'सुदुर्दर्श' पद से व्यक्त करती है- सुदुर्दर्शमिदं रूपं, दृष्टवानसि यन्मम।'
भगवान् कृष्ण ने, जो सगुण ब्रह्म हैं, अपने भक्त प्रवर सखा अर्जुन को यह भीषण रूप दिखाया था। यहाँ शङ्का हो सकती है कि यह जगज्जननी 'भीषणा' अर्थात् जिसको देखने से भय हो, वैसी क्यों है? 'श्रुति' इसका निराकरण इस प्रकार करती है कि इससे सभी डरते हैं, यह किसी से नहीं डरती। इसी के डर से वायु ठीक प्रकार से बहता है, सूर्य उदय होता है। इसी प्रकार प्रकृति के सभी कार्य शृङ्खला-बद्ध होते हैं (देखिए, नृसिंह-पूर्व-तापिन्युपनिषत्)।
इसके सिवा 'विराट्'-स्वरूप भय-कारक होता ही है। जब यह 'महतो महीयान्' है अर्थात् विराट् से भी अधिक विराट् है; तब इसका 'भीषणत्व' स्वाभाविक ही है।

कन्याओं से सेविता- 'कन्या' पद के अनेक तात्पर्य हैं। इसका एक अर्थ है ज्योतिष्मती- 'कन् प्रकाशने + यक् उणादि टाप्'। इस भाव में भगवती प्रकाश-मण्डल से वेष्टिता हैं, ऐसा बोध है। दूसरा अर्थ है-अ-विवाहिता व्यक्ति शक्ति। इस भाव में अपञ्चीकृत तत्त्वों से वेष्टिता है, यह तात्पर्य है। कन्याओं के हाथों में तलवार (करवाल) और डाल (खेट)- हननात्मक तथा रक्षणात्मक शक्ति के द्योतक हैं। संक्षेप में यह भाव है कि भगवती 'कन्याओं' अर्थात् सृजन- शक्ति, रक्षण वा पालन-शक्ति और संहार-शक्ति से सेविता अर्थात् युक्ता है।

अष्ट-भुजा-आठ भुजाओं से १ पृथ्वी, २ जल, ३ अग्नि, ४ वायु, ५ आकाश, ६ मन, ७ बुद्धि और ८ अहङ्कार- इन आठों प्रकृतियों का बोध होता है। इस प्रकार अनुपहित महा- चिति उपहित चेतनावाली भी है अर्थात् परात्परा भगवती - प्रकृति-धारिणी, प्रकृति-रूपिणी भी है। इन हाथों में अवस्थित आठों आयुध तत्-तत् प्रकृति के नियन्त्रक हैं। शशि-धरा, त्रि-नेत्रा और दुर्गा के तात्पर्य बताए जा चुके हैं।

  • दश-भुजी दुर्गा

दश-भुजा कात्यायनी प्राण-महा-शक्ति का प्रकृत रूप है, जिसने 'महिषासुर' अर्थात् महा-मोह-रूपी आसुरी सर्ग का दमन किया था-
कात्यायन्याः प्रवक्ष्यामि, मूर्ति दश-भुजां तथा। 
त्रयाणामपि देवानामनुकारण-कारिणीम्।।

जटा-जूट - समायुक्तामर्धेन्दु कृतशेखराम्। 
लोचन त्रय-संयुक्तां, पद्मेन्दु- सदृशाननाम्।।

अतसी-पुष्प-वर्णाभां, सुप्रतिष्ठां प्रलोचनाम्। 
नव-यौवन-सम्पन्नां, सर्वाभरण-भूषिताम्।।

सुचारु-दशनां तद्-वत्, पीनोन्नत पयोधराम्। 
त्रिभङ्ग-स्थान-संस्थानां, महिषासुर मर्दिनीम्।।

त्रिशूलं दक्षिणे दद्यात्, खड्गं चक्रं क्रमादधः। 
तीक्ष्ण-वाणं तथा शक्ति, वामतोऽपि निबोधत ।।

खेटकं पूर्ण - चापं च, पाशमंकुशमूर्ध्वतः। 
घण्टां वा परशुं वाऽपि, वामतः सन्निवेशयेत्।।

अधस्तान्महिषं तद्-वद्, वि-शिरस्कं प्रदर्शयेत्। 
शिरच्छेदोद्भवं तद्-वद्, दानवं खड्ग-पाणिनम्।।

हृदि शूलेन निर्भिन्नं, निर्यदन्त्र विभूषितम्। 
रक्त-रक्ती कृताङ्गश्च, रक्त विस्फारितेक्षणम् ॥

वेष्टितं नाग - पाशेन, भुकुटी भीषणाननम्। 
स-पाश-वाम-हस्तेन, धृत-केशं च दुर्गया।
  • अर्थात् दश-भुजा कात्यायनी देवी तीनों देवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और शिव की जननी हैं। जटाजूट से युक्ता, अर्ध-चन्द्र से विभूषिता, त्रि-नेत्रा, पद्य और चन्द्र के सदृश प्रसन्न मुखवाली, अतसी के फूल अथवा मरकत समान वर्णवाली, सुन्दर भाव से अवस्थिता, सुन्दर नेत्रवाली, नव-युवती, सभी आभरणों से भूषिता, सुन्दर दाँतवाली, बड़े स्तनवाली, त्रिभङ्गा स्थान में रहनेवाली, महिषासुर की मर्दन करनेवाली, दाहिने हाथों में ऊपर त्रिशूल फिर क्रमशः खड्ग, चक्र, शर और शक्ति हैं, बाँएँ हाथ में खेटक, धनुष, पाश, अंकुश और घण्टा अथवा परशु (फरसा) हैं। नीचे में छिन्न-शिर महिष है। कटे हुए धड़ से निकला, खड्ग हाथ में लिए, असुर देवी के त्रिशूल से हृदय में विद्ध है। असुर की अंतड़ी निकली है, जिस कारण लहू के निकलने से असुर का पूर्ण शरीर लहूलुहान है। उसकी लाल आँखें विस्फारित है। वह देवी द्वारा नाग-पाश में बद्ध है। उसकी भुकुटी ऐसी हैं कि मुख-मण्डल भीषण दीखता है। देवी ने पाश-युक्त, वाम-हस्त से उसके केशों को पकड़ रखा है।
  • दश-भुजा-दश-भुजाएँ दश-प्राण-स्वरूपिणी है। व्यष्टि दुर्ग में स्थिता दुर्गा इन्हीं दश-प्राण-रूपी भुजाओं से क्रिया-शीला है। इन हाथों में अवस्थित आयुध इनकी तत्-तत् क्रियाओं के द्योतक है। तात्पर्य यह है कि मन-रूपिणी दुर्ग की स्वामिनी भगवती दुर्गा दश-भुजा- रूपी इन्द्रियों से क्रिया-शीला है और दश-आयुध-रूपी क्रिया-शील गुणों से वह इन्द्रियों का संयमन करती हैं। इसी प्राण-शक्ति से इच्छा, ज्ञान और क्रिया-शक्ति-रूपी त्रिदेवों की उत्पत्ति होती है और इसी में वे लीन होते हैं।
  1. जटा-जूट-इससे शृङ्खलाबद्ध धर्म का बोध होता है। इस शृङ्खला पर किसी प्रकार का आघात पहुँचने से, शृङ्खला का अति-क्रमण होने पर प्राण-शक्ति कुपित हो जाती है। इसी कारण इसे उग्रा, भीषणा, कराला आदि कहते हैं।
  1. पद्मेन्दु-सदृशानना-पद्म और इन्दु के सदृश प्रसन्न मुखवाली। प्राण-शक्ति का प्रकृत रूप 'पद्म' के समान सुन्दर होता हुआ उसी के समान विकासोन्मुख है और 
  2. 'इन्दु' (चन्द्र) के सदृश सौम्य और शीतल होता हुआ मध्यावस्था से पूर्णावस्था प्राप्त करनेवाली है। अतः प्राण-शक्ति की सम्वर्धना ही दश-भुजी दुर्गा भगवती की वास्तविक पूजा है।
  3. नव-यौवन-सम्पन्ना-अपचय-रहिता अर्थात् हास-रहिता होने से कालातीता है, ऐसा बोध होता है।
  4. सर्वाभरण-भूषिता-सभी आभरणों से भूषिता अर्थात् सर्व गुणोपेता का तात्पर्य है। 
  5. सुचारु-दर्शना-सुन्दर दाँतवाली अर्थात् सुन्दर नियन्त्रण-शक्ति-शीला है।
  6. त्रिभङ्ग-स्थान-संस्थाना- यह उन तीनों स्थानों में रहती है, जहाँ ग्रन्थि का भङ्ग वा भेद होता है। यह 'हृदय' में रहती है, जहाँ 'ब्रह्म' ग्रन्थि भेद कर आना होता है; 'भू'-मध्य में रहती है, जहाँ 'विष्णु' ग्रन्थि भेद कर आना होता है और 'ब्रह्म-रन्ध्र' में रहती है, जहाँ 'रुद्र-ग्रन्थि' भङ्ग कर आना होता है। इसी अवस्था में 'महिषासुर' अर्थात् महा-मोह का मर्दन होता है और प्राण- शक्ति-महिष-मर्दिनी कहला सकती है। 'महिष' के स्थूल शरीर- 'मोह' वा 'अविद्या' के बाहरी रूप का नाश होने पर उसका आन्तरिक रूप हृदय में प्रकट होता है, जिसे 'प्राण-शक्ति' का आत्म- शूल हृदय में प्रविष्ट होकर निष्याण वा निःशक्त करता है। सम्बधित प्राण-शक्ति के पाद-तल में अर्थात् नियन्त्रित होकर महिषासुर नित्य रहता है। भगवती से महिषासुर ने तीन वरों में एक वर यह भी माँगा था कि मैं जीवित ही तुम्हारे वाम-पाद-तल में नित्व रहूँ और तुम्हारे मुख को देखता रहूँ। 
  7. निर्यदन्त्र-विभूषितम् - इससे तात्पर्य है कि सब मैल निकल चुके हैं।
  8. रक्त-रक्ती-कृताङ्गम् - इससे ऐसा बोध होता है कि महा-मोह-ग्रसित जीव के समस्त राग बाहर निकल गए हैं।
  9. रक्त-विस्फारितेक्षणम् - इसका अर्थ है-आंसुरी-भावापन्न जीव का आश्चर्य। भय से भी आँखें विस्फारित होती है, परन्तु महा-मोह में ग्रसित जीव को भय कैसा? असुर-राज रावण को भी भय का नाम नहीं था। ये तो ज्ञानी थे। जिस प्रकार 'ब्रह्मा' के प्रपौत्र रावण को 'राम का ज्ञान' था, उसी प्रकार 'शिव' तनय महिषासुर को भी ज्ञान था भगवती दुर्गा का। इस तथ्य को सिद्ध करता है 'असुर' अर्थात् आसुरी-भावापन्न जीव का 'खड्ङ्ग' पाणि होना। 'खड्ग'- ज्ञान का द्योतक है। इसी से 'महिषासुर' को अपने आकस्मिक परिवर्तन पर आश्चर्य हुआ।
  10. नाग-पाशेन वेष्टितं नागपाश से बँधा। इसके अनेक तात्पर्य हैं। एक तो इससे ॐकार-पाश, प्रणव-विद्यानुबन्धन का बोध है। प्रणव-विद्या के बिना जीव की अविद्या (महा- मोह) दूर नहीं होती। दूसरे, नग का अर्थ है पर्वत में अवस्थित, या पर्वत में उत्पन्न 'नाग अण्'। अर्थात् जीव-शरीर में स्थित विन्ध्य, हिमाचल, मेरु आदि पर्वतों में अवस्थित विशिष्ट नाड़ी-रूप पाश से विद्ध। सुषुम्ना-रूपी पाश से जब तक जीव अपने को आबद्ध नहीं करता, तब तक किसी प्रकार की आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। इस पाश-बन्धन के दृढ़ीकरण का द्योतक है-श्रीदुर्गा द्वारा महिषासुर की चोटी को पकड़े रखना।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के प्रधानतया तीन रूप हैं-

  • अष्टादश भुजावाली उग्र-चण्डा, 
  • षोडश-भुजावाली भद्र-काली और 
  • दश-भुजावाली सौम्य-रूपिणी कात्यायनी।
प्रश्न उठता है कि एक ही असुर का तीन बार तीन रूपों द्वारा क्यों दमन हुआ? इसका उत्तर यह है कि 'अविद्या' व 'मोह' तीन गुणों के आश्रित है। दूसरे शब्दों में तीन प्रकार के मोह हैं- १ तामसिक मोह, २ राजसिक मोह और सात्विक मोह। 'मोह'-मल है, जिसका अन्त निस्वैगुण्यावस्था में ही होता है। इसी से भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को निस्त्रैगुण्य होने का उपदेश दिया था।
सबसे पहले 'तामसिक मल' का नाश होता है। इस हेतु 'उग्र-चण्डा' साधन द्वारा क्रिया- योग की पद्धति से तमो-गुणाश्रित 'मोह' दूर होता है। फिर 'राजसिक मोह' के नाशार्थ अर्ध- सौम्य और अर्ध-उग्र साधन की आवश्यकता होती है क्योंकि रजो गुण सत्त्व और तामस इन गुणों का मिश्रण है। अन्त में 'सात्विक' मोह के नाश के लिए 'शुद्ध सौम्य साधन की ही आवश्यकता होती है क्योंकि सत्त्व-गुण शुद्ध सौम्य है।
'महिषासुर' द्वारा देवी से सर्व प्रथम सौम्य रूप में ही मारने का वर माँगना यह बतलाता है कि एक ही जन्म में एक ही बार में जीव के आसुरी सर्ग नष्ट नहीं होते। अनेक बार वा अनेक जन्मों में सच्ची साधना करने से ही अविद्या का पूर्ण रूप से नाश होकर 'मोक्ष' होता है। 'गीता'
भी ऐसा ही कहती है-' अनेक जन्म-संसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।' 'शारदीय नवरात्र' के शुभ अवसर पर दश-भुजी सौम्य-रूपिणी कात्यायनी-महिष- मर्दिनी दुर्गा की आराधना के समय सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिकेय और गणेश की स्थिति की कल्पना की जाती है। सूक्ष्म रूप में ये सभी स्वरूप भगवती में अन्तर्निहित हैं, इनकी पृथक् पृथक् कल्पना की आवश्यकता नहीं है। किन्तु स्थूल रूप में, आसुरी सर्गों को नष्ट करनेवाली विजयी शक्तियों के स्पष्ट परिचय के लिए इनकी कल्पना उचित ही है।
सरस्वती विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान-स्वरूपा वाक्-देवी हैं। अविद्या-स्वरूप आसुरी सर्ग के दूरी-करण हेतु आत्म-विद्या की आवश्यकता होती है। आत्म-विद्या के बिना अविद्या का नाश सम्भव नहीं है। यह आत्म-विद्या-प्रकृति-रूपा प्राण-शक्ति से ही उत्पन्न होती है।
लक्ष्मी-दैवी सम्पत्ति-स्वरूपा है। इसी सम्पत्ति से आसुरी सगों से युद्ध किया जाता है। इसी के बल पर विद्या-अविद्या को परास्त करने में समर्थ होती है। इसे विज्ञान-शक्ति कहते हैं।
कार्तिकेय दैवी सम्पद्-रूप महा-सैन्य का सेनानी- यह संयतेन्द्रिय-भाव है। इसे साधारणतया 'कुमार' कहते हैं। 'कुमार' से, यदि जैसा हम समझते हैं, अविवाहित का बोध है, तो ये अविवाहित नहीं है। शास्त्रों में इनकी दो खियों का उल्लेख है। तो इनको 'कुमार' क्यों कहते हैं? इसका कारण यह है कि यह 'कु' अर्थात् कुत्सित भावों को मारनेवाले वा दूर करनेवाले हैं- 'कुं मारयति इति कुमारः।' कुमार से ब्रह्मचारी अर्थात् संयतेन्द्रिय का भी बोध होता है।
गणेश-गण+ ईश गणेश। 'गण' शब्द के कई अर्थ हैं। यहाँ यह शब्द संख्या-वाचक है। काल की गति की विच्छेदावस्था ही संख्या है। दूसरे शब्दों में 'गणेश' पद यहाँ स्थिरत्व-भाव का द्योतक है। स्थिरता-भाव के बिना आसुरी सर्गों से युद्ध में विजय नहीं पाई जा सकती।

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