शिव ही प्रकृति के कारण रूप हैं ,शिष्य धर्म ,योगपट्ट वर्णन Shiva is the cause of nature, disciple's religion, description of yoga board

शिव ही प्रकृति के कारण रूप हैं ,शिष्य धर्म ,योगपट्ट वर्णन

शिव ही प्रकृति के कारण रूप हैं

वामदेव जी बोले- भगवन्! पूर्व में आपने ही प्रकृति के नीचे नियति और ऊपर पुरुष बताया था। फिर आज आप यह क्या कह रहे हैं? प्रभु मेरा संशय दूर कीजिए। तब मुनि वामदेव जी के वचन सुनकर स्कंद जी बोले- हे मुने! अद्वैत सेवावाद में द्वैत सेवावाद का कोई समावेश नहीं होता। यह नश्वर और अविनाशी है। भगवान शिव ही सच्चिदानंद स्वरूप वाले परमब्रह्म हैं। इन्हीं त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी शिव को ही सर्वज्ञ, सबका कर्ता एवं त्रिवेदों का उत्पादक कहा जाता है। वे सर्वेश्वर शिव ही अपनी माया और इच्छा के अनुरूप संकुचित रूप धारण कर पांचों कला में निपुण पुरुष हो गए हैं। वे ही भोक्ता हैं, जो कि प्रकृति के सभी गुणों को भोगने वाले हैं। वे ही समष्टि और चित्त प्रकृति तत्व के स्वामी हैं। प्रकृति के गुण सत्व से उत्पन्न हुए हैं। गुणों से बुद्धि और बुद्धि से ही अहंकार की उत्पत्ति होती है। तब उससे तेज और उससे मन, बुद्धि और इंद्रियों की उत्पत्ति हुई है। मन के रूप को संकल्प विकल्पात्मक कहा गया है। बुद्धि, इंद्रिय, कान, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गंध, प्रवृत्ति को बुद्धि और इंद्रियों में श्रोत का क्रम कहा गया है। वैचारिक अहंकार से कर्मेंद्रियों की उत्पत्ति हुई है। जिन्हें मुनियों ने सूक्ष्म कहा है। फिर तन्मात्राएं और शब्द के रूप हुए जिनसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । ये ही पंचमहाभूत कहलाते हैं। शब्दादि रूप, रस, गंध उनकी तन्मात्राएं कहलाए । आकाश, वहन, पाचन वेग आदि पांच महा कहलाए। इस प्रकार स्कंद जी का वेदांतयुक्त वचन सुनकर मुनि वामदेव बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर पृथ्वी पर लेटकर उन्हें दण्डवत प्रणाम करने लगे। उनके चरणारविंदों में उन्हें परम तत्व ज्ञान प्राप्त हो गया था।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता सत्रहवां अध्याय

शिष्य धर्म

सूत जी बोले – मुनि वामदेव ने भगवान स्कंद से पूछा - हे भगवन्! आप सर्वतत्व को जानने वालों में श्रेष्ठ हैं। आप मुझ पर कृपा करके संप्रदाय के उस ज्ञान के बारे में बताइए, जिसके बिना जीवों को भोग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । प्रभो! कृपा कर मेरे इस संशय को दूर कीजिए। तब वामदेव जी के इन वचनों को सुनकर स्कंद देव बोले- मुनिश्वर ! अब मैं आपको एक परम गुप्त तत्व के बारे में बताता हूं। वैशाख, श्रावण, आश्विन, कार्तिक, अगहन, माघ महीनों के शुक्ल पक्ष में पंचमी अथवा पूर्णिमा के दिन स्नान करके शुद्ध होकर अपने गुरु के चरणों को धोकर उनके पास रखे आसन पर शंख में फूलों को अभिमंत्रित करके रखें। तत्पश्चात गंध और पुष्प से पूजन करें। उसके समक्ष दीप प्रज्वलित करें। मुद्रा से रक्षा कर कवच को मंत्रों से आच्छादित करें। तत्पश्चात विधिपूर्वक अर्घ्य दें और सुगंधित पुष्पों से पूजन करें। आधार पर सुगंधित जल का घट रखकर उसे सूत से लपेटें। उस घट पर पीपल, पिलखन, जामुन, आम और बड़ नामक पांचों पेड़ों की छाल और पत्ते तथा हाथी, घोड़े, रथ, बांबी और नदी के संगम स्थान की मिट्टी में सुगंधि को मिलाकर उसे कलश पर लेपें । लेपने के बाद आम के पत्ते, कुश का अग्र नारियल, फूल आदि वस्तुओं से कलश को सजाएं। सजाने के बाद कलश में पंचरत्न डालें। यदि पंचरत्न न हों तो सुवर्ण डालें। नील, माणिक्य, सुवर्ण, मूंगा और गोमेद नामक पांच रत्नों को 'नमलस्क' का उच्चारण करते हुए अंत में 'ग्लूमू' कहते हुए विधि-विधान से पूजन करें। खीर और तांबूल अर्पित कर आठ नामों का जाप करते हुए पूजा करें। गुरु द्वारा बताई हुई विधि से अनुष्ठान सहित भगवान शिव की पूजा-अर्चना करें। फिर गुरु को अपने शिष्य को 'हं सोऽहं' मंत्र का उपदेश देना चाहिए। उपदेश के बाद भस्म का ज्ञान प्रदान करना चाहिए। उस समय गुरु को अपने मन में यही विचार करना चाहिए कि मैं ही शिव हूं। इस प्रकार शिष्य को ज्ञान दें।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता अट्ठारहवां अध्याय

योगपट्ट वर्णन

भगवान स्कंद बोले- मुनि वामदेव ! अपने शिष्य को पूजा विधि का वर्णन करने के पश्चात गुरु निम्न बातों का उच्चारण करें - मैं ब्रह्म हूं। वह तू है । आत्मा ही ब्रह्म है। सारा संसार ईश्वर से अधिष्ठित होता है। मैं ही प्राण हूं। आत्मा ही ज्ञान का सार है। प्रज्ञान आत्मा ही यहां विदित अवस्थित है। वही तुम्हारा, मेरा अर्थात सबका अंतर्यामी है। वही ज्ञान रूपी अमृत है। वह एक ही पुरुष में और आदित्य में है। वही परब्रह्म मैं हूं। सबसे परे और सबका ज्ञाता और वेद शास्त्रों का गुरु मैं ही हूं। इस संसार में सारे आनंद का क्षण मैं ही हूं। सर्वभूतों के हृदय में व्याप्त रहने वाला मैं ही ईश्वर हूं। सारे तत्वों का और पृथ्वी का प्राण मैं ही हूं। मैं ही जल और तेज का प्राण हूं। आकाश और वायु का प्राण मैं हूं। मैं ही त्रिगुणका प्राण हूं। मैं ही अद्वितीय और सर्वात्मक हूं। यह सब ब्रह्मरूप है। मैं ही मुक्त स्वरूप हूं। इसलिए मेरा ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार भगवान स्कंद ने वामदेव जी से योगपट्ट का वर्णन किया।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता उन्नीसवां अध्याय

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