लिंग स्थापना से फलागम ,ब्रह्मा-विष्णु मोह , शिवलिंग प्रतिष्ठा विधि Phalagam from establishment of Linga, Brahma-Vishnu fascination, Shivalinga Pratishtha method

लिंग स्थापना से फलागम ,ब्रह्मा-विष्णु मोह , शिवलिंग प्रतिष्ठा विधि

लिंग स्थापना से फलागम

मुनिवर उपमन्यु श्रीकृष्ण को पारलौकिक विधि के बारे में बताते हैं। यह विधि सर्वोत्तम है। इस त्रिलोक में निवास करने वाले सभी प्राणी इस विधि का आश्रय लेकर अपने पद को प्राप्त करते हैं। सबने अपने पदों के अनुसार सुख, शासन और राज्य को प्राप्त किया है। भगवान शिव को श्वेत चंदन के जल से स्नान कराएं, श्वेत कमल से ही उनका पूजन कर हाथ जोड़कर प्रणाम करें। उन्हें कमल के ही आसन पर विराजमान करें। धातु का शिवलिंग बनाकर उसका पूजन करें। बेल पत्रों द्वारा कमल के दाईं ओर बैठे हुए भगवान शिव और देवी पार्वती का पूजन-आराधन करें। फिर सुगंधित वस्तुओं से सुरभित करें। मूर्ति के दाईं ओर अगर (अंगरू), पश्चिम में मैनसिल, उत्तर में चंदन और पूर्व में हरिताल लगाएं। तत्पश्चात भगवान शिव की मूर्ति के चारों ओर गूगल और अगर की धूप दें। फिर उन्हें नए वस्त्र पहनाएं। फिर उन्हें खीर का नैवेद्य अर्पित कर घी का दीपक जलाएं। मंत्रोच्चारण करते हुए शिवजी की परिक्रमा करके हाथ जोड़कर प्रार्थना करें और अपने द्वारा किए गए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। इस प्रकार पूजन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध तेतीसवां अध्याय


लिंग स्थापना से शिव प्राप्ति

मुनि उपमन्यु ने श्रीकृष्ण से कहा- हे कृष्ण! जितने भी प्रकार की सिद्धियां हैं, वे शिवलिंग की स्थापना करने से तत्काल सिद्ध हो जाती हैं। सारा संसार लिंग का ही रूप है। इसलिए इसकी प्रतिष्ठा से सबकी प्रतिष्ठा हो जाती है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कोई भी अपने पद पर स्थिर नहीं रह सकते। अब मैं तुम्हें भगवान शिव के लिंग के बारे में बताता हूं। लिंग तीन गुणों को उत्पन्न करने का कारण है। वह आदि और अंत दोनों से रहित है। इस संसार का मूल प्रकृति है और इसी से चर-अचर जगत की उत्पत्ति हुई है। यह शुद्ध, अशुद्ध और शुद्धाशुद्ध आदि से तीन प्रकार का है। सभी देवता और प्राणीजन इसी से उत्पन्न होकर अंत में इसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए भगवान शिव को लिंग रूपी मानकर उनका देवी पार्वती सहित पूजन किया जाता है। भगवान शिव और देवी पार्वती की आज्ञा के बिना इस संसार में कुछ भी नहीं हो सकता। त्रिलोकी के प्रलयकाल आने पर जब भयानक प्रलय मची थी उस समय श्रीहरि भगवान विष्णु क्षीरसागर में अथाह जल के बीच शेष शय्या में सो गए। तब उनके नाभि कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी विष्णुजी के पास जाकर उनसे बोले- तुम कौन हो? यह कहकर उन्होंने निद्रामग्न श्रीहरि को झिंझोड़ दिया। तब जागकर श्रीहरि ने आश्चर्य से अपने सम्मुख खड़े व्यक्ति को देखकर पूछा - पुत्र तुम कौन हो और यहां क्यों आए हो? यह सुनकर ब्रह्माजी को क्रोध आ गया। तब वे दोनों ही अपने को बड़ा और सृष्टि का रचयिता मानकर आपस में झगड़ने लगे। जल्दी ही बढ़ते-बढ़ते बात युद्ध तक पहुंच गई और ब्रह्मा-विष्णु में भयंकर युद्ध होने लगा। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव उस युद्ध को रोकने के लिए दिव्य अग्नि के समान प्रज्वलित लिंग रूप में उनके बीच में प्रकट हो गए। उन्हें देखकर दोनों आश्चर्यचकित हो गए और उनका अभिमान जाता रहा। तब वे उस लिंग के आरंभ और अंत की खोज के लिए निकल पड़े। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया और तीव्र गति से ऊपर चले गए। श्रीहरि ने वराह रूप धारण किया और नीचे की ओर गए । एक हजार वर्षों तक दोनों लिंग के आदि अंत की तलाश में घूमते रहे परंतु उन्हें कुछ न मिला। उन्होंने यही समझा कि यह कोई प्रकाशमान आत्मा है। तब ब्रह्माजी और विष्णुजी दोनों ने हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से प्रकाश पुंज शिवलिंग को प्रणाम किया।

शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध चौतीसवां अध्याय

ब्रह्मा-विष्णु मोह

मुनि उपमन्यु बोले – हे वासुदेव! उस समय वहां पर ओंकार का नाद होने लगा परंतु ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही उस ब्रह्म ध्वनि को समझ न सके। 'ॐ' में स्थित अकार, उकार और मकार क्रमशः दक्षिण, उत्तर और मध्य भाग में तथा अर्द्ध मात्रा रूपी नाद लिंग के मस्तक पर जा पहुंचा। प्रणव अपना रूप बदलकर वेद के रूप में प्रकट हुए। अकार से ऋग्वेद, उकार से यजुर्वेद, मकार से सामवेद और नाद से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई। सर्वप्रथम ऋग्वेद की उत्पत्ति हुई। इसमें रजोगुण से संबंधित विधि मूर्ति थी।सृष्टि लोक, तत्वों में पृथ्वी, अव्यय, आत्मा, काल निवृत्ति, चौंसठ कलाएं और ऐश्वर्य आदि विभूतियां ऋग्वेद से प्राप्त हुईं। यजुर्वेद से सत्वगुण, अंतरिक्ष और विद्या आदि तत्वों की प्राप्ति हुई। सामवेद से तमोगुणी रुद्र मूर्ति एवं संहारक वस्तुएं उत्पन्न हुईं।अथर्ववेद में निर्गुण आत्मा का वैभव, माहेश्वरी, सदाशिव,निर्विकार आत्माओं की स्थिति का वर्णन है। नाद मेरी आत्मा है। समस्त विश्व ओंकार के अर्थ का सूचक है। 'ॐ' शब्द शिव का वाचक है। शिव और प्रणव में कोई अंतर नहीं है। संसार के रचनाकर्ता ब्रह्मा, रक्षक विष्णु और संहारक रुद्र हैं। रुद्र ही ब्रह्मा-विष्णु को अपने नियंत्रण में रखते हैं। वे शिव ही सब कारणों के कारण हैं। आप दोनों बिना बात ही एक-दूसरे के दुश्मन बने हैं। इसलिए मैं आपके बीच शिवलिंग रूप में उत्पन्न हुआ हूं। यह सुनकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों का ही अभिमान टूट गया और वे भगवान शिव से बोले - हे ईश्वर ! आपने हमें अपने चरण कमलों के दर्शन का सुअवसर प्रदान किया है। हम धन्य हो गए। हमारा अपराध क्षमा करें। तब भगवान शिव बोले-हे पुत्रो ! तुम दोनों अभिमानी हो गए थे इसलिए मुझे यहां लिंग रूप में प्रकट होना पड़ा। अब अभिमान त्यागकर सृष्टि के कार्यों को पूरा करने में अपना योगदान दो।

शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता  उत्तरार्द्ध पैंतीसवां अध्याय

शिवलिंग प्रतिष्ठा विधि

श्रीकृष्णजी बोले- हे मुनिवर ! आपने मुझ पर कृपा कर इस अद्भुत कथा को मुझे बताया। अब आप लिंग और वेदी की प्रतिष्ठा की विधि भी बताइए। यह सुनकर उपमन्यु बोले - हे कृष्ण ! शुक्ल पक्ष में शिव-शास्त्र के अनुसार शिवलिंग का निर्माण कराएं। गणेश जी का पूजन कर लिंग को स्नान के लिए ले जाएं। पांच स्थान की मिट्टी, गोबर और पंचगव्य से शिवलिंग को स्नान कराएं। मंत्रोच्चारण करते हुए लिंग का जल में अधिवास करें। मूर्ति को सुंदर वस्त्र और आभूषण से सुसज्जित कर उनका पूजन करें और उन्हें चौकी पर स्थापित करें। पूर्व की ओर मूर्ति का माथा और पश्चिम में पिंडी होनी चाहिए। तत्पश्चात पुनः स्नान कराकर पूजन करें। वेदी की भूमि के ईशान कोण में कमल लिखें। शिवजी का आह्वान कर पूजन करें। वेदी के पश्चिम में चंडिका कमल लिखकर पुष्प अर्पित करें। फिर शिवलिंग को नए वस्त्रों में लपेटें। विधेश कुंभ और वर्धिनी शैवी की स्थापना करें। फिर चार विप्र मंत्रोच्चारण करते हुए हवन करें। एक सौ आठ घी की आहुतियों से हवन करें। हवन के पश्चात पूर्णाहुति दें। फिर महापूजन आरंभ करें। दस कलशों के जल में शिवमंत्र पढ़कर अंगूठे और अनामिका द्वारा मृत्तिका मंत्र जाप करें। फिर उस जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। फिर विधेश के घट से अभिषेक करें। तत्पश्चात दोनों हाथ जोड़कर भक्ति भावना से भगवान शिव का देवी पार्वती सहित स्तुति करते हुए आह्वान करें। फिर पंचोपचार से उनका पूजन करें। पूजन करने के पश्चात हाथ जोड़कर क्षमा-याचना करें। फिर अन्य मूर्तियों को भी इसी विधि से स्थापित करें। सब कार्यों के पूर्ण हो जाने पर आचार्य को यथावत दक्षिणा देकर उसके चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त करें।

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