नृसिंह लीला वर्णन ,शरभ अवतार ,विश्वानर को वरदान
नृसिंह लीला वर्णन
नंदीश्वर बोले- हे प्रभो ! शार्दूल नामक भगवान शिव के अवतार के बारे में मैं तुम्हें बताता हूं। कल्याणकारी भगवान शिव ने एक बार अग्नि के समान जलते हुए शरभ रूप को भी धारण किया था। वैसे तो भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा करने और उनका कल्याण करने हेतु अनेक अवतार धारण करते हैं, जिनकी गणना करना असंभव है। एक बार अपने द्वारपालों, जय-विजय को दिए गए शाप के कारण वे दोनों दिति पुत्र कश्यप जी के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए। पहला पुत्र हिरण्यकशिपु और दूसरा हिरण्याक्ष रूप में विख्यात हुआ। इन दोनों ने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर लिया और पूरे संसार में उपद्रव करना आरंभ कर दिया। वे किसी से डरते नहीं थे और ऋषि-मुनियों और देवताओं के शत्रु बनकर उन्हें सदैव नुकसान पहुंचाते थे। उन्होंने शोणित नगर को अपनी राजधानी बनाया था और तीनों लोकों पर विजय का लक्ष्य बनाकर निरंतर युद्ध में लगे हुए थे। वे बहुत पापी और दुराचारी हो गए थे। इस प्रकार उनके पाप दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। तब ब्रह्माजी व सब देवताओं ने भगवान श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना की कि वे उन्हें हिरण्यकशिपु के अत्याचारों से मुक्त कराएं। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भी मारने का प्रयत्न किया क्योंकि प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और अपने पिता हिरण्यकशिपु को भी सदा विष्णुजी की शरण में जाने की सलाह देता था। जबकि हिरण्यकशिपु अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता था। वह स्वयं को भगवान मानता था और अपनी प्रजा से अपनी पूजा करने के लिए कहता था। एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मार डालने के लिए उसे एक विशाल खंभे पर बांध दिया। भक्तवत्सल भगवान अपने भक्तों को कष्ट में देखकर सदा उनकी रक्षा करने के लिए आते हैं। भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धारण किया, जो कि आधा मनुष्य का था और आधा सिंह का, और उसी खंभे को फाड़कर प्रकट हो गए। उन्होंने देखते ही देखते युद्ध करने आए सभी दैत्यों का संहार कर दिया। तत्पश्चात हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लिटाकर अपने नाखूनों से उसका शरीर फाड़ दिया। हिरण्यकशिपु के मरते ही सब देवता आनंदित हो उठे परंतु जब नृसिंह रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु का क्रोध शांत नहीं हुआ तो सभी चिंतित हो गए। तब अपने आराध्य भगवान विष्णु का क्रोध शांत करने के लिए उनके भक्त प्रह्लाद ने उनकी स्तुति की। प्रह्लाद की स्तुति से प्रसन्न होकर विष्णुजी ने उन्हें गले से लगा लिया परंतु फिर भी उनके क्रोध की ज्वाला शांत नहीं हुई। तब सब देवता भक्तवत्सल, कल्याणकारी भगवान शिव की शरण में गए और उनसे विष्णु के क्रोध को शांत करने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुनकर सर्वेश्वर शिव ने उन्हें कहा- हे देवताओ! आप लोग चिंता का त्याग करके अपने-अपने धाम को जाइए मैं भगवान श्रीहरि विष्णु को अवश्य शांत करूंगा। तब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गए।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता दसवां अध्याय
शरभ अवतार
नंदीश्वर बोले- जब देवताओं की प्रार्थना सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव ने उन्हें नृसिंह रूप का क्रोध शांत करने का आश्वासन देकर विदा कर दिया तब उन्होंने प्रलयंकारी भैरव रूप महाबली वीरभद्र को बुलाया। वीरभद्र को आदेश देते हुए शिवजी बोले- हे भैरव ! नृसिंह के क्रोध की अग्नि को शांत कर देवताओं के भय को दूर करो। यदि वे आपके समझाने से न मानें तो आप मेरे भाव भैरव का रूप दिखाकर उन्हें शांत करना। भगवान शिव की आज्ञा का पालन करते हुए भैरव तुरंत ही नृसिंह जी का क्रोध शांत करने के लिए चल पड़े। नृसिंह जी के पास पहुंचकर भैरव जी ने उन्हें नमस्कार करने के उपरांत इस प्रकार कहा- हे माधव! आपने इस संसार को सुखी करने हेतु यह अवतार धारण किया है। आपने पहले मछली का रूप रखकर और अपनी पूंछ से नाव को बांधकर मनु जी को समुद्र में घुमाया था। पृथ्वी का उद्धार करने के लिए ही आपने वराह रूप धरा था। तत्पश्चात आपने वामन अवतार ग्रहण करके बलि को बांधा था। अब आपने अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए नृसिंह रूप धारण किया है। प्रभो! आप ही सबके दुखों का नाश करने वाले हैं। आपने जिस कार्य की सिद्धि हेतु नृसिंह रूप धारण किया था, वह कार्य पूर्ण हो चुका है। इसलिए अब आप इस भयंकर रूप को त्याग दीजिए और पुनः अपना मनोहारी रूप धारण कर लीजिए। वीरभद्र के इन वचनों को सुनकर नृसिंह जी के क्रोध की ज्वाला और भड़क उठी और वे बोले- तुम यहां से तुरंत चले जाओ वरना मैं इस पूरे संसार का संहार कर दूंगा। मेरे अंश से ही ब्रह्मा और इंद्र प्रकट हुए हैं। मैं ही सबका स्वामी हूं। इस प्रकार विष्णुजी के कहे वचनों को सुनकर वीरभद्र को बहुत क्रोध आया। तब वे बोले, क्या आप संसार के संहर्ता भगवान शिव को भी नहीं जानते हैं? मैं उन्हीं की प्रेरणा से यहां आया हूं। आप अहंकार का त्याग कीजिए, क्योंकि न तो आप इस सृष्टि के सृजनकर्ता हैं, न पोषणकर्ता और न ही संहारकर्ता । उन्हीं परमेश्वर शिव की कृपा से आप अनेक अवतार धारण करते हैं। आपके कर्मरूप धारी का सिर भगवान शिव की अस्थिमाला की शोभा बढ़ा रहा है। आपके पुत्र ब्रह्मा का पांचवां सिर भी मैंने काट लिया है। इस संसार में हर तरफ भगवान शिव की ही शक्तियां फैली हुई हैं। उन भक्तवत्सल भगवान शिव की ही शक्ति से आप मोहित हो रहे हैं। हे नृसिंह! आप तत्काल ही अपने इस क्रोध और अहंकार को छोड़कर पुनः अपने शांत रूप में आ जाएं अन्यथा भगवान शिव की आज्ञा से यहां पधारे मुझ भैरव रूपी क्रोधी का वज्र आप पर पड़ेगा, जिससे आप तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता ग्यारहवां अध्याय
शिव द्वारा नृसिंह के शरीर को कैलाश ले जाना
सनत्कुमार जी बोले- नंदीश्वर जी ! भगवान शिव के अवतार कालभैरव ने जब क्रोधित होकर नृसिंह रूप धारण किए विष्णुजी को इस प्रकार क्रोध से फटकारा, तब आगे क्या हुआ? क्या उन्होंने भैरव जी की आज्ञा का पालन किया या फिर क्रोधित कालभैरव ने श्री विष्णुजी के नृसिंह रूप का संहार कर दिया? नंदी! आप जल्दी से मेरी इस जिज्ञासा को शांत करिए । महामुने, सनत्कुमार जी के इन वचनों को सुनकर नंदीश्वर बोले- भैरव जी के वीरभद्र रूप के इन वचनों को सुनकर नृसिंह जी, जो कि पहले से क्रोध से भरे हुए थे और अधिक क्रोधित होकर वीरभद्र पर झपट पड़े। तब वीरभद्र ने उन्हें अपनी भुजाओं में कसकर पकड़ लिया। वीरभद्र के इस प्रकार पकड़ने से नृसिंह जी अत्यंत व्याकुल हो उठे। तत्पश्चात वीरभद्र ने उन्हें इसी प्रकार कसकर पकड़े रखा और उन्हें लेकर उड़ गए। वे उन्हें उड़ाकर परम पावन शिवधाम ले गए और ले जाकर शिवजी के वाहन वृषभ के नीचे पटक दिया। इस प्रकार जोर से नीचे फेंक दिए जाने पर नृसिंह रूपी भगवान श्रीहरि विष्णु व्याकुल हो उठे। यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि देवाधिदेव भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भगवान शिव की माया से ग्रसित होकर भगवान श्रीहरि विष्णु का शरीर भय से कांपने लगा। भयभीत होकर विष्णुजी नृसिंह अवतार में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति करने लगे । वे प्रभु के सामने नतमस्तक होकर खड़े हो गए। नृसिंह भगवान परमेश्वर शिव से परास्त हो गए। उनकी शक्तियां क्षीण हो गई। वीरभद्र भैरव ने नृसिंह की सभी शक्तियों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। सभी देवता हाथ जोड़कर कल्याणकारी भगवान शिव के यश का गान करने लगे। तब देवताओं द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर महेश्वर शिव बोले- हे देवताओं! अब आपको घबराने अथवा भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वीरभद्र भैरव द्वारा इस प्रकार विष्णुजी के नृसिंह रूप को पराजित करना एक लीलामात्र है। इससे भगवान श्रीहरि विष्णु की महत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मेरे सभी भक्त मेरे साथ-साथ विष्णुजी की भी आराधना किया करेंगे। यह कहकर भगवान शिव नृसिंह जी के शरीर को अपने साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चले गए। तब भगवान शिव ने अपनी मुण्डमाला में नृसिंह का मुख भी शामिल कर लिया।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता बारहवां अध्याय
विश्वानर को वरदान
नंदीश्वर बोले - हे ब्रह्मपुत्र ! अब आप शशिमौलि भगवान शिव के उस उत्तम चरित्र को सुनिए, जिसमें उन्होंने विश्वानर के घर अवतार लिया था। बहुत पहले नर्मदा नदी के किनारे नर्मपुर नामक नगर था। इस नगर में विश्वानर नाम के एक महामुनि रहते थे। वे भगवान शिव के परम भक्त थे और संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका विवाह शुचिष्मती नामक ब्राह्मण कन्या से हुआ था। वह ब्राह्मण पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी और अपने पति विश्वानर की बहुत सेवा करती थी। उसकी इस प्रकार सच्चे हृदय से की गई निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर महामुनि विश्वानर उसे वरदान देना चाहते थे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि मैं तुम्हारी इस उत्तम सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम्हारी जो कामना हो उसके बारे में मुझे बताओ। अपने पति के इन वचनों को सुनकर ब्राह्मण पत्नी ने कहा- यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे महादेव जी के समान पुत्र प्रदान करें। अपनी पत्नी के इस वर को सुनकर विश्वानर सोच में डूब गए कि मेरी पत्नी ने मुझसे बड़ा ही दुर्लभ वर मांगा है। यह वर तो त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की कृपा से ही पूर्ण हो सकता है। तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि देवी तुम्हारा यह वर तो भगवान शिव की कृपा से ही पूर्ण हो सकता है। इसलिए मैं भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु उनकी तपस्या करने के लिए जाता हूं। अपनी पत्नी को तपस्या के बारे में बताकर विश्वानर अपने घर से निकल गए। चलते-चलते वे काशी नगरी में मणिकर्णिका घाट पर पहुंचे और अपने आराध्य के दर्शन कर उन्होंने अपने जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट कर दिए। तत्पश्चात विश्वेश्वर लिंग के दर्शन कर उन्होंने सभी तीर्थ स्थानों में पिण्डदान किया और ब्राह्मणों व ऋषि-मुनियों को भोजन खिलाया, फिर काशी के कुओं, बावड़ियों और तालाबों में स्नान करने के पश्चात विश्वेश्वर लिंग की पूजा-अर्चना में मग्न हो गए। एक वर्ष तक बिना कुछ खाए-पीए विश्वानर ने अद्भुत तपस्या की। एक वर्ष बीत जाने के पश्चात जब एक दिन विश्वानर पूजा हेतु गए तब उन्हें लिंग के मध्य भाग से एक सुंदर बालक की प्राप्ति हुई। वह बालक बहुत सुंदर था, उसकी पीली जटाएं थीं और उसने सिर में मुकुट लगा रखा था और वह हंस रहा था। ऐसे अद्भुत बालक को पाकर महामुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान शिव का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उनकी स्तुति करने लगे। वह बालक प्रसन्नतापूर्वक बोला - हे ब्राह्मण! मैं तुमसे प्रसन्न हूं। बोलो, वर मांगना चाहते हो? तब विश्वानर बोले- प्रभो! आप तो सर्वेश्वर हैं। सबकुछ जानने वाले हैं। अपने भक्तों के मन की बात भला आपसे कैसे छिप सकती है। क्या तब भगवान शिव ने अपने बालरूप में ही कहा–विश्वानर ! तुम्हारी तपस्या सिद्ध हुई। शीघ्र ही मैं तुम्हारी पत्नी शुचिष्मती के गर्भ से तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा। तब मेरा नाम गृहपति होगा। यह वरदान देकर भगवान शिव का वह बालरूप अंतर्धान हो गया और विश्वानर प्रसन्नतापूर्वक शिवलिंग को नमस्कार करके अपने घर चले गए।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता तेरहवां अध्याय
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