कबीर दास के दोहे और (Kabir Das)कबीर दास का असली नाम क्या है ,Couplets of Kabir Das and what is the real name of Kabir Das
कबीर दास के दोहे और कबीर दास का असली नाम क्या है
कबीर दास (Kabir Das) का असली नाम
“कबीर” नाम अरबी भाषा में “अल-कबीर” से आया है जिसका अर्थ है “महान“। इस्लाम में भगवान के नाम से इसका संबंध है। इतिहास साक्षी है जब काजी मुल्ला कबीर साहेब के नामकरण के लिए आये तब उन्होंने कुरान खोली लेकिन पुस्तक के सभी अक्षर कबीर-कबीर हो गए। उन्होंने पुनः प्रयत्न किया लेकिन तब भी सभी अक्षर कबीर में तब्दील हो गए। बालक के बुदबुदाने पर वे उनका नाम कबीर रखकर ही चल पड़े। इस तरह कबीर ने अपना नाम स्वयं रखा। कुछ समय बाद कुछ काजी कबीर साहेब की सुन्नत करने के उद्देश्य से आये तथा कबीर साहेब ने उन्हें एक लिंग के स्थान पर कई लिंग दिखाए जिससे डर कर वे वापस लौट गए। इस लीला का वर्णन पवित्र कबीर सागर में भी है।
- कबीर महान क्यों है
कबीर जी के प्रसिद्ध होने के कई कारण है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित हिन्दू व मुस्लिम धर्म में फ़ैले कुरीतियों पर कड़ा विरोध किया जिसके कारण उस समय कुछ लोग उनके विरोधी भी बन गए। उन्होंने जीवन जीने के लिए कई शिक्षाएं बहुत ही साधारण एवं सरल भाषा में दी। उन्होंने जीवन में गुरु के महत्व को भी बताया।
कबीर दास (Kabir Das) के दोहे 801 से 850 तक
दोहे
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 801 ॥
दोहे
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 802 ॥
दोहे
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 803॥
दोहे
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 804॥
दोहे
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 805 ॥
दोहे
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 806॥
दोहे
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 807 ॥
दोहे
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 808 ॥
दोहे
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।
अठकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 809 ॥
दोहे
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 810 ॥
दोहे
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 811 ॥
दोहे
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥
दोहे
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय |
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 812 ॥
दोहे
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 813 ॥
दोहे
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 814 ॥
दोहे
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 815 ॥
दोहे
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 816॥
दोहे
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 817॥
दोहे
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 818 ॥
दोहे
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 819 ॥
दोहे
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभ हिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 820 ॥
दोहे
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 821॥
दोहे
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 822 ॥
दोहे
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 823 ॥
दोहे
है मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 824 ॥
दोहे
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 825॥
दोहे
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 826॥
दोहे
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 827॥
दोहे
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 828 ॥
दोहे
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 829 ॥
दोहे
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 830 ॥
दोहे
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 831॥
दोहे
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 832 ॥
दोहे
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 833 ॥
दोहे
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 834 ॥
दोहे
मरूँ- मरुँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 835॥
दोहे
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 836॥
दोहे
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 837॥
दोहे
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 838 ॥
दोहे
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जाबै जम के द्वार ॥ 839 ॥
दोहे
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 840 ॥
दोहे
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 841 ॥
दोहे
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 841 ॥
दोहे
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 842 ॥
दोहे
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापे आय ॥ 843 ॥
दोहे
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 844 ॥
दोहे
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 845 ॥
दोहे
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 846 ॥
दोहे
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 847 ॥
दोहे
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 848 ॥
दोहे
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 849 ॥
दोहे
जरा थ्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 850 ॥
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