भगवती दुर्गा के चार अन्य रूप अपराजिता स्तोत्र
भगवती दुर्गा के चार अन्य रूप
- अपराजिता दुर्गा('दुर्गा-महा-शक्ति' का विराट् स्वरूप)
- अपराजिता दुर्गा की पूजा-विधि
- चण्डी
- महा-माया
'चतुर्भुजी दुर्गा', अष्ट-भुजी दुर्गा' एवं 'दश-भुजी दुर्गा' के अतिरिक्त भगवती दुर्गा के अन्य अनेक रूप हैं, जिनकी उपासना उपासक करते हैं। इस सन्दर्भ में यहाँ विशेष रूप से प्रचलित भगवती दुर्गा के चार रूप-१. अपराजिता दुर्गा, २. चण्डी, ३. महा-माया एवं ४. मूल प्रकृति रूपा दुर्गा के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा रहा है। यथा-
अपराजिता दुर्गा
('दुर्गा-महा-शक्ति' का विराट् स्वरूप)
गिरि-राज हिमालय की प्रार्थना पर श्री भगवती जी ने एक बार अपना विराट् रूप दिखाया था। उस समय विष्णु आदि सभी देवता वहाँ उपस्थित थे। विराट् रूप का मस्तक 'स्वर्ग- लोक' और नेत्र 'चन्द्रमा' तथा 'सूर्य' थे। 'दिशाएँ' कान, 'वेद' वाणी और 'पवन'- प्राण थे। हृदय-'विश्व' था और जङ्घा 'पृथ्वी'। 'व्योम-मण्डल' उसकी नाभि तथा 'नक्षत्र-वृन्द' - वक्षः-स्थल थे। 'महर्लोक'-कण्ठ और 'जन-लोक'- मुख था। इन्द्र आदि 'देवता' उस महेश्वरी के बाहु थे और 'शब्द' ही श्रवण। दोनों 'अश्विनी कुमार' उसकी नासिका थे, 'गन्ध' घ्राणेन्द्रिय थी। मुख-'अग्नि' और पलकें- 'दिवा-रात्रि' थीं। 'ब्रह्म-धाम'- भू-विलास था और 'जल'- तालु। 'रस' ही रसना तथा 'यम' ही दंष्ट्रा थे। 'स्नेह-कला'- दाँत थी और 'माया' थी हँसी। 'सृष्टि' ही कटाक्ष-विक्षेप तथा 'लज्जा' ही होठ थी। 'लोभ' अधर थे और 'धर्म-पथ'-पीठ। इस जगती-तल में जो सृष्टिकर्ता रूप से विख्यात हैं, वे 'प्रजापति' ही उस देवी के मेदू थे। 'समुद्र'- उदर, 'पर्वत'- अस्थि, 'नदी' नाड़ी तथा 'वृक्ष' ही उसके रोम थे। 'कौमार', 'यौवन' और 'जरावस्था'- उसकी उत्तम गति थी। 'मेघ' ही केश और 'दोनों सन्ध्याएँ' -वत्र थीं। 'चन्द्रमा' ही जगदम्बा का मन था। विज्ञान-शक्ति 'विष्णु' और अन्तःकरण 'रुद्र' थे। 'अश्व' आदि जातियाँ उस व्यापक परमेश्वरी के नितम्ब के निम्न भाग में स्थित थीं। 'अतल' आदि 'महा- लोक' उसकी कटि के अधो-भाग थे। देवताओं ने देवी के ऐसे महान् रूप का दर्शन किया, जो सहस्त्रों ज्वाला-मालाओं से परिपूर्ण था और लपलपाती हुई जीभ से अपना ही बदन चाट रहा था। उसकी दाढ़ों से कंट-कट शब्द होते थे और आँखें आग उगल रही थीं। नाना शत्रों को धारण करनेवाला वीर-वेष था। उसके सहस्त्र मस्तक, नेत्र तथा चरण थे। करोड़ों सूर्य और कोटि विद्युन्मालाओं के समान उसकी देदीप्यमान कान्ति थी। वह महा-घोर भीषण रूप हृदय तथा नेत्रों को आतङ्क पहुँचानेवाला था। उसे देखते ही सभी देवता हाहाकार करने लगे, उनका हृदय कम्पित हो गया और वे बेसुध हो गए। उन्हें इतना भी स्मरण न रहा कि ये जगज्जननी देवी है। महेश्वरी के चारों ओर जो 'वेद' मूर्तिमान् होकर खड़े थे, उन्होंने देवताओं को मूर्छा से जगाया। होश में आने पर वे नेत्रों में प्रेमानु भरकर गद्गद कण्ठ से भगवती का स्तवन करने लगे। स्तुति समाप्त होने पर उन्हें भयभीत जानकर देवी ने परम सुन्दर रूप धारण करके उन्हें सान्त्वना दी। (देवी भागवत)।
व्यक्तिगत देह, विराट् भौतिक जगत्, अन्तस्तल की अधिष्ठात्री अपराजिता भगवती दुर्गा उक्त सौम्य-रूप-धारिणी महा-माया का नाम 'दुर्गा' है, वह 'अपराजिता' हैं। कठिनता से जानी जाती है तथा पराभूत कभी भी नहीं होती हैं। उनकी ऐसी ही प्राचीन प्रतिज्ञा है।
सुनिए-
यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्प व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके, स मे भर्ता भविष्यति ।।
जो मुझे संग्राम में जीतेगा, मेरे दर्प को दूर करेगा और नहीं तो बराबर का बलवाला ही होगा; वही मेरा भर्त्ता बनेगा! कथा प्राचीन है और यह प्रतिज्ञा उससे भी पुरानी कितनी पुरानी, यह कौन
कहे? -' श्रूयतामल्प-बुद्धित्वात् प्रतिज्ञा या कृता पुरा।'
ऋषि कहते हैं कि शुभ-निशुम्भ के दूत की बात सुनकर देवी 'गम्भीर अन्तः स्मिता' (मन-ही-मन हँसती-सी गम्भीर) हो गई और तब उक्त वाक्य बोली। हँसी के भीतर गम्भीर भाव छिपा है। प्रतिज्ञा स्वाभाविक प्रेरणा-वश है, सोच-समझ की हुई नहीं है। जब होश सँभाला, तो इस भाव को लेकर ही। पर-ब्रह्म की आद्या प्रकृति स्वभाव से ही अजेया जो ठहरी! पर-ब्रह्म को जिसने महामाया-रूप से अभिभूत कर रखा है, वह क्या सोचकर ऐसी प्रतिज्ञा करती? वह हर स्वर में, अपने हर भाव में अजेया-अपराजिता है। आद्या मूलाधार-शक्ति के रूप में देखें या भौतिक जगत् को परिचालित करनेवाली प्रकृति के रूप में-वह अजेया, अपराजिता ही है।
शुम्भ-निशुम्भ ने दूत के मुख से उसकी यह प्रतिज्ञा सुनकर उसको वशीभूत करने के लिए अपनी सारी आसुरी शक्ति लगा दी, परन्तु स्वयं उनका ही प्रलय हुआ। युग-युगान्तरों से इस सृष्टि के भीतर ऐसे आसुर-भावापन्न प्राणी होते रहे है, जिन्होंने विश्व-जननी परम प्रकृति को अपने अधीन करने का हठ ठाना है, लेकिन हर बार एक ही नतीजा हुआ।
मानव आज दुःखी है, इसलिए कि वह अहङ्कार-वश 'प्रकृति' को अपनी जननी न मानकर उसे अपने कौशल से जकड़कर दासी रूप में रखना चाहता है। 'प्रकृति' के ऊपर विजय पाने की आकांक्षा और दम्भ मनुष्य को अनर्थ की ओर ले जा रहा है। रोग, शोक, मनस्ताप, सङ्घर्ष और अन्त में अपने हाथों अपना घात-आज मनुष्य का, जो भोग्य का भाग्य बन रहा है, वह इसी आसुरी अहङ्कार-वृत्ति के कारण है।
'प्रकृति'- विश्व-जननी है। वैसे ही वह व्यक्ति की जननी और पालिका है। उसकी गोद में ही वह पैदा हुआ है, उसकी गोद में ही उसका यौवन और बुढ़ापा बीतता है और उसकी गोद में ही उसको चिर विश्रान्ति मिलेगी। उसके बाहर मनुष्य को खड़े होने का भी कहीं कोई स्थान नहीं है। इसीलिए 'गीता' में भगवान् ने कहा है- प्रकृतिं यान्ति भूतानि, निग्रहं किं करिष्यति।'
भूत मात्र को 'प्रकृति' के पीछे चलना ही होता है, निग्रह क्या करेगा? हाँ, उसका अनुगमन कर उसके उच्च-से-उच्चतर भाव-स्तर में उठते चले जा सकते हैं क्योंकि वह तो माँ है नः अपनी सन्तान को ऊँचा-से-ऊँचा उठाने में ही उसका आनन्द है।
व्यक्तिगत देह में, विराट् भौतिक जगत् में, अन्तस्तल में अथवा विराट् में सब जगह वही अपराजिता दुर्गा शासन कर रही है। भौतिक विज्ञान हो अथवा पारमार्थिक ज्ञान-दोनों ही क्षेत्रों में केवल उसके ही भावों का मनन व अनुसरण किया जाता है। उसके नियमों को पलटने की ताकत व उसमें हस्तक्षेप करने की शक्ति किसी में नहीं है। वही सब शक्तियों का मूल स्रोत है।
अपराजिता दुर्गा की पूजा-विधि
भगवती अपराजिता की पूजा के सम्बन्ध में 'स्कन्द पुराण' में यह निर्देश दिया है कि 'जब दशमी नवमी से संयुक्त हो, तो अपने कल्याण एवं विजय के लिए अपराजिता देवी की पूजा दशमी में उत्तर-पूर्व दिशा में अपराह्न में करे।' 'धर्म-सिन्धु' में अपराजिता-पूजा की विधि संक्षेप में यो बताई है- अपराह्न में गाँव के उत्तर-पूर्व में जाकर एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप दे। चन्दन से एक अष्ट-कोण यन्त्र बनाकर 'सङ्कल्प' करे। यथा- 'मम स-कुटुम्बस्य क्षेम- सिद्धयर्थमपराजिता-पूजनं करिष्ये।'
फिर उक्त अष्ट-कोणात्मक यन्त्र में अपराजिता दुर्गा का आवाहन कर उनके दाईं ओर 'जया' और बाँई ओर 'विजया' का आवाहन कर भगवती अपराजिता का ध्यान करे-
नीलोत्पल-दल-श्यामां, भुजङ्गाभरणोज्ज्वलां।
बालेन्दु-मौलि-सदृशीं, नयन-त्रितयान्विताम्।
शङ्ख-चक्र-धरां देवीं, वरदां भय-शालिनीं।
पीनोत्तुङ्ग स्तनीं साध्वीं, बद्ध पद्मासनां शिवाम्।।
अजितां चिन्तये देवीं, वैष्णवीमपराजितां ।
शुद्ध-स्फटिक-सङ्काशां, चन्द्र-कोटि-सुशीतलाम्।।
अभयां वर हस्तां च, श्वेत वस्त्रैरलंकृतां।
नानाभरण संयुक्तां, जयन्तीमपराजिताम् ॥
ध्यान कर निम्न मन्त्रों से नमस्कार करे-
'ॐ अपराजितायै नमः, जयायै नमः,
विजयायै नमः, क्रिया-शक्त्यै नमः, उमायै नमः।'
अपराजिता, जया और विजया की पूजा षोडश या पञ्चोपचारों से कर 'प्रार्थना' करे-
चारुणा मुख-पद्येन, विचित्र-कनकोज्ज्वला।
जया देवी शिवा भक्त्या, सर्वान् कामान् ददातु मे ।।
काञ्चनेन विचित्रेण, केंयूरेण विराजिता।
जय-प्रदा महा माया, शिवा भावित - चेतसा ।।
विजया च महा- भागा, ददातु विजयं मम।
हारेण तु विचित्रेण, भास्वत् कनक - मेखला।
अपराजिता भद्र-रता, करोतु विजयं मम ।।
इस प्रकार प्रार्थना कर देवी को 'पुष्पाञ्जलि' अर्पित कर विदा करे।
यथा-
इमां पूजां मया देवि! यथा-शक्ति निवेदितां ।
रक्षार्थं तु समादाय, व्रज स्व-स्थानमुत्तमम् ।।
अर्थात् 'हे देवि! यथा-शक्ति जो पूजा मैंने अपने कल्याण के लिए की है, उसे स्वीकार कर आप सहर्ष विदा हों।'
इसके बाद सभी लोग गाँव के उत्तर-पूर्व में लगे शमी वृक्ष के पास जाकर उसकी पूजा करें। शमी वृक्ष न हो, तो अश्मन्तक वृक्ष की पूजा करे।
इस सम्बन्ध में निम्न शास्त्रोक्ति उल्लेखनीय है-
दशम्यां च नरैः सम्यक्, पूजनीयापराजिता।
मोक्षार्थ विजयार्थं च, पूर्वोक्त-विधिना नरैः ।।
नवमी - शेष - युक्तायां, दशम्यामपराजिता।
ददाति विजयं देवी, पूजिता जय-वर्धिनी ।।
'चण्डी'
दुर्गा महा-शक्ति को 'चण्डी' या 'चण्डिका' भी कहते हैं। 'चण्ड' धातु या 'चडि'-धातु जिसका कि अर्थ 'क्रोध' है, उसके साथ 'इंप्' या 'डीषि' प्रत्यय जोड़ देने से 'चण्डी' शब्द बनता है। इस शब्द का साधारणतया अर्थ हुआ कोप-मयी, क्रुद्धा। दुर्गा महा-शक्ति की यह संज्ञा क्यों प्रसिद्ध है? ब्रहा-रूपिणी माता दुर्गा चण्डित्व लक्षणा, जिससे उग्रता का बोध होता है, क्यों परिलक्षित है? यही हमें देखना है।
'चण्डी' नाम की निरुक्ति शाक्त आगमों के अनन्यतम श्रेष्ठ रहस्य-विद् श्रीमद् भास्कर राय ने सप्तशती की 'गुप्तवतो टीका' के उपोद्घात-प्रकरण में 'चण्डी' तत्त्व की विशद् रूप से विवेचना की है। 'चण्डी' नाम के तात्पर्य-निरूपण के प्रसङ्ग में भास्करराय का कहना है-'चण्डी-नाम पर ब्रह्मणः पट्ट-महिषी देवता'।
'चण्डी' नाम-पर-ब्रह्म की पट्ट-महिषी देवता का वाचक है। 'चण्ड-भानु', 'चण्ड-वाद' इत्यादि स्थल में 'चण्ड' शब्द इयत्ता या सीमा द्वारा अपरिच्छिन्न, असाधारण-गुण-शालित्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इयत्ता कहने से देश, काल और वस्तु-गत त्रि-विध परिच्छेद का बोध होता है। इन त्रि-विध परिच्छेदों से रहित पर-ब्रह्म ही 'चण्ड' शब्द का अर्थ है। 'चण्ड' शब्द के बाद स्त्री-लिङ्ग में ङीष् प्रत्यय लगाने से 'चण्डी'- पद सिद्ध होता है।
अतएव 'चण्डी' पर-ब्रह्म-
महिषी अर्थात् 'ब्रह्म-शक्ति'।
विश्व-नियन्त्री, समष्टि-शक्ति-रूपिणी चण्डिका देवी
'चण्डी' इयत्ता-रहिता, अपरिमेया, असाधारण गुण-सम्पन्ना हैं। वे ही भयङ्कर कोप-
युक्ता हैं। 'ब्रह्म-सूत्र' ने ब्रह्म-शक्ति को उद्यत वज्र के समान अत्यन्त भीषण कहा है। 'श्रुति' ने ब्रह्म- शक्ति के स्वरूप का वर्णन करते समय कहा है- 'इसके भय से वायु बहती है, इसके भय से सूर्य उदित होता है, इसके भय से अग्नि, इन्द्र और पाँचवें मृत्यु अपने-अपने कार्य में धावित होते हैं।' (तैत्तिरीयोपनिषद् २।८)।
विश्व के नियन्त्रण के लिए दया-ममता के साथ-साथ क्रोध की भी आवश्यकता है। पालन- कार्य में जैसे दया, स्नेह, ममता आदि कोमल सम्पद् की जरूरत पड़ती है, वैसे ही पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को सुसंयत, सुनियन्त्रित रखने के लिए कठोर-सम्पद् क्रोध भी आवश्यक है। इसी से ब्रह्म-शक्ति दुर्गा-'चण्डी' नाम से प्रसिद्ध हैं। इनका शील व स्वभाव ही है-'दुर्वृत्तियों का शमन'। प्राण- शक्ति-स्वरूपा दुर्गा 'चण्डी'-रूप में तनिक-सा भी व्यतिक्रम सहन नहीं कर सकती। तुरन्त प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। यह नियम व्यष्टि व समष्टि-भाव में समान रूप से लागू है। व्यष्टि-भाव की प्रतिक्रिया हमको सद्यः व प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है। चित्त की प्रसन्नता, शरीर की स्वस्थता से जीव- प्राण-शक्ति की प्रसन्नता का सद्यः अनुभव होता है। 'प्राण-शक्ति' के अप्रसन्न होने से मन और शरीर की व्याकुलता का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
परमेश्वरी चण्डिका की तीन प्रधान शक्तियाँ- महा-काली, महा-लक्ष्मी और महा-सरस्वती परमेश्वरी चण्डिका के व्यष्टि-रूप में तीन शक्तियाँ प्रधान हैं-१ महा-काली, २ महा- लक्ष्मी और ३ महा-सरस्वती। देवी भागवत (१।२।१९-२०) में उक्त वर्णन हुआ है-
निर्गुणा या सदा नित्या, व्यापिकाऽविकृता शिवा।
योग-गम्याऽखिलाधारा, तुरीया या च संस्थिता ।।
तस्यास्तु सात्विकी शक्ती, राजसी तामसी तथा।
महा-लक्ष्मीः सरस्वती, महा-काली ताः स्त्रियः ॥
जो गुणातीता, नित्या, मङ्गल-मयी शक्ति सर्वदा सब स्थानों में अखण्ड अविकृत रूप से विराजती है; योगीन्द्र ऋषि-गण जिनको समाधि-काल में अपने हृदय मन्दिर में तुरीय चैतन्य रूप से अनुभव करते हैं; जो अखिल जगत् की आश्रय हैं, उन महा-शक्ति के सत्त्व अंश से ही महा- सरस्वती, रजः अंश से महा-लक्ष्मी और तमः अंश से महा-काली-इन तीन स्त्री-मूर्तियों का आविर्भाव हुआ है।
'गुप्तवती टीका' के उपोद्घात में श्रीमद् भास्कर राय ने कहा है-ज्ञान, इच्छा और क्रिया- इन तीन शक्तियों की समष्टि-भूता ब्रह्माभिन्न तुरीया देवी ही 'चण्डी' नाम से प्रसिद्ध हैं। व्यष्टि-भूता ज्ञान-शक्ति, इच्छा-शक्ति और क्रिया-शक्ति यथा-क्रम से महा-सरस्वती, महा-काली और महा- लक्ष्मी नाम से निर्दिष्ट हुई हैं। तन्त्रान्तर में उक्त वर्णन हुआ है-
महा-सरस्वती चिते, महा-लक्ष्मीः सदात्मके।
महा-काल्यानन्द-रूपे, तत्त्व-ज्ञान-सुसिद्धये।
अनुसन्दघ्नहे चण्डि ! वयं त्वां हृदयाम्बुजे।
महा-सरस्वती-चिति-रूपा, महा-लक्ष्मी-सद्-रूपा और महा-काली-आनन्द-रूपा है। हे सच्चिदानन्द-मयि, समष्टि-भूते चण्डिके! तत्त्व-ज्ञान लाभ के निमित्त हम हृदय-पद्म में तुम्हारा ध्यान करते हैं।
गुप्तावतार बाबा-श्री ने भी महा-शक्ति चण्डिका का वर्णन इस प्रकार किया है-
जयति श्री चण्डिका
जयति श्री चण्डिका चण्डि चण्डीश्वरी, चण्ड-कर्मा महा-शक्ति-धर्मा।
गुण-त्रयाधार त्रय-गुण परामर्षिणी, कर्षिणी स्तम्भिनी दिव्य वर्मा ॥१॥
मारिणी मोहिनी शुम्भ-संहारिणी, रक्त-बीजादि भय-हारि कर्मा।
जयति विश्वेशि सुर-रक्षिणी पालिनी, जन्म-दायिनि विधायिनि विकर्मा ॥२॥
शोषिणी प्लाविनी शक्ति पर-देवता, अगण गुण कर्म-कालिनि अकर्मा।
विश्व-विश्वेश्वरी सर्व-सर्वेश्वरी, एक आनन्द-दायिनि सुशर्मा ॥३॥
रण-धरा जय-प्रदायिनि परात्पर-परा, विश्व क्षय-कर्म पर शान्ति धर्मा।
भय-भया भय-वहा पूर्ण करुणा-करा, 'मोति' भव-तार गुण-सार-कर्मा ॥४॥
पद्म-पुराण में वर्णित 'चण्डी'-पूजा का फल
भीष्म जी ने पूछा-चण्डिका के अनुग्रह से अवशिष्ट दैत्य रसातल में चले गए, अतः चण्डिका-पूजन का फल वर्णन कीजिए। पुलस्त्य जी ने कहा कि चण्डिका-पूजन से स्वर्ग के भोग-सुख के बाद मोक्ष मिलता है। जो चण्डिका का पूजन प्रति-दिन करता है, उसका पुण्य साक्षात् ब्रह्मा भी वर्णन नहीं कर सकते। जो देवी-पूजन प्रति-दिन नाना पुष्प, धूप-दीपादि से करता है, वही योगी, मुनि व लक्ष्मीवान् है, उसके हाथ में ही मुक्ति है।
जो भगवती को पूर्णिमा व नवमी में क्षीर से स्नान करवाता है, उसे वाजपेय यज्ञ के समान फल मिलता है। सम्पूर्ण पर्व-कालों में पूजन करनेवाला विमान में बैठ ब्रह्म-लोक में जाता है। जो फल चार मास दुर्गा-पूजन से मिलता है, वही कात्तिक की नवमी में पूजन करने से मिलता है। आश्विन शुक्ल नवमी में देवी-पूजन करने से हजार अश्वमेध व सौ राजसूय यज्ञ के समान फल मिलता है। प्रत्येक मास में नवमी के दिन पूजन करने से छः मास का फल मिलता है। जो आश्विन मास में एक दिन-रात ताम्र-पात्र की सूक्ष्म धारा से घृत से देवी का अभिषेक करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा युक्त सोमवार को देवी-पूजन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होकर सूर्य-लोक की प्राप्ति होती है। आषाड़ी पूर्णिमा को उपवासी रह देवी-पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल होता है। बिल्व-पत्रों की माला तथा गुग्गुल की माला से देवी-पूजन करने से अथवा बिल्व-वृक्ष के पत्तों से पूजा करने से राजसूय यज्ञ के समान फल मिलता है।
देवी-पूजन में सब पुष्पों से उत्तम नील कमल बतलाया गया है। नाना प्रकार के पुष्पों से चण्डी-पूजा करने से नाना लोकों की प्राप्ति होती है। देवी मन्दिर में नृत्य, गीत और वादित्र करने से देवी-लोक की प्राप्ति होती है। जो एक दिन भी देवी को पञ्च-गव्य से स्नान कराता है, उसे सुरभि- लोक की प्राप्ति होती है। उत्तरायण में उपवासी रह देवी-पूजा करने से बहु पुत्र व बहु धन की प्राप्ति होती है। विषव (तुला-मेष संक्रान्ति) में उपवास कर देवी-पूजन करने से मनुष्य शक्तिमान् व बहु-पुत्रोवाला एवं बलवान् होता है। चन्द्र-सूर्य ग्रहण में उपवास कर दुर्गा-पूजन करने से पुत्र की प्राप्ति होती है।
दुर्गा का दर्शन पवित्र है। दर्शन से प्रणाम, वन्दन से स्पर्श, स्पर्श से पूजन, पूजन से लेपन, लेपन से तर्पण और तर्पण से मांस-दान अधिक फल-प्रद है। मांस में महिष व अज का ही विधान है, परन्तु 'मार्कण्डेय-पुराण' में बताया गया है कि सभी में अहिंसा की भावना रख देवी की पूजा करना श्रेष्ठ है।
पुलस्त्य जी ने कहा कि देवों ने ब्रह्मा से दुर्गा-पूजन के विषय में पूछा, तब ब्रह्मा जी कहने लगे कि शम्भु, विष्णु, कुबेर, विश्वेदेव, वायु, वसु, अश्विनीकुमार, वरुण, अग्नि, सूर्य, सोम, ग्रह, वारिंज, पितर, पिशाच, गुह्यक और भूत-योनि क्रम से मन्त्र-शक्ति-मयी, इन्द्र-नील-मयी, हेम-मयी, रौप्या, पित्तल से बनी हुई, कांस्य की, पार्थिवी, स्फाटिकी, रत्न-मयी, ताम्रा, मुक्ता-फल-मयी, प्रवाल- मयी, वारिजा, त्रपुसी-मयी, लोह-मयी, त्रि-लोहिनी और वज्र-लोह-मयी देवी का पूजन करते हैं। तुम परम गति को चाहते हो, तो मणि-मयी देवी का पूजन करो, जिससे मनोऽभिलषित सिद्धि प्राप्त होगी। उस भगवती प्रतिमा को नाना पाद्यादिकों से स्नान करावे, नाना पुष्प चढ़ावे व पुष्य-गृह बनावे।
जो मनुष्य नवमी व पर्व-काल में पूजन करता है, वह पुष्प-युक्त विमान में बैठकर 'चण्डी'-लोक में अक्षय काल पर्यन्त सुखी रहता है। देवी के लिए सफेद अगरु देने से गो-सहस्र दान करने के समान फल होता है। चण्डिका का विधान से पूजन कर 'दुर्गा शिवां शान्तिकरीं' आदि स्तोत्र का पठन करे। इसे जो सुनता व पढ़ता है, वह सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पाकर दुर्गा भगवती महा-माया के लोक में पूजित होता है।
महा-माया
पूज्य स्वामी प्रत्यगात्मानन्द सरस्वती जी अपने वङ्ग-भाषा के ग्रन्थ 'जप-सूत्रं' के प्रथम अध्याय में 'महा-माया' शब्द की व्याख्या निम्न सूत्र से करते हैं-
सति तत्त्व-सत्त्वत्वे सर्वादि-शक्तिमत्ता
महा-माया। सा भगवत्ता पर-ब्रह्मणि ।।
अर्थात् तत्त्व एवं सत्त्व-स्वरूप में रहकर सर्व-रूपा सर्वेशी इत्यादि होने के लिए जो शक्तिमत्ता है, वही 'महा-माया' कहलाती है। यही पर-ब्रह्म की भगवत्ता है।
सूत्र के 'सर्वादि' के सर्व का अर्थ-सत्ता, शक्ति, छन्द, आकृति, पाद, मात्रा, कला, काष्ठा, वाक्, अर्थ, प्रत्यय, क्रिया, कारक, फल-इत्यादि है। 'आदि' का अर्थ प्रभृति तो है ही, साथ ही आदि आद्या अर्थात् सकल की आद्या-शक्ति भी है।
'ॐ तत् सत्' इस ब्राह्म-वाचक मन्त्र के 'ब्राह्मी तनु' एवं 'शाक्ती तनु'-दोनों महा- माया में सम्मिलित हैं। महा-माया के 'महा' द्वारा ब्राह्मी तनु एवं 'अमाया' द्वारा शाक्ती तनु का बोध होता है। प्रकारान्तर से ब्रह्म की भगवत्ता-महा-माया ही साक्षात् ब्रह्म-मयी 'माँ' है। महा- महा-महिमा-मयी। मा + या जो माँ है।
'माँ'-नाम एकाक्षर महा-मन्त्र है। केवल मातृ-सम्बोधन का सूचक नहीं है। १ अ, २उ, ३ म, ४ नाद, ५ बिन्दु, ६ कला एवं ७ कलातीत-सप्त-सिन्धु इस एक माँ में समाए हुए हैं।
ब्रह्मणो भिद्यते नैव, मूत्र्तामूत्र्त्तात् कथञ्चन।
अविशिष्टाद् विशिष्टाद् वा, निष्कलाद् सकलादपि।
नाप्यधस्तादधिष्ठानादाभासाद् भासकान्न च॥
'ब्रह्म' के सम्पर्क में ब्राह्मी तनु निर्मूड समग्रत्व महा-माया में है। इसलिए इसके अमूर्त ब्रह्म होने में किसी भी मत से सन्देह नहीं है। 'निर्विशेष-सविशेष', 'निष्कल-सकल', 'अध्ययन- अधिष्ठान', 'आभास-भासक' होने में भी मत-भेद नहीं है। यही है एक परमाश्चर्य-जनक सर्वत्व वा समग्रत्व, जिसमें सब है एवं जो स्वयं ही सब कुछ है-
यच्च किञ्चित् क्वचिद् वस्तु, सदसद् वाऽखिलात्मिके!
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वम् ।।१
न जीवाद् भिद्यते कुत्र, व्यष्टितो वा समष्टितः।
मुक्ताद् बद्धान्मुमुक्षोर्वा, विश्श्रुतश्चानुतोऽपि वा ॥२
अव्यक्तादपि च व्यक्ताज्जगतो नैव भिद्यते।
न रेणोर्वा विराजो वा, हेतोर्वा हेतुकादपि ॥३
अन्योन्याभाव-मात्रस्याभावस्य भाव-रूपता।
अविना-भाव-रूपेण, यत्रैव परिनिष्ठिता ।॥४
जीव एवं जगत् (शाक्ती तनु) के सम्पर्क में महा-माया जीव होकर भी किसी प्रकार भिन्न नहीं है। व्यष्टि (विश्व-तैजसादि) होकर भी नहीं, समष्टि (विराट् हिरण्य-गर्भादि) होकर भी नहीं। बद्ध, मुमुक्षु जीव-रूप में इसने अपने आपको स्वयं ही भुला रखा है- 'भ्रान्ति-रूपेण संस्थिता' और स्वयं ही अपने आपको जानती भी है (चेतना-चिति)। वहीं अपने आप में विभुत्व-अणुत्व समाहित किए हुए है। 'बिन्दु' माया यही है। शून्यता एवं पूर्णता जहाँ मिलते है, वही 'बिन्दु' है। 'विन्दु-वासिनी' महा-माया एकाधार से 'सर्वनाशी' एवं 'सर्वा' है। निखिल विचित्र अभिव्यक्ति- रेखा यहाँ पर शून्यता को प्राप्त होती है और यहीं पर निखिल 'कलना' शक्ति की गाढ़ता की पराकाष्ठा (पूर्णता) भी है। जगत् का जो अव्यक्त (असत्) भाव है, उससे महा-माया भिन्न नहीं है, किन्तु जगत् के व्यक्त भाव से भी वह भिन्न नहीं है। क्षुद्र रेणु से भी अभिन्ना एवं विराट् से भी अभिना। रेणु की नाभि में जो 'बिन्दु-वासिनी' है, उसी ने अपने संख्यातीत 'अर' और सीमा-हीन 'नेमि' को गूँथकर ह्रस्व करके उसको इस रूप में दिखाया है। यही है 'महा-माया' की माया। चमत्कार यदि कुछ है, तो यही है। यही रेणु दिखाता है-महा-शक्ति का चतुव्यूंह। यथा-
महा-'कलन' शक्ति-रूपा-'महाकाली', २ महा-'बिन्दु' -शक्ति-रूपा-'बिन्दु-वासिनी महेश्वरी', ३ महा-'नाद'-शक्ति-रूपा-'महा-लक्ष्मी' (रेणु-मध्य में स्थिता अनवद्या श्री) अर्थात् पूर्ण सामञ्जस्य एवं ४ अकुण्ठिता 'ख्याति' रूपा-'महा-सरस्वती' अर्थात् पूर्ण व्यक्तीकरण।
चतुर्ग्यूहा महा-माया उक्त चारों ही भावों में नित्य-पूर्णा है। कालादि निखिल कलन की 'आद्या' के रूप में वह नित्य-पूर्णा है। निखिल के बिन्दु में अधिष्ठात्री रूप से वह नित्य-पूर्णैश्वर्य- मयी है। निखिल की व्याप्ति आकृति, कृति और छन्द- इस त्रयी के अनवद्य सौष्ठव और सुषमा की अनुपम माधुरी के रूप में वह परिपूर्णा भी है। निखिल के प्रकाश एवं बोध में परिसीमा-रूप से वह नित्य-पूर्णा ख्याति है। इन चारों में से किसी भी रूप में वह 'महा-अमेया' अर्थात् नितान्त अज्ञेया, 'मेया' अर्थात् ज्ञेया नहीं होती।
'महा-माया' मानो अपने आप से प्रश्न करती है एवं स्वयं ही उत्तर देती है-
- समस्त की परम 'आद्या' मूल रूपा कौन है?-'मैं महा-काली।'
- सकल की महा-बिन्दु-अधिष्ठिता परम अधीश्वरी कौन है?' मैं माहेश्वरी'।
- सकल के आकृति-क्रिया-छन्द में सौष्ठव, 'मधु', 'रस' किसने दिया ? -'मुझ महा- लक्ष्मी' ने।
- सकल का परिपूर्ण सत्य-बोध, ख्याति-निवेदन और आस्वादन किसमें है?- 'मुझ 'महा-सरस्वती' में।
उक्त नित्य-पूर्णा चतुर्ग्यूहा महा-माया को ही 'क्रीं ह्रीं श्रीं ऐं' महा-बीज-चतुष्टय के रूप में ध्यान किया जाता है।
अपराजिता स्तोत्र
मान्यता है कि जो भी भक्त नवरात्र में नौ दिन मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा करते हैं उन्हें विजयादशमी के दिन मां अपराजिता की पूजा अवश्य करनी चाहिए। देवी अपराजिता की उपासना के बिना नवरात्र की पूजा अधूरी मानी जाती है। जब चारों युगों का प्रारम्भ हुआ था तब से अपराजिता पूजन की जाती है। देवी अपराजिता की पूजा देवता करते थे तथा ब्रह्म, विष्णु नित्य देवी का ध्यान करते हैं। देवी अपराजिता को दुर्गा का अवतार माना जाता है और विजयादशमी के दिन अपराजिता पूजा की जाती है।
॥ अपराजिता स्तोत्र ॥
श्रीत्रैलोक्यविजया अपराजितास्तोत्रम् ।ॐ नमोऽपराजितायै ।
ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः
वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।
लक्ष्मीनृसिंहो देवता । ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।हुं शक्तिः ।
सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ॥ १॥
शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम्
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ॥ २॥
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ॥ ३॥
मार्ककण्डेय उवाच –
शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ॥ ४॥
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने,
शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय
अजाय अजिताय पीतवाससे,
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध,
हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत,
वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।
वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा,
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-कूष्माण्ड-
सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान्
उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच
मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय
चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन
गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा ।
ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध,
जय जय, विजय विजय, अजित, अमित,
अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र,
ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल,
विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह,
महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण,
पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश,
केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर,
सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन,
सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर,
सर्वबन्धविमोक्षण,सर्वाहितप्रमर्दन,
सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण,
सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।
विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ॥ ५॥
सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।
नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ॥ ६॥
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ॥ ७॥
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ ८॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ॥ ९॥
सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।
सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ॥ १०॥
य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां
जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं,
न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं,
न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।
क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-
विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत् ।
एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।
ॐ नमोऽस्तुते ।
अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे,
अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे,
स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि,
सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति,
गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति,
धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते,
गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि,
ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे,
सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं
वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ॥ ११॥
धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ॥ १२॥
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ॥ १३॥
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।
शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ॥ १४॥
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ॥
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ॥ १५॥
इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ॥ १६॥
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ॥१७॥
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।
अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ॥ १८॥
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ॥ १९॥
न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ॥ २०॥
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ॥ २१॥
रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ॥ २२॥
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ॥ २३॥
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ॥ २४॥
ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ॥ २५॥
दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ॥ २६॥
डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ॥ २७॥
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ॥ २८॥
एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ॥ २९॥
पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ॥ ३०॥
॥ अपराजिता स्तोत्र सम्पत ॥
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