काल का ज्ञान वर्णन ,काल चक्र निवारण का उपाय,अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं,Description of knowledge of time, solution to stop the cycle of time, practices to attain immortality
काल का ज्ञान वर्णन ,काल चक्र निवारण का उपाय,अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं
काल का ज्ञान वर्णन
सनत्कुमार जी बोले- हे महामुने ! एक बार शिवजी ने देवी पार्वती को काल चक्र के बारे में बताना आरंभ किया। शिवजी बोले- हे देवी! मृत्युकाल का ज्ञान इस प्रकार है - जिस मनुष्य का शरीर अचानक पीला पड़ जाए और ऊपरी भाग में लालिमा आ जाए, जिसकी जीभ, मुंह, कान व आखें स्तब्ध हो जाएं, जो शोर-शराबा न सुन सके, जो सूर्य, चंद्र, अग्नि को काला या धुंधला देखे ऐसा मनुष्य छः महीने के अंदर ही काल का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त होता है। जिस मनुष्य का बायां हाथ सात दिन तक लगातार फड़कता रहे, शरीर कांपता रहे, तालु सूखा रहे, वह मनुष्य एक महीने का ही मेहमान होता है। जिसकी जीभ मोटी हो जाए, नाक बहती रहे, जिसे जल, तेल, घी व शीशे में अपना प्रतिबिंब न दिखाई दे, जिसे ध्रुव मण्डल न दिखाई दे, जिसे सूर्य और चंद्र की किरणें न दिखाई दें, जिसे रात को इंद्रधनुष व दिन में उल्कापात दिखे, जिसे गिद्ध व कौए घेरे हों, तो उसकी जिंदगी छह महीने की रह गई, ऐसा जानना चाहिए। हे कल्याणी! आत्म-विज्ञान, क्षण, त्रुटि, लव, काष्ठ मुहूर्त, दिन-रात्रि, पल, मास, ऋतु, वर्ष, युग, कल्प, महाकल्प के अनुसार शंकर जीवों का संहार करते हैं। वाम, दक्षिण एवं मध्य तीन मार्ग हैं। नाड़ियां प्राणों को धारण करती हैं। हमारे शरीर में सोलह नाड़ियां हैं, जो चार स्थानों पर रहती हैं। इन्हीं सब के अनुसार ही आयु की प्राप्ति मनुष्य को होती है। नाड़ियों एवं वायु का प्रवाह मनुष्य को शेष आयु बताने का कार्य करता है। इस प्रकार काल ज्ञानियों ने काल- चक्र का वर्णन किया है।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता पच्चीसवां अध्यायकाल चक्र निवारण का उपाय
देवी पार्वती बोलीं- हे नाथ! आपने कालचक्र का वर्णन मुझे सुनाया। हे देवाधिदेव ! अब कृपा करके इससे बचाव का उपाय भी मुझे बताइए । अपनी प्राण वल्लभा के इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले- देवी उमे! पृथ्वी, जल, तेज, पवन और आकाश आदि पांच तत्वों के संयोग से इस भौतिक शरीर की उत्पत्ति होती है। आकाश सर्वव्यापक है और सब वस्तुएं उसी में लीन हो जाती हैं। एक बार मैंने क्रोधवश काल को जला दिया था। जब-जब मैं स्तुतियों द्वारा प्रसन्न हुआ तब काल पुनः प्रकृति में स्थिर हो गया। आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। जल के चार, तेज के तीन, वायु के दो और आकाश का एक गुण है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध आदि पांच भूत, जब शरीर को त्याग देते हैं, तभी प्राणी की मृत्यु होती है और जब ये पाचों भूत शरीर को ग्रहण करते हैं तो प्राणी की उत्पत्ति होती है। काल को जीतने वाले योगीगण इन गुणों का ध्यान करते हैं। देवी पार्वती ने कहा- हे नाथ! काल पर विजय पाने के लिए योगीजन जिस यंत्र का ध्यान या अभ्यास करते हैं, उसके विषय में बताइए। पार्वती जी के इस प्रश्न को सुनकर देवाधिदेव शिवजी बोले- देवी! रात्रि के अंधकार में जब पूरा जगत गहरी नींद में सो रहा हो, उस समय बैठकर योग करें। आसन पर बैठकर अपनी तर्जनी अंगुलियों से दोनों कानों को बंद कर लें। इस प्रकार प्रतिदिन यही साधना करें। जब यह साधना इतनी कठोर हो जाए कि दो पहर इसी आसन में बीतें तथा उसके बाद अग्नि द्वारा प्रेरित शब्द या नाद सुनाई दे, उस समय मनुष्य को इच्छानुसार मृत्यु प्राप्त हो जाती है। यह शब्द या नाद ब्रह्मरूप है, जो सुख तथा मुक्ति को देने वाला है। इस नाद ध्वनि या शब्द को सांसारिक मोह-माया में लिप्त लोग भला कैसे जान पाएंगे? जिन उत्तम मनुष्यों को इसका ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं। उन्हें तत्वज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति होती है। यह नाद अनाहत है, जिसका उच्चारण नहीं किया जा सकता। योगीजन अपने प्रयत्न एवं ध्यान द्वारा इसे प्राप्त करते हैं। वे पापों से दूर होकर मृत्यु पर विजय पा लेते हैं। उसी से मृत्यु पर विजय प्रदान करने वाला शब्द उत्पन्न होता है। घोष, कांस्य, श्रंग, घण्टा, वीणा, वंशज, दुंदुभि, शंखनाद व मेघ गर्जित नामक इन शब्दों का ध्यान करने वाले ज्ञानियों एवं योगीजनों पर कभी कोई विपत्ति नहीं आती। इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर नियमपूर्वक तुकांग शब्द की स्तुति और ध्यान करने वाले मनुष्यों के लिए कुछ भी असाध्य नहीं होता। उसकी हर कामना की सिद्धि होती है और अभीष्ट फल मिलता है।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता छब्बीसवां अध्याय
अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं
पार्वती जी बोलीं- हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह बताएं कि योगीजन वायु के पद को कैसे प्राप्त करते हैं? यह सुनकर महादेव जी बोले- हे कल्याणी! जिस प्रकार दरवाजे की देहरी पर रखा दीपक घर के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है, उसी प्रकार हमारे हृदय के भीतर स्थित वायु भी अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करती है। ज्ञान, विज्ञान और उत्साह सभी का मूल वायु ही है। इसलिए जिसने वायु पर अपनी विजय प्राप्त कर ली है, उसे पूरे जगत पर विजय प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लोहार मुख से फूंकनी में फूक (वायु) भरता हुआ अपने काम में लगा रहता है, उसी प्रकार संत और योगीजन भी अपने अभ्यास में लगे रहते हैं। अभ्यास करते-करते जब वे पारंगत हो जाते हैं तो वे आसन से दस अंगुल ऊपर उठ जाते हैं। प्राणायाम में सिर एवं व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जाप करते हुए प्राणवायु को रोका जाता है और अंदर स्थित वायु को नाक के रास्ते बाहर फेंका जाता है। इसे करने से बड़ा उत्तम फल मिलता है। योगीजनों को एकांत स्थान पर, जहां सूर्य-चंद्र का प्रकाश हो, सोना चाहिए। आंखों को अंगुलियों द्वारा बंद करके ध्यानमग्न होने पर योगीजनों को ईश्वर की ज्योति के दर्शन होते हैं। जब योगीजनों को इस प्रकार अंधकार में ईश्वर ज्योति के दर्शन हो जाते हैं तब वह योगी परम सिद्ध हो जाता है। उसे अनेक सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष रूपी परम तत्व की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार ध्यान करने वाले योगियों को तुरीय गति प्राप्त हो जाती है।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता सत्ताईसवां अध्याय
छाया पुरुष का वर्णन
श्री पार्वती जी शिवजी से पूछने लगीं कि भगवन्! आपने मुझे काल और वचन का वर्णन किया, अब मुझे छाया पुरुष के श्रेष्ठ ज्ञान को बताइए। भगवान शिव बोले- श्वेत वस्त्र धारण करके धूप दीप प्रज्वलित करके 'ॐ नमः भगवते रुद्राय नामक बारह अक्षरों के मंत्र का जाप करते समय जब मनुष्य को अपनी छाया दिखाई देने लगे तो उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यदि ऐसी छाया बिना सिर के दिखाई दे तो छः महीने में मृत्यु हो जाती है। शुक्लवर्ण होने पर धर्म वृद्धि होती है, कृष्ण वर्ण पाप, रक्त वर्ण पर बंधन, पीत पर शत्रु का भय होता है। यदि नाक कटी दिखे तो विवाह बंधु मृत्यु, भूख का डर होता है। इस प्रकार जब मनुष्य को छाया पुरुष दिखाई दे, तो उसे नवाक्षर मंत्र का मन में जाप करना चाहिए। इस प्रकार एक वर्ष तक इसे जपने से सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। अब मैं तुम्हें एक गुप्त विद्या के बारे में बताता हूं। यह विद्या ब्राह्मणों के सिर पर विद्यमान होती है। यह विद्या सभी विद्याओं की माता कहलाती है। वेद भी प्रतिदिन इसकी स्तुति करते हैं। इस विद्या को खेचरी नाम से जाना जाता है। यह विद्या अदृश्या, दृश्या, चला, नित्या, व्यक्ता, अव्यक्ता और सनातनी कहलाती है। यह वर्ण रहित, वर्ण सहित बिंदु मालिनी है। इस विद्या का दर्शन करने वाले योगी का जन्म सफल हो जाता है। इसलिए योगीजनों को अपने ज्ञान और विद्याओं का नित्य अभ्यास करना चाहिए।अभ्यास से सभी सिद्धियां सिद्ध होती हैं।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता अट्ठाईसवां अध्याय
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