क्या कबीर दास हिंदू हैं और कबीर दास के दोहे 501 से 550 तक, Is Kabir Das a Hindu and Kabir Das' couplets from 501 to 550
क्या कबीर दास हिंदू हैं और कबीर दास के दोहे 501 से 550 तक
क्या कबीर दास हिंदू हैं
हिंदू उन्हें कबीर दास कहते थे, लेकिन यह कहना असंभव है कि कबीर ब्राह्मण थे या सूफी, वेदांतवादी या वैष्णव। कबीर दास धार्मिक बहिष्कार से घृणा करते थे। कबीर अपने समकालीन सभी ब्राह्मणों और मुल्लाओं के साथ धार्मिक और दार्शनिक तर्कों में शामिल हुआ करते थे। उनकी जीवन कहानी हिंदू और इस्लामी दोनों से विरोधाभासी किंवदंतियों से भरी हुई है। आज तक एक ओर हिंदू उन्हें हिंदू संत और वहीं मुस्लिम उन्हें सूफी बताते हैं। निस्संदेह उनका नाम वेदों, कुरान और बाइबल तीनों में है फिर भी उनका लालन पालन वाराणसी के एक मुस्लिम बुनकर परिवार में हुआ जिनका गुरू स्वामी रामानन्द को बताया जाता है। वास्तविकता है कि कबीर साहेब न तो हिन्दू है और न ही मुसलमान। वे तो एक सच्चे समाज सुधारक हैं जो अपने भक्तों को सत्य मार्ग दिखाने के लिए प्रकट हुए हैं। वे स्वयं कहते हैं
Is Kabir Das a Hindu and Kabir Das' couplets from 501 to 550 |
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कबीर दास के दोहे 501 से 550 तक
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।
कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 501॥
दोहे
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 502 ॥
दोहे
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 503 ॥
दोहे
सत को खोजत मैं फिरुँ, सतिया न मिलै न कोय ।
जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 504 ॥
दोहे
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।
जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 505 ॥
दोहे
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 506 ॥
दोहे
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।
गली-गली भूकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 507 ॥
दोहे
जो कामिनि परदे रहे, सुनै न गुरुणुण बात ।
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 508 ॥
दोहे
चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।
तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 509 ॥
दोहे
हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।
सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 510 ॥
दोहे
झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।
माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 511 ॥
दोहे
कबीर हृदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।
सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 512 ॥
दोहे
कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।
बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 513 ॥
दोहे
पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।
ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 514 ॥
दोहे
कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।
कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 515 ॥
दोहे
साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।
ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 516 ॥
दोहे
शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।
बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 517 ॥
दोहे
कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।
बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 518 ॥
दोहे
साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।
जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 519 ॥
दोहे
साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।
दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 520 ॥
दोहे
कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।
एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 521 ॥
दोहे
संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।
कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 522॥
दोहे
साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।
ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 523 ॥
दोहे
टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।
टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 524 ॥
दोहे
साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।
कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 525 ॥
दोहे
निगुरा ब्राह्मण नहिं भला, गुरुमुख ह चमार ।
देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 526 ॥
दोहे
हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।
भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 527 ॥
दोहे
खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।
एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 528 ॥
दोहे
घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।
वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 529 ॥
दोहे
आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।
साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 530 ॥
दोहे
कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।
जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 531 ॥
दोहे
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।
अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 532 ॥
दोहे
कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।
ज्यों उच्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 533 ॥
दोहे
कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 534 ॥
दोहे
दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।
कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 535 ॥
दोहे
तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।
यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 536 ॥
दोहे
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करुँ इक बार ।
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 537 ॥
दोहे
बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।
कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 538 ॥
दोहे
पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।
यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 539 ॥
दोहे
बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।
कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 540 ॥
दोहे
छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 541 ॥
दोहे
मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 542 ॥
दोहे
मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 543 ॥
दोहे
साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 544 ॥
दोहे
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।
कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 545 ॥
दोहे
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।
कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 546 ॥
दोहे
सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।
कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 547 ॥
दोहे
कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।
यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 548 ॥
दोहे
टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।
साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 549 ॥
दोहे
कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।
कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 550 ॥
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