संत कबीर के दोहे 751 से 800 तक और कबीर किस ज्ञान को मानते हैं

संत कबीर के दोहे 751 से 800 तक और कबीर किस ज्ञान को मानते हैं

  • कबीर किस ज्ञान को मानते हैं
स्वान रूप संसार है, भैंकन दे झख मारि। भाव-सौंदर्य – ज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कबीर कहते हैं कि मनुष्य को ज्ञान रूपी हाथी की सवारी सहज गलीची डालकर करना चाहिए। ऐसा कहते हुए यदि कुत्ता रूपी संसार उसकी आलोचना करता है तो मनुष्य को उसकी परवाह नहीं करना चाहिए।
  • कबीर महान क्यों है
कबीर जी के प्रसिद्ध होने के कई कारण है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित हिन्दू व मुस्लिम धर्म में फ़ैले कुरीतियों पर कड़ा विरोध किया जिसके कारण उस समय कुछ लोग उनके विरोधी भी बन गए। उन्होंने जीवन जीने के लिए कई शिक्षाएं बहुत ही साधारण एवं सरल भाषा में दी। उन्होंने जीवन में गुरु के महत्व को भी बताया।

संत कबीर के दोहे 751 से 800 तक

कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । 
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 751 ॥ 
दोहे
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । 
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 752 ॥ 
दोहे
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । 
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 753॥ 
दोहे
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । 
यह पुर पटून यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 754 ॥ 
दोहे
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । 
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 755 ॥ 
दोहे
कबीर यह तन जात है, सके तो ठोर लगाव । 
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 756 ॥ 
दोहे
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । 
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 757 ॥ 
दोहे
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । 
खेत बिचारा क्‍या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 758॥ 
दोहे
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । 
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 759 ॥ 
दोहे
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । 
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 760 ॥ 
दोहे
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । 
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 761॥ 
दोहे
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । 
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 762 ॥ 
दोहे
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । 
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 763॥ 
दोहे
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । 
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 764 ॥ 
दोहे
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । 
हसरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 765 ॥ 
दोहे
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । 
राजा राना राव एक, सावधान क्‍यों नहिं होय ॥ 766 ॥ 
दोहे
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । 
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 767 ॥ 
दोहे
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । 
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्‍ता गाम ॥ 768 ॥ 
दोहे
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । 
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 769 ॥ 
दोहे
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । 
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 770 ॥ 
दोहे
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । 
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 771॥ 
दोहे
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । 
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 772 ॥ 
दोहे
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । 
ऊपर ऊपर हल फिरे, ढोर चरेंगे घास ॥ 773 ॥ 
दोहे
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । 
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 774 ॥ 
दोहे
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । 
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 775 ॥ 
दोहे
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । 
अब पछितावा क्‍या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 776 ॥ 
दोहे
आज कहै मैं कल भज, काल फिर काल । 
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 777 ॥ 
दोहे
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । 
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 778 ॥ 
दोहे
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । 
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 779॥ 
दोहे
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । 
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 780 ॥ 
दोहे
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । 
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 781॥ 
दोहे
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । 
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 782 ॥ 
दोहे
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । 
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 783॥ 
दोहे
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । 
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 784 ॥ 
दोहे
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । 
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 785॥ 
दोहे
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । 
अजहूँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 786 ॥ 
दोहे
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । 
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 787॥ 
दोहे
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । 
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 788 ॥ 
दोहे
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । 
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 789 ॥ 
दोहे
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । 
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 790॥ 
दोहे
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । 
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 791॥ 
दोहे
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । 
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥792 ॥ 
दोहे
कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । 
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 793 ॥ 
दोहे
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि । 
तब कुल की क्‍या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 794 ॥ 
दोहे
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग । 
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 795 ॥ 
दोहे
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास । 
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥796 ॥ 
दोहे
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय । 
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 797॥ 
दोहे
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । 
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 798॥ 
दोहे
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । 
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥799 ॥ 
दोहे
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । 
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 800॥

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