संत कबीर दास के 62 दोहे और कबीर पंथ
संत कबीर दास शिष्य
धर्मदास और गोपाल ये दोनों कबीर के शिष्य,जो धर्मदास जाति के बनियाँ थे। यह काशी में कबीर से मिलने से पहले कट्टर मूर्तिपूजक थे। जब यह कबीर के पास आ गए, तो कबीर ने इनको मूर्तिपूजन से मना कर दिया, फिर कुछ समय पश्चात दोनों की भेंट वृंदावन में हुई। धर्मदास यहाँ कबीर को न पहचान सके, वह बोले तुम ठीक काशी में मिलने वाले साधु की तरह हो। यहाँ भी कबीर साहब चौकन्ने थे। इन्होंने धर्मदास के हाथ में पड़ी मूर्ति को लेकर जमुना में डाल दिया। धर्मदास अपने साथ सदा एक पत्थर की मूर्ति रखते थे। कुछ दिनों के पश्चात् कबीर साहब स्वयं धर्मदास के घर बांदोगढ़ गए, वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर को पूजते हो, जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं। उनके दिल में कबीर साहब की यह बात ऐसी बैठी कि वह उनके शिष्य हो गए। कबीर की मृत्यु के पश्चात धर्मदास ने छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की एक अलग शाखा चलाई और सूरत गोपाल काशी वाली शाखा के उत्तराधिकारी बनाए गए।
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62 couplets of Sant Kabir Das and Kabir Panth |
कबीर पंथ
स्वामी रामानंद जी के बारह शिष्य हुए :- अनंतानंद, कबीरदास, सुखानंद, सुरसरा, पद्मावती, नरहरि, पीपा, भवानंद, रैदास, धनासेन, योगानंद और गालवानंद। इन संतों ने अपने गुरु रामानंद स्वामी जी के विचार का प्रचार केंद्र भी बनाया। आज भी इन संतों द्वारा स्थापित केंद्र समाज के कल्याण एवं समाज सुधार, जैसे कामों में लगे हुए हैं। कबीर पंथ की बारह प्रमुख शाखाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके संस्थापक नारायणदास, श्रुतिगोपाल साहब, साहब दास, कमाली, भगवान दास, जागोदास, जगजीवन दास, गरीब दास, तत्वाजीवा आदि शिष्य हैं।
कबीर पंथ सर्वप्रथम शुरुआत कबीर साहब के प्रखर और दार्शनिक शिष्य श्रुतिगोपाल साहब ने उनकी जन्मभूमि वाराणसी में मूलगादी नाम से की। इसके प्रधान भी श्रुतिगोपाल ही बनाए गए। उन्होंने अपनी प्रखर मेघा के प्रभाव से दार्शनिक पक्ष अपना कर, कबीर साहब की शिक्षा को देश के प्रत्येक लोगों में पहुँचाया। कालांतर में मूलगादी की अनेक शाखाएँ उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में स्थापित कर, कबीर साहब के वचनों को तत्परता के साथ जन साधारण तक पहुँचाया।
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कबीर दास के 62 दोहे 851 से 912 तक
दोहे
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।
बिगरा काज सँँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 851 ॥
दोहे
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 852 ॥
दोहे
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 853 ॥
दोहे
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 854 ॥
दोहे
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 855 ॥
दोहे
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 856 ॥
दोहे
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 857 ॥
दोहे
चहूँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥ 858
दोहे
चहूँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 859 ॥
दोहे
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 860 ॥
दोहे
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरे, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 861॥
दोहे
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 862॥
दोहे
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 863॥
दोहे
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 864॥
दोहे
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 865 ॥
दोहे
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार ।
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 866॥
दोहे
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 867 ॥
दोहे
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 868 ॥
दोहे
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।
काल से बांचे दास जन जिन पै द्वाल हुजूर ॥ 869॥
दोहे
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।
जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 870 ॥
दोहे
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 871 ॥
दोहे
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।
काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहूँ खाय ॥ 872 ॥
दोहे
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।
हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 873॥
दोहे
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 874 ॥
दोहे
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 875॥
दोहे
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 876॥
दोहे
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ। ५
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 877 ॥
दोहे
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहूँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 878 ॥
दोहे
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 879 ॥
दोहे
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 880 ॥
दोहे
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 881 ॥
दोहे
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 881 ॥
दोहे
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 882 ॥
दोहे
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 883 ॥
दोहे
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 884 ॥
दोहे
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 885 ॥
दोहे
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 886 ॥
दोहे
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 887 ॥
दोहे
देह धरे का गुन यही, देह देह कछ देह ।
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 888 ॥
दोहे
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 889 ॥
दोहे
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 890 ॥
दोहे
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 891 ॥
दोहे
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 892॥
दोहे
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 893॥
दोहे
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 894 ॥
दोहे
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदें बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 895॥
दोहे
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 896 ॥
दोहे
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ढ़े बब माहिँ ।
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ॥897॥
दोहे
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ॥898॥
दोहे
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर ।
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ॥899॥
दोहे
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर ।
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ॥900॥
दोहे
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥901॥
दोहे
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ॥902॥
दोहे
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय ।
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ॥903॥
दोहे
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ॥904॥
दोहे
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर मरघट सारखे, भूत बसे तिन माहिं ॥905॥
दोहे
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥906॥
दोहे
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय ।
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ॥907॥
दोहे
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि ।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ॥908॥
दोहे
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ॥909॥
दोहे
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी ।
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ॥910॥
दोहे
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ॥911॥
दोहे
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं ।
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ॥ 912॥
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