कबीर दास जी के 50 दोहे और कबीर दास की जन्म तिथि,50 couplets of Kabir Das ji and date of birth of Kabir Das

कबीर दास जी के 50 दोहे और कबीर दास की जन्म तिथि

कबीर दास की जन्म तिथि,जयंती 2024

इस वर्ष कबीरदास जयंती 22 जून 2024 को मनाई जाएगी। संत कबीरदास के जन्म के विषय में कुछ भी सटीकता से नहीं कहा जाता है। कुछ साक्ष्यों के अनुसार, कबीर दास जी का जन्म काशी में 1398ईं में हुआ था। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के ऐसे कवि थे, जिन्होंने समाज में फैले आडंबरों को अपनी लेखनी के जरिए उस पर कुठाराघात किया था।
  • कबीर का जीवन और रचना संसार
कबीर हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन युग में निर्गुण शाखा के प्रचारक थे। उन्हें धर्म निरपेक्ष कवि माना जाता है, उन्हें समाज में फैली हुई कई कुरीतियों की आलोचना के लिए जाना जाता है। कबीरदास की शिक्षा को कबीर पंथ के नाम से जाना जाता है। कबीर ने अपनी रचनाओं में भक्ति को काफी हद तक शामिल किया है।

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कबीर दास जी के दोहे 152 से 202 तक

एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय । 
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥ 

कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । 
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥ 

कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । 
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥ 

कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । 
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥ 

कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । 
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥ 

को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । 
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उख्मत जाय ॥157 ॥ 

कबीरा सोया क्‍या करे, उठि न भजे भगवान । 
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥ 

काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं | 
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥ 

काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । 
काल काल तू कया करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥ 

काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय । 
काया बहा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥ 

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । 
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ 

कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । 
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ 

कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय । 
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥ 

कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । 
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ 

कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । 
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥ 

कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । 
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥ 

करता था सो क्‍यों किया, अब कर क्यों पछिताय । 
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥168 ॥ 

कस्तूरी कुन्डल बसे, ग्रग ढुंढ़े बन माहिं । 
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥ 

कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । 
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ 

कागा काको घन हरे, कोयल काको देय । 
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ 

कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । 
जो पर पीर न जानडइ, सो काफिर के पीर ॥ 72 ॥ 

कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । 
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ 

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । 
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ 

कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । 
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ 

कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । 
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ 

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । 
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ 

कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । 
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ 

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । 
अवसर बाोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ 

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । 
वाट लगाए ना लगे फिर कया लेत हमार ॥ 180 ॥ 

कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । 
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ 

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । 
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ 

खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । 
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ 

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । 
वाके अग्ड लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ 

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । 
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ 

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । 
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ 

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । 
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ 

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । 
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ 

जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । 
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ 

जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । 
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिशशूल ॥ 190 ॥ 

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । 
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191॥ 

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । 
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढुंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ 

जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । 
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ 

जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । 
कह कबीर यह क्‍यों मिटै, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ 

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ 

जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । 
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ 

जहाँ ग्राहक तह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । मु 
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ 

झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । 
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ 

जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । 
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ 

जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । 
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 202 ॥

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । 
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 202 ॥ 

तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । 
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ 

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