रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड भावार्थ सहित तुलसीदास जी की

रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड भावार्थ सहित तुलसीदास जी की "  Ramcharitmanas of Tulsidas ji with meaning of Ayodhya incident.

मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम

चौपाई
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।।
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू।।
आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू।।
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।।
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी।।
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी।।
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है: "माता समीप में कहती हैं सच्चाई से, बोलो, समझो मन में। राजकुमारी सुनो सिखावती हैं, जैसे ही जानते हैं जीवन कुछ गलती कर रहे हैं। अपने मन को शुद्ध करो, हमारे वचन को मानकर घर में रहो। ऐसा करने से माता सेवकता करती हैं, हर तरह से घर में सुख-शांति होती है। इससे अधिक कोई धर्म नहीं है, माता-पिता के पादों की पूजा करना सबसे उत्तम है। जब-जब माता मुझे समझाती हैं, तब-तब मेरा प्रेम और बढ़ता है और मेरी बुद्धि तेज होती है। तब-तब तुम कहते हो पुरानी कथाओं को, सुंदर मुखर भाषा में समझाओ। मैं सच्चाई बताता हूँ, मेरी दिशा में माता की हितैषी राह रखता हूँ।"
दोहा-
गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।61।।
यह दोहा  अर्थ है: "गुरु और श्रुति शास्त्र के अनुसार अनुसरण करने से धर्म का फल प्राप्त होता है, बिना उनके आज्ञा के कष्ट होते हैं। जैसे की नहुष और नरेश को सब संकट सहना पड़ा था, ठोकरों का सामना करना पड़ा था, वैसे ही हठपूर्वक किया गया कार्य संकटों को बढ़ा देता है।"
चौपाई
मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी।।
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा।।
जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा।।
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।।
कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।।
चरन कमल मुदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।।
कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे।।
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है:
"मैं फिर से प्रवान करता हूँ, हे पिताजी! तुम्हारे मुख की सुधा को जल्दी सुनना। दिन बीतते जा रहे हैं बिना कोई फायदा होता, ओ सुंदरी! मेरा सिखाने का समय सुनो। अगर तुम हठ में प्रेम करोगी, तो तुम्हें दुःख मिलेगा, यह नियम है। जंगल भयंकर और भारी है, वहां गर्मी और बर्फ होती है। वहां अनेक प्रकार के काँटे और कंकर होते हैं, बिना पैरों के चलना मुश्किल होता है। तुम्हारे चरण कमल के समान मनोहार हैं, वे ही अगम्य मार्ग की ओर भारी हैं। गुफा, खोह, नदियाँ, और नाले, सब अगाध हैं, उन्हें देखना भी मुश्किल है। भालू, बाघ, वृक्ष, केवल और नाग, सब यहाँ ध्यानपूर्वक सुनते हैं और धीरज धरते हैं।"
दोहा-
भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल।।62।।
यह दोहा "रामचरितमानस" के बालकाण्ड में स्थित है। इसका अर्थ है:
"जैसे की पेड़-पौधे केवल अपनी भूमि में ही बढ़ सकते हैं, वैसे ही वे सदा समय के अनुसार ही सब दिनों में सबको अनुकूल मिलते हैं।"
चौपाई
नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं।।
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी।।
ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा।।
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ।।
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू।।
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली।।
नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।।
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रचित "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"मनुष्य दिनचर्या में रात्रि जैसा आहार चाहता है, वह भेदभावपूर्ण तरीके से करता है। वह अधिक जल का सेवन करता है, परन्तु वह नहीं कहता कि वन में संकट होता है। वहां भालू, करावल, पक्षियों का भयंकर घना वन है, रात्रि का बागीचा और मनुष्यों का चोर। डर में धीरता और बुद्धि आती है, तुम्हारी दृष्टि भी धैर्य दिखाती है। तुम्हारे अंदर जो गुण हंस के समान हैं, तुम जोगी नहीं हो, पर लोग तुम्हें जोगी कहते हैं। मनुष्य स्वयं से जल को साफ रखता है, जैसे समुद्र स्वयं में लवण को शुद्ध करता है। नवरसों का वन विचार करने का स्थान है, जो कोकिल जैसा राग करता है। अपने हृदय को भवन के समान रखो, जो चंद्रमा की चारों ओर बिगड़ा जंगल है।"
दोहा-
सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।।63।।
यह दोहा "रामचरितमानस" के बालकाण्ड से है। इसका अर्थ है:
"जो गुरु और स्वामी के सिखाने को नहीं मानता है, वह स्वयं को पछताता है और अपने हृदय में अघानी की अवस्था में रहता है, हानि होती है।"
चौपाई
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के।।
सीतल सिख दाहक भइ कैंसें। चकइहि सरद चंद निसि जैंसें।।
उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही।।
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी।।
लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।।
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई।।
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं।।
यह चौपाई "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"पिय के मनोहर मृदु वचन सुनकर, मेरी सीता के चेहरे के जल से भरे हुए लोचन। सीता ने देखकर जैसे वानरों की तरह दहके आग, वैसे ही चाँदनी रात्रि को शीतल करती है। बैदेही (सीता) को उस दुख से बचाने का तात्पर्य है, जो स्वामी (राम) की इच्छा से हो रहा है। वह (सीता) अपनी आँखों को बार-बार रोक रही है और धैर्य से अपने ह्रदय को संभाल रही है। सासु (सीता) ने पाँव को मेरी प्राणपति के पास रखते हुए बड़ी विनम्रता से बिनय की। मेरे प्राणपति ने मुझे उसी तरीके से सिखाया है जिससे मेरा परम हित हो। फिर मैंने समझा और महसूस किया कि प्रिय से बियाह का वियोग ही दुख नहीं होता।"
दोहा-
प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान।।64।।
इसका अर्थ है:
"हे प्राणनाथ! हे करुणामय सुन्दर, सुखदायक और ज्ञानी! तुम्हारे बिना राघुकुल भी रत्नों का निकटस्थ होने के बावजूद स्वर्ग और नरक समान है।"
चौपाई
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई।।
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई।।
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू।।
भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू।।
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं।।
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।।
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें।।
यह चौपाई "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"माँ, पिता, भई, प्रिय परिवार, सुहृद समुदाय, सास, ससुर, गुरु और प्रिय दोस्त, सभी मेरी सहायता करते हैं। मेरे सुंदर, सजीव और सुशील पुत्र सुखदाता हैं। जहाँ नाथ का प्रेम और रिश्तों का बंधन होता है, वहाँ पिता के बिना तीनों त्राता होते हैं। धन, धाम, और राज यह सब भीना पति को दुःख देते हैं और समाज को भी। भोग, रोग, और भार से युक्त यह संसार मृत्यु का प्राप्त करने के लिए है। हे प्राणनाथ! तुम्हारे बिना मेरे जीवन में कोई सुख नहीं है। जैसे नदी बिना बारिश के तैर नहीं सकती, वैसे ही पुरुष बिना नारी के अधूरा होता है। हे नाथ! सब सुख तुम्हारे साथ हैं, सब दिशा में तुम्हारा शुद्ध चाँदनी जैसा विचार करता है।
दोहा-
खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल।।65।।
यह दोहा अर्थ है:
"जैसे कि पक्षियों, मृगों, परिवार के सदस्यों, नगरों, वनों और पर्वतों में सभी पवित्र धर्मों से सर्वदा बलवान और पवित्र धर्मों से युक्त होते हैं, वैसे ही भगवान श्रीराम के साथ रहने से स्वर्ग भी आनंद का स्रोत होता है।"
चौपाई
बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा।।
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई।।
कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू।।
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।।
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे।।
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना।।
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि।।
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी।।
यह चौपाई "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"भगवती सीता बड़ी उदार हैं, वह सभी के सासु-ससुर के साथ बड़ी सम्मानपूर्वक व्यवहार करती हैं। वह कुसुमों से सजी हुई हैं, प्रभु श्रीराम के साथ रहते हुए मनोहारी दिखती हैं। उसका भोजन केवल कंद-मूल और अमिय फल हैं, और वह अयोध्या में राजा श्रीराम के साथ हर तरह से संतुष्ट हैं। वह हर पल भगवान के पादकमल को देखकर खुशी की तरह कोकिला की तरह चहकती रहती हैं। अनेक लोग उसे 'वन-दुख' कहते हैं, उसकी वहाँ विचारों में भय, विषाद और त्राहिमामक दुःख हैं। प्रभु श्रीराम के बियाग से वह सब से जोड़ी जाती हैं, और सब मिल कर भी कृपानिधाना नहीं हो सकती। उसको समझने वाले जानते हैं कि प्रभु श्रीराम उसके साथ व्याप्त हो गए हैं, और उसे छोड़कर चले गए हैं। भगवान! मैं बहुत बिनती करता हूँ, कृपानिधान, हृदयस्थ और अंतर्ज्ञानी होकर मेरे अंतरात्मा को छू लो।"
दोहा-
राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु संदर सुखद सील सनेह निधान।।66।।
यह दोहा "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"जो व्यक्ति अवध को जो अवधि में रहते हुए अपने प्राण की नहीं जानता है, वह दीनबंधु, संदर, सुखदाता, सील सम्पन्न और प्रेम का संग्रह है।"
चौपाई
मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।।
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।।
पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं।।
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें।।
सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी।।
बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही।
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा।।
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू।।
यह चौपाई "रामचरितमानस" से है। इसमें कहा गया है:
"मुझे राह चलने में हार नहीं माननी चाहिए, बल्कि हर पल श्रीराम के पादरजों को देखना चाहिए। सभी प्रकार से मैं प्रियतमा की सेवा करूँगा, जिससे मैं समस्त कठिनाइयों को दूर कर दूँगा। मैं एक पक्षी की तरह वृक्ष के नीचे बैठकर, प्रियतमा के पादों को पूजूंगा, और मन में आनंद महसूस करूंगा। मैं तात, अर्थात्, श्रीराम की दिव्य स्वरूपता के साथ, दिन रात तपता हुआ उसके श्रम को देखूंगा। श्रीराम की साथी मानों, वहाँ तृण और पत्तियों की सेविका बनूंगी और उनके पागों को पलटाऊंगी। मैं बार-बार उसकी मृदु स्वरूपता को देखती रहूँगी, लेकिन उसे अपना भाई मानती रहूँगी। भगवान्, मैं तो छोटी हूं, तुम्हारे साथ रहकर ध्यान लगाने वाली बच्ची हूं, मैं तुम्हें ही उचित मानती हूं, और तुम्हें ही तप का अधिकारी बताती हूं, भोग का अधिकारी नहीं।"
दोहा-
ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान।।67।।

इस दोहे में कहा गया है कि:
"ऐसे कठोर शब्दों को सुनकर जो मन नहीं मिलता, उससे ही मनुष्य प्रभु के विषम बियोग दुःख को सह सकता है, प्राण भी चला सकता है।"
चौपाई
अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी।।
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना।।
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा।।
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू।।
कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई।।
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई।।
फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।।
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि।।
यह चौपाई "रामचरितमानस" से ली गई है। इसमें वर्णित है:
"सीता ने इस तरह बोलकर भारी दुःख में पड़ लिया, उनके वियोग के शोक को वह संभाल नहीं सकीं। जब रघुपति श्रीराम ने उनकी स्थिति देखी, तो वे हानि नहीं होने दिया, चाहे प्राण जाएं। उन्होंने कहा, 'कृपालु भगवान्, अपने सोच-विचार को छोड़कर जल्दी जाओ और जंगल में सबके साथ काम करो।' वे कोई अवसर नहीं चाहतीं थीं। जल्दी जाकर जंगल में गवाईए और अपने प्रिय बचन को समझाईए। उनकी आसिषें माताओं की तरह लगने लगी। वे तुरंत जनता के दुःख को मिटाने चली आईं, जबकि उनकी माता निठुर बनकर उन्हें भूलकर चली गईं। फिर वह अपनी स्थिति को कैसे भी देखने की कोशिश कर रही थी, उसने मनोहर विचार किए। कब तक ये दिन सुघड़ते रहेंगे? कब तक माता के विचार बाहरी रूप में दिखाई देंगे?"
दोहा-
बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात।।68।।
यह दोहा "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:
"बच्चे बार-बार कहते हैं, 'लाला, रघुपति, हे ताता!' कभी-कभी उनके बोलने पर मन हर्ष से भर जाता है और मैं उन्हें देखकर गाने लगता हूँ।"
चौपाई
लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी।।
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना।।
तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी।।
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।।
तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू।।
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी।।
बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही।।
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसमें कहा गया है:
"दीनता और प्रेम की बहुत बड़ी महतारी होती है। यदि वह अकेले सुनाया जाए तो वह बोझी लगती है। श्रीराम ने जब प्रेम का बोध किया, तो वह इसे बयां करने से भी चाहते न थे। तब जानकी ने उनके पाँवों को छू लिया, माना मैं बहुत अभागी हूँ। उन्होंने समय पर सेवा दी, परंतु उनका मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ। उन्होंने अपनी इच्छा को छोड़ दिया, क्योंकि कर्म दोस्ती को कठिन नहीं बनाता। सीता ने सासु के वचन सुने, जिन्होंने उनसे कहा कि कैसे और कहाँ बताएं। सीता ने उनके दिल में बार-बार इसे छुपा लिया और धीरज देकर सीख को आशीर्वाद दिया। तुम्हारी इच्छा अचल रहे, जब तक गंगा और यमुना का जल धारा में मिलावट नहीं होती।"
दोहा-
सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार।।69।।
यह दोहा "रामचरितमानस" से है। इसमें कहा गया है:
"सीता ने अनेक प्रकार से सासु से अशीर्वाद और सिख लिया, उन्होंने बार-बार नैनों पद पद्म में सिर नमस्कार किया, जो अत्यंत हितकर था।"
चौपाई
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए।।
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा।।
कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े।।
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा।।
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा।।
राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें।।
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर।।
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसमें कहा गया है:
"जब लक्ष्मण ने सीता माता को पाया, तब उनके शरीर में अच्छंभा हो उठी, उनकी नेत्रों में आंसू आ गए, उनके शरीर में कंपन हुआ, पुलक सहित उनका शरीर धड़क उठा। वे बहुत ही प्रेमावेश में चरणों को पकड़कर उन्हें गले लगाना चाहते थे, लेकिन उनके मन में कुछ ठाढ़ाप रहा। मीना जल से जीना चाहती है, वैसे ही मैं अब तक दुःखी हूं। मेरे हृदय की विधि क्या होगी, जो सब सुख और सब कल्याण मेरे सिर पर है? मैं राघव को क्या कहूं, उन्हें भवन में रखूं या साथ ले जाऊं? उन्होंने मुझे देखते हुए बंधु की भाँति अपने शरीर में सभी समस्त संवादित तत्वों को छोड़ दिया। राम नयनों से बोले, 'ओ प्रिय नगरीप, प्रेम और धीरज में सरल, सुख के सागर, तात, प्रेम में रहकर ही मुझे जानते हैं, अब वे हृदय का परिणाम समझ लें।'"
दोहा-
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ।।70।।
यह दोहा कहता है कि माता, पिता, गुरु और स्वामी के शिक्षाओं को सिर पर धारण करके हमें सम्मानित करना चाहिए। इससे हमें इस जन्म में लाभ होता है और हमारे उद्धार के लिए इस जन्म का उपयोग होता है।

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