शिव द्वारा शुक्राचार्य को निगलना , शुक्राचार्य की मुक्ति' अंधक को गणत्व की प्राप्ति
शिव द्वारा शुक्राचार्य को निगलना
व्यास जी बोले- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! शिवगणों द्वारा जब शिवजी को यह ज्ञात हुआ कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य दैत्यों को पुनः जीवित कर रहे हैं और शिवगण उन्हें बंदी बना लाए हैं, तब क्रोधित होकर शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया था। तब आगे क्या हुआ? भगवान शिव के उदर में शुक्राचार्य ने क्या किया? क्या भगवान शिव ने उन्हें भस्म कर दिया या फिर शुक्राचार्य अपने तेज के प्रभाव से शिवजी के उदर से बाहर निकल आए ? कृपाकर मुझे ये बातें बताइए । व्यास जी के इन प्रश्नों को सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! भगवान शिव तो इस त्रिलोक के नाथ हैं। वे साक्षात ईश्वर हैं। उनकी आज्ञा के बिना इस संसार में कुछ भी नहीं होता। उनके कारण ही यह संसार चलता है। भगवान शिव के कारण ही देवताओं की हर युद्ध में जीत होती है। अंधक कोई साधारण दैत्य नहीं था। उसे यह बात ज्ञात थी कि वह त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नहीं जीत सकता। इसलिए वह अपने दैत्यकुल की रक्षा करने के लिए सर्वप्रथम अपने आराध्य दैत्यगुरु शुक्राचार्य के चरणों में गया और अपने गुरु की वंदना करने लगा। तब उन्होंने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया। दैत्यराज अंधक ने गुरु शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित करने की प्रार्थना की। शुक्राचार्य ने अपने शिष्य अंधक की प्रार्थना स्वीकार कर ली और युद्धभूमि में आ गए। शुक्राचार्य ने भगवान विद्येश (शिव) का स्मरण कर अपनी विद्या का प्रयोग आरंभ किया। उस विद्या का प्रयोग करते ही युद्ध में मृत पड़े दैत्य अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर इस प्रकार उठ खड़े हुए मानो इतनी देर से सोए पड़े हों। यह देखकर दैत्य सेना में अद्भुत उत्साह का संचार हो गया। राक्षसों में नई जान आ गई और वे भगवान शिव के गणों से भयानक युद्ध करने लगे। शिवगणों ने जाकर यह समाचार नंदीश्वर को बताया कि शुक्राचार्य अपनी विद्या के बल से मरे हुए दैत्यों को जीवित कर रहे हैं। यह जानकर नंदी सिंह की भांति दैत्य सेना पर टूट पड़े और उस स्थान पर जा पहुंचे जहां शुक्राचार्य बैठे थे। अनेकों दैत्य अपने गुरु की रक्षा करने के लिए चारों ओर खड़े थे। नंदी ने शुक्राचार्य को इस प्रकार पकड़ लिया जैसे शेर हाथी के बच्चे को पकड़ लेता है। वे उन्हें उठाकर तेज गति से वहां से निकल पड़े। नंदीश्वर को इस प्रकार अपने गुरु को उठाकर ले जाते देखकर सभी दैत्य उन पर टूट पड़े, परंतु नंदी अपनी वीरता का परिचय देते हुए सबको पछाड़ते हुए आगे बढ़ते रहे। नंदी के मुख से भयानक अग्नि वर्षा हो रही थी, जिससे दैत्य उनकी ओर नहीं बढ़ पा रहे थे। इस प्रकार कुछ ही देर में नंदी शुक्राचार्य का अपहरण करके उन्हें भगवान शिव के सम्मुख ले आए। नंदी ने सारी बातें भगवान शिव को कह सुनाईं। यह सब सुनकर देवाधिदेव महादेव जी का क्रोध बहुत बढ़ गया और उन्होंने दैत्यगुरु शुक्राचार्य को अपने मुंह में रखकर इस प्रकार निगल लिया जिस प्रकार कोई बालक अपनी पसंदीदा खाने की वस्तु को पलभर में ही सटक जाता है।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) सैंतालीसवां अध्याय समाप्त
शुक्राचार्य की मुक्ति
व्यास जी ने पूछा- हे सनत्कुमार जी! शुक्राचार्य को जब भगवान शिव ने निगल लिया तब फिर क्या हुआ? यह प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! भगवान शिव ने क्रोधित होकर जब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को निगल लिया तब वे शिवजी के उदर में पहुंचकर वहां से बाहर निकलने के लिए बहुत चिंतित हो गए और अनेक प्रकार के प्रयत्न करने लगे। जब वे किसी भी प्रकार से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, तब उन्होंने भगवान शिव के शरीर में छिद्रों की खोज करनी शुरू कर दी परंतु सैकड़ों वर्षों तक भी उन्हें कोई ऐसा छिद्र नहीं मिल सका, जिससे वे बाहर आ जाते। इस प्रकार शुक्राचार्य बाहर न निकल पाने के कारण बहुत दुखी हुए और उन्होंने शिवजी की आराधना करने का निश्चय किया। तब उन्होंने शिवमंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। शिव मंत्र का जाप करते-करते शुक्राचार्य शिवजी के शुक्राणुओं द्वारा उनके लिंग मार्ग से बाहर आ गए और हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने शुक्राचार्य को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया और मुस्कुराने लगे। शिवजी बोले- हे भृगुनंदन! आप मेरे लिंग मार्ग से शुक्र की तरह बाहर निकले हैं इसलिए आज से आप शुक्र नाम से विख्यात होंगे। आज से तुम मेरे और पार्वती के पुत्र हुए और सदा संसार में अजर-अमर रहोगे। तुम्हें आज से मेरा परम भक्त माना जाएगा। तब शुक्राचार्य भगवान शिव की स्तुति करते हुए बोले- हे देवाधिदेव ! भगवान शिव ! आपके सिर, नेत्र, हाथ, पैर और भुजाएं अनंत हैं। आपकी मूर्तियों की गणना करना सर्वथा असंभव है। आपकी आठ मूर्तियां कही जाती हैं और आप अनंत मूर्ति भी हैं। आप देवताओं तथा दानवों सभी की मनोकामनाओं को अवश्य पूरा करते हैं। बुरे व्यक्ति का आप ही संहार करने वाले हैं। मैं आपके चरणों की स्तुति करता हूं। हे प्रभु! आप मुझ पर प्रसन्न हों। दैत्यगुरु शुक्राचार्य की ऐसी स्तुति सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए । तत्पश्चात भगवान शिव से आज्ञा लेकर शुक्राचार्य पुनः असुर सेना में चले गए और तब से वे शुक्राचार्य के रूप में विख्यात हुए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) अड़तालीसवां अध्याय समाप्त
अंधक को गणत्व की प्राप्ति
सनत्कुमार जी बोले- हे महामुनि व्यास जी ! भगवान शिव के उदर में शुक्राचार्य ने शिवमंत्र का जाप कर बाहर आने का मार्ग खोज लिया और बाहर आकर शिवजी की आज्ञा पाकर वहां से पुनः असुर राज्य में चले गए। तत्पश्चात तीन हजार वर्षों के बाद वह वेदों का पाठ करने वाले शुक्राचार्य के रूप में पृथ्वी पर पुनः शिवजी से उत्पन्न हुए। दूसरी ओर अंधक को भगवान शिव ने अपने त्रिशूल पर उसी प्रकार लटकाया हुआ था। दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने देखा कि दैत्यराज अंधक उसी त्रिशूल पर लटका हुआ है, जिस त्रिशूल से देवाधिदेव भगवान शिव ने उसे मारने के लिए आघात किया था। उसे देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि अंधक के प्राण अभी तक नहीं निकले हैं और वह उसी प्रकार त्रिशूल पर लटका हुआ भगवान शिव के एक सौ आठ नामों से उनकी स्तुति कर रहा है। अंधक की इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अंधक को त्रिशूल के अग्रभाग से नीचे उतार लिया और उस पर दिव्य अमृत की वर्षा की तथा उससे कहा- हे दैत्येंद्र ! मैं तुम्हारी इस उत्तम भक्ति भावना से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने नियमपूर्वक मेरी आराधना की है। तुम्हारे मन में जितनी भी बुराई और पाप थे वे सब तुम्हारी शुद्ध हृदय से की हुई स्तुति से धुल गए हैं और तुम्हें पुण्य की प्राप्ति हुई है। मैं प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, वर मांग सकते हो। मैं तुम्हारी कामना अवश्य ही पूरी करूंगा। भगवान शिव के ये अमृत वचन सुनकर दैत्यराज अंधक बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- भगवन्! मैं दोनों हाथ जोड़कर आपसे अपने द्वारा किए गए हर बुरे कार्य और अपराध के लिए क्षमा मांगता हूं। आप मेरे अपराधों को कृपापूर्वक क्षमा करें। पूर्व में मैंने आपके और माता पार्वती के विषय में जो भी बुरा बोला या सोचा हो उसके लिए मुझे बहुत खेद है। मैंने यह सब अज्ञानतावश ही किया है। अब मैं एक दीन भक्त बनकर आपकी शरण में आया हूं। मुझे मेरे द्वारा किए गए अपराधों के लिए क्षमा कर दें। हे देवाधिदेव ! मैं आपसे वरदान में सिर्फ यही मांगना चाहता हूं कि आप में और माता पार्वती में मेरी अगाध श्रद्धा भावना व भक्ति बनी रहे। मेरे मन में कभी भी कोई बुरा विचार न आए। मैं शांत हृदय से सदैव आपके नाम का स्मरण व चिंतन करता रहूं। मुझमें कभी भी आसुरी-तत्व घर न कर पाएं। यही वरदान मुझे प्रदान कीजिए। अंधक ये वचन कहकर पुनः भगवान शिव और माता पार्वती के ध्यान में मग्न हो गया। भगवान शिव की कृपादृष्टि उस पर पड़ते हो उसे अपने पहले जन्म का स्मरण हो गया। उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो गए। भक्तवत्सल भगवान शिव ने प्रसन्न होकर अंधक को अपना गण बना लिया और उसे उसका इच्छित वरदान प्रदान किया।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) उनचासवां अध्याय समाप्त
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