Sri Sai Chalisa / साईं बाबा (1918 से पहले की तस्वीर)चालीसा

 श्री साईं चालीसा
साईं बाबा (1918 से पहले की तस्वीर)
पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊँ मैं ।

कैसे शिर्डी साई आए, सारा हाल सुनाऊँ मैं ।
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना ।
कहाँ जनम साईं ने धारा प्रश्न पहेली सा रहा बना ।
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं
कोई कहता साईं बाबा, पवन पुत्र  हनुमान हैं ।
कोई कहता है मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं ।
कोई कहता गोकुल- मोहन देवकी नन्दन हैं साई ।
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान ।
बड़े दयालु, दीनबन्धु कितनों को दिया जीवन दान ।
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात ।
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात ।
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर ।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर ।
कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर ।
और दिखायी ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ।
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वैसे ही शान ।
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान ।
दिग दिगन्त में लगा गूँजने, फिर तो साईजी का नाम ।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यहो रहा बाबा का काम ।
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन ।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बन्धन ।
कभी किसी ने माँगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान ।
एवमस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान ।
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल ।
अन्त:करन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ।
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान ।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान ।
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो
झंझा से झंकृत नैया को, तुमहीं मेरी पार करो ।
कुलदीपक के बिना अंधेरा छाया हुआ है घर में मेरे ।
इसलिए आया हूँ बाबाहोकर शरणागत तेरे । 
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान ।
कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया ।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया
दे दो मुझको पुत्र दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर ।
और किसी की आश न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धरकर के शीश ।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने दिया भक्त को यह आशीष ।
अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर ।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ।
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार ।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ।
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार ।
साँच को आँच नहीं है कोई, सदा, झूठ की होती हार ।
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास ।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ।
मेरा भी दिन था इक ऐसा मिलती नहीं मुझे थी रोटी
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी ।
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा था ।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था ।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ।
ऐसे में इक मित्र मिला जो परम भक्त साईं का था ।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझ सा था ।
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार ।
साईं जैसे दया मूर्ति के दर्शन को हो गए तैयार ।
पावन शिर्डी नगर में जाकर  देखी मतवाली मूरति ।
धन्य जनम हो गया कि हमने, जब देखी साई की मूरति ।
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का हो अन्त गया
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको सब बाबा से । -
 प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आज्ञा से ।
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में
इसका सम्बल ले मैं, हँसता जाऊँगा हँसता जाऊँगा जीवन में
साईं की लीला का मेरे मन पर ऐसा असर हुआ
लगता, जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ।
'काशीराम' बाबा का भक्त इस शिर्डी में रहता था ।
मैं साईं का, साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था । 
सिलकर स्वयं वस्त्र बेचता ग्राम-नगर बाजारों में
झंकृति उसकी हृदय तन्त्री थी, साईं की झंकारों में।
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी अंचल में चाँद सितारे ।
नहीं सूझता सूझता रहा हाथ को हाथ, तिमिरि के मारे।
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से 'काशी'
 विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी ।
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी ।
मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई
लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गये चम्पत हो ।
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो ।
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में
जाने कब कुछ हो उठा, उसको किसी पलक में
अनजाने ही उसके मुँह से निकल पड़ा था साईं ।
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो ।
लगता जैसा घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो ।
उन्मादी से इधर उधर तब बाबा लगे भटकने ।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगे पटकने ।
और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला ।
हुए सशंकित सभी  वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला ।  
समझ गये सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में
क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ पर पड़े हुए विस्मय में ।
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल हैं
उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्तस्तल है ।
इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई 
सन्मुख अपने देखा भक्त को, साईं की आँखें भर आई
शान्त, धीर, गंभीर सिन्धु सा, बाबा का अन्तस्तल ।
आज न जाने क्यों रह-रह, हो जाता था चंचल |
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी ।
और भक्त के लिये आज था, देव बना प्रतिहारी
आज भक्ति की विषम परीक्षा में सफल हुआ था काशी
उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर निवासी ।
जब भी और जहाँ भी कोई, भक्त पड़े संकट में
उसकी रक्षा करने  बाबा, जाते हैं पलभर में । 
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी ।
आपदग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी ।
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं ।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई ।
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का तोड़-फोड़ बाबा ने डाला ।
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला ।
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना ।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ।
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी
और नीम कडवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी
सच को स्नेह दिया साईं ने सबको अनतुल प्यार किया
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया
ऐसे स्नेह शील भाजन का नाम सदा जो जपा करे ।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ।
साईं जैसा दाता, अरे कभी नहीं देखा कोई  ।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई ।
तन में साईं, मन में साईं, साईं साईं भजा करो
अपने तन की सुधि - बुधि खोकर सुधि उसकी तुम किया करो
जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा
और रात-दिन बाबा, बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा
तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी ।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी
जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूँढ़ने बाबा को ।
एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को ।
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का हो गुण गाया ।
गिरे संकटों के पर्वत चाहे, या बिजली ही टूट पड़े।
इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जावोगे हैरान
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े
दंग रह गए सुन कर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान
एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया ।
भोली-भाली नगर निवासी, जनता को था भरमाया ।
जड़ी-बूटियाँ उन्हें दिखा कर करने लगा वहाँ भाषण ।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ।
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति ।
इसके सेवन करने से ही हो जाती दुःख से मुक्ति ।
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से ।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से।
लो खरीद तुम इसको इसकी सेवन विधियाँ हैं न्यारी ।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी ।
जो है संततिहीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाये ।
पुत्र - रत्न हो प्राप्त, अरे और वह मुँह माँगा फल पाये
औषध मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पायेगा ।
दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो
गर इससे मिलता है, सब कुछ तुम भी इसको ले लो ।
हैरानी  बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी ।
प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था, लख लोगों की नादानी ।
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक ।
सुनकर भृकुटी तनी और विस्मरण हो गया सभी विवेक ।
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ ।
मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को ।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ।
पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को ।
महानाश के महागर्त में, पहुँचा दूँ जीवन भर को
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल, अन्यायी को ।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साँईं को
पलभर में सब खेल बन्द कर भागा सिर पर रख कर पैर ।
सोच रहा था मन ही मन भगवान नहीं है क्या अब खैर
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर ।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर ।
वही जीत लेता है जगती के जन जन का अन्तस्तल ।
उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल ।
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो जाता है
पाप और अन्याय सभी कुछ इस जगती का हर के ।
दूर भगा देता दुनिया के दानव को क्षण भर  में।  
स्नेह सुधा की धार बरसने लगती है दुनिया में ।
गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस  में।
ऐसे ही अवतारी साईं, साईं, मृत्युलोक में आकर ।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ।
नाम द्वाराका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने ।
पाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने ।
सदा याद में मस्त  राम की, बैठे रहते थे साईं ।
पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते थे साईं ।
सूखी रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान ।
सदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान ।
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द मन्द हिल-डुल करके ।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे ।
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुःख आपद विपदा के मारे
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे ।
 सुनकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शान्ति, उनके उर में भर देते थे ।
जाने क्या अद्भुत, शक्ति, उस विभूति में होती थी ।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी ।
धन्य मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाये ।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये ।
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता ।
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता ।
गर पकड़ता मैं चरण श्रीके नहीं छोड़ता उम्र भर ।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर।

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