श्री नर्मदा चालीसा
श्री नर्मदा चालीसा" का पाठ करने की सामान्य विधि
- शुभ मुहूर्त का चयन: शुभ मुहूर्त का चयन करें, जैसे कि सुबह या संध्या के समय।
- पूजा स्थान का चयन: एक शुद्ध और साफ स्थान का चयन करें जहां आप पूजा कर सकते हैं।
- नर्मदा माँ की मूर्ति या चित्र के सामने बैठें: नर्मदा माँ की मूर्ति, चित्र, या यंत्र के सामने बैठें।
- शुद्धि और स्नान: स्नान करें और शुद्धि धारण करें।
- पूजा का आरंभ: नर्मदा माँ की पूजा का आरंभ करें, जैसे कि कलश पूजा, चौघड़िया पूजा, और देवी पूजा।
- मंत्र उच्चारण: फिर, "श्री नर्मदा चालीसा" का पाठ करें, मन्त्र को ध्यानपूर्वक और भक्तिभाव से उच्चारित करें।
- आरती और प्रशाद: पूजा के बाद, नर्मदा माँ की आरती करें और प्रशाद बाँटें।
- भक्ति भाव: पूरे पाठ के दौरान और उसके बाद, आपको भक्ति भाव से भगवान की अनुपस्थिति में समर्पित रहना चाहिए।
इस प्रकार, आप श्री नर्मदा चालीसा का पाठ करने के लिए उपयुक्त विधि का पालन कर सकते हैं।
॥ दोहा ॥
देवि पूजिता
नर्मदा, महिमा बड़ी अपार ।
चालीसा
वर्णन करत, कवि अरु भक्त उदार ॥
इनकी सेवा से सदा,
मिटते पाप महान ।
तट पर कर जप दान नर पाते हैं
नित ज्ञान ॥
॥ चौपाई ॥
जय जय जय नर्मदा
भवानी, तुम्हरी महिमा सब जग जानी ।
अमरकण्ठ से
निकलीं माता, सर्व सिद्धि नव
निधि की दाता ।
कन्या रूप सकल
गुण खानी, जब प्रकटीं नर्मदा भवानी
।
सप्तमी सूर्य मकर
रविवारा, अश्वनि माघ मास अवतारा ।
वाहन मकर आपको
साजैं, कमल पुष्प पर आप विराजै ।
ब्रह्मा हरि हर
तुमको ध्यावैं, तब ही मनवांछित
फल पावैं ।
दर्शन करत पाप
कटि जाते, कोटि भक्त गण नित्य नहाते
।
जो नर तुमको नित
ही ध्यावै, वह नर रुद्र लोक को जावैं
।
मगरमच्छ तुम में
सुख पावैं, अन्तिम समय परमपद पावैं ।
मस्तक मुकुट सदा
ही साजैं, पांव पैंजनी नित ही राजें ।
कल-कल ध्वनि करती
हो माता, पाप ताप हरती हो माता ।
पूरब से पश्चिम
की ओरा, बहतीं माता नाचत मोरा ।
शौनक ऋषि तुम्हरौ
गुण गावैं, सूत आदि तुम्हरौ यश गावैं
।
शिव गणेश भी तेरे
गुण गावैं, सकल देव गण तुमको ध्यावैं
।
कोटि तीर्थ
नर्मदा किनारे, ये सब कहलाते
दुःख हारे ।
मनोकामना पूरण
करती, सर्व दुःख माँ नित ही
हरतीं ।
कनखल में गंगा की
महिमा, कुरूक्षेत्र में सरसुति
महिमा ।
पर नर्मदा ग्राम
जंगल में, नित रहती माता मंगल में ।
एक बार करके
असनाना, तरत पीढ़ी है नर नाना ।
मेकल कन्या तुम
ही रेवा, तुम्हरी भजन करें नित
देवा ।
जटा शंकरी नाम
तुम्हारा, तुमने कोटि जनों को तारा
।
समोद्भवा नर्मदा
तुम हो, पाप मोचनी रेवा तुम हो ।
तुम महिमा कहि
नहिं जाई, करत न बनती मातु बड़ाई ।
जल प्रताप तुममें
अति माता, जो रमणीय तथा सुख दाता ।
चाल सर्पिणी सम
है तुम्हारी, महिमा अति अपार
है तुम्हारी ।
तुम में पड़ी
अस्थि भी भारी, छुवत पाषाण होत
वर वारी ।
यमुना में जो
मनुज नहाता, सात दिनों में वह
फल पाता ।
सरसुति तीन दिनों
में देतीं, गंगा तुरत बाद ही देतीं ।
पर रेवा का दर्शन
करके, मानव फल पाता मन भर के ।
तुम्हरी महिमा है
अति भारी, जिसको गाते हैं नर-नारी ।
जो नर तुम में नित्य नहाता रुद्र लोक में पूजा जाता ।
जड़ी बूटियां तट
पर राजें, मोहक दृश्य सदा ही साजें
।
वायु सुगन्धित
चलती तीरा, जो हरती नर तन की पीरा ।
घाट घाट की महिमा
भारी, कवि भी गा नहिं सकते सारी
।
नहिं जानूँ मैं
तुम्हरी पूजा, और सहारा नहीं मम
दूजा ।
हो प्रसन्न ऊपर
मम माता, तुम ही मातु मोक्ष की
दाता ।
जो मानव यह नित
है पढ़ता, उसका मान सदा ही बढ़ता ।
जो शत बार इसे है
गाता, वह विद्या धन दौलत पाता ।
अगणित बार पढ़े
जो कोई, पूरण मनोकाम ना होई ।
सबके उर में बसत
नर्मदा, यहां वहां सर्वत्र नर्मदा
।
॥ दोहा ॥
भक्ति भाव उर आनि
के, जो करता है जाप । माता जी
की कृपा से, दूर होत सन्ताप ॥
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