श्रीरामचरितमानस मासपारायण इक्कीसवाँ विश्राम

श्रीरामचरितमानस मासपारायण  इक्कीसवाँ विश्राम Shriramcharitmanas masparayan twenty-first rest

चौपाई 
कहौं कहावौं का अब स्वामी, कृपा अंबुनिधि अंतरजामी ||
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला, मिटी मलिन मन कलपित सूला ||
अपडर डरेउँ न सोच समूलें, रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें ||
मोर अभागु मातु कुटिलाई, बिधि गति बिषम काल कठिनाई ||
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला, प्रनतपाल पन आपन पाला ||
यह नइ रीति न राउरि होई, लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ||
जगु अनभल भल एकु गोसाईं, कहिअ होइ भल कासु भलाईं ||
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ, सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"मैं कहूँ या न कहूँ, अब मेरे स्वामी, आप ही हैं कृपासागर, अंतर्ज्ञ और सभी को जानने वाले। गुरु साहिब के प्रसन्न होने पर मन के मिटी हुई मलिनता का सूला कल्पित नहीं होता। डरकर नहीं सोचो, वही रवि है, देवता है, उन्हें भूलना नहीं चाहिए। मेरी अभागी माता की कुटिलता, विधि के अनुसार भयंकर कठिनाई है। मैंने अपने पैरों को सबके साथ मिलाकर आपको सेवा की, परन्तु आपने मुझे संरक्षण दिया। यह कोई नई विधि नहीं है, लोगों को यह नहीं पता होता है, लेकिन जो एक गोसाई को जानता है, वह भला ही होता है। देवताओं को सरस्वती की तरह सुभाषित करें, उनके सामने और पीछे से किसी का भी न कहें।"
दोहा
जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच,
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच ||२६७ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"जो कोई अपने आसपास के लोगों को अच्छे से जानता है, वह चाहे उनमें कोई भी समान हो, सबकी भलाई की सोचता है। वह मानता है कि जगह-जगह से आने वाली प्रशंसा को प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्म करना चाहिए।"
यह दोहा एक सकारात्मक भावना को व्यक्त करता है और व्यक्ति को समृद्धि की दिशा में सतत प्रयास करने की प्रेरणा देता है।
चौपाई 
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू, मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू ||
अब करुनाकर कीजिअ सोई, जन हित प्रभु चित छोभु न होई ||
जो सेवकु साहिबहि सँकोची, निज हित चहइ तासु मति पोची ||
सेवक हित साहिब सेवकाई, करै सकल सुख लोभ बिहाई ||
स्वारथु नाथ फिरें सबही का, किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका ||
यह स्वारथ परमारथ सारु, सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु ||
देव एक बिनती सुनि मोरी, उचित होइ तस करब बहोरी ||
तिलक समाजु साजि सबु आना, करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सभी तरीकों से गुरु और स्वामी के प्रति प्रेम देखकर संदेह और चोभ दूर होते हैं। अब जो करुणा करते हैं, वही प्रभु की चिंता को मिटा देता है, जो लोगों के हित में है। जो सेवक अपने स्वामी के प्रति संकोच करते हैं, उनकी सोच में सिर्फ अपने ही हित को देखती है। सेवक अपने स्वामी की सेवा में सेवार्थी बनकर सभी सुखों का लाभ उठाते हैं। जो अपने स्वार्थ के लिए सभी को छोड़ते हैं, उन्होंने कोटि-कोटि प्रकार से नीतिमान किया है। यह स्वार्थ ही परमार्थ होता है, जो सभी सुखद फलों की सजावट करता है। देवों, मेरी यह बिनती सुनो, और इसे उचित ढंग से अनुसरण करो। सब मिलकर तिलक समूह बनाकर आओ, जो मनुष्य ने प्रभु को अपने मन में स्थान दिया है, उसका कार्य सफल हो।"
दोहा
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ,
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ||२६८ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"हे सानुज! मैंने तुम्हें सत्य का ज्ञान पठाया है, अब तुम मेरे साथ सबका सारथी बनो। तुम्हारा दोनों भूत-प्रेत मेरे साथ चलें, इसके बाद तुम्हारा कोई बन्धु नहीं होगा, क्योंकि मैं स्वयं तुम्हारा सर्वप्रभु हूँ।"
इस दोहे में भक्ति और साधना के माध्यम से भगवान के साथ एकता की प्रेरणा दी गई है। यह कहता है कि जब हम सच्चे मार्ग पर चलते हैं और भगवान के साथ संबंध स्थापित करते हैं, तो हम सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
चौपाई 
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई, बहुरिअ सीय सहित रघुराई ||
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई, करुना सागर कीजिअ सोई ||
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु, मोरें नीति न धरम बिचारु ||
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू, रहत न आरत कें चित चेतू ||
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई, सो सेवकु लखि लाज लजाई ||
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू, स्वामि सनेहँ सराहत साधू ||
अब कृपाल मोहि सो मत भावा, सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ||
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ, जग मंगल हित एक उपाऊ ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"तीनों भाई राम, लक्ष्मण और सीता के साथ जंगल में रह रहे थे। जैसे ही प्रभु का मन प्रसन्न होता, वैसे ही उनकी करुणा भी हो जाती। देवों ने मुझे सबकुछ दिया है, मेरी नीति और धर्म का विचार मत करो। मैं सब कुछ स्वार्थ के लिए नहीं कहता, इसलिए मन में किसी भी चिंता को न बैठाओ। स्वामी ने सुनकर उन्हें राजाई दी, जो सेवक ने देखकर लाज और शरम महसूस की। मैं अवगुणों के समुद्र में डूबा हुआ हूँ, पर स्वामी की प्रेम और सराहना करता हूँ। अब कृपालु स्वामी, मुझे ऐसा मानो कि तुम्हें मुझपर दया आयी है, और मैं कुछ भी प्राप्त न करूँ। प्रभु की सेवा करने की प्रतिज्ञा करता हूँ, जो जगत् के मंगल और हित में एकरूप है।"
दोहा
प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब,
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ||२६९ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"जो व्यक्ति अपनी इच्छा को छोड़कर भगवान के प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए कुछ भी करता है, वह अपना सिर श्रद्धापूर्वक धरता है और सब कुछ उसी में लिपटा होता है, जिससे सभी दुःख और कष्ट स्वतंत्र रूप से दूर हो जाते हैं।"
इस दोहे में भक्ति और समर्पण के माध्यम से भगवान के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास का विवेचन किया जा रहा है। यह कहता है कि जब हम भगवान की इच्छा को प्राथमिकता देते हैं, तो सभी संबंधित समस्याएं स्वतंत्र रूप से हल हो जाती हैं।
चौपाई 
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे, साधु सराहि सुमन सुर बरषे ||
असमंजस बस अवध नेवासी, प्रमुदित मन तापस बनबासी ||
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची, प्रभु गति देखि सभा सब सोची ||
जनक दूत तेहि अवसर आए, मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए ||
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे, बेषु देखि भए निपट दुखारे ||
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता, कहहु बिदेह भूप कुसलाता ||
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा, बोले चर बर जोरें हाथा ||
बूझब राउर सादर साईं, कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं ||
यह चौपाई रामायण के एक अनुष्ठान से ली गई है और इसका अर्थ है:
"भरत ने उनके शब्द सुनकर सुरों को हर्षित किया, सभी साधु उन्हें सराहना करते और फूल बरसाते हैं। अवध में रहकर भी उनके मन में असंजस है, उनका मन तपस्वियों की तरह प्रमुदित है। राम के अवगुणों के संकोच में वह चुप रहते हैं, प्रभु की गति को देखकर सभी विचार करते हैं। जनक के दूतों ने इस अवसर पर आकर, मुनि वसिष्ठ को सुनाया और तुरंत बोलने के लिए कहा। वह प्रणाम करते हुए राम को देखते हैं, और उनके वेश को देखकर उन्हें अत्यंत दुःख महसूस होता है। जनक के दूतों ने मुनि वसिष्ठ की बात समझ ली, और भूप का कुशल मंगल के बारे में पूछा। उन्होंने सुनकर माथा नामान थोड़ी देर तक, फिर चरणों को पकड़कर बोले। उन्होंने राम से विनम्रता के साथ कहा, 'भय है कि इस समय सब ठीक हो।'"
दोहा
नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गइ नाथ,
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ ||२७० ||
इस दोहे का अर्थ है:
"कोसलनाथ राम के साथ नहीं हैं, तो सभी नाथ किसी भी कुशल स्थिति में नहीं गए हैं। उनके बिना मिथिला और अवध में सभी लोग अनाथ हो गए हैं।"
इस दोहे में राम के अभ्युदय से संबंधित है, और यह कहता है कि राम के बिना कोई भी नाथ या सहायक अच्छी स्थिति में नहीं हो सकता है। राम कोसलनाथ के रूप में प्रसिद्ध हैं और उनके साथ सभी को भगवान के सानिध्य में सुख-शांति प्राप्त होती है।
चौपाई 
कोसलपति गति सुनि जनकौरा, भे सब लोक सोक बस बौरा ||
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू, नामु सत्य अस लाग न केहू ||
रानि कुचालि सुनत नरपालहि, सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि ||
भरत राज रघुबर बनबासू, भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू ||
नृप बूझे बुध सचिव समाजू, कहहु बिचारि उचित का आजू ||
समुझि अवध असमंजस दोऊ, चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ ||
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी, पठए अवध चतुर चर चारी ||
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ, आएहु बेगि न होइ लखाऊ ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"कोसलराज ने जनक जी की गति सुनकर जनता को सोक में पड़ा देखा, सब लोग हैरान और विचलित थे। जहां देखते वही समय बिदेही महिला को, कोई भी सत्य नामक चीज को नहीं लागा। रानी कौशल्या ने नरपाल की बात सुनी, लेकिन बिना किसी समझावट के कुछ भी समझा नहीं। भरत राम के राज्य में वनवासी होते हुए भी, मिथिला नगरी में अपने हृदय को हराये हुए थे। राजा और बुद्धिमान सचिवों ने इस समस्या को समझकर विचार किया, कहें क्या होना चाहिए। उन्होंने अवध की असंजसता को समझा, और कहा कि इस स्थिति में कुछ भी कहने से बेहतर है ठहरो। राजा ने धीरज से अपने हृदय को धारण किया, और अवध के चतुर चारी वनराज को भेजा। भरत ने भावना को समझा और उसका सत्यापन किया, ताकि वह जल्दी आ सके और कोई भी भ्रमित न हो।"
दोहा
गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति,
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ||२७१ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"भरत ने देखा कि राम अवध में चले गए हैं और उनकी गति को समझकर उनके पीछे गए। फिर वह चित्रकूट के पास गए, लेकिन राम ने वहां नहीं रुका, इस पर भरत तेरह दिनों तक वहीं ठहरे।" इस दोहे में भरत के प्रति भक्ति और समर्पण का संदेश है। भरत ने अपने भाई राम के पादचिह्न का अभिमान किया और उनकी गति को अच्छी तरह समझा। वह अपने भाई के परम भक्त थे और उनके पास रहकर उनकी सेवा करने का इरादा करते थे।
चौपाई 
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी, जनक समाज जथामति बरनी ||
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति, भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ||
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई, लिए सुभट साहनी बोलाई ||
घर पुर देस राखि रखवारे, हय गय रथ बहु जान सँवारे ||
दुघरी साधि चले ततकाला, किए बिश्रामु न मग महीपाला ||
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा, चले जमुन उतरन सबु लागा ||
खबरि लेन हम पठए नाथा, तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा ||
साथ किरात छ सातक दीन्हे, मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ||
यह चौपाई रामायण के अंतर्गत है और इसका अर्थ है:
"जब दूत आये भरत के पास, तो उन्होंने जनक समाज के विचारों का वर्णन किया। जब गुरु, परिजन, सचिव और महीपति ने सब सोचा, तो वे बहुत उत्सुक थे। धैर्य रखकर भरत ने बड़ी सराहना की, और सुभट साहसी भावना को व्यक्त की। घर, शहर और देश की रक्षा करने के लिए, उन्होंने बहुत से रथों को सजाया। फिर उन्होंने जल्दी से सभी तैयारियों को पूरा करते हुए, दुर्गा से निकले, और महीपाल के पास नहीं रुके। भोर में वे नहाकर प्रयाग चले गए, और फिर जमुना की ओर रुख कर चले गए। हमने उनको संदेश भेजा, परन्तु उन्होंने कहा कि वे अभी वहाँ नहीं हैं। साथ में सातकिरात के साथ वे तत्काल विदा हुए, मुनि बर तुरंत चारों ओर चले।"
दोहा
सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु,
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ||२७२ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"जनकनंदिनी सीता जी की खबर सुनकर अवध के लोग सभी आनंदित हो गए। रघुकुल श्रीराम ने बड़ी सोच बिना सुरराज को प्राप्त किया है और इससे सभी लोग अत्यंत हर्षित हो रहे हैं।"
इस दोहे में भगवान राम के अयोध्या लौटने की खबर के सुनने से अवध के लोगों में अत्यधिक हर्ष और उत्साह होता है। सीता जी का पुनर्मिलन होने से भगवान राम ने सुरराज को प्राप्त किया है, जिससे सभी देवताओं को आनंद हो रहा है।
चौपाई 
गरइ गलानि कुटिल कैकेई, काहि कहै केहि दूषनु देई ||
अस मन आनि मुदित नर नारी, भयउ बहोरि रहब दिन चारी ||
एहि प्रकार गत बासर सोऊ, प्रात नहान लाग सबु कोऊ ||
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी, गनप गौरि तिपुरारि तमारी ||
रमा रमन पद बंदि बहोरी, बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी ||
राजा रामु जानकी रानी, आनँद अवधि अवध रजधानी ||
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा, भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ||
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू, देव देहु जग जीवन लाहू ||
यह चौपाई रामायण से हैं और इसका अर्थ है:
"केवल अच्छे वचन बोलें, किसी को भी कोई दोष न दिखाएं। ऐसा मन लाएं नर और नारी, दिन चारों ओर रहें भवरी भवरी। ऐसी प्रकार से व्यवहार करें, सब लोग सुबह नहाने जाएँ। नर और नारी मिलकर पूजा करें, गौरी पार्वती और गणपति की आराधना करें। राम और सीता राजा-रानी, अयोध्या की राजधानी में आनंद उठाते हैं। सब समाज के साथ सुख-सुविधा में बसें, भरत राम के प्रति वचन करें। इस सुख और अन्नद का सबको अनुभव कराना, देवों के द्वारा जगत को जीवन देना।"
दोहा
गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ,
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ ||२७३ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"गुरु, समाज और भाइयों के साथ मिलकर राम राजा होना चाहिए, ताकि अवध में रामराज्य स्थापित हो। राजा राम, अपने प्रजा के साथ मिलकर सभी को आशीर्वाद दें और अवध में सबका मंगल करें।"
इस दोहे में राम राजा के आदर्श राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व को बयान किया गया है। यह कहता है कि एक सच्चा राजा गुरु, समाज, और भाइयों के साथ मिलकर ही समृद्धि और सुख-शांति का स्रोत बन सकता है। उसका उद्देश्य समाज के हर व्यक्ति की कल्याण और समृद्धि होना चाहिए।
चौपाई 
सुनि सनेहमय पुरजन बानी, निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ||
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन, रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ||
ऊँच नीच मध्यम नर नारी, लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ||
सावधान सबही सनमानहिं, सकल सराहत कृपानिधानहिं ||
लरिकाइहि ते रघुबर बानी, पालत नीति प्रीति पहिचानी ||
सील सकोच सिंधु रघुराऊ, सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ||
कहत राम गुन गन अनुरागे, सब निज भाग सराहन लागे ||
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे, जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ||
यह चौपाई रामायण से हैं और इसका अर्थ है:
"सच्चे स्नेह से भरी हुई बातों को सुनकर पुरुष और महात्मा मुनि ज्ञानी जोगी निन्दा नहीं करते। इसी तरह पुरुषों को रोजाना यह नित्यकर्म करना चाहिए, जिससे उनके शरीर में श्रीराम के प्रति प्रेम के भाव उत्पन्न हों। सभी मनुष्यों को ऊंचा-नीचा, मध्यम स्थान में होने के बावजूद, अपनी-अपनी स्थिति में राम को देखना चाहिए। सब लोग सतर्क रहना चाहिए और सभी उन्हें सम्मान देना चाहिए, सबका धन्यवाद करना चाहिए, क्योंकि वे अनुग्रह सागर हैं। जो रघुकुल के प्रभु राम की बातें सुनता है, उसने नीति, प्रेम, और पहचानी का पालन किया। जो अच्छी आदतों का पालन करता है, वह सगर्यामुनि के समान सुभाऊ, सरल, और सुन्दर होता है। राम के गुणों का अनुरागी होकर राम की महिमा गाता है, जिससे उसका भाग्य सम्पन्न होता है। हम सभी मनुष्य पुण्य के एक छोटे से समुदाय में हैं, जो उन्हीं लोगों में से हैं जिन्होंने श्रीराम को पहचाना है और उनके गुणों की प्रशंसा की है।"
दोहा
प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु,
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ||२७४ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"राम की प्रेम में रत, वह समय तब सब कुछ भूलकर मिथिला में पहुंचते हैं। वहां सभी लोग सभा में मिलकर आनंदित हो जाते हैं और रविकुल (सूर्य) की तरह उनका प्रतिक्रियाएं होती हैं।"
इस दोहे में राम के प्रेम में रत होने का वर्णन है, जिससे उनके सान्निध्य में रहने वाले लोग समय को भूलकर आनंद में डूब जाते हैं। मिथिला में राम की विलासिता से सभी के हृदय में आनंद होता है और वहां की सभा में सभी लोग समृद्धि और संभ्रम से भर जाते हैं।
चौपाई 
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा, आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ||
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं, करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं ||
राम दरस लालसा उछाहू, पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ||
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही, बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ||
आवत जनकु चले एहि भाँती, सहित समाज प्रेम मति माती ||
आए निकट देखि अनुरागे, सादर मिलन परसपर लागे ||
लगे जनक मुनिजन पद बंदन, रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन ||
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि, चले लवाइ समेत समाजहि ||
यह चौपाई श्रीरामायण से हैं और इसका अर्थ है:
"भाइ, सचिव, गुरु, और साथी, उन्होंने श्रीराम के साथ गवाना किया। जब जनक के पुत्र हनुमान गिरिराज जीते, तब वे रथ को छोड़कर उन्होंने नमस्कार किया। राम के दर्शन की उत्कण्ठा है, और कोई भी प्रयास या व्यस्तता उनके मन में नहीं होती। जहाँ जाती हैं सीता जी, वहाँ मन और शरीर कोई भी दुख या सुख नहीं पहुँचता है। इसी तरह जनक ने भी इस समाज में प्रेम और समझ के साथ श्रम किया। जब वे निकट से आते हैं, तो वे आपस में प्रेम की भावना रखते हैं और सदर मिलते हैं। जनक और मुनियों ने भी श्रीराम को प्रणाम किया, और ऋषियों ने भी रघुनंदन को प्रणाम किया। भाइयों के साथ श्रीराम राज्य को प्राप्त हुए, और समाज में सभी को संतुष्ट किया।"
दोहा
आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु,
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ||२७५ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"संतों का आश्रम भगीरथ के सागर की भाँति है, जिसमें भगवान की रसायन पूर्णता से भरी है। संतों की कृपा और रघुनाथ (राम) की दया की सागर से मिलती है, जिससे मनुष्य अपने मन की शुद्धि के लिए वह सरिता (स्वच्छता) ले सकता है।"
इस दोहे में संतों के आश्रम की तुलना भगीरथ के सागर से की जा रही है, जहां भगवान की पूर्णता और भक्ति का सागर है। यह बताता है कि संतों का समर्पण और भक्ति से ही मनुष्य अपने मन को शुद्ध कर सकता है, और भगवान की कृपा के सागर से उसे आत्मा की शांति मिलती है।
चौपाई 
बोरति ग्यान बिराग करारे, बचन ससोक मिलत नद नारे ||
सोच उसास समीर तंरगा, धीरज तट तरुबर कर भंगा ||
बिषम बिषाद तोरावति धारा, भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ||
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा, सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ||
बनचर कोल किरात बिचारे, थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ||
आश्रम उदधि मिली जब जाई, मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई ||
सोक बिकल दोउ राज समाजा, रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ||
भूप रूप गुन सील सराही, रोवहिं सोक सिंधु अवगाही ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस के श्लोकों से लिया गया है। इसका अर्थ है:
"जो ज्ञानी, वैराग्यवान और स्वार्थरहित है, उसके वचन शीतल होते हैं और वह संसारिक विषयों से मिलावट नहीं करता। वही धीरे-धीरे अपने मन की उड़ान को बंधन से मुक्त कर देता है, जैसे कि हवा उड़ाने के बाद तारे को तोड़ देती है। जैसे विकारों की धारा कठोरता से बहती है, वैसे ही भय, भ्रम और संसार का अभाव अनंत होता है। ज्ञानी कबीर के समान विद्या के समुद्र में डूबता है, लेकिन उसे नहीं देख सकते और न सुन सकते हैं। जैसे जंगली पशु रास्ते पर विचार करते हैं, थक जाते हैं और हार मान लेते हैं। जब आश्रम मिल जाता है, तो समुद्र की तरह मन उठता है और अनुभव से भरा रहता है। सोक और विकलता के कारण दोनों राजा और समाज में नहीं रहा, न तो उन्हें ज्ञान और धीरज मिला, न ही लाज और शील का सम्मान किया गया। भूप स्वरूप, गुण, और सील की सराहना करता है, लेकिन वह खुद सिंधु की तरह अपेक्षा करने वाले को नहीं समझ सकता और न उसे अनुभव कर सकता है।"
छंद 
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा,
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ||
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की,
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की ||
इस छंद का अर्थ सहित अनुवाद दिया जा रहा है:
अवगाहि सोक समुद्र सोचता है, नारी नर ब्याकुल महा, सभी दोषों को देखते हुए, सब कुछ बोलता है विनम्रता से वचनों का आदान-प्रदान करता है.
सुर सिद्ध तापस और योगियों ने भी देखा है विदेह की दशा, तुलसी नहीं समर्थ है कोई, जो समुद्र सीमा की भावना को पूर्ण कर सके।
इस छंद में व्यक्त किए गए भाव भक्ति, विनम्रता, और अपने को अपने दोषों का आत्म-विचार करने की प्रेरणा को दर्शाते हैं। यह छंद आध्यात्मिक साधना और समर्पण की महत्वपूर्णता पर बल देता है।
सो0-
किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह,
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ||२७६ ||
अर्थ है:
"सोई अमित उपदेश जिस जगह भी हो, वहाँ लोग मुनिबर हो जाते हैं। नरेश! बिदेह सन, बसिष्ठ जी कहते हैं कि तुम्हें धीरज धरना चाहिए।"
इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जो उपदेश अमित (अनन्त) है, वह जिस क्षेत्र में भी दिया जाए, वहां लोग उसे मुनिबर मान लेते हैं। इसके साथ ही, बिदेह सन (बसिष्ठ जी) कह रहे हैं कि धीरज रखने का अर्थ है स्थिर और सहनशीलता से सम्बंधित है, जो एक नेता या शासक को आवश्यक है।

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