श्री रामचरित मानस अयोध्या कांड अर्थ सहित

श्री रामचरित मानस अयोध्या कांड अर्थ सहित Shri Ramcharit Manas with Ayodhya incident meaning

मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम

चौपाई–
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस में से है। इसमें भक्त कह रहा है कि हे प्राणप्रिय श्रीराम! मैंने आपको एक बार स्वीकार किया है, कृपया मेरी इच्छाओं को पूरा करें। मैं आपसे दूसरी बार याचना कर रहा हूँ, कृपया मेरे मनोरथ को पूरा करें। तापसी भीषण तपस्या कर चौदह वर्ष तक वनवास व्यतीत करते हुए भी मेरा हृदय आपके बिना उदास रहता है। मैंने आपके माधुर्यपूर्ण वचन सुने हैं और अपने हृदय को सुकून दिया है, जैसे मक्खी फूल पर बैठ कर सुखती है। मैं कुछ भी डरकर नहीं कह सकता, इसलिए सच्चाई को बतलाने में विलम्ब कर रहा हूँ। मेरा भय है कि अगर मैंने अपनी इच्छा को पूरा नहीं किया तो मैं धूप में विलीन हो जाऊंगा। मेरी इच्छा है कि जैसे पेड़ का मनोरथ होता है फूल आने का, वैसे ही मेरा मनोरथ भी फूला हो। अवध में उजाड़ हो गया है, कोई व्यक्ति भी नहीं है, मुझे इस दुःख का सामना करना पड़ता है।
दोहा-
-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।
इस दोहे में कहा गया है कि किसी भी अवसर का भय रखने वाले व्यक्ति का विश्वास नष्ट हो जाता है। ज्योंहि समय आता है, वैसे ही जोग की सिद्धि और फल होते हैं, जैसे कि अज्ञान नाश होता है।
चौपाई–
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।
ये चौपाई भगवान श्रीराम और कैकेयी के बीच वार्ता पर आधारित है। इसमें कैकेयी श्रीराम से कह रही है कि आप मेरी बातों को मन से सुनिए, और अपने मन को बुद्धिमानी से बनाएं। मुझे नहीं चाहिए भरत जैसा पुत्र, मुझे तो आपकी मूल्यवान स्नेह की आवश्यकता है। मैंने जो बातें सुनी हैं, वैसा लग रहा है कि आपके साथ यह विचार करना उचित नहीं है। क्यों न आप जो कुछ सुना है, उसे ध्यान से सोचें और विचारित करें। आपका श्रीराम के रामचंद्र कुल में सत्यसंध होने का विश्वास करता हूँ। अब आप मुझे बताएं कि क्या देना है, मैं तो सत्य को त्यागकर जगत की प्रशंसा लेने के लिए तैयार हूँ। कृपया सत्य की प्रशंसा करके बताएं। कैकेयी यहाँ सत्य की प्रशंसा करती है और उसे चाहती है। वह कहती है कि जैसे दधीचि ने अपनी जान को त्यागकर अमरता को प्राप्त किया, वैसे ही मैं तन और धन को त्यागकर आपकी बातों को ध्यान में रखूँगी। कैकेयी कहती है कि मैं कठोर शब्दों में बात कर रही हूँ, पर मुझे गर्व है कि मैं आपको सत्य बता रही हूँ।
दोहा-
-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।
इस दोहे में कहा गया है कि प्रभु श्रीराम, जो धर्म के धुरंधर हैं, धीरज से स्थित रहते हैं और जिनके नेत्र धरती पर ध्यान रखते हैं, उन्होंने सीता का सिर उठाकर असुर रावण को मार दिया।
चौपाई–
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।
यह चौपाई भगवान श्रीराम और उनके भाई भरत के बीच वार्ता पर आधारित है। इसमें भरत श्रीराम के अभाव में बहुत दुखी हैं। वह उनकी अभाव में रोष से भरे हुए हैं और उन्होंने अपनी कुबुद्धि और ठोस निश्चय को धारण किया है। वह भीर प्रतीति और प्रीति के साथ राम के लिए प्रेम और सम्मान दिखाते हैं। उन्होंने भरत को कहा है कि राम और मेरी आँखों में ही सत्य है, और मैं सच्चाई को दर्शाने के लिए इसे साक्षी बना रहूँगा। भरत ने दूतों को तुरंत भेजने का आदेश दिया है ताकि वे श्रीराम के पता लगा सकें। उन्होंने सभी तैयारियाँ की हैं और भरत को राज्य का प्रबंध करने की तैयारी कराई है।
दोहा-
- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।
इस दोहे में कहा गया है कि राम में लोभ नहीं है, वह राज करने के लिए बहुत प्रीति रखते हैं। मैं बड़ा या छोटा होने पर नर्मदा की तरह हर जीव के प्रति नृपत्व का भाव रखते हैं। यहाँ प्रीति और सम्मान के भाव को उजागर किया गया है, जो राम के भाई भरत के द्वारा उनकी प्रतिष्ठा और आदर्शों को दिखाता है।
चौपाई–
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।
ये चौपाई भरत और कैकेयी की बातचीत पर आधारित है। भरत श्रीराम से कह रहे हैं कि वह श्रीराम की सत्य सपथ को कह सकते हैं, लेकिन उन्हें राममाता के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए। वहने सब कुछ किया, लेकिन बिना आपसे पूछे, वहने भी मनोरथ रच लिया। अब रिस परिहार करके मंगल की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन भरत को कुछ दिन हो गए हैं और वह असमंजस में है। उन्हें एक बात पर दुख हो रहा है और दूसरी बात में वे विचारशील हैं। वे यह सोच रहे हैं कि क्या वे राम को रोष दिखाएं जो उनका अपराधी है। वे सभी को कह रहे हैं कि राम को सच्चा साधु मानें। भरत राम की तारीफ कर रहे हैं और स्नेह दिखा रहे हैं, लेकिन उन्हें संदेह है। वे सोच रहे हैं कि क्या वो जो कुछ चाहते हैं, वह श्रीराम के अनुकूल है या नहीं।
दोहा-
- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।
इस दोहे में भरत कह रहे हैं कि वे रिस का परिहार करें और समझे कि क्या सही है। जैसे कि उन्होंने देखा है, उससे अब उनके नयन भरकर भरत राज्य का अभिषेक कर रहे हैं। यहाँ भरत राम की आज्ञा का पालन कर रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह श्रीराम के संकेतों का पालन कैसे कर सकते हैं।
चौपाई–
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।
इन चौपाई में व्यक्त किया गया है कि जैसे मीन बिना पानी के बरबाद होते हैं, उसी तरह मन बिना राम के ही दुखी होता है। राम के बिना मेरे जीवन में कोई अर्थ नहीं है। मैं समझता हूँ और देखता हूँ कि प्रिया राम के दर्शन के बिना अधूरा है। मैंने दर्शन के लिए बहुत समझदारी से कोशिश की है, लेकिन मेरा मन अब भी उसी की अर्पिति में जल रहा है। मनुष्य ने कितने ही उपाय कर दिए हैं, लेकिन यहाँ राम की माया का आसरा नहीं लगता। मैंने अपना शरीर साधन नहीं बनाया, बल्कि मैंने संसार के बहुत से विचार और विचारों को त्याग दिया है। राम तुम सच्चे और जानने वाले हो, राममाता सबको अच्छी तरह समझती हैं। जैसे मेरी माता कौसल्या ने मुझे अच्छा सिखाया है, वैसे ही उन्होंने उनकी सेवा करने का फल पाया है।
दोहा-
-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।
इस दोहे में यह कहा गया है कि मैं सुबह जब मुनिबेश में जाता हूँ, तो राम को नहीं देख पा रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि मेरा मरना, जो कुछ भी हो, राम को समझकर ही होगा।
चौपाई–
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।
इस चौपाई में व्यक्त किया गया है कि व्यक्ति कितना ही कुटिल बन जाए, रोषीली बाढ़ी बन जाए, जब तक वह अपने पापों को स्वीकार नहीं करता, उसका क्रोध शांत नहीं होता। दोनों ओर कठिनता और हठ बढ़ा हुआ है, भवभृंगी कूबरी के वचन फैल रहे हैं। विपत्ति और संकट का बादल तरु के मूल को धावित कर रहे हैं। बहुत से लोगों ने सच्चाई को देखकर बात को पलटा दिया है, जैसे मधुमक्खी अपने सींग पर नाचती है। उन्होंने बिनती की है, और दिनकर की जाति के होने का कार्य किया है। वे अब शीश पर हाथ फेरकर मांग रहे हैं क्योंकि उन्हें चाहिए राम की रक्षा करें। उन्होंने कहा है कि वे जैसा भी राम की प्राप्ति करेंगे, उसी तरह से होगा, क्योंकि उनका जीवन बिना राम के बिना अधूरा है।
दोहा-
देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।
इस दोहे में कहा गया है कि वह अनाथ राजा धरती पर ब्याधि और असाधन होते हुए देखी जा रही है, लेकिन वे सब अपनी परमार्थ आराधना में राम का नाम जप रहे हैं।
चौपाई–
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।
इस चौपाई में, कैकेयी ने अपने बच्चों के अनुपस्थिति को लेकर अत्यंत चिंतित हैं। उनका मन व्यग्र है और सब तरफ अशांति है। उनका मन कल्पवृक्ष की भाँति हिल रहा है। वे बार-बार अपनी व्यथा को व्यक्त कर रही हैं, लेकिन उनकी जीभ सूख रही है और उनकी वाणी से शब्द नहीं निकल रहे हैं। वे व्यथित होती हैं, पर बिना पानी के दीनता बिना रह नहीं पा रही है। कैकेयी कठोर और तीक्ष्ण भावना व्यक्त कर रही हैं, उनके मन में घाव हो रहे हैं और वह उन्हें आहुति दे रहे हैं। वह यह कहती हैं कि वह अंततः क्या कर रही हैं, क्योंकि वह चाहती हैं कि उन्हें सब कुछ मिले। जब दोनों चीजों को एक साथ पाना मुश्किल होता है, तो उनकी आँखों से आंसू बहते हैं। वह किसी और की कृपा की व्यथा कर रही हैं और चाहती हैं कि वे शांति और सुख की स्थिति में रहें। उन्होंने बोलने की जगह धीरज और संयम को चुना है और अन्यों के प्रति करुणा दिखा रही हैं। वे चाहती हैं कि उनके शरीर, पुत्र, घर, धन, और धरती सच्चाई और सत्यता को धारण करें।
दोहा
मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।
इस दोहे में कहा गया है कि मैंने आपके बातों को सुना है, लेकिन मैं आपके कोई दोष नहीं तोड़ सकता। आप जैसे पिशाच के समान लगते हैं, जो काल कहलाता है। यहाँ पिशाच का उपयोग एक अवयविक तरीके से किया गया है, जो बुराई और भयानकता का प्रतीक होता है।
चौपाई–
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।
इस चौपाई में, कैकेयी ने भरत की ओर भविष्यवाणी की है, बताया है कि भरत राजमहल में सुबह की तरह उत्तेजित नहीं होगा। वह सभी पापों का परिणाम होगा और उसकी जीवनी में विलाप होगा। परन्तु, जब राम की वापसी होगी और वह अयोध्या में लौटेंगे, तो सभी गुणों का राम के साथ सम्बन्ध होगा। भरत और उनके सभी सेवक राम की सेवा में तत्पर रहेंगे और अयोध्या को बढ़ावा देंगे। कैकेयी कहती है कि वह अपने कलंक के लिए पछताएगी और वह कभी भी माफ नहीं होगा। वह अब अच्छा करने की कोशिश कर रही है और उनकी आंखें बार-बार उसकी ओर टिकी हैं। जब तक वह जीवित है, वह जो भी कहेगा उसे सुना जाएगा, लेकिन उसकी पीठ पर चिह्न होगा। वह पछताएगी, लेकिन अंत में वह अदृश्य दुखी होगी और स्तब्ध हो जाएगी।
दोहा-
परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।
इस दोहे में कहा गया है कि जब तक व्यक्ति चाहे बहुत सारे तरीके से कोई कार्य करें, उसका परिणाम वही रहता है जो उसने सोचा था। मनुष्य बहुत चालाक हो सकते हैं और बहुत कुशलता से काम कर सकते हैं, लेकिन उसके मन को समझना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि मनुष्य अक्सर अपनी भावनाओं और इच्छाओं को छिपाता है और बाहर दिखाता है कुछ और। इस दोहे में इस बात का जिक्र किया गया है कि कपटी और धोखेबाज लोग अक्सर अपनी असली भावनाओं को छिपाते हैं और बाहर दुनिया को कुछ और दिखाते हैं।

टिप्पणियाँ