श्री रामचरित मानस भावार्थ सहित अयोध्याकाण्ड

श्री रामचरित मानस  भावार्थ सहित अयोध्याकाण्ड  Ayodhya incident with Shri Ramcharit Manas meaning

मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम 37-48 

चौपाई–
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।
इस चौपाई में रघुकुल के गुरु, रामचंद्रजी के भक्त की अवध की दिशा में वाद-विवाद हो रहा है। उन्होंने अपने हृदय को रामकथा से भर दिया है, और उन्होंने अवध को देखकर उसे अपने मन में स्थान दिया है। भूपति के लिए रामचंद्रजी की प्रेम की अवधि कठिन हो रही है, क्योंकि वह अपनी प्रीति को सहायकों और अनुयायियों के बिना बयां करने में सक्षम नहीं हो रहे हैं। उनका हृदय संगीतकारों और गायकों की भाँति गाने वालों की तरह गुनगाने लगा है, जिससे उन्हें नृपति के द्वारा सुनाया जाता है। वे सब कुछ सुखद स्थिति में अद्भुत रूप से लगते हैं, लेकिन रात को कोई भी नींद में नहीं पड़ता, क्योंकि उनकी आस है कि वे जल्दी ही रामचंद्रजी के दर्शन करेंगे।
दोहा-
द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।
इस दोहे में अवध के प्रभु के द्वारपाल, सेवक और सचिव कह रहे हैं कि सूर्य को पूरी तरह से उदय करने के बावजूद भी, अवध के राजा नहीं जागते हैं। उनके इस अद्भुत व्यवहार का कोई विशेष कारण क्या है?
चौपाई–
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।
इस चौपाई में वर्णित है कि राजा नित रात को जागते रहते हैं, लेकिन उनके आज का व्यवहार अजीब लग रहा है। उन्होंने सुमंत्र से कहा कि वे जागा देखें और उनके द्वारा किए जा रहे कार्य को सुनाएं। सुमंत्र गये जब तो राजा ने उनकी गति देखी, वे बहुत भयानक और चिंतित लग रहे थे। उन्होंने समझाया नहीं, किसी से पूछा नहीं, और भूपति के भवन से जाकर बैठे और उनकी गति को देखकर सुखाया। परिस्थितियों को सोचते हुए, उन्होंने यह निर्णय लिया कि वे अपने सर्वोत्तम समय को छोड़ दें और समस्याओं से दूर रहें। उन्होंने सच्चाई को छिपाया, व्यक्तिगत विचारों को बताने से बचा और कठिनाईयों को छिपाने का प्रयास किया।
दोहा-
परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।
इस दोहे में बताया गया है कि राजा को न तो सुख की नींद आती है और न ही उसे दुनियावी मोहमय संसार का ज्ञान होता है। उसकी मन की सुखदायक आत्मा केवल राम के नाम के रटने से ही पूर्ण होती है।
चौपाई–
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।
इस चौपाई में वर्णित है कि रानी कैकेयी ने अचानक राम को बुलाया। सुमंत्र ने उसे समाचार पूछने जाने को कहा। वह तब राजा दशरथ के वृक्षों को जानते हुए वहाँ गयी और कुछ विचार किए बिना वापस नहीं आई। फिर उसने अपने मन में शांति की, सभी समस्याओं का समाधान किया और जहाँ दिनकर राजा दशरथ का संस्कार हुआ था, वहाँ गयी। वहाँ उन्होंने सुमंत्र को देखा, उन्हें सम्मान दिया और उनसे पिता के समान व्यवहार किया। फिर राजा दशरथ के शरीर को देखकर राजा को शांति दी और उन्होंने राम को साथ लेकर राजा दशरथ के राज्य में चले गए, जहाँ लोगों ने उनकी यात्रा को देखा।
दोहा-
जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।

इस दोहे में यह कहा गया है कि जब नरपति (राजा दशरथ) ने राघव वंश में अपने पालन पुरस्कृत कार्यों को देखा, तो वे सिंहों की तरह सजग और प्रज्वलित हुए, उनके मन में एक बड़े और विचारशील गजराज (वृद्ध हाथी) की भाँति महसूस हुए।
चौपाई–
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।
इस चौपाई में, कैकेई ने अपनी दीनता और अधोरंग दशा का वर्णन किया है, और उन्होंने राम से उनके दुःख का कारण पूछा है। उन्होंने राम से दो बड़े बरदान मांगे हैं और उन्होंने अपने दुःखों को समझाते हुए राम से सहानुभूति और सहायता की गुजारिश की है। यह चौपाई उनकी बेहद महत्वपूर्ण भावनाओं को दर्शाती है और उनकी विनती को जताती है। यहाँ, वे अपने दुख के कारणों को समझाती हैं और राम से अनुरोध करती हैं कि वह उनकी विनती को सुनें और उन्हें सहायता दें। यह चौपाई भावनाओं का विस्तार करती है और एक मांग के साथ विशेष रूप से उनकी विनती को दर्शाती है। बीती हुई पीड़ा और विवशता की भावना इस चौपाई में उभरती है।
दोहा-
सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।
यह दोहा बताता है कि एक पिता किस प्रकार से अपने पुत्र को स्नेह और सलाह देता है, और जब पुत्र को संकट आता है, तो पिता से कोई भी संकट छुपाया नहीं जा सकता। उस संकट का सामना करने के लिए पुत्र को साहस और बलिदान की आवश्यकता होती है। इस दोहे में पुत्र को साहस की आवश्यकता और संकट का सामना करने के लिए तैयार होने की सलाह दी जा रही है।
चौपाई–
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
इस चौपाई में प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने माता-पिता की महत्ता और संदेश को बता रहे हैं। यहाँ प्रस्तुत है कि वे अपने माता-पिता के उपदेश को नकारने की बजाय सुनते हैं। वे उनके शिक्षाओं को मानते हैं, जो उन्होंने बचपन से दिये हैं। व्यक्ति यह भी दिखा रहे हैं कि उन्होंने अपने माता-पिता के उपदेशों का मान्यतापूर्वक पालन किया है। उन्होंने आत्म-संयम, सजीवता और विचारों की दृढ़ता के माध्यम से उनके उपदेशों का अनुसरण किया है। इस चौपाई में माता-पिता के साथ ज्यों का त्यों उनका सम्मान किया जा रहा है। व्यक्ति यहाँ प्रकट कर रहे हैं कि माता-पिता के उपदेशों का सम्मान करना और उनके अनुसार चलना किसी भी परिस्थिति में सम्मानजनक है।
दोहा-
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।
इस दोहे में कवि यह बता रहे हैं कि मुनियों से मिलना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और उससे सभी प्रकार का हित प्राप्त होता है। वहाँ पर उनका पिता और माता भी बहुत सम्माननीय होते हैं। उनकी सहायता और आशीर्वाद का महत्त्व कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता है। इस दोहे में कवि ने यह संदेश दिया है कि माता-पिता के सहयोग और आशीर्वाद का मूल्य कोई भी चीज़ा नहीं हो सकता।
चौपाई–
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।
इस चौपाई में, भरत राजा के प्राणप्रिय हैं। उन्होंने मुझसे हर विधि में राजा की सेवा करने को कहा। वह ऐसा काम नहीं कर सकता जो राजा की सेवा में न जाता हो। शुरू में, मैंने उनका बुद्धिमान होने का अनुमान नहीं लगाया था। मैंने संदेश दिया कि वे अरँडु या कल्पवृक्ष की सेवा छोड़कर अमृत की ओर बढ़े। लेकिन मैंने अमृत छोड़कर विष मांगा। वैसे ही, भरत ने भी राजा की सेवा करने के बजाय अपने अंबिका को छोड़ दिया। मेरे मानसिक संघर्ष की वजह से माता को दुख हुआ। वह नरनायक के जीवन को देखकर परेशान हुई। वह अपने पिता के दुख का अहसास करती थी, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया। राजा बहुत धीर गुणों के धनी थे, जो मुझे बड़ा अपराधी महसूस कराता था। मैंने उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बताया। मेरी प्रतिज्ञा थी कि मैं उन्हें इस सच्चाई के बारे में बताऊँगा।
दोहा-
सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।
यह दोहा इस बात को दर्शाता है कि रामचंद्रजी के वचन सरल और सहज होते हैं, जबकि दूसरों की बुद्धि कुटिल और चतुराई से भरी होती है। रामचंद्रजी के बचन जल के समान सरल और सहज होते हैं, जिसके कारण वे दूसरों के दिलों में सहजता से प्रविष्ट हो जाते हैं, जैसे कि जल भी बकरी की तरह सरलता से घुल जाता है।
चौपाई–
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।
इस चौपाई में, कैकेयी रानी भरत से कह रही हैं कि रामचंद्रजी की बातों में कपट है, और उन्होंने उसे वास्तविकता नहीं समझा है। वह कह रही हैं कि उनके पिता के साथ में किसी अपराध की जानकारी नहीं है और उन्होंने भरत को सच्चाई बताने का आदेश दिया है। उन्होंने रामचंद्रजी के वचनों को सच माना है और वहां तक पहुंचने के लिए कोई तीसरा रास्ता नहीं सोचा है। वह कह रही हैं कि रामचंद्रजी की बातों में सचाई है और वे अपने पिता के शब्दों का पालन करते हैं, जैसे कि सरसरी झील उच्च स्थानों की सुन्दरता बढ़ाती है।
दोहा-
गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।
यह दोहा वह क्षण बताता है जब भरत ने रामचंद्रजी की आगमन के समय दी गई स्थिति का वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि वे चिंता में डूबे हुए निपटा हुआ थे, लेकिन जब उन्होंने रामचंद्रजी का स्मरण किया, तो उनकी चित्त शांत हो गई और वे फिर से स्थिर हो गए। उन्होंने राजा को सचिव के माध्यम से समय का समाचार दिया और बिनयपूर्वक रामचंद्रजी के आगमन की घोषणा की।
चौपाई–
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।
इस चौपाई में भरत द्वारा रामचंद्र जी के आगमन के समय की तैयारी का वर्णन किया गया है। वह अपने मन में त्रिशंकु राम के प्रति अपना समर्थन प्रकट करते हैं, चाहे वह रामचंद्र जी की धैर्यशीलता को देखकर हो या उनके चरणों को देखकर। उन्होंने इस अवसर पर अपने मन के संशयों को दूर करने का प्रयास किया और अन्त में उन्होंने अपने मन को समझाया कि वे रामचंद्र जी के बिना नहीं जा सकते। वे भगवान शिव को याद करते हैं और उनसे आशीर्वाद और सहायता की प्रार्थना करते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी आराध्य भगवान रामचंद्र जी अपनी आराधना स्वीकार करें और दीन-दुखियों की आरती स्वीकार करें।
दोहा-
तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।
यह दोहा व्यक्ति को भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा और विश्वास को दर्शाता है। यहाँ कहा गया है कि भगवान राम की प्रेरणा से ही सभी का हृदय प्रेरित होता है और उन्हें सही मार्ग का दर्शन मिलता है। इस दोहे में व्यक्ति भगवान की कृपा का आशीर्वाद मांग रहा है, वे यहाँ भगवान से अपने मार्ग की दिशा में मार्गदर्शन की प्रार्थना कर रहे हैं।
चौपाई–
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।
इन चौपाईयों में भगवान राम की महिमा और भक्ति का संदेश है। यह श्लोक तुलसीदास जी के रामचरितमानस से लिए गए हैं, जो एक महाकाव्य है जिसमें भगवान राम के जीवन का वर्णन किया गया है।
  1. यह श्लोक बताता है कि भगवान राम अविनाशी हैं और उनका ज्ञान सभी लोकों में प्रचारित है। वे नरक से परे हैं और स्वर्ग की ओर जाने वाले हैं।
  2. इसमें यह कहा जा रहा है कि भगवान राम के ध्यान से सभी कष्टों का समाधान होता है और उनके चरणों में शरण लेने से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
  3. यह श्लोक भगवान राम की गुणगान का महत्व बताता है, और कहता है कि उनकी महिमा को शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है, जैसे कि पात को सरिस में डोलना।
  4. इसमें राजा दशरथ के प्रेम में राम को अपना पुत्र मानना और फिर भी माता की आज्ञा का पालन करना व्यक्त किया गया है।
  5. यह श्लोक बताता है कि व्यक्ति को स्थिति, समय और परिस्थितियों के अनुसार चाहिए कि कैसे बोलना चाहिए और कैसे व्यवहार करना चाहिए।
  6. इसमें श्रीराम जी के लक्ष्मण से कहा जा रहा है कि पिता की आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है, और अनैतिक कार्यों से बचना चाहिए।
  7. इसमें यह बताया जा रहा है कि अत्यंत सरल बातों से भी दुःख हो सकता है, और इसलिए किसी से कुछ कहने से पहले विचार करना चाहिए।
  8. इस श्लोक में राम जी ने माता के पास जाकर सब कुछ देखने के बाद ही कुछ कहा है, और उनके वचन से माता की शांति हुई।  ये श्लोक भगवान राम के भक्ति और नैतिकता के सिद्धांतों को सुंदरता से व्यक्त करते हैं।
दोहा-
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।
इस दोहे में यह कहा गया है:
  1. इसका अर्थ है कि मंगलकारी समय में भक्ति और प्रेम की भावना को मन में बसाकर, अन्य सभी चिंताओं को छोड़ देना चाहिए।
  2. इसका अर्थ है कि इस भावना के साथ भगवान की उपासना करते हुए, ह्रदय में हर्ष के भावना के साथ, भक्ति में लिपटकर, प्रभु की महिमा गाना चाहिए।
चौपाई–
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।
इन चौपाइयों में भगवान राम के विचारों और कर्मों का महत्वपूर्ण संदेश है।
इसमें यह कहा गया है कि इस जगत में ऐसा जन्म प्राप्त होना धन्य है जिसमें पिताजी की आनंदप्रद कथाएं सुनी जा सकती हैं।
इस चौपाई में पिता, माता, और प्राण (जीवन) को सर्वोत्तम मानकर उनका समर्पण करने की अपेक्षा की जा रही है।
यह श्लोक जीवन को धर्मपरायण रहकर और कर्तव्यनिष्ठ बनाए रखकर सफल बनाने का सुझाव देता है।
इसमें माता के साथ विदा होते समय में मातृभाव और कर्तव्य का पालन करने की अपेक्षा की जा रही है।
इसमें भगवान राम के बारे में कहा गया है, जब उन्होंने अपने राज्य का त्याग किया और भूपति (राजा) बनकर सुख में बैठने का विचार नहीं किया।
इसमें यह कहा गया है कि राम की विचार और कृपा ने सारे नगर को प्रभावित किया है और सभी लोगों के तन-मन को छू लिया है।
इस चौपाई में भगवान राम की कथा को सुनकर सभी पुरुष और स्त्री विकल हो जाते हैं और उनकी दर्शनार्थ के लिए द्वार में बीच की बेल को छोड़कर दौड़ आते हैं।
इसमें कहा गया है कि जहां भी राम की कथा सुनी जाती है, वहां उसी स्थान पर राम का आशीर्वाद होता है और उनके दर्शन के इच्छुकों में अधिक उत्साह होता है। इसलिए, धैर्य बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
दोहा-
मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।
इस दोहे का अर्थ है:
"मुख से हंसी हो, आँखों से आँसू नहीं बहने चाहिए, और हृदय में दुख को समा लेना चाहिए। मन को शान्ति से भरने के लिए रस को कटकर उतारना चाहिए, ताकि अंत में ब्रज बजाएं (यानी आत्मा में आनंद का स्वर मिले)।"
चौपाई–
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"मिलने पर माया और बात-बिगाड़ी की बातें न करो, कहीं भी जहां भी हो, वहां दूसरों को गालियाँ न दो। इस पापिनी को क्यों देखना चाहिए? वह अपने भवन पर आग को छोड़ती है। अपनी दृष्टि से नीचे कुछ देख, फिर उससे अमृत चाहती है। इस कुटिल, कठोर और अभागी बुद्धि वाली किसी ने रघुकुल राजा को दुर्भाग्य बना दिया। इसने पलव (पेड़) को बैठकर इसे काट दिया है, जिससे उसे सुख और दुःख का ठाटा प्राप्त हुआ है। यह सदा राम को अपने प्राण समझता है, क्योंकि उसने कभी भी कुटिलता का सोचा नहीं। कवि कहता है कि नारी की सुभाविता को सत्य से कहो और सभी दुर्गुणों को त्यागो। अपने प्रतिबिंब को अच्छे से देखो, क्योंकि नारी की स्थिति जानना सुबहु नहीं होता।"
दोहा-
काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।
इस दोहे का अर्थ है:
"किसी को भी आग में जलने का अथवा समुद्र में समा जाने का कोई कारण नहीं होता है। किसी भी प्रबल या अबला को कुछ करने में असमर्थ नहीं बनाता है, जबकि समय (काल) सबको स्वीकार कर लेता है, और वह किसी का भी अनाहारी नहीं बनाता।"
चौपाई–
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"क्या सुनाऊं और किसे क्या दिखाऊं? एक कहता है, 'राजा ने कुछ नहीं किया,' फिर उसने विचार किया और दीन दयालु बन गया। जो व्यक्ति अहंकारी होकर सभी दुःखों का भागी हो गया है, उसने आबला को बिबस दिया और ज्ञान, गुण और धर्म का गान किया। एक व्यक्ति ने धर्म को परमिता (परम तत्त्व) माना, जो राजा को दोस्त नहीं बनने देता, और एक सिबि, दधीच, और हरिचंद की कहानी सुनाई गई, जिसमें हर वर्ष का उपयुक्त समय बताया गया। भरत ने एक उदास को सुना, जिसने यह कहा कि राम और भरत मेरे प्रिय हैं। उसने कान मूँदकर जीवन की बातें सुनीं और एक ने कहा, 'तुम्हारे लिए अच्छे कृत्यों की यह बात है, राम और भरत मेरे प्राणप्रिय हैं।'"
दोहा-
चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।
इस दोहे का अर्थ है:
"जैसे चंदन को सुगंधित बना देता है और अग्नि को ठंडा करने वाली होता है, वैसे ही भरत राजा राम के प्रति सदैव अनुरागी रहता है। कभी भी वह राम के प्रति अनुकूल नहीं होता, जैसा कि सपने कभी भी वास्तविक नहीं हो सकते।"

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