शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) सत्तानवां अध्याय से उनसठवां अध्याय
गजासुर की तपस्या एवं वध
सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! अब मैं आपको भगवान शशिमौलि द्वारा दानवराज गजासुर के संहार की कथा सुनाता हूं। गजासुर महिषासुर का पुत्र था। जब गजासुर को यह पता चला कि देवताओं के हितों की रक्षा करने के लिए उसके पिता महिषासुर का वध कर दिया गया है, तब उसे देवताओं पर बड़ा क्रोध आया। तब गजासुर ने देवताओं से इसका बदला लेने के लिए घोर तपस्या करनी आरंभ कर दी। काफी समय तक गजासुर ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु तप करता रहा परंतु ब्रह्माजी वहां प्रकट नहीं हुए। इधर, दूसरी ओर उसके तप की ज्वाला धधकती जा रही थी जिससे देवता चिंतित हो उठे। गजासुर की तपस्या से दग्ध होकर सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए और उन्हें गजासुर की तप की अग्नि से जलने की बात बताई। तब ब्रह्माजी गजासुर को वरदान देने के लिए गए। गजासुर ने ब्रह्माजी की स्तुति कर उनसे महाबली और अजेय होने का वरदान प्राप्त किया। तत्पश्चात ब्रह्माजी उसे वर देकर वहां से अंतर्धान हो गए। ब्रह्माजी से अपना मनचाहा वरदान पाकर गजासुर प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को आ गया। वरदान पाकर वह गर्वित महसूस कर रहा था। उसने चारों दिशाओं में अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ कर दिया था। उसने तीनों लोकों सहित देवता, असुरों, मनुष्यों और इंद्रादि तथा सब गंधर्वों को जीतकर उनके तेज का हरण कर लिया। उसने सभी को बहुत परेशान किया। पृथ्वी पर रहने वाले सभी ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, साधु-संतों और ब्राह्मणों को गजासुर दुख देने लगा तथा उनके कार्यों में बाधा डालने लगा। इस प्रकार गजासुर अपना राज्य फैलाता जा रहा था। एक बार वह भगवान शिव की प्रिय नगरी काशी में जाकर वहां सबको सताने लगा। तब सभी देवता मिलकर भगवान शिव के पास गए और उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे- हे भक्तवत्सल ! हे कृपानिधान! उस गजासुर नामक दैत्य से हमारी रक्षा करें। देवताओं की प्रार्थना मानकर भगवान शिव सबकी रक्षार्थ अपना त्रिशूल लेकर गजासुर का वध करने के लिए पहुंचे।
तब भगवान शिव और दैत्यराज गजासुर में बड़ा भयानक युद्ध हुआ। वह तलवार लेकर शिवजी पर झपटा। शिवजी त्रिशूल द्वारा उस पर प्रहार करने लगे। अंत में देवाधिदेव भगवान शिव ने त्रिशूल का वार किया और उसे त्रिशूल के सहारे ऊपर उठा लिया। इस प्रकार जब त्रिशूल ने उसके शरीर को भेद दिया तब अपना अंतिम समय निकट जानकर दैत्यराज गजासुर भगवान शिव की आराधना करने लगा और शिवजी को प्रसन्न करने हेतु उनकी स्तुति करने लगा। गजासुर बोला- हे महादेव ! हे कल्याणकारी! हे भक्तवत्सल! आप तो सबके ईश्वर हैं। देवों के देव महादेव हैं। आप सदा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और सदा भक्तों के अधीन रहते हैं। आप सबका कल्याण करने वाले तथा सबके कष्टों का निवारण करने वाले हैं। आप निर्गुण, निराकार हैं। सब शरणागतों की रक्षा कर आप उनकी इच्छाओं को पूरा करते हैं। ऐसे देवाधिदेव भगवान महादेव शिव को मैं प्रणाम करता हूं। प्रभो ! मुझ पर प्रसन्न होइए और मेरे कष्टों का निवारण कीजिए। दैत्यराज गजासुर की भक्तिभावना से की हुई उत्तम प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव को बहुत प्रसन्नता हुई। वे बोले – दैत्येंद्र ! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। जो चाहो मांग सकते हो। तुम्हारी मनोकामना मैं अवश्य पूरी करूंगा। भगवान शिव के वचनों को सुनकर गजासुर प्रसन्नतापूर्वक बोला - हे देवाधिदेव ! भक्तवत्सल भगवान शिव ! यदि आप सच में मेरी आराधना से प्रसन्न हुए हैं तो मेरी विनती स्वीकार करें। प्रभु! आपने अपने पवित्र त्रिशूल से मेरे शरीर को स्पर्श किया है इसलिए मैं यह चाहता हूं कि मेरे शरीर का चर्म आप धारण करें। भगवन् आप सदा मेरी खाल का ही ओढ़ना धारण करें और आज से आप 'कृत्तिवासा' नाम से विख्यात हों। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक दैत्यराज गजासुर को उसका इच्छित वरदान प्रदान किया और बोले—हे गजासुर! तुम्हारे शरीर को आज मेरी प्रिय काशी नगरी में मुक्ति मिलेगी। तुम्हारा शरीर यहां मेरे ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित होगा और कृतिवासेश्वर नाम से जगप्रसिद्ध होगा। इसके दर्शनों से मनुष्यों को मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होगी । यह कहकर भगवान शिव ने गजासुर के शरीर की चर्म को ओढ़ लिया और कृतिवासेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। जिसके फलस्वरूप वहां काशी में बहुत बड़ा उत्सव हुआ । सब देवता बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) सत्तानवां अध्याय समाप्त
दुंदुभिनिर्ह्राद का वध
सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! अब मैं आपको भगवान शिव द्वारा दुंदुभिनिर्ह्राद नामक दैत्य के वध की कथा बताता हूं। जब भगवान श्रीहरि विष्णु ने महाबली हिरण्याक्ष का वध किया तब हिरण्याक्ष की माता दिति को बहुत दुख हुआ। तब देवताओं के घोर शत्रु दुंदुभिनिर्ह्राद ने दिति को अपने साथ मिला लिया और उनसे कहा कि देवताओं की ताकत को तभी कम किया जा सकता है, जब उनकी पूजा करने वाले ब्राह्मणों को नष्ट कर दिया जाए। जब ब्राह्मण नष्ट हो जाएंगे तब यज्ञ नहीं होंगे और जब यज्ञ नहीं होंगे तब देवताओं को भोजन नहीं मिलेगा तथा इस कारण वे निर्बल हो जाएंगे। यह विचार मन में करके वह दुष्ट फिर विचार करने लगा और तपस्या करने वाले ब्राह्मणों की खोज करने लगा। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि काशी नगरी ब्राह्मणों की भूमि है, इसलिए सर्वप्रथम हमें वहीं से अपना कार्य आरंभ करना चाहिए। वह दुंदुभिनिर्ह्राद नामक दैत्य कुशा और समिधा लेने जाने वाले ब्राह्मणों को मारने लगा। वह नदियों और तालाबों में जलजीव बनकर छिप जाता तथा वहां स्नान करने आए साधुओं और तपस्वियों को वहीं मार देता तथा वनों में वनचर बनकर ब्राह्मणों का वध कर देता। रात में बाघ का रूप धारण करके वह ब्राह्मणों को खाने लगा। दिन में वह मुनियों की तरह ध्यान लगाकर मुनियों के बीच बैठ जाता। इस प्रकार उस दुष्ट राक्षस ने बहुत सारे ब्राह्मणों का वध कर दिया। एक शिवरात्रि के दिन भगवान शिव का एक भक्त देवालय में बैठकर भगवान शिव का पूजन करने के पश्चात ध्यान कर रहा था। निर्ह्राद ने जब इस प्रकार उसे अकेला देखा तो बाघ का रूप धारण कर उसे खाने के लिए आगे बढ़ा परंतु उसने पहले ही अपने चारों ओर शिव मंत्र रूपी कवच धारण किया हुआ था। इसलिए वह उस शिव भक्त को खा नहीं सका। इधर, भक्तवत्सल भगवान शिव ने अपने भक्त पर आए उस संकट को जान लिया व उसकी रक्षा के लिए शिवलिंग से प्रकट हो गए और जैसे ही दुंदुभिनिर्ह्राद दुबारा बाघ रूप में उस ब्राह्मण पर झपटा, भगवान शिव ने उसे धर दबोचा। फिर उसे अपने बगल में दबाकर उन्होंने उसके सिर पर मुक्के से प्रहार किया। उस दैत्य की भयानक चिंघाड़ से पूरा आकाश गूंज उठा जिसे सुनकर आस-पास जो भी ब्राह्मण और तपस्वी थे तुरंत उस स्थान की ओर दौड़े और वहां का अद्भुत दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गए। भगवान शिव ने उस दुंदुभिनिर्ह्राद नामक असुर को अपनी बगल में दबा रखा था। यह देखकर सभी ब्राह्मण और भक्तजन हाथ जोड़कर भगवान शिव की आराधना करने लगे। तब उनकी भक्तिभावना से की गई आराधना को सुनकर भगवान शिव बोले- हे मेरे प्रिय भक्तो ! जो मनुष्य यहां आकर श्रद्धाभाव से मेरे स्वरूप का दर्शन करेगा, मैं उसके सभी कष्टों और दुखों का नाश कर दूंगा। मेरे इस लिंग का स्मरण करने के पश्चात आरंभ किए गए हर कार्य में मनुष्यों को सफलता मिलेगी। इस संसार में जो भी मनुष्य व्याघ्रेश्वर नामक उत्तम शिवलिंग के प्राकट्य के इस उत्तम चरित्र को स्वच्छ, निर्मल मन एवं श्रद्धाभाव से सुनेगा, सुनाएगा, पढ़ेगा या पढ़ाएगा उसकी सभी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होंगी तथा उसके समस्त दुखों और कष्टों का नाश होगा। अंत में उस मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होगी। भगवान शिव की उत्तम लीला से संबंधित यह कथा स्वर्ग, यश और आयु प्रदान करने वाली तथा वंश वृद्धि करने वाली है।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) अट्ठावनवां अध्याय समाप्त
विदल और उत्पल नामक दैत्यों का वध
सनत्कुमार जी बोले- हे महामुनि वेद व्यास जी! अब मैं आपको विदल और उत्पल नामक दो महादैत्यों के विनाश की कथा सुनाता हूँ। विदल और उत्पल दैत्यों ने ब्रह्माजी की कठोर तपस्या करके उनसे किसी भी पुरुष के हाथों से न मरने का वरदान प्राप्त कर लिया था। यह वरदान पाकर वे दोनों दैत्य अपने को महावीर, बलवान और पराक्रमी समझने लगे थे। तब उन्हें अपने पर बड़ा अभिमान हो गया और उन्होंने अपने बल से सारे ब्रह्माण्ड को जीतकर अपने वश में कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने सब देवताओं को भी युद्ध में परास्त कर दिया और उनके स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सब देवताओं ने ब्रह्माजी को अपनी व्यथा सुनाई। तब ब्रह्माजी ने उन्हें आश्वासन दिया और समझाया कि आप देवी पार्वती सहित भगवान शिव की आराधना करें। वे ही आपके दुखों को दूर कर सकते हैं। आप सब उन्हीं की शरण में जाएं। भगवन् भक्तवत्सल हैं। वे निश्चय ही आपका कल्याण करेंगे। तब ब्रह्माजी की आज्ञा मानकर देवता शिव-शिवा की जय-जयकार करते हुए अपने-अपने धाम को चले गए। एक दिन की बात है, देवर्षि नारद भगवान शिव की इच्छा से प्रेरित होकर विदल और उत्पल नामक दैत्यों के पास गए और वहां उन्होंने उन महादैत्यों से देवी पार्वती के रूप-सौंदर्य की बहुत प्रशंसा की। उनके रूप की प्रशंसा सुनकर दैत्य काम से पीड़ित हो गए। उन्होंने अपने मन में देवी पार्वती का हरण करने के बारे में सोचा। इस बुरी भावना को मन में लिए वे दैत्य पार्वती जी को देखने के लिए चल दिए । एक बार जब देवी पार्वती अपनी सहेलियों के साथ गेंद से खेल रही थीं तब आकाश मार्ग से जाते समय उन दुराचारी दैत्यों की दृष्टि देवी पार्वती पर पड़ी। वे महादैत्य शिवगणों का रूप धारण करके उनके निकट पहुंचे। उनकी आंखों की चंचलता को देखकर भगवान शिव ने उन्हें तुरंत पहचान लिया। उन्होंने अलौकिक रीति से देवी पार्वती को भी इस बात का ज्ञान करा दिया कि वे शिवगण नहीं, राक्षस हैं। अपने आराध्य पति सर्वज्ञ शिव की बातों को देवी पार्वती ने समझ लिया। महादैत्यों को उनकी करनी का फल चखाने के लिए देवी पार्वती ने सखियों के साथ खेलते-खेलते इस प्रकार से गेंद घुमाकर मारी कि उसकी चोट से चक्कर खाकर विदल और उत्पल नामक दैत्य धरती पर इस प्रकार गिर पड़े, जैसे तेज वायु के झोंके से पके हुए फल टपक कर धरती पर गिर जाते हैं, जिस प्रकार वज्र के प्रहार से बड़े-बड़े शिखर पल में ढह जाते हैं, गिरते ही उनके प्राण पखेरू उड़ गए। इस प्रकार उत्पल और विदल नामक महादैत्यों का वध करने के पश्चात वह गेंद ज्योर्तिलिंग के रूप में परिणत हो गई। दुष्टों का नाश करने वाला वह लिंग कंदुकेश्वर नाम से विख्यात हुआ। यह लिंग ज्येष्ठेश्वर के निकट स्थित है। काशी में स्थित कंदुकेश्वर ज्योतिर्लिंग दुष्टों का नाश करने वाला तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है तथा मनुष्यों की सारी मनोकामनाओं को पूरा करता है। इस अनुपम कथा को सुनने अथवा पढ़ने से भय और दुख दूर हो जाते हैं तथा सुखों की प्राप्ति होती है और अंत में दिव्य गति की प्राप्ति होती है। ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्वर ! मैंने आपको समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले रुद्रसंहिता के युद्धखण्ड को सुनाया। यह शिवजी को प्रिय है और भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाला है।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) उनसठवां अध्याय समाप्त
।। श्रीरुद्र संहिता ( युद्धखंड ) संपूर्ण ।
॥ रुद्रसंहिता समाप्त ॥
॥ ॐ नमः शिवाय ||
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