संत तुलसीदास जी संदेश Saint Tulsidas Ji's message
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥362
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा
"हृदय से सोचो और समझो अपने कर्मों को। चिंता बहुत बढ़ जाती है, इससे बचना चाहिए।"
दूसरा पंक्ति "कृपासिंधु सिव परम अगाधा, प्रगट न कहेउ मोर अपराधा" कहती है कि भगवान की कृपा असीम और अपार है, जिसे मैं अपने पापों की सजा के लिए प्रकट नहीं कह सकता। इसका मतलब है कि भगवान की कृपा और उसकी अनंतता को हम नहीं समझ सकते।
भक्ति और श्रद्धा
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥363
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥
यह दोहा आपको भगवान राम के भक्ति और उनके प्रति श्रद्धा के बारे में बताता है। इसमें कहा गया है कि प्रभु को देखकर भवानी (भगवान राम) के संकर रूप को देखो। वह मुझे छोड़कर अपने हृदय को अशांत नहीं करें। मैं अपने अपराधों को समझकर किसी को भी नहीं बताऊंगा और तपस्या करते हुए अपने हृदय को अधिक करूँ।
यह दोहा भक्ति, संयम और अपने मन को नियंत्रित करने की महत्ता को बताता है, साथ ही भगवान की भक्ति में श्रद्धा और अनुराग की भावना को भी दर्शाता है।
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥364
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥
सतीहि - सती महात्मा सिता जी
ससोच - सहज चिन्तन करती हैं
जानि - जानती हैं
बृषकेतू - भगवान शिव
कहीं - कहीं
कथा - कहानी
सुंदर - सुंदर
सुख - सुखानी
हेतू - कारण
बरनत - वर्णन करते हैं
पंथ - मार्ग
बिबिध - विविध
इतिहासा - इतिहास
बिस्वनाथ - विश्वनाथ (भगवान शिव के एक नाम)
पहुँचे - पहुंचते हैं
कैलासा - कैलास पर्वत
इस श्लोक में कहा जा रहा है कि माता सीता महात्मा जो श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी थीं, वे स्वभाव से ही सदैव श्रीराम की चिन्तना करती थीं और वे जानती थीं कि भगवान शिव ने कहीं एक सुंदर कथा वर्णन किया था जो सुख और शांति के लिए थी। वे इस बात को जानकर भगवान शिव के विभिन्न मार्गों और इतिहासों का विवरण करती हैं और उन्हें विश्वनाथ भगवान के कैलास पर्वत पर पहुंचते हुए देखती हैं
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥365
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥
तहँ - वहां
पुनि - फिर
संभु - भगवान शिव
समुझि - समझकर
पन - पर भी
आपन - अपने
बैठे - बैठे
बट - बटुक (शिव के एक रूप)
तर - फिर भी
करि - करते
कमलासन - कमलासन (ध्यान की आसन)
संकर - शिव
सहज - सहज में
सरुप - स्वरूप
सम्हारा - समाप्त किया
लागि - के लिए
समाधि - समाधान
अखंड - अखण्ड (अविच्छेद्य)
अपारा - अपार (अनंत)
इस दोहे में कहा गया है कि जब भगवान शिव अपने आत्मस्वरूप को समझकर बटुक रूप में बैठे हैं, तो वे सहज ही अपने स्वरूप को समाप्त करते हैं। वे समाधान के लिए अखंड और अपार होते हैं। इस दोहे में भगवान शिव के ध्यान की महिमा का वर्णन किया गया है।
सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥ 366
सती (सती देवी) बसती हैं कैलास (भगवान शिव का आश्रय स्थान) तब अधिक सोचते हैं मन में।
कोई भी मरता नहीं है और कोई भी जीवन जीता नहीं है इस संसार में, सभी समय के लिए सिर पर हैं जैसे दिवसों की सिराही।
यह श्लोक भक्ति और वैराग्य की भावना को व्यक्त करता है और मनुष्य को मानव जीवन की अस्थायीता और मृत्यु के प्रति जागरूक करता है।
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