रामचरितमानस मासपरायण अट्ठारहवां विश्राम

रामचरितमानस मासपरायण अट्ठारहवां विश्राम Ramcharitmanas masparayan eighteenth rest

चौपाई
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।
चौपाई का अर्थ:
"राजा ने अपने पुत्र को ध्यान से समझाया। उसकी मन में ज्ञान की लागूकर्म को धारण किया।
पिता राजा ने विचार नहीं किया कि जीवन अमर धरती के साथ सुख बिताकर हमें क्या प्राप्त होता है।
सभी जीवों को जन्म मिलता है और उसी के अनुसार उन्हें अंत में अमरपद प्राप्त होता है।
इसलिए वह अनुमान छोड़ देते हैं और समाज, राज और नगर में भारी भरकम राजसत्ता बनाते हैं।
राजकुमार ने यह सुना और बहुत ही डर कर छत पर अंगारे लगा दिए।
वह धैर्यपूर्वक सीखा और समझा कि यह सब व्यर्थ है, और इस प्रकार सभी पापों को नष्ट किया।
वह बहुत ऊँचे स्थान पर रहता है, इसलिए उसे बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं है। उसको कोई भी मोहित नहीं कर सकता।
पेड़ काटकर और सींचकर हम उन्हें पालते हैं, और मछली जैसे जीवन को बार-बार जीते हैं।"
दोहा-
हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।
इस दोहे का अर्थ है:

"हंसबंसु" श्रीराम दसरथ के सोदर (भाई) हैं, और "जनकु" लक्ष्मण जनक के सोदर हैं। तू जननी है, माता थी, और भई है, इस प्रकार सभी बंधुओं के साथ अपने बसने के लिए तैयार नहीं हो रही है।
इस दोहे में भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, और भरत के बीच एक दृष्टिकोण को दर्शाया गया है। इसके माध्यम से, श्रीराम और लक्ष्मण को दसरथ के पुत्रों के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, लेकिन भरत को उनके साथ समाहित करने के लिए तैयार नहीं किया जा रहा है, क्योंकि उन्हें अपनी माता के साथ रहने का अधिकार था।
चौपाई
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ।।
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा।।
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।।
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।।
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।।
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई।।
चौपाई का अर्थ:

"जब तुम्हारी क्रोध या मति क्रोध करती है, तो हाथ हाथ में जोड़ लो।
अगर तुम मांगते हो और मन में दु:ख हो, तो तुम्हारी संतान में भी व्याकुलता नहीं होनी चाहिए।
राजा ने तुम्हारी अंदर की कौन सी प्रकृति की तरफ देखा है? वह कैसे मृत्यु के समय मन में हर चीज को लीन कर लेता है।
कामना हुई तो नारी के हृदय की गति को जानो, जो सच्चे धर्मात्मा होते हैं।
वह कैसे जानता है उसी अति प्रेमी राघव नाथ को, जो इस जगत में सभी जीवों के प्रिय हैं।
वह राम बहुत ही अहितकारी होते हैं, तुम कौन हो कि सच्चाई कहो मुझसे?
जो हंसता है, वही हंसता है; मुँह में मस्तक ले और बैठ जाओ।"
दोहा-
राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि।।162।।
इस दोहे का अर्थ है:

राम के विरुद्ध मेरे हृदय में जो भावनाएं प्रकट हुईं, उसे कैसे स्वीकार करूँ, इस विषय में मुझे अभी भी समझ में नहीं आया है। मैं तुम्हारे सामने यह स्वीकार करता हूँ कि मेरे लिए तुम बिल्कुल समान हो।
इस दोहे में भक्त की अंतर्निहित भावना और भगवान के प्रति अपनी असमर्पितता की भावना को व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। भक्त यह बता रहा है कि राम के विरुद्ध उसके हृदय में किस प्रकार की भावनाएं प्रकट हो रही हैं, और उसकी स्थिति में अभी समझ में नहीं आई है। यह भक्त का विनम्र प्रयास है भगवान से समझने का और उसकी असमर्पितता को स्वीकार करने का।
चौपाई
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई।।
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई।।
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई।।
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू।।
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी।।
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।
चौपाई का अर्थ:

"सुनकर सत्रुओं ने मायावी कुबेरी की धर्मिष्ठता को तोड़ दिया।
वे अवसर का उपयोग करके उस जगह पहुंची, जहाँ रिषि और लघुओं ने नहीं बसा पाए।
उसने वहाँ विभूषण बनाकर बसन को सजाया।
रिषियों ने बरत अनल के घी को हवन में दान किया।
वहाँ कुबेरी ने दलितों को छूकर मारा, उनके मुख से रक्त बहाया।
वह कह रही थी, 'दया कीजिए, मुझे क्यों न मार डाला? मैंने अच्छा किया था, फिर भी मुझे बुरा फल मिल रहा है।'
रिपु ने देखकर खोटी चालें सीखीं और उसे धोखा देने के लिए चकमा दिया।
भरत, जो दयालु हैं, उसने उन्हें छोड़ा। कौसल्या के दोनों पुत्रों ने वहाँ जाकर अस्थि विसर्जन किया।"
दोहा-
मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार।।163।।
इस दोहे का अर्थ है:
"मलिन बसन" और "बिबरन बिकल कृस सरीर" - इस मादक धूप में आस्था का आभास होता है, और शरीर दुखों के भार से पीड़ित है। "कनक कलप बर बेलि बन" - सोने की कलिकाएं, बर्फ की कीचड़ बन गई हैं, जो इस सरीर के मन को आकर्षित करती हैं, लेकिन इससे भी मन नहीं सुकूनित होता है। "मानहुँ हनी तुसार" - ऐसे मानता हूँ कि हनी और तुसार, जो अमृत और हिम हैं, भी मुझे तृप्ति नहीं देते।
इस दोहे में संसारिक सुख-दुख के अनित्यता और मानव जीवन की मूल्यता को सार्थक बनाने का संदेश है। यहां राहगीर को धन, भोग, और ऐश्वर्य के बारे में सावधान करते हुए, आत्मा की स्थिति को महत्त्वपूर्ण बताया गया है।
चौपाई
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई।।
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।।
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।
चौपाई का अर्थ:

"जब भरत ने माता को देखा तो वह उठकर धावी मारी।
माता गिर पड़ीं और परियों की तरह मुरझाईं आईं।
भरत ने उन्हें देखते ही बहुत दुःखी हो गए। उनकी आँखों में अश्रू बहने लगे।
माता को यह कहते हुए देखा, 'कहाँ हैं सीता और राम, लक्ष्मण?
मेरे कैकेई और किस जन्म में मैंने यह सब देखा है?
जो जन्म मैंने लिया है, उसके बावजूद मैं क्यों बाँझ बनी हूँ?
मेरे परिवार में एक कलंक जैसा जन्मा है, मुझे अपजननी और प्रियजनों का विश्वास छोड़ने वाली माना जाता है।
तुम्हारी त्राहि-त्राहि माँ ही कैसे बिना तुम्हारी देखरेख के संगीत को सुन सकती है?
पिताजी राम, जो स्वर्ग राज्य के राजा हैं, और बाकी सब लोग, मैं सब कुछ अनर्थों के कारण हूँ।
मैंने अपने आप को एक बेनुआ आग के समान मान लिया है, जो दुःख और दाह को भागा देती है।"
दोहा-
मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि।।
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।164।।
इस दोहे का अर्थ है:

माता कैकेयी ने भरत के वचन को मृदु ध्वनि से सुनकर सुना और उसने बेहद सजगता से सारी बातें समझ लीं। फिर उसने अपने हृदय से उठाया और उसने उस विचार को उसकी आँखों से निकाल दिया।
इस दोहे में माता कैकेयी की समझदारी और संवेदनशीलता का वर्णन है। उन्होंने भरत के बचन को मृदु सुर में सुना, समझा और उसके विचारों को स्वीकार किया। फिर, उन्होंने उसके हृदय से सारे अनादरपूर्ण विचारों को बाहर निकाल दिया।
चौपाई
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।
चौपाई का अर्थ:
"माता ने आश्वस्त करके दिल में राम को लाया, जो की अत्यंत हितकारी थे।
लक्ष्मण ने राम को बहुत छोटे और लघु पाया, उनका सनेह उनके हृदय में समा नहीं।
सबने देखकर कहा, 'राम, माताजी ऐसा क्यों नहीं होता?'
माताजी ने भरत को उपरीण होकर उठाया, आंसू पोंछते हुए शांत शब्दों में बोले।
'हे बच्चो, धीरज बनाओ, कष्ट को सहो, उसे समझो और दुःख को छोड़ो।
तुम्हें मानवी या दिव्य तत्त्व की हानि हो रही है। तुम समझो कि काल और कर्मों का प्रभाव अगम्य होता है।
तुम्हें कौनसा दोष दे सकता है, जानकर तो दोस्त, ताता, भगवान सब तरह से मेरे ही संपूर्ण रहने वाले हैं।
जो दुख मुझे इतना सताता है, उसको जानने वाला कौन है, वह क्या है और वहां क्या भाव है।"
दोहा-
पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।
इस दोहे का अर्थ है:

"पितु आयस भूषण बसन" - पिता की आभूषण भूषित कपड़े, और "तात तजे रघुबीर" - तब राम, रघुकुल नायक, ने अपने पिता के अर्थात दशरथ जी के आभूषणों से युक्त वस्त्र छोड़ दिए। "बिसमउ हरषु न हृदयँ" - उस समय भी हृदय में कोई खास हर्ष नहीं था, "कछु पहिरे बलकल चीर" - कुछ बचा ही नहीं था, सभी कपड़े छोड़ दिए गए थे।
इस दोहे में राम ने पिताजी के आभूषणों को छोड़ने का निर्णय किया है, जो उनके लिए महत्वपूर्ण थे। इससे यह साबित होता है कि राम ने पिताजी के आदर्शों और कर्तव्यों के प्रति अपना आत्मसमर्पण दिखाया।
चौपाई
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा।।
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए।।
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें।।
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।।
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।
चौपाई का अर्थ:

"राजा दशरथ मन में हर्ष और क्रोध नहीं बिताते थे, उन्होंने सभी कार्यों को तथा सभी विधियों को सम्मानित किया।
सीता के साथ चलते समय राम का मन चरणों में प्रेमी नहीं था।
लक्ष्मण ने सुना और उठकर सीता के साथ चलने का निर्णय किया, लेकिन उन्होंने राम की सेवा की बिना कोई प्रयास नहीं किया।
तभी राजा दशरथ और सभी लोगों ने सर झुकाया, चले राम और सीता के साथ, और लक्ष्मण भी संग चले।
राम, लक्ष्मण, और सीता ने जंगल में शांति की प्राप्ति की, उन्होंने एक साथ नहीं जीने का निर्णय लिया।
इससे राजा की भावनाओं में अभाव और उनका जीवन अभागा हुआ।
मुझे अपने नेह में गर्व नहीं होता, राम ही मेरी आदर्श संतान है।
जैसे भूपति जानता है कि वह मरने वाला है, मेरा हृदय भी सत्य को तुलनात्मक मानता है।"
दोहा-
कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु।।166।।
इस दोहे का अर्थ है:

कौसल्या के वचनों को सुनकर भरत ने सहित रानिवास (अयोध्या) को छोड़ दिया। उनका राजमहल बहुत उत्कृष्ट, मनोहर और सुन्दर होने के बावजूद, उनके मन में दुःख का सागर बह रहा था।
इस दोहे में भरत के वियोग का दर्द और उसकी मातृभूमि के प्रति प्रेम का अभिव्यक्ति की जा रही है। उनकी माता कौसल्या के वचनों ने उन्हें आत्म-त्याग का निर्णय करने पर मजबूर किया है। यह दोहा भरत की निष्ठा, विनम्रता, और धर्म-प्रियता को प्रकट करता है।
चौपाई
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।
चौपाई का अर्थ:

"भरत ने अपने भाई राम और लक्ष्मण के बारे में बहुत विचार किया। उन्होंने माता कौसल्या को अपना हृदय बताया।
उन्होंने भरत को बहुत समझाया और उन्हें ज्ञान दिया। उन्होंने जोर से बोलकर उन्हें ज्ञान दिलाया।
भरत ने माता को सबकुछ समझाया और पुरानी श्रुतियों की कथाओं को सुनाया।
वह ने बिना किसी छल के, सरलता से और बुद्धिमानी से बोलकर जग में ज्ञान फैलाया।
जो माँ-बाप, पति, बच्चे को मारें, उन्हें जानना चाहिए कि वे अघ्या हैं, उन्हें गोठ में जाना चाहिए।
जो बच्चों को बुरी तरह से कष्ट पहुंचाते हैं, उन्हें प्रियप्रिये दीन-दुखी मेहर करनी चाहिए।
जो पाप और उपपाप करते हैं, उनके कर्म, वचन और मन को धर्मवीर कहा जाता है।
वह पाप मुझे बनाने वाला है, अगर ऐसा होता है तो मेरी माता, तुम मेरे मत में माता नहीं हो।"
दोहा-
जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर।।167।।

इस दोहे का अर्थ है:
जो भूतगण (सभी प्राणियाँ) हरि के चरणों की भक्ति करके हरि को परिहार कर लेते हैं, वे घोर रूप से भयभीत हो जाते हैं। उन्हीं चरणों की भक्ति से मुझे मोक्ष प्राप्त हो, यह मेरे माता के लिए इस प्रकार कहता हूं।
इस दोहे में भक्ति की महत्ता और भगवान के चरणों की पूजा का महत्व हाथांतरित हो रहा है। यहां भक्त ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि और प्रेम को भी व्यक्त किया है, और भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति की प्रार्थना की है।
चौपाई
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा।।
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा।।
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे।।
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई।।
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।।
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ।।
चौपाई का अर्थ:

"वेदों को बेहद चाहिए धर्म को समझने के लिए, लेकिन कुछ लोगों ने उन्हें उल्टा इस्तेमाल करके दूसरों को पाप के रूप में दिखाया है।
कपटी, कुटिल, कलहप्रिय, और क्रोधी लोग, जो वेदों का विरोध करते हैं।
लोभी, लंपट, और लोलुपचारी व्यक्तियों ने परयाप्त धन और परदार को धर्म के माध्यम से प्राप्त किया।
मैं उनके लिए भयंकर गति का संसार प्राप्त करता हूँ, जो मेरी माता की स्वीकृति नहीं करते हैं।
वे लोग, जो साधु संग का आनंद नहीं करते, और परमार्थ के मार्ग में अनुराग नहीं रखते, वे अभाग्यवान हैं।
जो नारायण को भजने में रुचि नहीं रखते, और जिन्हें हरि के लीलाओं का आनंद नहीं होता, वे सुन्य हैं।
वे लोग श्रुति के मार्ग को छोड़कर बामपंथ पर चलते हैं, और जगत् में छल-कपट करते हैं।
मैं उनकी गति को भगवान शंकर की देने को तैयार हूँ, अगर मेरी माँ उन्हें मेरे बारे में जान लें।"
दोहा-
मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ।।168।।
इस दोहे का अर्थ है:
माता कैकेयी ने भरत के वचनों को सुनकर बहुत सादगी और सरलता से कहा, "राम प्रिय भूत, तुम्हारे प्रिय ताता जी, तुम्हें हमेशा मेरे बचनों का मानना चाहिए।"
इस दोहे में माता कैकेयी ने अपने पुत्र भरत से सजीव सिद्धांत और साधुता की शिक्षा दी है। उन्होंने उसे बताया कि सच्चे प्रेम और सेवा में सतत रहना हमेशा उचित है और उसने राम को अपने मन और वचनों में सदैव मानने की प्रेरणा दी। इससे सुनकर भरत ने मातृभक्ति और धार्मिकता की शिक्षा प्राप्त की।

टिप्पणियाँ