रामचरितमानस भावार्थ सहित- मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

रामचरितमानस  भावार्थ सहित- मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम Ramcharitmanas with meaning - Masparayan, eighteenth rest

चौपाई
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।।
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।।
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।।
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।।
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।
इस चौपाई में कहा गया है:

"केवट ने बहुत सेवा की, जो जामुना के किनारे जामुन की बोतल गवाई। वह उसको प्रात:काल बटा चीर लेकर माँगा, अपने जटाधारी मुकुट को अपने सिर पर बनाया। जब राम ने दोस्त को नाव माँगी, तो प्रिया साथ चढ़ी, रघुराज भी चढ़े। लक्ष्मण ने बाण और धनुष बनाये, और खुद प्रभु चढ़ गए। राघव ने मुझे बिलकुल देखा, मधुर धीरे बोलकर बोला। 'हे पितामह, तात्संग सलाम करता हूँ, मैं आपके पाद-कमलों को बार-बार पकड़ता हूँ। मैं अपनी विनती आपके चरणों पर रखता हूँ, तात्संग इसे समझकर मेरी चिंता करें। हे हमारे मंगल के उपायक, हे धरती मंगल और कुशल हों, आपकी कृपा और अनुग्रह हम पर रहे।"
छंद 
तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।।
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी।।
छंद का अर्थ है:

"तुम्हारे अनुग्रह से, तात कानन जात हैं और सभी सुख प्राप्त होते हैं। प्रतिपल्ली (हर क्षण) तुम्हें देखकर अत्यन्त कुशल प्राप्त होता है, और फिर फिर तुम आते हो।
सभी स्त्रीजननी तुम्हें पूर्ण रूप से प्रसन्न करती हैं और बिना किसी अपेक्षा के तुम्हारे सामने बिनती करती हैं। ऐ मेरे भगवान तुलसी, जो कुछ भी कुशल रहता है, वह कोसल में ही धनी रहता है।"
यह छंद तुलसीदास जी द्वारा रचित है और इसमें भक्ति भावना, ईश्वर प्रेम, और साधना का महत्व होता है।
सोरठा-
गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।151।।
अर्थ:

"गुरु संग कहता हूँ संदेश बार-बार, पद कमलों में बसा कर। वह कारण है जो उपदेश करता है, जैसा कि अवधपति (राम) मुझसे कहते हैं।"
इस छंद में, कबीर जी गुरु के महत्व को समझाते हैं और गुरु के साथ सत्संग करने की महत्वपूर्णता पर बल देते हैं। उनका कहना है कि गुरु के साथ समय बिताना और उनकी शिक्षा सुनना हमें दिव्य ज्ञान में स्थित कर सकता है और हमें मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शन कर सकता है।
चौपाई
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।।
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ।।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।
इस चौपाई में दिया गया अर्थ:

"मेरे पुराने और नए संबंधी सभी समृद्धि में हों। तात्, मैं आपको बिनती सुनाना चाहता हूँ। वह व्यक्ति हर तरह से मेरा हितैषी हो, वह नरनारी के बीच सुख और समृद्धि को प्राप्त करें। भरत के सन्देश को कहो कि वह नीति को त्याग मते हुए राजपद को पाए। वह जनता की रक्षा करते हुए कर्म में मन लगाए, उसे माता को सबसे समझा जाए। भाई के प्रति तुम्हारा ध्यान रखना चाहिए, और पिता और माता को सेवा करना। तात्, तुम्हें ऐसे ही रहना चाहिए, मुझे वैसा ही काम करना चाहिए। लक्ष्मण ने कुछ कठोर शब्द कहे, राम ने फिर मुझे देखा। बार-बार अपना वचन दिया, लेकिन तात् ने मुझसे ज्यादा लड़ाई नहीं की।"
दोहा-
कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।152।।
इस दोहे का अर्थ है:

कहीं शब्दों से बाहर, प्रनाम करते हुए, सीता ने सीधे और सरल सन्नाटे में सच्चे स्नेह से कहा। उनके वचनों ने थका दिया, लेकिन उनकी आँखें सजल हो गईं और उनका शरीर पुलकित हो गया।
इस दोहे में सीता रानी ने भगवान श्रीराम के प्रति अपने पूरे हृदय से की गई भक्ति और प्रेम की अद्वितीयता को व्यक्त किया है। उनके वचनों का प्रभाव इतना मजबूत है कि उनकी आँखों से आंसू बह रहे हैं और शरीर में भावनाओं की ऊंचाइयों को महसूस किया जा रहा है। यह दोहा भक्ति और प्रेम के साथ सच्चे प्रेमी भक्त की अद्वितीय भावना को प्रस्तुत करती है।
चौपाई
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।।
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू।।
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ।।
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।।
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा।।
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।।
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।
इस चौपाई का अर्थ:

"तब रघुकुलराज राम ने उस अवसर का इस्तेमाल करके पेड़ के पास जाकर केवट को नाव चलाने के लिए बुलाया।
रघुकुल के तिलक चले उसी तरह, उन्होंने पेड़ की छाया में खड़े होकर केवट को देखा।
मैंने तुमसे क्या कहूँ, जिससे तुम फिरकर जा सको और राम को संदेश पहुंचा सको।
सचिव ने ऐसा कहते हुए शब्द छोड़ दिए, वह विचार कर बहुत चिंतित हो गया।
रानी ने सुनकर उसकी बातें दुःख देने वाली थीं, उसकी धड़कन दुखाई देती थी।
उसने भी अपने मन की तलाश की, उसने अपने मन की दुखने वाली बातें समझी।
सभी रानियां बिलाप करती रहीं, महान बिपत्तियों की कहानी सुनाती रहीं।
उसने बिलाप सुनकर दुःख किया, धीरे-धीरे उसने उस जगह से भागने की कोशिश की।"
दोहा-
भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु।।153।।
इस दोहे का अर्थ है:

राजा दशरथ ने अयोध्या में बहुत शोर-शराबा को सुनकर बड़े भयभीत और उत्साहित होकर सुना, क्योंकि रामचंद्र ने कठिन शिकारी कुलिस (किल्ले के बाहर खड़ा होने वाला बड़ा बाण) को बहुत कठोरता से पराजित किया। उनके शक्तिशाली बाणों ने आकाश में घूमते हुए विभिन्न प्रकार के पक्षियों को मार दिया था।
इस दोहे में भगवान श्रीराम की शक्ति और वीरता का वर्णन है। राजा दशरथ ने अपने पुत्र राम के शूरवीर्य को देखकर अत्यंत चमकदार और भयंकर शक्तिशाली महसूस किया। भक्तिभाव से भरी इस दोहे में राजा दशरथ की आत्मा में हो रही उत्साहपूर्ण आवृत्ति का वर्णन किया गया है।
चौपाई
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू।।
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी।।
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू।।
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू।।
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।।
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी।।
इस चौपाई का अर्थ:

"प्राण, कंठ में अथाह भय उत्पन्न हुआ, मन व्याकुल और बेचैन हो गया।
इस प्रकार सब ओर से बिकल हो गया, सभी वन्दियों के सरसिज बिना बारिश के।
कौसल्या के नृप दशरथ ने मलाना देखा, जैसे सूर्य अंतरिक्ष में डूब रहा है।
राम ने धीरज धारण करके वक्त के अनुसार बात की।
नाथ, तुम्हें समझना चाहिए, बहुत सारे बारिश के समुद्र के साथ संवाद कर रहे हैं।
तुम अवध वहान पर धीरज धारण करो, सभी प्रियजनों को समाजो।
धीरज धारण करने से पार करोगे, सब परिवार तुम्हारे लिए विपत्तियों से बाहर होंगी।
जो भी मेरी प्राणि देख रहा है, मेरे प्यारे प्रिय को प्राप्त करेगा, जैसे राम और लक्ष्मण भाई।"
दोहा-
प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि।।154।।
इस दोहे का अर्थ है:

राजा ने प्रिय वचनों को मृदु ध्वनि से सुनते हुए आंसु बहाते हुए अपनी आँखों को देखा। उनके मन को छू जाने वाले वचनों के प्रभाव से, जैसे कि मीना तलवार में मिल जाता है और वह सीतल जल में धोया जाता है।
इस दोहे में भक्तिभाव से भरी भाषा में, राजा दशरथ ने भगवान श्रीराम के प्रति अपने संवेदनशील भावनाओं को व्यक्त किया है। प्रिय वचन उनके मन को सुकून प्रदान कर रहे हैं और उन्हें आँसु बहाने पर मजबूर कर रहे हैं। इसका तुलनात्मक उपमहाद्वीप (सिमिली) अच्छी तरह से व्यक्ति के भावनात्मक स्थिति को व्यक्त करता है।
चौपाई
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू।।
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।।
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती।।
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई।।
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।।
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा।।
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
इस चौपाई का अर्थ:

"धीरज धरकर बैठा हुआ, सुमंत्र से कह रहा है - 'राम कहाँ है, लक्ष्मण कहाँ है, सीता कहाँ है?
राम के बिना सभी प्रियजन बिलकुल बेचैन हैं, रात और दिन सब व्यथित हैं।
तापसों और साधुओं ने भी सुनाया, सब कुछ कौसल्या की कथा सुनाई।
इतिहासों में बताया गया है, जीवन बिना राम के धीर्घकालिन दुःखमय है।
अब मैंने अपने शरीर को क्यों बचाया? जहां प्रेम नहीं है, वहां मेरी रहने की क्या आशा है।
हे राम, हे जानकी, हे लक्ष्मण, हे रघुराज, हे पिता, तुम्हारे बिना मेरे जीवन में बहुत समय बीत गया है।'"
दोहा-
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।।155।।
इस दोहे का अर्थ है:

"राम राम" बोलते हुए, जब राम का नाम बोलता है, तो वही राम साकार रूप में उपस्थित हो जाता है। रघुकुल नायक श्रीराम की वियोग वेला में, भक्त अपने तन को त्यागकर स्वर्गीय धाम को प्राप्त होता है।
इस दोहे में भक्ति और समर्पण की भावना है। जब कोई व्यक्ति भगवान का नाम स्मरण करता है और भक्तिभाव से राम कहता है, तो उसका तन भगवान को समर्पित हो जाता है और वह भक्त राम की प्रेमभावना में विचलित होकर स्वर्ग की दिशा में चला जाता है। इस दोहे में सुन्दर भक्तिभाव के साथ राम नाम का महत्त्व हाथी जाता है।
चौपाई
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा।।
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी।।
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा।।
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी।।
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू।।
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं।।
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी।।
इस चौपाई का अर्थ:
"दसरथ ने जीवन-मरण के फल को प्राप्त किया, जैसे कि बहुत सारे अंडे अलग-अलग विद्युत समान हैं।
राम का दिव्य स्वरूप देखकर जीवन में समाहित होकर वह मरण को संसार के लिए रोक लेता है।
सीता ने सभी प्रकार की विलापना की, उन्होंने अनेक बार भूमि पर गिरकर रोया।
सब दास और दासियों ने भी अपने घर-घर में रोते हुए रोया।
राम का वह दिव्य स्वरूप, अनंत अवधि में चमकता है, जो धर्म, सम्मान और सौंदर्य का भंडार है।
सभी लोगों ने अपने शरीर को व्यर्थ किया, उनकी आंखें अंधी हो गईं।
ऐसे ही विलाप करते हुए रात और दिन बीते, और यह समय महान ऋषियों और ज्ञानियों के समूह ने भी देखा।"
दोहा-
तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।156।।
इस दोहे का अर्थ है:
तब महर्षि वसिष्ठ ने समय की सामर्थ्य के साथ अनेक इतिहासों को वर्णन किया। उन्होंने सभी को समझाया और अपने निजी ज्ञान की प्रकाशनी से सबको बुद्धिमान बनाया।
इस दोहे में महर्षि वसिष्ठ का समय के महत्त्वपूर्ण इतिहासों के प्रवचन करना और ज्ञान का प्रकाश करना बताया गया है। उनकी शिक्षा ने सभी को सच्चे ज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन किया और सबको बोधित किया।
चौपाई
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा।।
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू।।
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई।।
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए।।
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें।।
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना।।
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।।
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई।।
इस चौपाई का अर्थ:
"नृप के तन पर तेल और नाम लगाकर रखा गया, और बहुत सी भाषा में दूतों को भेजा गया।
भरत को जल्दी भेजो जहाँ तक जा सके, और उसको राजा से कहकर बताओ कि जनता कहाँ है।
भरत से इतना ही कहा गया, और उसे गुरु के आदेश के अनुसार दो भाईयों ने जल्दी मुनियों को बुलाकर भेज दिया।
मुनियों ने सुनकर जल्दी चलने की तैयारी की, लेकिन उन्होंने विवशता से उतारने में लज्जा महसूस की।
जब से अयोध्या में बुराईयों का आरंभ हुआ, तब से भरत कोई अनर्थ नहीं करता था।
उसने रात में भयंकर सपना देखा, जागकर कटु कल्पनाओं का सामना किया।
ब्राह्मणों की तरह उन्होंने दिनभर दान दिया, और अनेक प्रकार के अभिषेक किए।
उसने महादेव से दिल से प्रार्थना की, कि माता, पिता, परिवार और भाई सभी सुरक्षित रहें।"
दोहा-
एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।157।।
इस दोहे का अर्थ है:

इसी प्रकार भरत ने सोचा और मन में ठाना कि वह अपने भाई राम को पहचानने के लिए अयोध्या को पहुंचें। उन्होंने गुरु के आज्ञानुसार, श्रवण के माध्यम से राम के विचारों को सुनकर मनाने का निर्णय किया।
इस दोहे में भरत का अद्वितीय भावनात्मक स्थान है। उन्होंने गुरु के आज्ञा का पालन करते हुए राम के चरित्र का श्रवण किया और उसे मन में स्थापित कर लिया। यह दोहा भक्ति, निष्ठा और गुरुशिक्षा की महत्त्वपूर्णता को बताती है।
चौपाई
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके।।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।।
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।।
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।।
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।।
इस चौपाई का अर्थ:

"वायु तेजी से चलती हुई, हाथों को हिलाती हुई, सरिता और समुद्र की लहरें आलिंगन करती हुई निकली।
भरत की अस्थिर मनोबल के कारण कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, और उसने जल्दी जाने की सोच ली।
कुछ ही समय में वह अयोध्या की ओर बढ़ा, इसी तरह गलती हो गई और नगर पशुपति बन गया।
नगर की बाजार और खेत अस्थायी हो गए और प्राणियों ने शोर मचाया।
खरगोश, हिरण, घोड़े और जानवर वहाँ से चले गए, उन्हें राम के वियोग ने बीमार कर दिया।
नागरिकों ने दुखी होकर सभी संपत्तियाँ त्याग दी।"
दोहा-
पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं।।158।।
इस दोहे का अर्थ है:

"पुरजन" यानी अपने लोगों से मिलकर कुछ नहीं कहते, गवाहियाँ बनाने की जगह जो कुछ कहते हैं, वहीं जाते हैं। भरत ने राम के कुशल स्थिति की जानकारी पूछने का साहस नहीं किया क्योंकि उनका मन दुखी हो रहा था।
इस दोहे में भरत की चिन्हित भावना है। उनका मन दुखी था और वे अपने लोगों से इस दुःख का इजहार नहीं करना चाहते थे। इससे स्पष्ट होता है कि भरत किसी भी रूप में राम के वियोग से बहुत दुखी थे और वह अपने दुख को सबके सामने प्रकट नहीं करना चाहते थे।
चौपाई
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी।।
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि।।
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई।।
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा।।
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती।।
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें।।
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई।।
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।
चौपाई का अर्थ:
"वह नहीं जा सकती थी बाजारों और मार्गों में, सिर्फ पुरों की दिशा में दिख रही थी।
वह आई सूर्य के समान प्रकाशित होती हुई, उन्होंने कैकेयी को सुना और बड़ी खुशी में चंद्रमा की भांति मुस्कान दी।
वह खुशी से उठी और आरती को सजाया, फिर द्वार में पहुंची और घर में गई।
वह दुखी भरत को देखा, मानो वह धरती को हिला रही थी।
कैकेयी इसी तरह खुश थी, उसने उसे आराध्य बनाया।
वह सोचती रही, मन से अपने पुत्र की कुशलता की पूछताछ की।
भरत ने सब कुशल का बयान किया, उसने अपनी और अपने कुल की भलाई की पूछताछ की।
वह कह रहा था, 'ताता और माता, बड़े भाई सीता, राम और लक्ष्मण, सबका सुख समाचार दिया।'"
दोहा-
सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन।।159।।
इस दोहे का अर्थ है:

सुनकर अपने पुत्र के वचन, जो प्रेम भरे थे, भरत के नैनों में चालीसा बारिश के समान नीर भर आए। भरत ने श्रवण, मन, और शरीर में बहुत दुख महसूस किया और पापिनी बोली बैन (छुआछूत की भाषा) में वाक्य बोला।
इस दोहे में भरत की अत्यंत दुखिनी भावना व्यक्त की गई है जब उन्होंने राम के वियोग का समाचार सुना। उनके नैनों में भरी आँसुओं ने उनकी विद्रुति को प्रतिष्ठित किया है, और उनके शरीर, मन, और श्रवण से उनका दुःख व्यक्त हो रहा है। इस दोहे से भरत की प्रेम भरी भावना, विशेषकर भ्रातृभक्ति, प्रतिष्ठित होती है।
चौपाई
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी।।
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा।।
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।।
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।
चौपाई का अर्थ:
"यहाँ पिता दशरथ ने सबकुछ समाप्त किया था, लेकिन मंथरा ने बुरी बातों को बढ़ावा दिया।
कुछ विद्वान कामों को बिगाड़ डाला, राजा, देवताओं के पादों में धूल चढ़ाई।
जब भरत ने सुना, तो उसने अत्यन्त विषाद में पड़ा, वह भयभीत हो गया और विचलित होकर रोने लगा।
'ताता, ताता, हे ताता' ऐसी पुकार की। वह भूमि पर गिर गया और भारी रोने लगा।
राजा ने उसे देखते हुए भी नहीं रोका। ताता ने उसे राम के पास भेज दिया।
वह फिर से धीरे-धीरे उठा और अपना मनोबल संभाला, कहता है कि पिता की मृत्यु के लिए वह बड़ी तैयारी में है।
सुनकर कैकेयी ने अपने इच्छित मरण के पीछे जन्म को बदल दिया।
सब कुछ उसके अनुसार हुआ, वह व्यापार के अनुसार बहुत कठोर और चालाक थी।"
दोहा-
भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।160।।
इस दोहे का अर्थ है:

भरत ने अपने पिताजी की मृत्यु की सूचना सुनकर राम बनवास को भूल जाने का आलम किया है। उन्होंने अपने पिता के लिए, जो राम के वनवास का कारण थे, अपने प्राणों की बाजी लगा दी है। इस कारण, उन्होंने अपने हेतुओं को जानकर जीवन की थकान में रहकर मौन रखा है।
इस दोहे में भरत की विशेष भावना है। उनका प्रिय पिता राजा दशरथ की मृत्यु और भाई राम के अयोध्या छोड़ने के कारण उनका दुःख अत्यधिक है। उन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगाई है, लेकिन उनका मौन दिखाता है कि उनकी भाषा की असमर्थता उनके दुख को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकती।

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