रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड मासपरायण उन्नीसवाँ अर्थ सहित विश्राम

रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड मासपरायण उन्नीसवाँ अर्थ सहित विश्राम Ramcharitmanas Ayodhyakand Masparayan nineteenth rest with meaning

मासपारायण उन्नीसवाँ विश्राम 186-193

चौपाई
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
चौपाई का अर्थ:
"हर घर में अलग-अलग प्रकार की रंग-बिरंगी साज-सज्जा होती है, जिससे हर्ष हृदय में उत्पन्न होता है।
भरत ने घर जाकर ध्यान से समझा। नगर में साँपों के बजाने वाले, हाथी जैसे भवनों के भँडारे को समेट लिया।
संपत्ति सब रामचंद्र की ही है। अगर कोई बिना यत्न किए उसे छोड़ दे, तो उससे मेरा कोई लाभ नहीं होगा। वह पापों का सिरवार होगा।
जो सेवक स्वामी के हित में कार्य करता है, उसको किसी दूषित व्यक्ति को भी दान नहीं करना चाहिए।
ऐसा सोचने वाला सेवक बोला, जो अपने धर्म में स्थिर रहता है।
सभी ने धर्म के मरम्म को बात दिया, जो जैसा योग्य है, वैसा ही उसे स्थापित किया।
सभी ने यत्नपूर्वक संभालकर भगवान राम को मातृभूमि में भरत को समर्पित किया।"
दोहा-
आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"जननी जो हैं, वह सभी भरत से प्रेम की जानकार हैं और सुबुद्धिमान हैं। वह कहती हैं कि बनावन में राम की पालकी को सजाने से ही सुख और आसन होता है।"
इस दोहे में, कबीर जी जननी (माता) को प्रेम और बुद्धिमानता से युक्त होने की बात कर रहे हैं। वह यह कह रहे हैं कि बनावन (वनवास) में राम की पालकी को सजाने से ही सुख और शांति होती है, और यह एक सज्जन की जानकारी होनी चाहिए।
चौपाई
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
चौपाई का अर्थ:
"पुरुष और स्त्री जैसे चक्र चक्र की भांति प्रातःकाल अपने मन में विभिन्न प्रकार की आराधना और इच्छाएँ लेकर उठते हैं।
सब लोग जागते हुए भयभीत हो गए थे। भरत ने सचिव सुजान से कहा,
'सबको सजीव तिलक लगा दो, क्योंकि मुनि राम को राजा बनाना है।'
सचिव ने तुरंत तुरंत घोड़ों, रथों और नागों को सजाया।
अरुंधती और अग्नि की भांति रथ चढ़ गया और पहले मुनि ने रथ को चलाया।
ब्राह्मणों की बड़ी संख्या ने अनेक प्रकार की बाहनों पर चढ़कर तप और तेज का अभ्यास किया।
नगर की सभी जनता तैयार होकर निकली, सभी ने चित्रकूट की ओर यात्रा की।
सिबिका बहुत सुंदर थी, जिसे कहा गया है कि वहां पहुंचकर सभी रानियाँ चढ़ीं और यात्रा को आगे बढ़ाई।"
दोहा-
सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"नगर को सुचि सेवकने सौंपा, सारे कार्य सादरता से संपन्न किए गए। राम-सीता के चरणों का स्मरण करते हुए भरत और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने नगर को चलाया।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम और सीता के चरणों का स्मरण करने के महत्व को बता रहे हैं। यह कहानी भरत और लक्ष्मण दोनों भाइयों के भक्तिभाव और सेवा को दर्शाती है, जो सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने का प्रतीक है।
चौपाई
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
चौपाई का अर्थ:
"राम के दर्शन से सभी पुरुष और स्त्रियाँ भर चुकी थीं, सब जन जनम-जनम की इच्छाओं को पूरा करने के लिए उत्सुक थे।
सीता और राम को अपने मन में समझकर भरत और शत्रुघ्न वहाँ जाते हैं।
सभी लोगों का सन्निधान देखकर प्रेम और अनुराग की भावना जागी, उन्होंने अपने रथ को छोड़ दिया।
माता के पास जाकर उन्होंने मृदु आवाज में कहा,
'पिताजी, आप रथ में चढ़ें, यह बलिदान मेरे प्रिय परिवार को दुख देगा।
जब तक आपका रथ चलता है, सभी लोगों की सभी चिंताएं और दुःख दूर हो जाते हैं।
मैं आपके बचनों को सिर पर धारण करता हूं, और रथ में चढ़कर दोनों भाई चले।
पहले तमसा नदी के किनारे रहेंगे, और दूसरे गोमती नदी के तट पर।"
दोहा-
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।
इस दोहे का अर्थ है:
"पानी, आहार, फल, और असन - ये सभी एक ही लोग के लिए हैं। राम के हित के लिए नाम-ब्रत रखकर भूषणों को त्यागकर भोग को त्याग दो।"
इस दोहे में, कबीर जी यह बता रहे हैं कि सभी मनुष्यों के लिए आहार, पानी, फल और असन एक ही हैं। वे कह रहे हैं कि यदि हम अपने जीवन में राम के हित के लिए नाम और ब्रत का अनुसरण करते हैं, तो हमें भूषणों और भोगों की आवश्यकता नहीं होती। इससे हम जीवन को सादगी से जी सकते हैं और अपने आत्मा के माध्यम से आत्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं।
चौपाई
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
चौपाई का अर्थ:
"जब सूर्य उगते ही तीर निशाने को छोड़कर चले जाते हैं, सभी निवासियों को राजा के शहर सृंगबेर में खबर मिलती है।
निषाद राजा ने सभी समाचार सुनकर दुखी होकर मन्त्रमुग्ध हो गया।
वह सोचता है, 'भरत क्यों वन में जाता है? क्या उसमें कोई छल या माया है उसके मन में?
जब जीवन में कोई अस्ति नहीं होती, तो फिर वह किसे साथ ले जाता है?
समाने राम को ही मानता है, मैं राजा की खुशियों का कारण बनाऊंगा।
भरत का राजनीतिक ध्यान नहीं है, इसलिए वह अब जीवन के कलंक को अपनाता है।
सभी सुर और असुरों का युद्ध हो रहा है, लेकिन राम ने युद्ध में विजय नहीं पाई है।
ऐसा क्यों भरत कर रहा है? वह कोई जहर नहीं है, जो समय-समय पर फल और पुष्प छोड़ देता है।"
दोहा-
अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"ऐसा विचार करके गुहा ने सन्नाटन कहा, हे सब लोग सावधान हो जाओ। अपने हाथों को बोझ के रूप में न बनाओ, बल्कि उन्हें तारों की तरह साहसपूर्वक उपयोग करो।"
इस दोहे में, कबीर जी ने गुहा के माध्यम से सभी को सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता की बात की है। उन्होंने यह भी सिखाया है कि हमें अपने संबंधों को बोझ बनाने की बजाय, उन्हें साहसपूर्वक उपयोग करना चाहिए, ताकि हम सही और सकारात्मक रूप से अपने जीवन को बना सकें।
चौपाई
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू।।
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।।
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू।।
चौपाई का अर्थ:
"हे भरत, सोचो और विचारो, घाटे को रोको और सभी समस्याओं को ठीक करो।
तुम्हें लोहा के समान मजबूत बनना चाहिए ताकि मेरा जीवन सुरक्षित रहे।
युद्ध में मरने के बाद फिर से सुरक्षित घर आओ, क्योंकि राम के काम में मेरा शरीर विनाश हो जाता है।
हे भरत, जन-नायक, मैं नीचा जन नहीं हूं, मैंने बड़ा भाग्य प्राप्त किया है।
मैं अपने स्वामी के काम को करता हूं, मैं जैसे धवलित होता हूं, वैसे ही दस दिशाओं को बहकाता हूं।
मैं अपने प्राणों को रघुनाथ के प्रति समर्पित करता हूं, दोनों हाथों में मुद्दे मोदक लेकर।
मैं धर्म को प्राप्त नहीं करता, राम के भक्त की पहचान नहीं करता।
जहाँ-जहाँ मैं जाता हूं, वहां-वहां मेरा बोझ होता है, मेरी माँ जैसा वज़नी बोझ।"
दोहा-
बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"बिगड़े हुए बिषादपति को सभी बढ़ाइयों से उच्छाह कर सुखी हो जाना चाहिए। राम का स्मरण करके तुरत उससे धनुष को संधारित करो।"
इस दोहे में, कबीर जी बता रहे हैं कि जो व्यक्ति बिगड़े हुए हालातों से गुजर रहा है, उसे सभी स्थितियों में उच्छाह करना चाहिए। वह राम का स्मरण करें और तुरंत उससे सहायता मांगें, ताकि उनकी समस्याएं तबाही से बच सकें।
चौपाई
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ।।
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।।
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।।
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं।।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े।।
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई।।
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।
चौपाई का अर्थ:
"भाइयों, तुम तत्परता से सजग हो जाओ, कोई भी नरकी सिख सकता है।
सब नाथों को नमन करते हुए सहानुभूति व्यक्त करते हुए अनुशासन करो।
निषादराज जोर-शोर से नाचते हुए जाते हैं, सभी शूरवीर युद्ध में रुचि लेते हैं।
राम भगवान के पाद-कमल को याद करते हुए धनुष्य को बांधकर चढ़ाते हैं।
उनके प्रति अनुराग और समर्पण से कूदते हुए अंगरी को पहिनते हैं, सिर पर कूदने वाले फरसे के समान बनते हैं।
एक अत्यंत उत्साहित ओढ़ने वालों को स्वयं भी उत्साहित करो, वे आकाश को छुते हैं और उसे छते हैं।
सभी अपनी-अपनी सजावट करते हैं और नगर-निवासी उन्हें देखकर उन्हें लेते हैं।"
दोहा-
भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।191।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"भाईयों, धोखा देकर अपने कार्य को बड़ा बनाने का आज मौका मिला है। शीघ्र बोलो, सच्चे और सबेरे हीरे जैसे बोलो, अन्यथा अकेले हीरे की तरह तुम्हारा मूल्य नहीं रहेगा।"
इस दोहे में, कबीर जी भाईयों को यह सिखा रहे हैं कि वे धोखा देकर अपने कार्य को बड़ा बना सकते हैं, लेकिन यह उन्हें सच्चे और उज्ज्वल तरीके से करना चाहिए। सच्चाई में ही उनका असली मूल्य होगा, और वे अपनी उच्चता को बना सकेंगे।
चौपाई
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।।
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।।
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।
चौपाई का अर्थ:

"हे राम! आपकी शक्ति और बल अपरिमित है। आप भट्टों और घोड़ों के बिना कठिनाइयों को काट सकते हैं।
आप उनको दीख नहीं सकते, लेकिन आप उन्हें भयंकर से भी डरा सकते हैं।
निषादराज को बहुत अच्छी तरह समझा है, उसने कहा, 'ढोल बजाने के बजाय युद्ध कराऊंगा।'
तब उसके बाएं पट को छूकर उसने कहा, 'मैं सुग्रीव को अनुरोध करूँगा कि वह खेतों में भ्रमण करें।'
बुढ़ा वह सगुन से इसी बात की विचार करता था, लेकिन उसको भरत से मिलना नहीं हो सका।
राम ने भरत को मनाया, उसने कहा कि सगुन इस बात में बिगड़ाव नहीं है।
गुह ने सुना, बूढ़े ने ठीक कहा, और बेवकूफ ने अचानक पछताया।
भरत ने सीले को समझा बिना, बड़े हित का हानि करके बिना जूझा।"
दोहा-
गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ।।192।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"अपनी बातों को सुधारने के लिए गहरे अध्ययन करो, समझो और सबको अपने मरम को मिलाओ। मित्र, शत्रु और मध्यस्थ की बुद्धि को समझकर, तब आगे की चाल बनाओ।"
इस दोहे में, कबीर जी सच्चाई को समझने और समर्थन करने के लिए गहराई से ध्यान देने की महत्वपूर्णता पर बात कर रहे हैं। उन्होंने सुझाव दिया है कि बुद्धिमानी का अभ्यास करें और सभी स्थितियों में सही निर्णय लें। इसके लिए उन्होंने मित्र, शत्रु और मध्यस्थ के दृष्टिकोण को समझने का महत्व बताया है।
चौपाई
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।।
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा।।
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
चौपाई का अर्थ:
"लखन ने प्रेम को सुनहरा बनाया, वह द्वेष को प्रेम में बदल देता है।
ऐसा कहते हुए उसने संगति की इच्छा की, जैसे की सिंदूर, मूल, फल, पक्षी और मृग का आगे से आना।
मछलियों, प्राणियों और पाठी के पुराने दुखों ने भार को वाहन किया।
ऐसा मिलन सजाया गया और सागर में भरा हुआ मिलन मिला।
दूर से उसका नाम सुनकर, मुनियों ने उसको नमस्कार किया।
वे जानते थे कि वह राम के प्रिय सखा हैं और उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया।
फिर भरत ने मुनियों से समझाया, उन्होंने राम के साथ निवास छोड़ा और अपनी उमंग से दूर चले।
जब वे गाँव पहुँचे, तो उन्होंने गुहा को नाम सुनाया, जोहारु किया, और उनके माथे पर हाथ रखा।"
दोहा-
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ।।193।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"भरत ने देखकर दंडवत किया, तब ही मन से लखन को गले लगाया। लेकिन मन में प्रेम नहीं आया, हृदय में भाई भाई के प्रति प्रेम नहीं हुआ।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम के भक्त भरत की भावना को बयान कर रहे हैं। भरत ने राम की प्रति अपनी श्रद्धाभावना को दिखाते हुए दंडवत किया, लेकिन मन में लखन के प्रति प्रेम नहीं था। यह बताता है कि भक्ति से अधिक सही भावना होना चाहिए।

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