रामचरितमानस अयोध्याकांड दोहा ,चौपाई और छंद अर्थ सहित

रामचरितमानस अयोध्याकांड दोहा ,चौपाई और छंद अर्थ सहित  Ramcharitmanas Ayodhya Kand with Doha, Chaupai and Chhand meaning

चौपाई 
सभा सकुच बस भरत निहारी, रामबंधु धरि धीरजु भारी ||
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा, बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ||
सोक कनकलोचन मति छोनी, हरी बिमल गुन गन जगजोनी ||
भरत बिबेक बराहँ बिसाला, अनायास उधरी तेहि काला ||
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे, रामु राउ गुर साधु निहोरे ||
छमब आजु अति अनुचित मोरा, कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा ||
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई, मानस तें मुख पंकज आई ||
बिमल बिबेक धरम नय साली, भरत भारती मंजु मराली ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
सभा में भरत ने राम को देखा, जो धीरज से रामचंद्र जी के भाई हैं। उनकी दृष्टि से प्रेरित होकर स्नेह को संभाला, जैसे घटा में बढ़ती हुई झील को निवारती है। रामचंद्र जी को देखकर उनकी कांचनलोचन बाला मानस पर गिरी, जो समस्त जगत् की शोभा हैं। भरत ने अपनी अत्यंत बड़ी बुद्धि से उस काल को सहज माना, जिसे दूर करना असाध्य था। वे सभी ने नमस्कार किया और उससे बोलकर उन्होंने कहा, "राम, आप ही गुरु और साधु हैं।" "मैं अपनी अनुचित आचरण से बहुत ही पश्चाताप करता हूं, मेरा शरीर नर्म और बोल कठोर हो गया है।" मन में जानकर सारदा माता ने श्रीराम का स्मरण किया, जिससे उनके मुख में पंकज विराजमान हुआ। भरत ने पवित्र विचार और नयी धारणा ली, जिससे उन्होंने अपनी भारती संस्कृति को सुंदरता से संवारा।
दोहा
निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु,
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ||२९७ ||
इस दोहे में कबीरदास जी कह रहे हैं कि हमें बुद्धिमानी से देखना चाहिए और निर्णय लेना चाहिए। हमें अपने स्नेह को नर्म रखकर दूसरों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। इसके साथ ही हमें भगवान श्रीराम की स्मृति में बार-बार श्रद्धापूर्वक प्रणाम करना चाहिए।
चौपाई 
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी, पूज्य परम हित अतंरजामी ||
सरल सुसाहिबु सील निधानू, प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ||
समरथ सरनागत हितकारी, गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ||
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई, मोहि समान मैं साइँ दोहाई ||
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली, आयउँ इहाँ समाजु सकेली ||
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू, अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ||
राम रजाइ मेट मन माहीं, देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं ||
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई, प्रभु मानी सनेह सेवकाई ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
भगवान, पिता, माता, मित्र, गुरु, और स्वामी - इन्हें सम्मान देने वाला, परम हितकारी और सबका अंतर्ज्ञाता है। वह सरल है, सुसंस्कृत, सीलवान, निर्दोष, सर्वज्ञ, और सुज्ञानी। वह सबका हित करने वाला, शरणागतों का पालन करने वाला है, गुणों का गाहक होने के साथ ही पापों और दोषों को नष्ट करने वाला है। वह गोसाई और गोसाँइ के समान हैं, मैं उनके समान साधक हूँ और दोहराता हूँ। भगवान के वचनों में विश्वास करके मैं इस समाज में आया हूँ, जहाँ भलाई और बुराई दोनों होते हैं, और अमरपद का साक्षात्कार किया जा सकता है। राम की रजाइश मिटा दो मेरे मन में, ऐसा कुछ देखा या सुना नहीं गया है। मैंने सभी प्रकार की दृष्टि की है, और मैंने प्रभु को मानते हुए सेवा की है।
दोहा
कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर,
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ||२९८ ||
इस दोहे में संत कबीरदास जी कह रहे हैं कि मेरे नाथ (भगवान) ने अपनी कृपा से मेरे भले की भलाई की है। परन्तु जैसे मोती अपनी चमक बिखेरते हैं, उसी तरह मेरे शत्रु भी मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे मुझे सीखाते हैं और मेरी चर्चा करते हैं।
चौपाई 
राउरि रीति सुबानि बड़ाई, जगत बिदित निगमागम गाई ||
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी, नीच निसील निरीस निसंकी ||
तेउ सुनि सरन सामुहें आए, सकृत प्रनामु किहें अपनाए ||
देखि दोष कबहुँ न उर आने, सुनि गुन साधु समाज बखाने ||
को साहिब सेवकहि नेवाजी, आपु समाज साज सब साजी ||
निज करतूति न समुझिअ सपनें, सेवक सकुच सोचु उर अपनें ||
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी, भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी ||
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना, गुन गति नट पाठक आधीना ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
इस रीति को बड़ाई की गई है, जो जगत निगम और आगम की जानकारी देती है। कुटिल, कलंकित, खल, धोखेबाज और नीच धर्म के अनुयायी नीच और हीन होते हैं। ऐसे लोगों को सुनकर भी संत समाज में प्रणाम करते हैं, जिन्होंने एक बार भी अपनी गलतियों को देखकर उन्हें अपनाया नहीं। उनके हृदय में कभी भी दोष नहीं आता, वे सदा सच्चे साधुओं की महिमा गाते हैं। कौन है जो परमेश्वर के सेवकों को आदर नहीं देता, वही अपने समाज को सजाता है और सभी को सम्मानित करता है। वह अपनी करतव्यता को समझकर सभी को सेवा करता है, उसने अपने हृदय में सेवक को नहीं छोड़ा, वह स्वयं सेवक होता है। पशु नाचने वाला शिक्षक की गति को धोखा देता है, क्योंकि गुणों के पाठक वह शिक्षक की दासता में रहते हैं।
दोहा
यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर,
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ||२९९ ||
इस दोहे में कहा गया है कि इस प्रकार से सम्मानित करने से लोगों ने साधुओं का सम्मान किया है, जैसे सिर पर मोर प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु कौन है जो दयालु होकर बिना किसी कृपा के इसे पाले, क्योंकि यह बड़ी मुश्किल से वश में आता है।
चौपाई 
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ, आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ||
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा, सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ||
देखेउँ पाय सुमंगल मूला, जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ||
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू, बड़ीं चूक साहिब अनुरागू ||
कृपा अनुग्रह अंगु अघाई, कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ||
राखा मोर दुलार गोसाईं, अपनें सील सुभायँ भलाईं ||
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई, स्वामि समाज सकोच बिहाई ||
अबिनय बिनय जथारुचि बानी, छमिहि देउ अति आरति जानी ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ यहाँ दिया जा रहा है:
सोक और सन्न्यास की प्रेरणा या प्यार की तुलना करते हैं, जो राम के प्रति निवेदन को बढ़ाते हैं, तो ऐसे मनुष्यों को जो मेरी ओर आते हैं, मैं कृपालु अपने स्वरूप को दिखाता हूं और उन्हें सभी तरह से सम्मानित करता हूं। जब मैं स्वामी की अनुकूलता को स्वयं उन्हें दिखाता हूं, तो वे सुखदायक मूलधारना को देखते हैं और समझते हैं। मैं बड़े समाज को देखता हूं और देखता हूं कि साहिब के अनुराग में बड़ी चूक होती है। मेरी कृपा और अनुग्रह सबको स्वीकार करती है और मैंने कृपानिधि की अधिकता की है। मेरा प्यार और दया स्वामी के प्रति जो धारणा है, वह मेरी सील और भलाई को समाज में बढ़ाता है। मैंने स्वामी की इच्छा के अनुसार अपने धर्म को समाप्त किया है, और इस प्रकार से मैंने अपनी अनुकूलता का प्रदर्शन किया है, जैसा कि बिनय और निर्मल भाषा में अर्थ है।
दोहा
सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि,
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि ||३०० ||
इस दोहे में कहा गया है कि सच्चे मित्र, ज्ञानी और समझदार लोग बहुत कुछ कहते हैं, परंतु बहुत से लोग उनके बयानों में बड़ी खोरी (अवगुण) निकालते हैं। अब मेरे देव, मैं तो चाहता हूँ कि आप ही सभी को सुधार दें।
चौपाई 
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई, सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ||
सो करि कहउँ हिए अपने की, रुचि जागत सोवत सपने की ||
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई, स्वारथ छल फल चारि बिहाई ||
अग्या सम न सुसाहिब सेवा, सो प्रसादु जन पावै देवा ||
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी, पुलक सरीर बिलोचन बारी ||
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई, समउ सनेहु न सो कहि जाई ||
कृपासिंधु सनमानि सुबानी, बैठाए समीप गहि पानी ||
भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ, सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ ||
इस चौपाई के अर्थ इस प्रकार हैं:
"मेरे प्रभु के पादरज पराग की महक को सुखदायी मानकर मैं अपनी अनुभूति को कहता हूं। जो प्रेम सहज है और मैंने अपने स्वामी की सेवा की है, उससे अनुभव हुआ कि स्वार्थ, छल, और फलाश्रिति के चारों में सुख नहीं होता। जो सेवा में न आने का निर्देश मिलता है, वह व्यक्ति प्रभु के प्रसाद को नहीं पा सकता है। इसलिए, प्रेम में लिप्त होकर अत्यधिक भारी हो जाता है, शरीर में पुलकन होती है और आँखों से आंसू बहने लगते हैं। मैंने प्रभु के पादकमल को अपने मन में स्थापित किया है, लेकिन उस समय मेरा प्रेम कहने के लिए शब्द नहीं होते हैं। मेरे भरत भैया की विनय को सुनकर, मैंने उनके सुन्दर सनेह को देखा और राम की सभा में सुखी हो गया।"
छंद 
रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी,
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ||
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से,
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ||
यह छंद तुलसीदास जी की कृति से है। इस छंद में रघुराज श्रीराम की महिमा का गान किया गया है। छंद का अर्थ निम्नलिखित है:
रघुराज सीता सहित सन्तों को धनी मिथिला में सम्मानित होते हैं। उनके मन में श्रीराम की भक्ति की महिमा भरी हुई है। भरत ने बुद्धिमान लोगों द्वारा प्रशंसा पाई है, मानस और मलिन इन सुमनों से वर्षित हुआ है। तुलसीदास बिकल लोगों द्वारा सुना जाता है, जैसे नल ने सीता की तुलसीमय निसागरी सुनी थी।
सोरठा
देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब,
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत ||३०१ ||
सोरठा में यह दोहा कहता है कि जब दुःख में पड़े हुए और दीन लोगों को समाज में नर और नारी सब देखते हैं, तब वे चाहते हैं कि उनका दु:ख शीघ्र ही खत्म हो जाए और मंगल हो। यहां समाज में जो भी व्यक्ति दुःखी और दीन होता है, उसकी प्रार्थना होती है कि उसका दु:ख जल्द ही समाप्त हो जाए और उसे शुभ हो।
चौपाई 
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू, पर अकाज प्रिय आपन काजू ||
काक समान पाकरिपु रीती, छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ||
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला, सो उचाटु सब कें सिर मेला ||
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे, राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ||
भय उचाट बस मन थिर नाहीं, छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं ||
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी, सरित सिंधु संगम जनु बारी ||
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं, एक एक सन मरमु न कहहीं ||
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू, सरिस स्वान मघवान जुबानू ||
इस चौपाई का अर्थ यह है:
"स्वार्थपरता और धोखाधड़ी से अत्यंत सुरराजी बनाने वाला होता है, लेकिन वह प्रिय आपके कार्यों में कभी नहीं होता। जैसे कौवा दूसरे कौवों से मिलता है, वैसे ही छली और मलीनता कभी भी उचित नहीं लगती। पहले कपटपूर्ण काम करने से सबका सिर झुकता है, वह सब लोगों को मोहित करता है, लेकिन राम का प्रेम किसी को भी विभाजित नहीं करता। भय का उच्चाटन करने से मन स्थिर नहीं रहता, बस छन बन में रुचि होती है और सभी सदन रमणीय लगते हैं। दुर्बल और दुखी मनुष्यों को वह डुबाने का अवसर बनता है, सरिता में समुद्र का संगम जैसा। उसे यहाँ वहाँ खुशी नहीं मिलती, हर एक के दिल में अलग-अलग बातें चिंता नहीं कहतीं। जो कुछ भी वह देखता है, उसे हँसते हुए देखता है और सारे देवों की भाषा बोलता है।"
दोहा
भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ,
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ||३०२ ||
इस दोहे में कहा गया है कि भरत (राजा दशरथ के पुत्र और भगवान राम के भाई) को जनक (सीता माता के पिता) ने सचिव, साधु और सत्य के परिचारक बनाया था। उन्होंने देवी माया की प्राप्ति के लिए सभी तरह की साधना की और अपने जन्मजात गुणों को सभी में प्रकट किया। यहाँ इस बात का जिक्र किया गया है कि भरत ने सभी वर्गों में सेवा और सत्य का पालन किया और भगवानी माया को प्राप्त करने के लिए उसने साधना की।
चौपाई 
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे, निज सनेहँ सुरपति छल भारे ||
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री, भरत भगति सब कै मति जंत्री ||
रामहि चितवत चित्र लिखे से, सकुचत बोलत बचन सिखे से ||
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई, सुनत सुखद बरनत कठिनाई ||
जासु बिलोकि भगति लवलेसू, प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ||
महिमा तासु कहै किमि तुलसी, भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ||
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी, कबिकुल कानि मानि सकुचानी ||
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई, मति गति बाल बचन की नाई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"कृपा के सागर को देखकर लोग दुखी होते हैं, जबकि स्वयं सुरों के स्वामी छल के भार से भरे होते हैं। सभा में गुरु और मंत्रियों के समान रहते हुए भरत की भक्ति सभी के मनों की जंजीरें खोल देती है। उन्होंने राम की मूर्ति को चित्रित करके उसमें प्रेम और उपदेश को सिखाया। भरत ने प्रीति, नम्रता और बड़ाई की, जो कठिनाइयों को सुनकर आनंदित होती हैं। जिनकी भक्ति मिलती है, वे मुनिगणों की तरह मिथिला में प्रेम में डूबे हुए होते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उनकी महिमा को कौन समझ सकता है, क्योंकि वे भक्ति में समाहित होते हैं, जो की सबको सम्मोहित करती है। वे अपनी छोटी महिमा को बड़ा समझते हैं, पर कविता को मानते हैं। इसलिए गुणों की पसंद और मतिवल्लभ बातों को मन नहीं भातीं।"
दोहा
भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि,
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ||३०३ ||
इस दोहे में कहा गया है कि भरत राजा रामचंद्र के तुल्य शुद्ध और विवेकी थे। वे सुमति चकोर के समान ज्ञानी और बुद्धिमान थे। उनकी संतान भी ऐसी ही प्रामाणिकता और बुद्धिमत्ता से सजीव रहती थी जैसे नभ में उदित चकोर पक्षी की तरह। यहां बताया गया है कि भरत और उनकी संतान में एक उच्च स्तर की बुद्धि और नेतृत्व की भावना थी, जो उन्हें उत्कृष्ट बनाती थी।
चौपाई 
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ, लघु मति चापलता कबि छमहूँ ||
कहत सुनत सति भाउ भरत को, सीय राम पद होइ न रत को ||
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को, जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ||
देखि दयाल दसा सबही की, राम सुजान जानि जन जी की ||
धरम धुरीन धीर नय नागर, सत्य सनेह सील सुख सागर ||
देसु काल लखि समउ समाजू, नीति प्रीति पालक रघुराजू ||
बोले बचन बानि सरबसु से, हित परिनाम सुनत ससि रसु से ||
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना, लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"भरत की सभा बहुत उच्च नहीं होती, उनकी सोच निगमों से बड़ी नहीं होती और उनकी बुद्धि चंचल होती है। जो लोग भरत की बातें सुनते और कहते हैं, उन्हें भरत का प्यार सीता और राम के पाद में नहीं मिलता। भरत को राम का प्यार समर्पित होता है, जो बहुत ही कठिन मिलता है, उसे वह सरलता से ग्रहण करते हैं। राम ने सभी की स्थिति को देखा है, उन्होंने समझा है कि जनता का हाल क्या है। धर्म, साहस, बुद्धि, नय, और सच्चे प्रेम से भरा हुआ राम एक सुख का सागर हैं। भरतराज ने समय और परिस्थितियों को देखते हुए समाज को बेहतर बनाने के लिए सलाह दी है। उन्होंने सबसे अच्छे तरीके से बोला है और सुनते हुए सभी को लाभ मिलता है। भरत! तुम्हारा धर्म जीवन की धारा है, जो लोगों के लिए वेदों और धर्मशास्त्रों की प्रेम प्रवीणता का प्रकटारूप है।"
दोहा
करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात,
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ||३०४ ||
इस दोहे में कहा गया है कि तुम्हारे कर्म, वाणी और मन की शुद्धता तुम्हारे बारे में बताती है कि तुम गुरु के समान हो। गुरु समाज के लिए एक महान आदर्श होते हैं, और छोटे भाई-बहन के रूप में भी हम उन्हें मानते हैं। गुरु जैसे मार्गदर्शन करने वाले व्यक्ति को हम अच्छा कहते हैं, लेकिन उनकी तुलना में कोई भी किसी दुर्भाग्यपूर्ण समय में उसकी सराहना नहीं कर सकता।
चौपाई 
जानहु तात तरनि कुल रीती, सत्यसंध पितु कीरति प्रीती ||
समउ समाजु लाज गुरुजन की, उदासीन हित अनहित मन की ||
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू, आपन मोर परम हित धरमू ||
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा, तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ||
तात तात बिनु बात हमारी, केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ||
नतरु प्रजा परिजन परिवारू, हमहि सहित सबु होत खुआरू ||
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू, जग केहि कहहु न होइ कलेसू ||
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा, मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"तात, तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि कुल के रीति और परंपरा को बचाने वाले पिताजी की कीर्ति और प्रीति सत्य के समाधान के साथ है। समाज में गुरुजनों की लाज को समझते हुए उदासीनता, हित और अनहित के मामले मन को निर्धारित करती है। तुम्हें ही पता है कि सभी कार्य तुम्हारे लिए किए जाते हैं, तुम्हारा हीत और धर्म हित है। मैं तुम पर सभी तरह का भरोसा करता हूं, फिर भी मैं कहता हूं कि अवसरों के अनुसार चलो। तात, मेरे बिना बात का हमारा कोई अस्तित्व नहीं होता, केवल गुरुकुल की कृपा हमें सम्भाल सकती है। जब तक प्रजा, परिजन और परिवार सभी हमारे साथ होंगे, हम सब खुशहाल रहेंगे। अवसरों के बिना, समय के बिना, जगह के बिना कुछ भी बदलता नहीं है। इसलिए, तात, तुम्हने जैसा किया, उसी प्रकार हमने सम्पूर्ण मिथिला को संरक्षित किया।"
दोहा
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम,
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ||३०५ ||
इस दोहे में कहा गया है कि राजनीति, कार्य, सभी लोगों का सम्मान, पति, धर्म, संसार, सम्पत्ति, और धर्म, ये सभी मामले गुरु के प्रकाश में ही सुधारते हैं और सभी में भलाई होती है। गुरु के मार्गदर्शन में सब काम सही तरीके से होते हैं और सभी मामलों का अच्छा परिणाम होता है।
चौपाई 
सहित समाज तुम्हार हमारा, घर बन गुर प्रसाद रखवारा ||
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू, सकल धरम धरनीधर सेसू ||
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू, तात तरनिकुल पालक होहू ||
साधक एक सकल सिधि देनी, कीरति सुगति भूतिमय बेनी ||
सो बिचारि सहि संकटु भारी, करहु प्रजा परिवारु सुखारी ||
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई, तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई ||
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा, कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ||
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए, ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"समाज तुम्हारा भी है, हमारा भी है, घर गुरु की कृपा से बना है। माता, पिता, गुरु, और स्वामी, सभी धर्मों के संरक्षक हैं। तुम सभी कार्यों को हमारे लिए करवाते हो, तात, तुम ही हमारे तारक बनते हो। एक साधक तुम्हें सभी सिद्धियों को प्रदान करता है, तुम्हारी कीर्ति और सुगति से भरा है। जब संकट भारी होता है, तुम ही प्रजा और परिवार को सुखी बनाते हो। बाधाओं का सामना करते समय मैं सब दुःखों को भाई समझता हूँ, तुम्हें ही सहायता करने में समय की भरमार होती है। तुम्हें मैं समझता हूँ, मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई अनुचित कार्य किया जाए। जब भाई बँटता है, तब तुम्हें संबंधित सबको सुखी बनाना चाहिए, अपने हाथों में तान नहीं लेना चाहिए।"
दोहा
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ,
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ||३०६ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब एक सेवक अपने स्वामी के पादों की सेवा करता है, तो उसके नयन (दृष्टि) से ही उसका मुख स्वामी का हो जाता है। वह व्यक्ति जो तुलसी की प्रेम की रीति को सुनकर सराहता है, वही सच्चे ज्ञानी होता है। इस दोहे में सेवा, भक्ति और समर्पण के महत्व को दर्शाया गया है, जो सच्चे प्रेम की रीति को समझने में समाहित होते हैं।

टिप्पणियाँ