रामचरितमानस अयोध्या प्रथम सोपान अयोध्या कांड चौपाई दोहा 15 से 28 तक

अयोध्या कांड चौपाई दोहा

प्रथम सोपान अयोध्या कांड चौपाई दोहा 15 से 28  तक

चौपाई
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।
इस चौपाई का अर्थ है 
"प्रियबादिनी! आप मुझे सिखाइए दिजीयो। आपके सपने मुझे भयभीत नहीं करते। सुदिन शुभ मंगल देने वाले वही हैं। आप कहो, उसी दिन को फिर से फूल जाए। जैसे भगवान स्वामी हैं और भक्त उनके छोटे भाई हैं। यही कुल की रीति है जो सुहावनी होती है। भगवान राम जैसे सूंदर तिलक को सही मानते हैं। मैं उनसे मन से मांगता हूं। कौसल्या जैसी सभी महान महिलाएं हैं। राम ने सहज ही सबको सुंदर बनाया है। मेरे प्रिय सनेही, मेरे ऊपर विशेष प्रेम कीजिए। मैं प्रेम का परीक्षण करता हूं। जो भी विधि से जन्म दे, वही मुझे अपना बनाए। राम और सीता का पुत्र हो। मेरी प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं राम। उनके तिलक तो मेरे लिए सबसे श्रेष्ठ हैं।"
दोहा
भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।
इसका अर्थ है

"भरत! सत्य कहो और झूठ छोड़ो, कपट को दूर करो। जब भी मेरे हर्ष का समय आता है, मुझे अपने असली कारण बताओ।"
चौपाई
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।
चौपाई  इसका अर्थ है

"एक बार सभी आशीर्वाद प्राप्त किए थे, अब कुछ कहना शर्मिंदगी का कारण बना है। चार योगियों को अभागे कहा, जो बुरे को कहकर खुशी में दुःख देते हैं। झूठ बोलकर पुनः कहा, 'तुम मेरे प्रिय हो, मैं तुम्हें अपनी माँ मानता हूँ।' अब हम ठाकुर से कुछ कहना चाहते हैं, नहीं तो हम दिन-रात चुप रहेंगे। परब्रह्म को ठीक बातों से पराभव किया, और वह बवंडर उठाकर दीनता दिखाई। कोई राजा हो या हम, क्या हानि है? छोड़कर अब कोई रानी हो या न हो। हमारी योग्यता को देखकर वह अपना मनाने का उत्साहित हो जाता है, और वह हमें अनभल के साथ छोड़कर नहीं जा सकता। तात्पर्य यह है कि अब हम उसके अनुसार बात करेंगे, ताकि वह हमारी बड़ी गलती को माफ कर दे।"
दोहा
गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।
इसका अर्थ है

"रानी! अपने प्रिय सुनहुआ चालाक कपटी वचनों को सुनकर आपकी बुद्धि व्यग्र हो जाती है। वह सुरमय और अत्यंत सुहावने शब्दों से भरा होता है, लेकिन उसमें द्वेष और द्वन्द्व की भावना छिपी होती है जो पतिव्रता को जानते हैं।"
चौपाई
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है

"सीता ने बार-बार उसी बात को पूछा, जैसे सांप ने मुझसे अनुरोध किया। उसका मन उलटा हुआ था जैसे किसी अन्धी धरा को खोज रही हो, वह गुप्त तरीके से मुझे परेशान कर रही थी। तुम पूछती हो और मैं धैर्य से उत्तर देता हूं, जोरदारी से अपने घर की रक्षा करता हूं। उसने बहुत सारे तरीके से भी मेरा आत्मविश्वास कम किया, लेकिन तब तक भी, 'प्रिय सीता, तुम्हारे लिए राम को कहाँ धर्मपत्नी?' कहती रही। पहले उन दिनों तक राम अवधपुरी में रहे, जब तक कि उन्हें शापित न किया गया। सूर्य जैसे कमल के रक्षक, बिना जल के जलाया है वह बड़ा धरा। जब तुम्हारे चाहने वाले ने सूर्य को उकसाया, तो समुद्र ने क्रोध से उछाला, जल को प्रस्तुत करने के लिए बारिश की।"
दोहा
तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।
यह दोहा तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है
"हे नृप! तुम मन को मिलाकर शुद्ध और मुख को मिठा बनाने में सरल हो। अपने स्वामी के संबंध में सोहाग की शक्ति नहीं धारण करो।"
चौपाई
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है
"राम बुद्धिमान और गंभीर हैं, वे अपने विचारों को सुधारते हैं। भरत को साम्राज्य का भविष्य नहीं दिखाई गई, उन्हें राम को माता मत समझना चाहिए। तुम्हारी पत्नी को सबसे अधिक सेवा करनी चाहिए, भरत, गर्वित होकर माँ को भूल जाना उचित नहीं है। तुम्हारी माता कौसल्या ने जो तुम्हारे लिए प्रेम रखा, वह अद्भुत था, उसने तुम्हें अच्छा सिखाया। राज्य में तुम्हारे लिए प्रेम अद्वितीय था, वह तुम्हें सबसे उच्च मानती थी। राजा जनक ने अपने पुत्र को स्वीकार किया और उन्होंने राम की प्रतिष्ठा बढ़ाने का निर्णय लिया। यह कुल उचित है, राम की तिलक हित में धारण की गई है। सभी लोग मुझे इसका सुधारा होने का सुतोड़ मानते हैं। मैं आगे की बात समझता हूं और अपनी भयभीति करता हूं, मुझे उसी फल की चिंता होती है जो मैंने किया है।"
दोहा
रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।
यह दोहा तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है:

"तुमने कितना कुटिलता और चालाकी से चाल चली है, कपट का ज्ञान किया है। तुमने सच्ची पत्नी की कथा को कैसे बाधा दी है, उसके खिलाफ विरोध किया है।"
चौपाई
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है
"रानी ने भविष्य की भावना अपने दिल में पाई और फिर पुनः सपथ दी। मैं तुमसे क्या पूछूं, तुम अब नहीं जानती, तुमने स्वार्थ और अन्याय को पहचाना। मैंने दिन-रात तुम्हें डराया, समाज में तुम्हारे खिलाफ अफवाहें फैलाई। तुमने अपने राज को अपनाया, तुमने मुझसे सच्चाई छिपाई। अगर तुमने कुछ असत्य कहा, तो उस प्रकार दंड देना होगा। जब तुम्हें भय हुआ राम के तिलक से, तो तुमने मुझसे कहा कि बिपति का बीज कैसे बोया जाए। अगर तुम संगति करती हो अपने संतानों के साथ, तो उससे मुझे बड़ी दुःख होगा। अगर तुम सेविकाओं के साथ काम करती हो, तो तुम्हें घर से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं होगा।"
दोहा
कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।
यह दोहा तुलसीदास जी की "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है

"हे कैकेयी! बिना कद्रू को निवेदन किए, तुमने मुझे वह दुःख दिया है, तुम्हारे द्वारा कौसल्या को दिया जाने वाला। भरत राम के गुलाम होकर नंदिग्राम में रहेगा।"
चौपाई
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है
"कैकेयी ने सुनकर कड़ी बातें कहीं, सुख बातने में समर्थ नहीं थी। उसका शरीर काँपता था जैसे केले की डाल, उसने कुबेर की जूठी बातों को स्वीकार किया। वह कहानियाँ किया करती थी, उस रानी को समझाते हुए धैर्य बनाए रखो। वह अपने कर्मों को चालाकी के लिए करती थी, और दूसरों की प्रशंसा सुनकर स्वयं को महान समझती थी। मंथरा की बातें फिर से सुनो, मेरी आंखें हर दिन तुम्हें देखती हैं, तुम्हें मेरी ओर ले जाती हैं। दिनभर मैं खुशियों की ख्वाब देखती हूँ, लेकिन मैं नहीं कह सकती कि मेरी इच्छाएं पूरी हों। हे सखी, मेरे जीवन को उत्तम बनाने के लिए क्या करूं? मैं न जानती हूँ कि किस ओर मैं जाऊं।"
दोहा
अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।
यह दोहा तुलसीदास जी की "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है
"अपनी चाल से किसी को अशांति नहीं देनी चाहिए। यहां तक कि किसी के प्रति अवगुणों का दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए। कहीं एक बार भी, किसी अन्य को दुख पहुंचाने में दीनता दिखाई दी हो, उसको समझना चाहिए।"
चौपाई
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है

"जन्म भर अपने घर में ही रहो, परिवार की सेवा न करो। दुश्मन को ही जीने दो, मृत्यु में अच्छा है उसी जीवन को चाहना। दीनता से बातें करके रानी ने कुबेर की पत्नी त्रिजटा को धोखा दिया। वो बोली, 'इस बात को मन में न ऊँचा करो। तुम्हारा सुख सोहाग है, मुझे उससे दोगुना सुख मिलेगा।' जो दुश्मन बहुत ही शत्रुता से तुम्हें देखता है, वही परिपाक का फल पाता है। जबसे तुम्हारी बुद्धि सुनी, मेरे स्वामिनी, मैंने न खाना खाया, न सोया, न विश्राम किया। मैंने गुणवानों की बातें सुनकर उनकी विचारणा की, तो मैंने भरत को सच्चा पति पाया। भामिनी, तुम्हारे उपाय क्या हो, मैं तुम्हारी सेवा करता हूँ बस राम की।"
दोहा
परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।
इस दोहे का अर्थ है

"पुत्र! तुम्हारे बोलने पर मैं अपने पति को छोड़ दूँ, पर मुझसे कहो, मेरे दुख को देखकर किसी बड़े कारण के लिए किसी को त्यागूं।"
चौपाई
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की कृति "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है

"कैकेयी ने कुबेर की पत्नी के रूप में कपटी रवैया अपनाया। उसने दुःखी नहीं दिखाया, बल्कि उसने हरीतकी तरह अपने पति को पालती रही। रानी ने कठोर वचन सुनकर भी मन में मधुर भाव बनाए रखे और प्रेम से भाग्य महान जैसे मित्र द्वारा युक्त किए गए। वह बोली, 'मुझमें सुधा है या नहीं, तुम्हारी स्वामिनी! कहो, मुझे उस बात का बताओ।' राजा ने उससे दो वरदान मांगे थे, बाद में वे जुड़ गए। राजा का बेटा राम वनवास के लिए नियुक्त हो गए। रानी से बोला, 'हे प्रिय! सभी सुख-सम्पत्ति देह में होलासा दो, जब मैं राम को सपथ देता हूँ, तब मैं उसके वचन में कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाता हूँ।' वह आज अनुकूल होता है, और दिन और रात उसका समय बीतता है। मेरे प्रिय को मेरे वचनों का सम्मान करना चाहिए।"
दोहा-
बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।
इस दोहे का अर्थ है

"तुम पापों को बड़ा करके और दोषी कहकर क्रोध भरा घर जाओ। सभी कार्यों को सुधारो, सब समय सतर्क रहो और अचानक ही अपने गलतियों को समझो।"
चौपाई
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।
इस चौपाई का अर्थ है

"कुबेर की रानी, जिन्हें उनका प्रिय था, बार-बार बुद्धिमानी की बातें कहती रहीं। लेकिन वही समय नहीं मेरे लिए था, जब विश्वास की ओर भटक गई। जैसे ही मेरी पूर्व इच्छा की प्राप्ति का समय आया, वह उसे चाहने लगी। वह अनेक प्रकार से मुझे आदर दिखाती थी, पर कैकेयी ने उसे क्रोध से गवाना दिया। बड़ी मुसीबतों की बौछार बरसने लगी, उसने कैकेयी की बुद्धि को धोया। कपट ने अंकुर फूटने दिया, और दोनों दलों को दुःख मिला। क्रोध ने सबको सामाजिक रूप से एकट्ठा कर दिया, राजा ने अपने निजी बुद्धि का पालन नहीं किया। राजमहल में उत्तेजना हो गई, लेकिन कोई भी कुछ नहीं जान सका।"
दोहा-
प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।
इस दोहे का अर्थ है

"नर और नारी, जो लोग प्रमुदित होकर रहते हैं, सब श्रेष्ठ चीजों से सजे हुए होते हैं। राजा के दरबार में एक-दूसरे का स्वागत करते हुए वे एक दूसरे के निकट आते हैं और जाते हैं।"
चौपाई
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।
इस चौपाई का अर्थ है

"बच्चों के मित्र, जो हृदय में हर्ष भरता है, दस और पाँच मिलकर श्रीराम के पास जाते हैं। प्रभु उनका आदर करते हैं, प्रेम को पहचानते हैं, कुशलता और शान्ति की बातें पूछते हैं। फिर वे अपने घर वापस आकर अपने प्रिय भगवान को बड़ाई देते हैं। वह रघुकुल का सर्वश्रेष्ठ है, जो शील और प्रेम को संजोने वाला है। जहाँ-जहाँ कर्म बसे भ्रमित रहते हैं, वहाँ-वहाँ हम ईश्वर को देखते हैं। हम सेवक हैं, और वह हमारे स्वामी हैं, हमारे सीखने की ओर होवो। इसी तरह की इच्छा हर कोई नगर में करता है, कैकयी की सन्तापनी दिल को बहुत जलाती है। कोई भी कुटिल संगति नहीं पाता, उन्चाई में रहकर चालाकी नहीं करता।"
दोहा-
साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।
इस दोहे का अर्थ है

"कैकयी ने राजा के घर से साँस लेकर अपने सुख सम्पत्ति समेटी, पर उसने नरसंहार का निश्चय कर दिया और उसने अपनी देह को दुःख से भर दिया।"
चौपाई
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।
इस चौपाई का अर्थ है

"राजा ने उसकी क्रोध से भरी बातें सुनी, वहाँ भय घना था और समझ में नहीं आया। देवताओं का पति बाहुबली वहाँ बैठा था, सभी लोग उसकी ओर देख रहे थे। कैकयी ने यह सुनकर खुशी महसूस की, और उसने राज्य के प्रताप को देखा। वहाँ सूल, कुलीस, और अन्य शस्त्रों से भरे हुए अश्वहीन थे, वे राजा के रत्नाथ थे। सभी नगरवासी प्रियतमा के पास गए, उन्होंने देखकर अत्यंत दुखी हो गए। भूमि पर विचित्र और बड़े-बड़े पुराने भवन थे, जिन्हें देखकर उनके तन का अलग-अलग भूषण भी चमक उठी। किसी ने चतुराई और किसी ने तेजी से चालाकी देखी, पर उन्होंने जो आदेश दिया, वह इसे भी सूचित करता है। उन्होंने राजा के पास जाकर मिले और मृदु भाषण किया, प्राणप्रिया के लिए कुछ सुनाया।"
छंद 
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।
अर्थ

"केहि हेतु" - किसी कारण से, "रानि रिसानि" - रानी होते हुए भी अपने पति को प्रतिकार किया, "परसत पानि पतिहि नेवारई" - पानी से नेवला धोना। "मानहुँ सरोष" - मैं मानता हूं, "भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई" - सर्प जैसे अत्यंत खतरनाक रूप में देखती है। "दोउ बासना" - सभी वस्त्र, "रसना दसन" - जीभ और दाँत, "बर मरम ठाहरु देखई" - सभी शरीर के अंगों को देखा। "तुलसी नृपति" - नृपति तुलसी, "भवतब्यता" - ब्यावर्थ करना, "बस काम कौतुक लेखई" - काम की प्रशंसा की।
सोरठा-
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।
सोरठा" ग्रंथ में इस श्लोक का अर्थ यह है

"बार-बार मैं यह कहता हूँ, हे सुलोचनी! हे सुमुखि पिकबचनी! क्योंकि तुम्हें मैं अपने मन की बात सुनाना चाहता हूँ। तुम अपने कोप को दिखाओ, हे गजगामिनी!"
इस श्लोक में कहा गया है कि कवि अपनी भक्ति और प्रेम को अपने ईश्वर के सामने उकेरता है, उसे अपने मन की बात सुनाने का इरादा है और उससे अपनी आँखों के सामने अपने कोप या अपने अनदेखे भागों को दिखाने का अनुरोध करता है।
चौपाई 
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।
ये चौपाई रामचरितमानस के तुलसीदासजी के द्वारा रचित हैं। इनका अर्थ है

"प्रिया, तुमने कैसे मेरा भला किया? तुमने मुझसे दो सिर और दो जिस्म ले लिए। कहा कुछ किया, रणकहा बन्धु! और कहा कुछ किया, राजा! जब तुमने देश को छोड़ा। मैं तुम्हें मारने का इरादा कर सकता हूं, पर इसमें जीवों का क्या दोष? कौन भला नर या नारी, इसे क्यों मारना? तुम्हारे सुंदर चेहरे को मैं जानता हूं, मेरे मन को तो वह चंद्रमा चकोर की तरह प्रिय है। प्रिया, प्राण, सुत, सब मेरे हैं, परिजन और प्रजा भी सब तुम्हारे हैं। अगर मैं कुछ झूठा कहकर तुम्हें छोड़ूं, तो राम की प्रतिज्ञा मुझे सत्य है। मनोभावना से हँसते हुए मुझसे कुछ मांगो, मनोहर गानों को सजाओ और घर को भूषित करो। समझ कर जीवन को देखो, प्रिया, तुम्हें जल्दी छोड़ देना चाहिए।"
दोहा-
यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।
इस दोहे का अर्थ है
"सुनकर यह वचन, मनुष्य मन ने बहुत अच्छी प्रतिज्ञा को हँसते हुए स्वीकार किया। उसने अपनी भावनाओं को सुंदरता से सजाया और मन को मृग की तरह शिकारी की फंदे में फंसाया।"
चौपाई
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।
यह चौपाई तुलसीदासजी द्वारा रचित है। इसका अर्थ है
"फिर कहूँ मैं, हे मित्रों! जानो, जो बात फिर से कहता हूँ। प्रेम से उत्तेजित होकर मन की मृदु और मधुर बातें। हे भामिनी, तुम्हारे मन की इच्छा है। हर घर-घर में और हर नगर-नगर में आनंद फैलाती है। राम ने काल जू को दिया, उसने सीता को अवतार देकर उन्हें सजाया। जब उन्होंने सुना कि उनके ह्रदय में कठोरता है, तो वहाँ से उठकर पाकबान को छोड़ गये। वैसे ही जैसे एक चोर नारी के समान प्रकट नहीं होता, वैसे ही उन्होंने कभी भी अपनी प्रजा को कपट से भरी नहीं देखा। कई बार वे भूपालों के कपटी चालाक होते हैं, लेकिन उनके मन में गुरु की सीख नहीं होती। जैसे-जैसे उन्हें नीति का ज्ञान होता है, वैसे-वैसे वे नारियों के चरित्र की अवगाहना करते रहते हैं। कपट और सन्न्यासी प्रेम को बढ़ाते हैं, बोलकर मन में और नयनों से मुस्कान बर्तती है।"
दोहा-
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।
इस दोहे का अर्थ है

"जब तुम मांगो, मांगो तो प्यार से, मेरे प्यारे, कभी न दूंगा और न कभी लूंगा। लेकिन जब तुम मेरे देने की मांग करो, तो दोनों ही बरदान मैं दूंगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।"
चौपाई
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।
यह चौपाई तुलसीदासजी के द्वारा रचित है। इसका अर्थ है
"हे राम! मैं तुम्हें मन की बातें जानता हूं, तुम मुझसे हँसते हुए कहो। तुम्हें तो यह पता है कि तुम मेरे परम प्रिय हो। मैं तुमसे इतना ही मांगता हूं, किसी और से नहीं। मुझे सुभाषित कर दिया है वो सुंदर समय। मैं जानता हूं कि मैं झूठा हूँ, इसलिए मुझे दोष दो। लेकिन दोनों में से किसी का भी मुझे अपनाने का इरादा नहीं है। रघुकुल की रीति सदैव यही थी, कि अपने वचनों का पालन किया जाता था, चाहे जान जाए या ना जान जाए। झूठे बोल के समान पाप की एक प्रजा होती है, जैसे कोई बड़ा पहाड़ होता है, जिसमें कोई छोटी सी गुफा छिपी हो। सत्य ही सब शुभ कार्यों का मूल होता है, वेद और पुराण इसे जानते हैं और मनुष्य गाते हैं। इसलिए राम ने सत्य की प्रतिज्ञा करके जीवन की सुखदायी अवधि को पाया। बात को मजबूत करने के लिए कुमति से मैं हँसते हुए बोलता हूं, क्योंकि अव्वल और अव्वल व्यक्ति अपनी कुल की बातें खोलता है।"
दोहा-
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।
इस दोहे का अर्थ है

"राजा की इच्छाएं सुखदायी होती हैं, जैसे सुन्दर स्त्री का सुंदर आकर्षण समाज में होता है। लेकिन वो बातें जैसे डांटने की भांति भयंकर होती हैं, जो किसी भी समय छोड़ना चाहता है।"
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

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