रामचरितमानस अयोध्या काण्ड चौपाईयां पाठ अर्थ सहित 307-316

रामचरितमानस अयोध्या काण्ड चौपाईयां पाठ अर्थ सहित 307-316 Ramcharitmanas Ayodhya Kand Chaupaiyaan text with meaning 307-316

चौपाई 
सभा सकल सुनि रघुबर बानी, प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ||
सिथिल समाज सनेह समाधी, देखि दसा चुप सारद साधी ||
भरतहि भयउ परम संतोषू, सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ||
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू, भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ||
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी, बोले पानि पंकरुह जोरी ||
नाथ भयउ सुखु साथ गए को, लहेउँ लाहु जग जनमु भए को ||
अब कृपाल जस आयसु होई, करौं सीस धरि सादर सोई ||
सो अवलंब देव मोहि देई, अवधि पारु पावौं जेहि सेई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"रामचंद्रजी की बातें सब सुनकर, लोग प्रेम के सागर में लीन हो गए। समाज में स्नेह का सागर होने से उन्होंने सभी दशा को चुप रख दिया। भरत बहुत खुश हुआ, परम संतोषी हो गए, स्वामी की ओर मुख नहीं किया, दुःख और दोष अपनाए। मुख प्रसन्न कर दिया, मन का बिषाद मिटा दिया, वह जो गूंगे हो गए, उनके बोलने का प्रसाद हुआ। उन्होंने प्रेम के साथ फिर से नमस्कार किया, पानी के तार की तरह हाथ जोड़े। किसको सुख मिला और किसको साथ गया, इसे जगत जन्म से कभी नहीं मिला। अब जैसे श्रीरामचंद्रजी कृपाल हुए, मैं सीर झुका कर उनकी सेवा करूंगा, जैसा वही सेवा करने का आश्रय देंगे, जो उन्हीं की इच्छा होगी।"
दोहा
देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ,
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ||३०७ ||
यह दोहा कहता है कि जब हम देवताओं का अभिषेक करते हैं या उनकी पूजा करते हैं, तो सबसे अधिक हमें गुरु के अनुसार चलना चाहिए। उनके उपदेशों का पालन करना बहुत महत्वपूर्ण है। इस दोहे में बताया गया है कि सभी तीर्थों के जल को भी छोड़ देना चाहिए, यानी गुरु के उपदेशों का महत्व और प्रभाव इससे भी अधिक होता है।
चौपाई 
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं, सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ||
कहहु तात प्रभु आयसु पाई, बोले बानि सनेह सुहाई ||
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन, खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ||
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी, आयसु होइ त आवौं देखी ||
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू, तात बिगतभय कानन चरहू ||
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता, पावन परम सुहावन भ्राता ||
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं, राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ||
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा, मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"मेरा एक बड़ा मनोरथ है, जिसे मन में छुपाकर किसी से नहीं कह सकता। तात, आपकी कृपा से मैंने वह मनोरथ पूर्ण किया है, आपकी महान बातें मन को सुखाई हैं। चित्रकूट का सुन्दर भूमि, तीर्थ और वन, पशु-पक्षियों से भरा हुआ सरोवर और पर्वत शिखरों की चोटियों की रानी है। वहाँ आपके पादों के चिह्न विशेष बने हुए हैं, अब मैं आपको देखने के लिए आऊंगा। आत्रि मुनि ने आपका स्वागत किया, तात, उन्होंने भयभीत वन में घुमाया। मुनि के प्रसाद से उन्होंने मुझे शुभ दान दिया, मुनि ने परम सुंदर और पवित्र स्थान को आश्रय दिया। जहाँ ऋषिनायक आपको देखेंगे, वही स्थान समुद्र और पृथ्वी का तीर्थ होगा। भरत ने प्रभु के वचन सुनकर सुख पाया, मुनि के पाद के कमल को सिर पर स्थान दिया।"
दोहा
भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल,
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ||३०८ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब भरत ने राम के संबंध में सुना, तो सभी सुमंगल बातें सुनकर वे स्वर्गीय लोगों की भावनाओं की सराहना करते हुए उनका स्वागत किया जैसे स्वर्गीय पेड़-पौधों के फूल बरसते हैं। यहां दिखाया गया है कि भरत ने राम के संबंध में सुनी हुई सुमंगल खबरों को बहुत ही उत्साह से स्वागत किया और उन्हें सराहा, जैसे स्वर्गीय फूल बरसते हैं।
चौपाई 
धन्य भरत जय राम गोसाईं, कहत देव हरषत बरिआई,
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू, भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ||
भरत राम गुन ग्राम सनेहू, पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ||
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन, नेमु पेमु अति पावन पावन ||
मति अनुसार सराहन लागे, सचिव सभासद सब अनुरागे ||
सुनि सुनि राम भरत संबादू, दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ||
राम मातु दुखु सुखु सम जानी, कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ||
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई, एक सराहत भरत भलाई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"भरत को धन्य मानो, वह राम गोसाईं को जय-जयकार करता है, देवताओं ने हर्षित होकर कहा। मिथिला के मुनियों ने सभी के सामने भरत के बचन सुनकर खुशी में उछाला। भरत ने राम के गुणों को प्रेम से सुना, वह बिदेही के राजा की सराहना करता हुआ पुलकित हो रहा था। सेवक और स्वामी का स्नेह सुखद होता है, वे दोनों एक दूसरे की प्रेम-पूजा में अत्यंत पावन होते हैं। सभी सचिव और सभासद उनकी गुणों की सराहना करते हुए उनसे प्रेम करते हैं। राम और भरत के संवाद को सुनकर सभी उनके समाज में हर्ष और विषाद की भावना में थे। रामायणी रानी ने राम के गुणों का ज्ञान देकर माता का सुख और दुःख दोनों समझ लिया। एक कहते हैं रघुकुल के बहुत बड़े गुणों की महिमा, एक कहते हैं भरत की भलाई।"
दोहा
अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप,
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ||३०९ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब अत्रि ऋषि ने भरत से कहा कि सैल (पर्वत) के पास सुकूप (सुन्दर) स्थान में तीर्थ स्थल बनाना, तो भरत ने वहां पावन अमृत के समान जल को रखा। यहां बताया गया है कि भरत ने ऋषि अत्रि की आज्ञा के अनुसार एक पवित्र स्थल बनाया, जिससे वहां का जल तीर्थिक और पुण्यदायक हो गया।
चौपाई 
भरत अत्रि अनुसासन पाई, जल भाजन सब दिए चलाई ||
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू, सहित गए जहँ कूप अगाधू ||
पावन पाथ पुन्यथल राखा, प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ||
तात अनादि सिद्ध थल एहू, लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ||
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा, किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ||
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू, सुगम अगम अति धरम बिचारू ||
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा, अति पावन तीरथ जल जोगा ||
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी, होइहहिं बिमल करम मन बानी ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"भरत ने अत्रि मुनि की शिक्षा ग्रहण की, वहने सब द्वारकाओं में जल भरकर लाया। भरत ने अपने सहित सन्निहित सानुज को भी अत्रि मुनि के पास ले जाया, जहाँ एक अगाध कूप था। भरत ने वहाँ पुण्यवान पथ बनाया और अत्रि मुनि के साथ प्रेम भाषा में बात की। वहाँ तात (दशरथ) का अद्वितीय अनादि सिद्ध थल था, जिसे कोई भी काल का ज्ञान नहीं था। तब भरत ने उस जल कूप को देखा, जो सुजल और हितकारी था, और उसके बिस्व-उपकारों, सुगमता और अगमता के धर्म को समझा। लोग अब उसे 'भरत का कूप' कहते हैं, जो अत्यंत पावन तीर्थ जल से युक्त है। यहाँ प्रेम और सेवा की भावना वाले जीवन को निरंतर बहने देना है।"
दोहा
कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ,
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ||३१० ||
इस दोहे में कहा गया है कि कहत जो कूप की महिमा जहाँ-जहाँ भगवान रामचन्द्र ने गए, वहाँ सभी तीर्थ स्थलों का पुण्य और महत्ता रघुराज (भगवान राम) को सुनायी गई, क्योंकि उन्होंने वहाँ पूज्य ऋषि अत्रि के साथ समय व्यतीत किया था। इस दोहे से यह संदेश मिलता है कि किसी स्थान की महिमा उस स्थान पर भगवान के प्रत्यक्ष उपस्थिति से होती है, और भगवान रामचंद्र ने अपने तीर्थ-यात्राओं में ऐसे स्थानों का सम्मान किया जहाँ ऋषि अत्रि उपस्थित थे।
चौपाई 
कहत धरम इतिहास सप्रीती, भयउ भोरु निसि सो सुख बीती ||
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई, राम अत्रि गुर आयसु पाई ||
सहित समाज साज सब सादें, चले राम बन अटन पयादें ||
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं, भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं ||
कुस कंटक काँकरीं कुराईं, कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं ||
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे, बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ||
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं, बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं ||
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी, सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"धर्म और इतिहास से समृद्ध होती है सुखद भावना, भरत ने दिन-रात वहीं सुख बिताया। दोनों भाइयों ने सदा आपस में धर्म का पालन किया, राम ने अत्रि मुनि से गुरुदीक्षा प्राप्त की। उन्होंने समाज को सही तरीके से संचालित किया, राम ने वन में विचरण किया। उनके कोमल पाद बिना किसी सहारे के चलने से भूमि भी स्तब्ध हो गई। वन में कटु और कठोर तथा दुःखदायक कठिनाइयाँ थीं, लेकिन उन्होंने मृदु और सुंदर मार्ग को चुना और विभिन्न प्रकार के सुखों का आनंद लिया। फूलों की बरसात होती रही, सूर्य की किरणें फूलों, फलों, घास और मृदु प्रकृति को प्रेरित करती रहीं। जानते हुए कि राम सभी के प्रिय हैं, मृग बोले और पक्षियाँ सुंदर गान करती रहीं।"
दोहा
सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात,
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात ||३११ ||
इस दोहे में कहा गया है कि सभी सिद्धियां आसानी से प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन भगवान राम ने यह स्पष्ट कर दिया कि जब बात उनके प्राण-प्रिय भरत की आती है, तो वहां अनुभव और सिद्धि नहीं होती है। इसका अर्थ है कि भरत के प्रति उनका प्रेम और आदर इतना अद्वितीय और अनूठा है कि कोई भी और सिद्धि या अनुभव उससे भी महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता
चौपाई 
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं, नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं ||
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा, खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ||
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी, बूझत भरतु दिब्य सब देखी ||
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ, हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ||
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा, कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ||
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई, सुमिरत सीय सहित दोउ भाई ||
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा, देहिं असीस मुदित बनदेवा ||
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई, प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"इस प्रकार भरत फिर वन में घूमते रहे, प्रेम के साथ मुनियों को देखते रहे। वन में धर्म, पुण्य, जल, भूमि, पेड़, पशु, पक्षी, तरु, घास और फूलों का विभाग था। भरत ने उन आश्चर्यजनक और पवित्र दृश्यों को देखा। ऋषि ने सुनकर आनंदित मन से कहा, जो धर्म, नाम, गुण, और पुण्य में विलीन हो गया। कभी वह नम्रता दिखाता, कभी प्रणाम करता, कभी दृश्यों को देखता, और कभी बैठकर मुनियों से बात करता रहता था। उन्होंने सीता और राम को स्मरण किया, सभी को सुभावना की और उन्हें आशीर्वाद दिया। वे बहुत दिनों तक वहाँ रहे, और भगवान के पाद कमलों को देखने को आये।"
दोहा
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ,
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ ||३१२ ||
इस दोहे में कहा गया है कि भरत ने सभी तीर्थों और स्थानों को देखा, लेकिन पाँच दिन के भीतर वह श्रीहरि (भगवान राम) के सुजसु या सुरमा गया, जिससे उनका दिन समाप्त हो गया। यहाँ बताया गया है कि भगवान की भक्ति में एकाग्रता और अनुष्ठान करने से सभी धार्मिक स्थलों की यात्रा बाध्यकारी नहीं होती है। भरत ने पाँच दिन में ही उनकी भक्ति में सम्मिलित होने की अद्वितीय शक्ति और महत्ता को अनुभव किया।
चौपाई 
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू, भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ||
भल दिन आजु जानि मन माहीं, रामु कृपाल कहत सकुचाहीं ||
गुर नृप भरत सभा अवलोकी, सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ||
सील सराहि सभा सब सोची, कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ||
भरत सुजान राम रुख देखी, उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ||
करि दंडवत कहत कर जोरी, राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ||
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू, बहुत भाँति दुखु पावा आपू ||
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई, सेवौं अवध अवधि भरि जाई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सभी समाज सहयोगी हो जाते हैं, भरत की भूमि में अब वे तेरह संतापूत्री राजा हैं। आज मैं अच्छा दिन जानता हूँ, जब मुझे भगवान राम की कृपा हो रही है। गुरु और नृपति भरत ने सभा को देखा, समझा, और फिर राम को देखने गये। सभा ने भरत की श्रेष्ठता की सराहना की, लेकिन वे ने राम को ही अपने स्वामी माना। भरत ने राम की ओर देखा, प्रेम से उठकर धीरज से धन्य बने। वे दंडवत करके जोर से बोले, 'नाथ, मैंने अपनी सभी इच्छाएँ आप पर रख दी हैं। मैंने सभी दुःखों को सहा है, अब आप मुझे शरण दें, मैं आपको आराधना करता हूं, इस अवधि तक आपकी सेवा करूं।'"
दोहा
जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल,
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ||३१३ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति दीनदयाल है, वही व्यक्ति उन उपायों को फिर से प्राप्त करता है, जो समस्याओं का समाधान करते हैं। उसी तरह जैसे कोसलपाल (राम) ने अवध के लिए कृपा की, वैसे ही वह व्यक्ति भी अपने दयालुता और कृपा से दूसरों को सहायता करता है। यह दोहा दर्शाता है कि दयालुता और सहायता देने की क्षमता व्यक्ति को समस्याओं का समाधान प्राप्त करने में सक्षम बनाती है।
चौपाई 
पुरजन परिजन प्रजा गोसाई, सब सुचि सरस सनेहँ सगाई ||
राउर बदि भल भव दुख दाहू, प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ||
स्वामि सुजानु जानि सब ही की, रुचि लालसा रहनि जन जी की ||
प्रनतपालु पालिहि सब काहू, देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ||
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो, किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ||
आरति मोर नाथ कर छोहू, दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ||
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी, तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ||
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी, खीर नीर बिबरन गति हंसी ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"पुराने जन, परिजन, और प्रजा हे प्रभु, सभी सुखद सनेह से संगीत हैं। संसार में बहुत सारे सुख-दुःख हैं, लेकिन बिना भगवान के उन से अधिक कुछ नहीं मिलता। स्वामी, आप ही सबको जानते हैं, लोगों की लालसा और रुचि अपनी जगह रखती है। आपकी सेवा करने वाले सबका पालन करते हैं, आप दोनों दिशाओं में ही देखते हैं। मुझे इस तरह सब तरह का विश्वास है, इसलिए मैं सोच नहीं रहा हूं। नाथ, मेरी आरती को स्वीकार कर लीजिए, मैंने अपने ढीठ-हठ को छोड़कर आपकी शरण में आगया हूं। यह बड़ी गलती है, इसे दूर करके सिखाइए, दूसरों को भी साहसिक बनाइए। भरत की विनय सुनकर सभी उनकी प्रशंसा करते हैं, दूध और घी का समान उनकी चाल है।"
दोहा
दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन,
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ||३१४ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति दीनबंधु (कंजूस या निर्धन व्यक्ति) के बचनों को सुनता है और उनकी सहायता करता है, वही व्यक्ति सच्चा और छलहीन होता है। वह व्यक्ति जो समय, स्थान और अवसर के अनुसार अपने बोले रामु के प्रवीण होता है, उसके वचनों में सत्यता और निष्ठा होती है। यह दोहा वचनों की महत्ता और सच्चे व्यक्तित्व की महत्ता को दर्शाता है।
चौपाई 
तात तुम्हारि मोरि परिजन की, चिंता गुरहि नृपहि घर बन की ||
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू, हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू ||
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु, स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ||
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई, लोक बेद भल भूप भलाई ||
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें, चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ||
अस बिचारि सब सोच बिहाई, पालहु अवध अवधि भरि जाई ||
देसु कोसु परिजन परिवारू, गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ||
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी, पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ||
इस चौपाई के अर्थ हैं:
"तात, आपके हित में मेरे परिजनों की चिंता गुरु और राजा ने किया है, घर और वास्तविकता के बिना। गुरु, मुनि, और मिथिला के बिना मेरे और आपके बीच की यह बात सच नहीं हो सकती। मेरा सबसे बड़ा पुरुषार्थ है आपका स्वार्थ, आप धर्म के परमार्थ में उत्तम हो। पिता और भाई, लोक और वेदों में भलाई है। गुरु, पिता, माता, और स्वामी, आप यह सिखाते हैं कि हमें चलना चाहिए, लेकिन पद छोड़ना नहीं चाहिए। इस तरह सभी सोच को विचार करके समझाओ, और आपकी सेवा करते हुए बिताओ अवधि को। देश, क्षेत्र, परिजन और परिवार, गुरु के पादों में जाकर ठहरें। आप मुनि, माता, सचिव और शिक्षक के रूप में माने जाते हैं, और इससे लोगों को राजधानी में सुखी रहने की शिक्षा मिलती है।"
दोहा
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक,
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ||३१५ ||
इस दोहे में कहा गया है कि हमें हर व्यक्ति की संतान से उसके चेहरे की तरह खान-पान और आदतें चाहिए। वह व्यक्ति हो कोई भी, हमें उसके साथीत्व को अपनाना चाहिए और उसका संगठन करना चाहिए, सभी अंगों को उसके साथ संतुलित रूप से रखना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे तुलसी के पौधे को संतुलित रूप से देखभाल करना चाहिए। इस दोहे में सामाजिक साझेदारी, देखभाल, और संगठन की महत्ता को जोर दिया गया है।
चौपाई 
राजधरम सरबसु एतनोई, जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ||
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती, बिनु अधार मन तोषु न साँती ||
भरत सील गुर सचिव समाजू, सकुच सनेह बिबस रघुराजू ||
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं, सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ||
चरनपीठ करुनानिधान के, जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ||
संपुट भरत सनेह रतन के, आखर जुग जुन जीव जतन के ||
कुल कपाट कर कुसल करम के, बिमल नयन सेवा सुधरम के ||
भरत मुदित अवलंब लहे तें, अस सुख जस सिय रामु रहे तें ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"राजधर्म को सबको समझाया, जैसे मन में मनोरथ आते हैं। बंधुओं को बहुत तरीकों से समझाया, लेकिन बिना आधार के मन को संतुष्टि नहीं मिलती। भरत ने सील, गुरु, सचिव, और समाज की सेवा की, और रघुवंशी राजा के प्रति सम्मोहित स्नेह को देखा। प्रभु ने भरत को अपनी कृपा दी, और भरत ने आदरपूर्वक सिर झुकाया। चरणों का संबंध करुणा सागर से है, जो जन-जाति के प्राण के लिए है। भरत के स्नेह का संग्रह रत्नों के समान है, जो युगों-युगों तक जीवन का संजीवनी है। वंश के कपाट और कुसंस्कार के बावजूद, उन्होंने बेहद निष्कपट दृष्टि, सेवा और सुधार की सेवा की। भरत जो राम-सीता के समान सुख प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार वह सुख अनुभव करते हैं।"
दोहा
मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ,
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ||३१६ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब भरत ने रामचन्द्र जी से विदाई के लिए प्रार्थना की, तो उन्होंने अपने मन को राम के प्रति समर्पित कर दिया। लोग तो अमरपति की तरह विचार करते हैं, लेकिन भरत ने उनके निर्णय में कुछ कुअवसर या अवसर नहीं छोड़ा, जो किसी तरह का कुटिलता या छल का मार्ग नहीं चुना। यह दोहा बताता है कि भरत ने अपने प्रेम और समर्पण में किसी भी प्रकार के छल-कपट से दूरी बनाए रखी।

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