रामचरितमानस अयोध्या कांड 257-266 इक्कीसवाँ विश्राम अर्थ सहित

रामचरितमानस अयोध्या कांड 257-266 इक्कीसवाँ विश्राम अर्थ सहित Ramcharitmanas Ayodhya scandal 257-266 twenty-first rest arth sahit

चौपाई 
भरत बचन सुनि देखि सनेहू, सभा सहित मुनि भए बिदेहू ||
भरत महा महिमा जलरासी, मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी ||
गा चह पार जतनु हियँ हेरा, पावति नाव न बोहितु बेरा ||
औरु करिहि को भरत बड़ाई, सरसी सीपि कि सिंधु समाई ||
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए, सहित समाज राम पहिँ आए ||
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु, बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ||
बोले मुनिबरु बचन बिचारी, देस काल अवसर अनुहारी ||
सुनहु राम सरबग्य सुजाना, धरम नीति गुन ग्यान निधाना ||
यहाँ दिए गए चौपाई का अर्थ इस प्रकार है:
"भरत ने भगवान राम के बचन सुनकर और प्रेम को देखकर सभी संगतियों के साथ मुनिराज के अपने देह त्याग दिए। भरत की महिमा जलराशि की तरह महान थी, उनके मन की बुद्धि तीर की तरह मजबूत थी।
वह तीर के जैसे दूसरे किनारे तक जाकर हृदय को ही देखता है, लेकिन नाव को बाहर तक नहीं बाहर निकालता। और कोई भी भरत की महिमा की बड़ाई करने की कोशिश करे, वह बिना निर्मल नदी के बिना सिंधु में व्याप्त नहीं होता।
भरत को मुनिराज ने भीतर से राम की अभिलाषा को महसूस करने का अवसर दिया, और समाज के साथ राम के पास ले आया। प्रभु को प्रणाम करके सभी मुनियों को अनुसारित करते हुए सभी ने उनकी सलाह सुनी।
मुनिराजों ने राम को यह बताया कि वे सभी ज्ञान के निधान हैं, सब धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के मालिक हैं।"
दोहा
सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ,
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ||२५७ ||
इसका अर्थ है:
"सभी के हृदय में छिपे हुए भावों को समझो, जो सच्चे और नेक हों। परिवार और माता-पिता के हित में होने वाली बात को ही उदाहरण मानकर कहो।"
इस दोहे में व्यक्ति सभी के हृदय में छिपे भावों को समझने की प्रेरणा दे रहा है, और यह सिखाता है कि सच्चे और नेक भाव को ही मानकर उपयोग करें, विशेषकर परिवार और माता-पिता के हित में।
चौपाई 
आरत कहहिं बिचारि न काऊ, सूझ जूआरिहि आपन दाऊ ||
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ, नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ||
सब कर हित रुख राउरि राखेँ, आयसु किएँ मुदित फुर भाषें ||
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई, माथेँ मानि करौ सिख सोई ||
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ, सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ ||
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा, भरत सनेहँ बिचारु न राखा ||
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी, भरत भगति बस भइ मति मोरी ||
मोरेँ जान भरत रुचि राखि, जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ||
यह चौपाई भगवान राम और उनके भक्त भरत के बीच हुई बातचीत का वर्णन करती है।
आरत कहने में भरत ने कहा, "मैं तुम्हारे निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करूंगा, मैं अपने विचारों को समझकर ही निर्णय करूंगा।" राम ने मुनियों के उपदेश को सुनकर कहा, "हे रघुराज, मैं तुम्हारे हाथों में हूँ।" भरत ने कहा, "सब बातों को हित में रखकर काम करना चाहिए, इस प्रकार की बातों को लेकर मैं खुशी से नहीं फूलता।" राम ने कहा, "मैं पहले वही कहूँगा जो मेरे मन में है, फिर उसे मानकर करूंगा।" फिर जो भी गोस्वामी ने कहा, वह सब प्रकार से सेवा की जानी चाहिए। मुनि ने कहा, "हे राम, तुम सच्चे हो। भरत कोई प्रेम नहीं रखता, उसने सिर्फ तुम्हारी पूजा की है।" तब भरत ने कहा, "मैं फिर भी कहता हूँ, मेरा प्रेम तुम्हारे लिए बस भक्ति में ही है।" मैंने जो भरत की इच्छा रखी है, वही करने में मेरी मानसिकता है।" भरत ने भगवान राम की प्रीति रखी है, जो कुछ भी करता है, वह साधुता के साथ है।
दोहा
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि,
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ||२५८ ||
इसका अर्थ है:
"भरत ने विनयपूर्वक सुना और सोचा, फिर उन्होंने साधुमत (साधुओं की सलाह) को अपना लोकमत (जनता का मत) स्वीकार किया। उन्होंने नृपनय (राजा के नियमों) और निगम (शास्त्रों) को पालन किया।"
इस दोहे में व्यक्ति की भरत से नीति और शास्त्रों का सम्बंध है। भरत ने सभी के सुझावों को विनम्रता से सुना, सोचा, और फिर साधुमत को अपना लोकमत स्वीकार किया, जिसमें नृपनय और निगम का पालन किया गया।
चौपाई 
गुरु अनुराग भरत पर देखी, राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी ||
भरतहि धरम धुरंधर जानी, निज सेवक तन मानस बानी ||
बोले गुर आयस अनुकूला, बचन मंजु मृदु मंगलमूला ||
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई, भयउ न भुअन भरत सम भाई ||
जे गुर पद अंबुज अनुरागी, ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ||
राउर जा पर अस अनुरागू, को कहि सकइ भरत कर भागू ||
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई, करत बदन पर भरत बड़ाई ||
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई, अस कहि राम रहे अरगाई ||
चौपाई कविता में वर्णित अर्थ हैं: "गुरु ने भरत को देखकर उनके हृदय में राम का आनंद देखा, जो विशेष था। गुरु ने कहा कि भरत धर्म को धुरंधर मानते हैं, अपने सेवक को अपने तन और मन से समर्पित करते हैं। गुरु ने अनुकूल वचनों में भाषण किया, जो मंजुल और मंगलमय था। उन्होंने कहा कि भरत ने अपने पिता के चरणों का वचन ग्रहण किया है, और वह भयभीत नहीं है, उन्हें भाई समझते हैं। जो लोग गुरु के पद के अनुरागी होते हैं, वे लोग इस संसार में बहुत भाग्यशाली होते हैं। क्या कोई कह सकता है कि भरत के प्रति जो अनुराग था, उसका मापा कौन कर सकता है? भरत के लघु बंधुओं ने उसकी बुद्धि की प्रशंसा की, और उन्होंने उसकी महानता को स्वीकार किया। राम ने कहा कि भरत ने क्या भलाई की है, और वह ऐसा कहते समय राम के दूर रहते हैं।"
दोहा
तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात,
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ||२५९ ||
इसका अर्थ है:
"तब मुनि बोले, 'भरत! सभी संकोचों को छोड़कर अपने पिता के संसार को छोड़ दो। भगवान राम, जो कृपासिंधु हैं, उन्हें प्रिय बंधु के रूप में हृदय से बताओ।'"
इस दोहे में भरत को समझाया गया है कि वह सभी संकोचों को छोड़कर अपने पिता के संसार को त्याग दे और भगवान राम को अपने प्रिय बंधु के रूप में हृदय से स्वीकार करें।
चौपाई 
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई, गुरु साहिब अनुकूल अघाई ||
लखि अपने सिर सबु छरु भारू, कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ||
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें, नीरज नयन नेह जल बाढ़ें ||
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा, एहि तें अधिक कहौं मैं काहा,
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहु पर कोह न काऊ ||
मो पर कृपा सनेह बिसेषी, खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ||
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू, कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ||
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही, हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ||
ये चौपाई बताती हैं: "राम ने मुनियों के बचन सुने और गुरु की प्रेरणा को पाकर अपने रूप को बदल लिया। उन्होंने अपने सिर पर सभी बोझ को हटा दिया और कुछ नहीं कर पा रहे थे। उनके शरीर में ठंडक से झूल गई, और उनके नीरज नयनों से प्यारी मेंह बह गई। राम ने मुनिनाथ से कहा, 'मैं अपने प्रभु राम को जानता हूँ, मैं अपने अपराधों का बयान नहीं कर सकता। मेरे पर उनकी विशेष कृपा और प्रेम है, मैंने उन्हें कभी क्रूरता नहीं देखी। मैं वास्तविक रूप से प्रभु की कृपा का रस्ता जानता हूँ, वह मुझे हारने या जीतने में हराते हैं।'"
दोहा
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन,
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ||२६० ||
इसका अर्थ है:
"मैं सच्चे प्रेम को संकोच नहीं करता, सीता के चेहरे को छोड़कर कहीं भी नहीं बैठता। लेकिन वहां भी दर्शन के बाद मेरी प्रेम की प्यास बढ़ जाती है, क्योंकि मेरी आंखों की प्यास केवल दर्शन से नहीं मिटती।"
इस दोहे में व्यक्ति कह रहा है कि वह प्रेम को संकोच नहीं करता है और सीता के चेहरे के अलावा कहीं भी बैठने को तैयार नहीं है। लेकिन फिर भी उसकी प्रेम की प्यास बढ़ती है, क्योंकि उसकी आंखों की प्यास सिर्फ दर्शन से ही नहीं मिटती।
चौपाई 
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा, नीच बीचु जननी मिस पारा,
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा, अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ||
मातु मंदि मैं साधु सुचाली, उर अस आनत कोटि कुचाली ||
फरइ कि कोदव बालि सुसाली, मुकुता प्रसव कि संबुक काली ||
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू, मोर अभाग उदधि अवगाहू ||
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू, जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ||
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा, एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ||
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू, लागत मोहि नीक परिनामू ||
इस चौपाई का अर्थ है: "विधि मुझे मेरे प्रियतम को सही नहीं करने देती, माँ मिस्री जननी ने मुझे नीचा और बीच में तुमको स्थान दिया है। मैं आज भी कहता हूँ कि मेरी सोभा नहीं है, अपने को समझकर साधुता को कैसे भावनी करूँ। माँ ने मुझे अच्छे समझाने की कोशिश की है, मेरा ह्रदय तो बहुत कुचला गया है। क्या करूँ, कौन सलाह देगा, मेरा अभाग्य मुझे नहीं समझता, मैं अपने पापों को समझकर तो समाप्त होना चाहिए, लेकिन मैं नहीं समझता। बिना समझे अपने पापों का परिणाम भोग रहा हूँ, माँ को कहूँ जाऊं कैसे? मेरे हृदय में भ्रमण करके मैं सब जगह हार रहा हूँ, सब ठीक होने के बावजूद। गुरु और सीता-राम नाम का अच्छा परिणाम मुझे मिले, मुझे अच्छा परिणाम प्राप्त होता है।"
दोहा
साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ,
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ||२६१ ||
इसका अर्थ है:
"साधु संगति, गुरु, और प्रभु के निकट मैं कहता हूँ कि सच्चा प्रेम स्थायी होता है, और प्रेम प्राप्ति के लिए जो सांसारिक बातें की जाती हैं, वे मुनि रघुनाथ (राम) के लिए मिथ्या होती हैं।"
इस दोहे में बताया गया है कि साधु संगति, गुरु और प्रभु के साथ सच्चा प्रेम और भक्ति होती है, जबकि सांसारिक प्रेम प्राप्ति के लिए जो बातें की जाती हैं, वे मायावी होती हैं।
चौपाई 
भूपति मरन पेम पनु राखी, जननी कुमति जगतु सबु साखी ||
देखि न जाहि बिकल महतारी, जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ||
महीं सकल अनरथ कर मूला, सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ||
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा, करि मुनि बेष लखन सिय साथा ||
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ, संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ||
बहुरि निहार निषाद सनेहू, कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ||
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई, जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ||
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी, तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ||
यह चौपाई का अर्थ है: "राजा मरने से पहले प्रेम को बनाए रखते हैं, माँ साक्षी हैं जगत की सभी दुर्भावनाओं की। जब मनुष्य दुःख और संकट में फंसते हैं, तो वह दुसरों को देखते हैं, पुरुष और स्त्री समान रूप से। सभी अनर्थों का मूल है मन, जब तक हम सुनें और समझें, सभी सूलों को सह सकते हैं। रघुनाथ (राम) ने बन (वनवास) में जाकर लखना के साथ मुनि के भेष में रहा। बिना भिखारी के पानी को पान किया, वहाँ रहने वाली स्त्री ने इसे साक्षी रखा। निशाद के प्रति बहुत प्रेम देखकर कुलिस के कठिन ह्रदय में भय नहीं हुआ। अब वह सब कुछ आँखों में देखते हैं, जीवित और मरा हुआ सब कुछ सहायक है। जो लोग साँप को देखकर भी उसके काटने को छोड़ते हैं, वे बिष को छोड़ते हैं, बिना उससे दूरी रखने के तामसिक भावना को।"
यह चौपाई का अर्थ है: "राजा मरने से पहले प्रेम को बनाए रखते हैं, माँ साक्षी हैं जगत की सभी दुर्भावनाओं की। जब मनुष्य दुःख और संकट में फंसते हैं, तो वह दुसरों को देखते हैं, पुरुष और स्त्री समान रूप से। सभी अनर्थों का मूल है मन, जब तक हम सुनें और समझें, सभी सूलों को सह सकते हैं। रघुनाथ (राम) ने बन (वनवास) में जाकर लखना के साथ मुनि के भेष में रहा। बिना भिखारी के पानी को पान किया, वहाँ रहने वाली स्त्री ने इसे साक्षी रखा। निशाद के प्रति बहुत प्रेम देखकर कुलिस के कठिन ह्रदय में भय नहीं हुआ। अब वह सब कुछ आँखों में देखते हैं, जीवित और मरा हुआ सब कुछ सहायक है। जो लोग साँप को देखकर भी उसके काटने को छोड़ते हैं, वे बिष को छोड़ते हैं, बिना उससे दूरी रखने के तामसिक भावना को।"
दोहा
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि,
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ||२६२ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"रघुकुल नंदन श्रीराम जी ने लखना जी को सीता जी से दूर जाने पर, उनके पुत्र कुश को छोड़कर दुख सहाना सिखाया है, जिससे दुसह का दुख भी सहन कर सकें॥ २६२॥"
इस दोहे में भगवान राम के पुत्र कुश का त्याग करने की दृष्टि से दुख सहने की महत्वपूर्णता को बताया गया है। यह भक्ति और त्याग के माध्यम से आत्मा की शुद्धि और आत्मगति की ओर प्रेरित करने वाला संदेश देता है।
चौपाई 
सुनि अति बिकल भरत बर बानी, आरति प्रीति बिनय नय सानी ||
सोक मगन सब सभाँ खभारू, मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू ||
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी, भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ||
बोले उचित बचन रघुनंदू, दिनकर कुल कैरव बन चंदू ||
तात जाँय जियँ करहु गलानी, ईस अधीन जीव गति जानी ||
तीनि काल तिभुअन मत मोरें, पुन्यसिलोक तात तर तोरे ||
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई, जाइ लोकु परलोकु नसाई ||
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई, जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ||
इस चौपाई का अर्थ है: "भरत ने अत्यंत बुद्धिमानी से सुना, जो प्रेम, विनय, और नई प्रेम की बात कहते थे। वह सभी लोगों की शोक सभा को देखकर खुश हो गए, उनका मन तुलसी के पत्तों की भाँति स्वच्छ हो गया। वे बहुत सी पुरानी कथाओं को सुनकर भरत ने मुनियों का ज्ञानपूर्ण उपदेश ग्रहण किया। रघुनंदन (राम) को उचित वचन बोलना चाहिए, जो दिनकर (सूर्य) रवि और चंद्रमा के समान हैं, वे भी वैसे ही बोलें। 'ताता, जो जीवन जीने के लिए जानते हैं, वे इस ईश्वर के अधीन होकर जीवन की गति को समझते हैं। तीनों कालों में भी तुम्हारा ध्यान नहीं करते, पुन्यलोक में तुम्हारे लिए राह है। तुम्हारे मन में जो कुटिलता है, वह तुम्हें इस लोक और परलोक में नष्ट कर देगी। जिनका शरीर और जीवन गुरु और साधुओं की संगति नहीं है, वे दोनों ही जड़ हैं।'"
दोहा
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार,
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ||२६३ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"आपके नाम की स्मृति से सभी पाप और अशुभ संसार का अब तक रहा हुआ भार मिट जाता है, और लोक और परलोक में सुख मिलता है॥ २६३॥"
इस दोहे में रामचरितमानस के संत तुलसीदास जी भगवान राम के नाम की महिमा को बयान कर रहे हैं। उनके अनुसार, भगवान राम के नाम की स्मृति से सभी पापों का बोझ हमारे ऊपर से हट जाता है और हमें लोक और परलोक में सुख प्राप्त होता है।
चौपाई 
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी, भरत भूमि रह राउरि राखी ||
तात कुतरक करहु जनि जाएँ, बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ ||
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं, बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ||
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना, मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ||
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें, करौं काह असमंजस जीकें ||
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी, तनु परिहरेउ पेम पन लागी ||
तासु बचन मेटत मन सोचू, तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ||
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा, अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"मैं सच्चाई और शिव की साक्षी के रूप में कहता हूँ, भरत को धरती पर ही रहने के लिए राजा बनाया गया है। ताता, जो झूठ बोलता है और जानता है कि जाने जाएंगे, उसका बैर और प्रेम किसी को नहीं दुराएंगे। मुनियों की गिनती में निकट होकर बिहारी और मृगों को देखता है, परन्तु वह बाधाओं को बढ़ाता है और उन्हें पराही जाती है। हित और अनहित को जानने वाला पशु और पक्षी जानता है, मानव तन में गुण और ज्ञान का खजाना है। ताता, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे विचार सही हैं, तो मैं क्यों संकोच करूँ? राजा ने मुझसे सत्य की राय दी है, जिससे मैंने प्रेम को छोड़ दिया है और तन को त्यागा है। उनके वचनों को समझकर मैं उसकी ओर अधिक ध्यान देने लगा। इसलिए गुरु ने मुझे दया में दीन कर दिया है, जैसा की तुम कहो, वही किया जाए।"
दोहा
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु,
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ||२६४ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"अपने मन को प्रसन्न करके स्वार्थ को त्यागो और कहो, 'आज मैं ऐसा करूँगा।' सत्यसंध और रघुकुलनायक रामचंद्रजी के वचनों को सुनकर समाज सुखी होगा॥२६४॥"
इस दोहे में संत तुलसीदास जी ने मन को संतुष्ट रखने, स्वार्थ को त्यागने, सत्य की पथप्रदता को मानने, और रघुकुलनायक भगवान राम के वचनों का पालन करने का सुझाव दिया है। इससे समाज में सुख बना रहता है।
चौपाई 
सुर गन सहित सभय सुरराजू, सोचहिं चाहत होन अकाजू ||
बनत उपाउ करत कछु नाहीं, राम सरन सब गे मन माहीं ||
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं, रघुपति भगत भगति बस अहहीं,
सुधि करि अंबरीष दुरबासा, भे सुर सुरपति निपट निरासा ||
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा, नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ||
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा, अब सुर काज भरत के हाथा ||
आन उपाउ न देखिअ देवा, मानत रामु सुसेवक सेवा ||
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि, निज गुन सील राम बस करतहि ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सुरों के संग सुरराज भरत और उनके साथी सोचते हैं कि कोई कार्य करना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने कोई उपाय नहीं बनाया, सिर्फ राम के चरणों में समर्पित किया है। बहुत सोचने-समझने के बाद एक-दूसरे से कहा, 'रघुपति के भक्तों की भक्ति ही सबसे बड़ी है।' अंबरीष ने दुर्वासा को समझाया, उन्हें सुरों के राजा ने निराश कर दिया। सुरों ने बहुत काल तक विषाद किया, लेकिन नरहरि ने प्रहलाद को प्रकट किया। हर जगह जाकर वे दोनों ने कहा, 'अब सुरों के कार्य भरत के हाथों में हैं।' देवताओं ने आकर उनके कार्यों को देखा, और उन्होंने राम की सेवा को ही माना। भरत के हृदय में सब कुछ से अधिक प्रेम रखो, और राम की गुणों और सेवा को ही बसाओ।"
दोहा
सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु,
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ||२६५ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"सुनो, देवताओं के गुरुदेव कहलाने वाले, तुम्हारा बड़ा भाग है, क्योंकि तुम्हारे पैरों में लगी भक्ति से सम्पूर्ण सुमंगल हैं, और तुम्हारे चरणों में समर्पित है सम्पूर्ण जगत की मूल भूत सुमंगल। || २६५ ||"
इस दोहे में संत तुलसीदास जी देवताओं के गुरु बृहस्पति की महिमा को बयान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उनका समर्पण और भक्ति से सम्पूर्ण जगत में सुमंगल हुई है।
चौपाई 
सीतापति सेवक सेवकाई, कामधेनु सय सरिस सुहाई ||
भरत भगति तुम्हरें मन आई, तजहु सोचु बिधि बात बनाई ||
देखु देवपति भरत प्रभाऊ, सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ ||
मन थिर करहु देव डरु नाहीं, भरतहि जानि राम परिछाहीं ||
सुनो सुरगुर सुर संमत सोचू, अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ||
निज सिर भारु भरत जियँ जाना, करत कोटि बिधि उर अनुमाना ||
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका, राम रजायस आपन नीका ||
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा, छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ||
इसका अर्थ है:
"सीतापति राम जी सभी सेवकों की सेवा करते हैं, जैसे कामधेनु से सर्वत्र सुखप्रद दूध मिलता है।
भरत! तेरी भक्ति मुझे बहुत प्रिय है, इसलिए तू भ्रमना और विचारना छोड़ दे।
देवताओं के पति श्रीराम भरत को देखकर स्वयं ही प्रसन्न होते हैं, वे सीताजी के अत्यन्त प्रिय हैं।
मन को स्थिर रखो, ओ भरत! डरो मत। भरत, तू जानता है कि राम बहुत दयालु हैं।
सूर्य, चंद्रमा और देवताओं की समान सोचो, परमात्मा सबको देखते हैं।
भरत! तू अपने मस्तक पर अधिकार को त्यागकर सिर्फ मुझे ही जान, और अनेक प्रकार से अपने हृदय का अनुमान न कर।
मन को विचार से नियंत्रित करके, तू राम को राज्य कराने में तत्पर हो जा।
मैं अपना व्यक्तिगत सुख छोड़कर तुझे समर्पित कर दूंगा, मेरा स्नेह बिल्कुल कम नहीं होगा।"
यह चौपाई भक्ति और सेवा के भाव को उभारता है और भरत को रामचन्द्र जी की सेवा के लिए समर्पित होने का संदेश देता है।
दोहा
कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ,
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ||२६६ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"सीता नाथ, जिन्होंने अपने अमित अनुग्रह से सभी प्रकार के कारणों को किया है, भरत ने जल में उत्पन्न जलज के समान अपने हाथों को जोड़कर प्रणाम किया है॥ २६६ ||"
इस दोहे में भरत भगवान राम के पूर्वाग्रह की महिमा को बयान कर रहे हैं और उनके अनुग्रह से सभी प्रकार के कारणों को दूर किया गया है। भरत ने अपनी भक्ति और श्रद्धा के साथ प्रणाम किया है, जैसा कि जलज (कमल) जल में बढ़ने पर अपने हाथों को जोड़ता है।

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