पत्नी की विश्वासपूर्ण भक्ति faithful devotion to wife
यह श्लोक गोस्वामी तुलसीदास जी की 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें एक साधु की भक्ति और उसकी पत्नी के बीच हो रही बात है। साधु अपनी पत्नी से भगवान शिव की पूजा के लिए अकेले जाना चाहते हैं, लेकिन पत्नी किसी भी स्त्री को विवाह के बिना अकेली नहीं देखना चाहती हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उनकी सतीत्व और निष्काम भक्ति श्रीराम को ही समर्पित है। इस श्लोक में प्रेम और विश्वास की मिशाल दी गई है।कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥423
कहि - कहा
अस - वैसा
ब्रह्मभवन - ब्रह्म का घर
मुनि - साधु
गयऊ - गया
आगिल - पहले
चरित - कहानी
सुनहु - सुनो
जस - जैसे
भयऊ - डरा
पतिहि - पति
एकांत - अकेलापन
पाइ - पाकर
कह - कह
मैना - मैंने
नाथ - प्रभु
न - नहीं
मैं - मैं
समुझे - समझा
मुनि - साधु
बैना - बैठा
इस दोहे में कहा गया है कि साधु ने एकान्त में ब्रह्म के घर जाकर पूर्व की कहानी सुनी। पति (भगवान) ने मुझे एकांत में बैठा देखा, मैंने समझा कि यह साधु ही हैं।
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥424
जौं - जब
घरु - घर
बरु - पुरुष
कुलु - वंश
होइ - होता है
अनूपा - अद्वितीय
करिअ - करता है
बिबाहु - विवाह
सुता - पुत्री
अनुरुपा - समान
न - नहीं
त - तो
कन्या - कन्या
बरु - पुरुष
रहउ - रहना
कुआरी - कुआरी, अविवाहित
कंत - पति
उमा - पार्वती
मम - मेरा
प्राणपिआरी - प्राणों के प्यारे
इस दोहे में कहा गया है कि जब पुरुष घर में अद्वितीय वंश का होता है, तो वह अपनी समान कुलवंशी स्त्री को ही विवाह के लिए चुनता है। मेरे लिए पति उमा (पार्वती) ही मेरे प्राणों के प्यारे हैं।
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥425
जौं - जब
न - नहीं
मिलहि - मिलता है
बरु - पुरुष
गिरिजहि - भगवान शिव
जोगू - तपस्वी
गिरि - पहाड़
जड़ - साधारण, बेजड़
सहज - स्वाभाविक
कहिहि - कहते हैं
सबु - सभी
लोगू - लोग
सोइ - वही
बिचारि - विचार करके
पति - पति
करेहु - करें
बिबाहू - विवाह
जेहिं - जिसमें
न - नहीं
बहोरि - वापिस
होइ - होता है
उर - हृदय
दाहू - प्यास
इस चौपाइयों में कहा गया है कि जब भगवान शिव जैसे तपस्वी पहाड़ों में साधारण और स्वाभाविक हैं, तो सभी लोग उन्हें उसी रूप में पहचानते हैं। इसलिए, पति को विचार करके विवाह करना चाहिए, जिससे हृदय की प्यास न बढ़े।
अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥426
"अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥"
"अस" - इस प्रकार से
"कहि" - बोलते हैं
"परी" - भगवान शिव की पत्नी, पार्वती
"चरन" - पाद
"धरि" - धारण करके
"सीसा" - सिर
अर्थात, पार्वती बोलती हैं, लेकिन उनके बोलने के साथ ही उनके पादों का सम्मान करती हैं।
"बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥"
"बरु" - फिर भी
"पावक" - अग्नि
"प्रगटै" - प्रकट होती है
"ससि माहीं" - समुद्र में
"नारद" - संत नारद
"बचनु" - बोले
"अन्यथा" - अन्य रूप में
"नाहीं" - नहीं
इसका अर्थ है कि भगवान शिव की पत्नी, पार्वती, अपने पादों का सम्मान करती हैं, जो कि समुद्र में जाते हैं। इस वाक्य का उद्देश्य संत नारद के बोलने का महत्व है, जो सत्य होता है।
प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥ 427
"प्रिया, तुम सोचो और सभी चिंताओं को छोड़ो, श्रीभगवान की स्मृति में लग जाओ।
जैसे पार्वती ने भगवान की उपासना करके निर्मल हो गई है, वैसे ही तुम भी कल्याण (मंगल) को प्राप्त करो।"
यह श्लोक भक्ति, ध्यान, और समर्पण के माध्यम से दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है और श्रीभगवान की स्मृति में रहकर आत्मा की शुद्धि और कल्याण की प्राप्ति को सुझाता है।
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