मतभेद शिव-पार्वती Shiva-Parvati differences
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥ 408
सुनि - सुनकर
मुनि - संत, महात्मा
गिरा - बोले
सत्य - सच
जियँ - जो लोग
जानी - जानते हैं
दुख - दुःख
दंपतिहि - पति-पत्नी
उमा - पार्वती
हर्षानी - खुशी देती हैं
नारदहुँ - संत नारद
यह - यह
भेदु - भेद, रहस्य
न जाना - नहीं जानते
दसा - दस्ता
एक - एक
समुझब - समझते
बिलगाना - अलग-अलग
इस दोहे में कहा गया है कि संत जानते हैं कि पति-पत्नी के बीच का सच क्या होता है, जिससे पार्वती खुश होती हैं, लेकिन संत नारद इस भेद को नहीं जानते और वे एक ही रूप में सभी को समझते हैं।
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥409
सकल - सभी
सखीं - सखियों
गिरिजा - पार्वती
गिरि - हिमालय पर्वत
मैना - माना
पुलक - अवगुण की वजह से शरीर में उठती हुई
सरीर - शरीर
भरे - भरा
जल - आंसू
नैना - आंखें
होइ - होते
न - नहीं
मृषा - झूठी
देवरिषि - देवता और ऋषि
भाषा - बोली
उमा - पार्वती
सो - वह
बचनु - वचन, बोली
हृदयँ - हृदय
धरि - रखकर
राखा - रखती
इस दोहे में कहा गया है कि पार्वती ने हिमालय पर्वत को माना, उसके शरीर में अवगुण की वजह से उठी हुई शरीर भरे आंसू से भरे हैं, लेकिन वह झूठी देवता और ऋषियों की भाषा नहीं बोलती है, और उसने उन वचनों को अपने हृदय में धारण किया।
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥410
उपजेउ - उत्पन्न होता है
सिव पद - शिव के पाद
कमल - कमल (प्रेम)
सनेहू - प्रेम
मिलन - मिलन
कठिन - कठिन
मन - मन
भा - चाह
संदेहू - संदेह
जानि - जानकर
कुअवसरु - सही अवसर
प्रीति - प्रेम
दुराई - दूर करता है
सखी - सखी
उछँग - उठकर
बैठी - बैठी हुई
पुनि - फिर
जाई - जाती है
इस दोहे में कहा गया है कि शिव के पाद का प्रेम उत्पन्न होता है, लेकिन मिलन कठिन होता है और मन में चाह भी संदेह करती है। सखी को पता होता है कि सही अवसर पर प्रेम दूर किया जा सकता है, इसलिए वह उठकर बैठी हुई फिर जाती है।
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥411
झूठि - झूठी
न होइ - नहीं होती
देवरिषि - देवता और ऋषि
बानी - बोली
सोचहि - सोचते हैं
दंपति - पति-पत्नी
सखीं - सखियों
सयानी - बुद्धिमान
उर - ह्रदय
धरि - धारण करके
धीर - स्थिरता से
कहइ - कहते हैं
गिरिराऊ - हे गिरिराज (शिव)
कहहु - कहो
नाथ - प्रभु
का - किसका
करिअ - करें
उपाऊ - उपाय
इस दोहे में कहा गया है कि देवता और ऋषि की बोली कभी झूठी नहीं होती है, इसलिए पति-पत्नी और सखियों को बुद्धिमान रूप से सोचना चाहिए। ह्रदय में स्थिरता से धारण करके गिरिराज (शिव) से पूछें कि प्रभु के उपाय क्या हैं।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥412
"मुनियों ने कहा, हे हिमाद्रि (हिमालय के पुत्र)! जो भी विधि लिखा गया है, उसे ना तो देवता हर सकते हैं, ना नर, ना नाग, और ना ही मुनि।"
यह श्लोक भगवान की अद्वितीयता और उनके विधिहीन से परे होने की महत्ता को बताता है। इसमें उच्चता, निर्दोषता, और अनन्यता की भावना है, जिससे दिखता है कि भगवान की शक्ति और अधिकार सर्वश्रेष्ठ हैं और किसी भी योनि, जाति, या प्रकार को नहीं मिटा सकते हैं।
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