मासपारायण उन्नीसवाँ विश्राम अयोध्याकाण्ड

मासपारायण उन्नीसवाँ विश्राम अयोध्याकाण्ड  Massparayan nineteenth rest Ayodhya incident

उन्नीसवाँ विश्राम 194-200

चौपाई
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई।।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।
चौपाई का अर्थ:
"जब भरत ने उससे मिला, तो वह उससे बहुत प्रेम से मिला। लोग उसकी प्रेम की रीति को देखकर आश्चर्यचकित हो गए।
धन्य हैं वह मंगलमय मूल हैं। सब सुर उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके समर्थन में फूल बरसाते हैं।
लोग उसे नीचा मानते हैं, पर उसकी छाँह में लेकर जाते हैं।
वह अपने अंकों को राम के लघु भ्राता के लिए भर देता है, जिससे वह पुलकित होकर गाता है।
जो भी लोग 'राम राम' कहकर मरते हैं, उनके पाप समुहाँ जाते हैं।
यह राम ने उसे अपने हृदय में लिया, जिससे वह पुरे जगत को पवित्र किया।
करमनास जल की तरह समर्थन प्राप्त करने पर उसे सिर नहीं झुकाना चाहिए।
जो उल्टे नाम से भगवान राम का जप करते हैं, उन्हें बाल्मीकि जैसा ब्रह्मा समान बन जाना चाहिए।"
दोहा-
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात।।194।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"सभी मनुष्य एक समान हैं, चाहे वे स्वपच हों, सबर हों, या जमन जड़ी हों। राम कहते हैं कि पवित्रता में ही परमात्मा होता है, जिससे सारा जगत प्रसिद्ध होता है।"
इस दोहे में, कबीर जी समाज में अनेक वर्गों के लोगों को समर्थन कर रहे हैं और बता रहे हैं कि सभी मनुष्य समान होते हैं। वे कह रहे हैं कि परमात्मा उन सभी को स्वीकार करता है जो उसकी भक्ति में लगे हैं, चाहे वे किसी भी वर्ग से क्यों ना हों।
चौपाई
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।
चौपाई का अर्थ:
"जगत में यह बात हमेशा रही है कि रघुवीर राम का महिमा बड़ी है, जो कभी भी किसी को कुछ नहीं देते हैं।
राम के नाम की महिमा को सुरों ने कहा है, और अवध वासियों ने सुनकर सुख प्राप्त किया है।
राम के मित्र से मिलकर भरत बहुत प्रेम से पूछता है, सुखमय और मंगलमय जीवन के समाचारों को।
भरत ने देखकर उससे प्रेम और सील से भरा हुआ था, इसलिए निषाद ने उसके समय को बिताया।
वह सुकूमर प्रेम से भरत के बारे में सोचता रहा।
वह प्रेम से अपने हाथों को झुकाकर धीरज से उसके पैरों को छूने लगा।
उसने राम के प्रसन्न पादरज पंकज को देखा, मैंने उसकी सबसे कुशलता को देखा।
अब प्रभु श्रीराम, तुम्हारा अति अनुग्रह करें, और मेरे समस्त कुल को भी मंगलमय बनाएं।"
दोहा-
समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"मेरी नींव को समझकर, हे प्रभु, जो भी मेरी अनुग्रह में कुछ करता है, वह सब तेरी महिमा को जानता है। जो रघुबीर (राम) की पूजा नहीं करता, वह जगत में बिना रास्ता के है।"
इस दोहे में, कबीर जी अपने कर्मों को समझते हैं और वह सभी कर्म ईश्वर की पूजा के रूप में करते हैं। उन्हें यह ज्ञान होता है कि भगवान का आदर्श कर्म में ही होता है और जो भी इसे समझता है, वह ईश्वर की महिमा को समझता है। दूसरी ओर, जो राम की पूजा नहीं करता, वह सच्चे मार्ग से विचलित है।
चौपाई
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं।।
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।।
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।।
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।
चौपाई का अर्थ:

"यह जो व्यक्ति कपटी, कायर और दुष्ट मति वाला होता है, वह सभी लोगों की दृष्टि से असभ्य होता है, वेदों की बाहरी शोभा तक उसे नहीं मिलती।
जब सीता जी ने जब भी राम के लिए स्वयं को समर्पित किया, तो उस समय दुनिया में भूषण के समान उसका आभूषण बना।
भरत की लगभग नाका सी चाहती है कि उन्हें राम से मिलना चाहिए, इसलिए वह अपने नाम को सभी के सामने समान रूप से प्रस्तुत करते हैं।
लक्ष्मण ने उन्हें अपनी आशीर्वाद दी, जिससे वह बहुत सुखी होंगे और उन्हें सौ लाख बार शुभकामनाएँ मिलेंगी।
निषाद ने नगर में जो भी मनुष्य और स्त्री हैं, वह बहुत सुखी थे क्योंकि वे लक्ष्मण को देख रहे थे।
उसने उनसे कहा, 'आपका जीवन बहुत अनमोल है, इसलिए जाकर रामभद्र (लक्ष्मण) के साथ मिलिये।'
निषाद ने अपनी बड़ी खुशी देखी, और बहुत प्रसन्न मन से चला लेने गया।"
दोहा-
सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ।।196।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"सभी सेवक संकल्प रखकर अपने स्वामी के लिए चले, जैसे रूख अपने पर्यायी को पाते हैं। घर-घर में तरू और तर बना होते हैं, उसी तरह सब लोग बाग और बास बनाते हैं और उसमें रहते हैं।"
इस दोहे में, कबीर जी सभी मनुष्यों को अपने स्वामी भगवान के सेवक बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि सभी को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भगवान की सेवा करनी चाहिए, ताकि सभी एक समृद्धि और संतुलन भरा जीवन जी सकें।
चौपाई
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।
चौपाई का अर्थ:
"जब भरत ने सृंगबेरपुर में पहुंच कर देखा, तब सभी उसके शरीर में स्नेह की सीढ़ियों में बहुत बदलाव हुआ था।
वह निषादों को देखते ही प्रसन्न हुए और उनसे आदर और प्रेम के साथ बातें की।
भरत ने ऐसे ही सेना के साथ सब के संग जाकर जग पावन गंगा को देखा।
रामघाट पर जाकर वह प्रणाम किया, और सीता और राम से मिलने के लिए उनका मन खोया।
नगर के लोगों ने भी उन्हें आदर और सम्मान से प्रेम और ब्रह्म स्वरूप के समान देखा।
उन्होंने प्रणाम करते हुए जल में जाकर भगवान रामचंद्र जी के पादों का सेवन किया।
भरत ने कहा, 'ब्रह्मर्षि, मैं आपके रहने की रेणु (छत्री) हूँ, मैंने सभी सुखद भक्तों की सेवा की है।
मैं यही मांगता हूँ कि मैं सीता और राम के पदों को सहज ही स्वीकार कर सकूँ।'"
दोहा-
एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"इसी प्रकार भरत ने अपने गुरु की शिक्षा को मानकर वहाँ अच्छे से स्नान किया। माता सीता ने सभी को नहाने के लिए बुलाया और सब वहाँ लवाने चले गए।"
इस दोहे में, कबीर जी भरत के उत्तरण के माध्यम से उनके भक्तिभाव को दर्शा रहे हैं। भरत ने अपने गुरु की शिक्षा का मान रखकर स्नान किया और इसी तरह सभी ने माता सीता के आदेश का पालन करते हुए स्नान के लिए चले गए। यह दिखाता है कि भक्ति में गुरु की शिक्षा को मानना और उसका अनुसरण करना कितना महत्वपूर्ण है।
चौपाई
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।
चौपाई का अर्थ:
"जहाँ जहाँ भरत ने डेरा लगाया, वहाँ-वहाँ लोगों ने उसकी अनुपस्थिति को देखा।
सभी ने भरत से पूछा और सबका उत्तर मिला।
भरत ने सेवा करते हुए अन्नदाता की स्थानीय सेवा से सफलता प्राप्त की।
उनकी माता को देखकर दोनों भाई राम और लक्ष्मण माता के पास गए।
वह हर जगह गया और अपने प्रेम से उनके चरणों को चूमता और मृदु बोलता था।
उन्होंने माता का सम्मान किया।
वह भाइयों को समर्पित करके माता की सेवा की।
उन्होंने निषादों से बोलकर स्वीकार किया।
उसके साथी भी सक्रिय थे और उन्होंने साथी को प्रोत्साहित किया।
वह सीता और राम को निसि में लेटे हुए देखाने को बात करते थे।
उनके बचन सुनकर भरत को दुःख हुआ, और वह तुरंत वहाँ निषादों के पास गया।"
दोहा-
जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"जहाँ सिंसुपा पुनीत है, वहां रघुबर ने विश्राम किया। भरत ने बहुत आदर के साथ बहुत सारे दंड-प्रणाम किए।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम और भरत के भक्ति भाव को स्तुति कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जहाँ एक स्थान पुनीत और शुद्ध होता है, वहां भगवान राम ने आराम किया। भरत ने भी अपने भाई के प्रति बहुत से आदर भाव से दंड-प्रणाम किए।
चौपाई
कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।।
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।।
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना।।
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू।।
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।
चौपाई का अर्थ:
"सीता ने बहुत सुन्दर दृश्य देखा। उन्होंने नमस्कार किया और सम्मान दिया।
उन्होंने चरणरेखा देखकर उनके चरणों की रेखाओं को देखा, लेकिन उन्होंने अधिक प्रीति की बात नहीं कही।
उन्होंने दो चार द्रव्यकण की बात की, और सीता की तरह उनका सिर नमस्ते किया।
उनकी आँखों में प्रेम भरा था, और उन्होंने अपने सखा से सुन्दर बातें की।
अपने पिता जनक ने देवी सीता को बहुत कुछ दिया, वह अमरावती के सभी भोगों को दिया।
सीता ने राम को देखा, जो प्राणों के नाथ और रघुकुल के श्रीमान हैं।
वही बड़ा होता है जो राम को बड़ाई देता है।"
दोहा-
पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।199।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"पति को देवता, सुत को स्त्री के समान मानना चाहिए, और सीता को साँथरी से देखना चाहिए। भरत का हृदय भी ऐसा नहीं हरा, जो उसके पास जाने में कठिन हो।"
इस दोहे में, कबीर जी परम्परागत भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि पति को देवता मानना चाहिए और सुत को स्त्री के समान मानना चाहिए। भरत का हृदय भी वैसा होना चाहिए जिससे वह अपने भाई राम के पास जाने में कठिनाई ना महसूस करें।
चौपाई
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने।।
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे।।
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता।।
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।।
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।।
चौपाई का अर्थ:
"जिस रूप ने लखन को पाला, उसी रूप का कोई भी अन्य भाई नहीं होता।
पुराने जन्मों में माता-पिता, पुरुषोत्तम राम और सीता, रघुकुल के प्राणप्रिय हैं।
वे बहुत ही सुंदर, छोटे और प्यारे हैं, लेकिन मेरी तात और बाउँ को उनसे कोई तात्त्विक सम्बंध नहीं है।
उन्होंने हर तरह की प्रतिस्पर्धा और बाधाओं का सामना किया।
राम का जन्म जगत में प्रकट हुआ, उनकी रूप से प्रीति, सुख और गुणों का सागर है।
परिजन, पुरोहित, पिता-माता - राम की प्रीति से सबको सुख मिलता है।
उन्होंने राम की महिमा की बड़ी प्रशंसा की, बिनय के साथ विचार में हर्षित हो गए।
करोड़ों कोटि साधु संत, जो ब्रह्म के गुणों का वर्णन करते हैं, उनके गुणों को गिनना भी प्रभु नहीं कर सकते।"
दोहा-
सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।200।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"रघुबंस में सुख का स्वरूप है, जिसमें मंगल और मोद का अद्भुत संग्रह है। वे भक्तिभाव से सोवते हैं और उन्हें कुस कहने वाली मोहनी देवी में ब्रज गति (व्रज की स्थिति) बहुत बलवान है।"
इस दोहे में, कबीर जी रघुकुल श्रीराम की महिमा को स्तुति कर रहे हैं और उनके भक्ति भाव को प्रमोद और आनंद से भरा बता रहे हैं। राम भक्ति में सोने के समान महकम और रचम रहे हैं, और उन्हें भक्ति की अद्भुत गति में कुस कही जाने वाली देवी में विशेष बल और शक्ति है।

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