मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम श्रीरामचरितमानस भावार्थ सहित

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम श्रीरामचरितमानस भावार्थ सहित Maasparayan, Selva Vishram with Shriramcharitmanas meaning

चौपाई -
गंग बचन सुनि मंगल मूला, मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ||
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू, सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ||१||
दीन बचन गुह कह कर जोरी, बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ||
नाथ साथ रहि पंथु देखाई, करि दिन चारि चरन सेवकाई ||२||
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई, परनकुटी मैं करबि सुहाई ||
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई, सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ||३||
सहज सनेह राम लखि तासु, संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ||
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे, करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ||४||
इस चौपाई में तुलसीदासजी वर्णन कर रहे हैं कि सीता जी ने गंगा के शुभ शब्दों को सुनकर खुश होकर सुरसरिता के बाहर आकर प्रसन्नता और आनंद में उल्लसित हो जाती हैं। तब श्रीराम ने गुह को कहा, "मैं घर जाऊंगा, तू सुना है मेरी बात, तुझे तुझे शांति मिलेगी।"
गुह ने दीन भाव से कहा, "मेरे बचन सुनो, तुम्हारे रघुकुल के मन में मेरी विनति को सुनो। नाथ के साथ रहकर मैंने पथ दिखाया, चार दिनों तक सेवा की। जैसे रघुराई बन जाते हैं, उसी प्रकार मैंने तुम्हारे पास अपनी परनकुटी में सुखाधिक किया। मुझे बताओ, वह शीघ्र जैसे राम ने देबी सीता को राजाई की, उसी तरह मैं भी रघुबीर को दोहाई करूंगा।"
यहाँ दर्शाया गया है कि गुह ने रामचंद्र जी को देवताओं के राजा समान सेवा की और विनम्र भाव से उनकी प्रार्थना की। बाद में वे सम्मानित होकर विदा हुए।
दोहा-
तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ,
सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ||१०४ ||
तब वे सब गणपति और शिवजी को स्मरण करते हुए प्रभु के समीप गए, सुरसरिता को माथे पर चढ़ाते हुए, अनुज और सीता सहित उन्होंने रघुनाथ (श्रीराम) के बन गवाना किया।
चौपाई -
तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू, लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ||
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई, तीरथराजु दीख प्रभु जाई ||१||
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी, माधव सरिस मीतु हितकारी ||
चारि पदारथ भरा भँडारु, पुन्य प्रदेस देस अति चारु ||२||
छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा, सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ||
सेन सकल तीरथ बर बीरा, कलुष अनीक दलन रनधीरा ||३||
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा, छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ||
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा, देखि होहिं दुख दारिद भंगा ||४||
तब उस दिन सब लोग उच्च कुटियों में बसे, लक्ष्मण और सभी सखा ने सब कुछ अच्छे से किया। प्रात: काल से ही श्रीराम ने तीर्थों का दर्शन किया।
सच्चे सच्चे सचिव, श्रद्धा और प्रिय नारी, माधव (श्रीकृष्ण) के साथ मीत होकर हित का कारण। वे चारों पदार्थों से भरा हुआ भंडार हैं, जो पुण्य क्षेत्रों को अत्यंत रमणीय बनाते हैं।
वह क्षेत्र अत्यंत सुन्दर और घना है, जो सपनों में भी प्रतिबिंबित नहीं हो सकता। वहाँ सभी संगमों के सिंहासनों में सुशोभित हैं, वे शत्रुओं को अज्ञात रखने वाले मुनि और मनुष्य को मोहित करते हैं। जहाँ यमुना और गंगा की लहरें हैं, उसे देखकर सभी दुख और दारिद्र्य दूर हो जाते हैं।
दोहा-
सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम,
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ||१०५ ||
साधु सेवा करने से सब लोग सुकृति को प्राप्त होते हैं और सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। बंदी, वेद और पुराण उनकी गुणों की महिमा गाते हैं।
चौपाई -
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ||
अस तीरथपति देखि सुहावा, सुख सागर रघुबर सुखु पावा ||१||
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई, श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ||
करि प्रनामु देखत बन बागा, कहत महातम अति अनुरागा ||२||
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी, सुमिरत सकल सुमंगल देनी ||
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा, पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ||३||
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए, करत दंडवत मुनि उर लाए ||
मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ, ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ||४||
इस चौपाई में तुलसीदासजी ने प्रयाग तीर्थ के महत्त्व का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि प्रयाग तीर्थ प्रभावशाली है, जिसे कोई भी मनुष्य देखकर सुख को प्राप्त कर सकता है। सीता, लक्ष्मण और सहकायों ने भी श्रीराम को इस तीर्थ की महिमा सुनाई थी। वे सभी वहाँ गई और तीर्थराज को प्रणाम किया, जिससे उनका मन प्रसन्न हुआ और उन्होंने सिवा की सेवा की और ध्यान किया। इस प्रकार तब भरद्वाज मुनि भगवान राम के पास आए और मुनि के मन में कोई भी दुःख नहीं था, बल्कि वह ब्रह्मानंद के समान था।
दोहा-
दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि,
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ||१०६ ||
इस दोहे में तुलसीदासजी कह रहे हैं कि जब मुनियों ने अपनी आशीर्वाद दी, तो उसे बहुत आनंद मिला। उन्होंने स्वयं को दीन और अनाथ समझकर, लोचन (आत्मा) के द्वारा सुकृत फल को मन में कैसे लाना है, उसका तरीका वह जानते थे।
चौपाई -
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे, पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ||
कंद मूल फल अंकुर नीके, दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ||१||
सीय लखन जन सहित सुहाए, अति रुचि राम मूल फल खाए ||
भए बिगतश्रम रामु सुखारे, भरव्दाज मृदु बचन उचारे ||२||
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू, आजु सुफल जप जोग बिरागू ||
सफल सकल सुभ साधन साजू, राम तुम्हहि अवलोकत आजू ||३||
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी, तुम्हारें दरस आस सब पूजी ||
अब करि कृपा देहु बर एहू, निज पद सरसिज सहज सनेहू ||४||
इस चौपाई में तुलसीदासजी भगवान राम की पूजा, प्रेम और भक्ति की महिमा का वर्णन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि सबसे अच्छा प्रश्न करके मुनियों ने उन्हें आसन दिया और पूजा करते हुए प्रेम से भर दिया। सीता, लक्ष्मण, और अन्य लोगों के साथ वहाँ जाकर राम का मूल फल (भगवान राम) बहुत रुचि से खाया।
तुलसीदासजी कहते हैं कि भरद्वाज मुनि ने भगवान राम के प्रति अपने श्रम का परिणाम सुखदायी पाया। वे कह रहे हैं कि तीर्थ और तप का सफलता मिलता है, परन्तु सबसे बड़ा सफलता भगवान राम को देखने में है। उन्हें देखने से सभी साधनाएं सफल होती हैं। इसलिए वे भगवान से अपने चरणों की भक्ति और साद्भावना की कृपा चाहते हैं।
दोहा-
करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार,
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ||
इस दोहे में तुलसीदासजी कह रहे हैं कि जब तक हम अपने कर्म, वचन और मन को तुम्हारे प्रति सच्चे और ईमानदारी से समर्पित नहीं करते, तब तक हमारे सपने सुखदायी नहीं होते। हजारों उपाय भी हमें सुख नहीं दे सकते, जब तक हम तुम्हारे प्रति छल न करें।
चौपाई -
सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने, भाव भगति आनंद अघाने ||
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा, कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ||१||
सो बड सो सब गुन गन गेहू, जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ||
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं, बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ||२||
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी, बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ||
भरद्वाज आश्रम सब आए, देखन दसरथ सुअन सुहाए ||३||
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू, मुदित भए लहि लोयन लाहू ||
देहिं असीस परम सुखु पाई, फिरे सराहत सुंदरताई ||४||
इस चौपाई में तुलसीदासजी भगवान राम की भक्ति और मुनियों के साथ व्यापार का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जब मुनियों ने राम के गुणों की महिमा सुनाई, तो वहाँ आनंद और भक्ति की भावना से भरा वातावरण बन गया।
तुलसीदासजी कहते हैं कि वे उन गुणों का गुणगान करते हैं, जो मुनियों ने भगवान राम के प्रति आदर करते हुए सीखे हैं। मुनियों और भगवान राम के बीच एक अनोखी संवाद-संवादना है, जिसमें अगोचर और अनुभवशील बातें होती हैं।
इस चौपाई में भगवान राम के प्रसाद से अनेक तपस्वियों और मुनियों ने प्रयाग में निवास किया। भरद्वाज मुनि के आश्रम में सबने दसरथ महाराज को देखकर अत्यंत प्रसन्नता महसूस की। सबने राम का प्रणाम किया और उनकी सुंदरता की प्रशंसा की। उन्होंने उनसे आशीर्वाद लिया और अत्यंत सुख प्राप्त किया।
दोहा-
राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ,
चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ||१०८ ||
राम ने रात्रि के बिना बिश्राम नहीं किया, और सुबह प्रयाग में नहाया। सीता और लक्ष्मण के साथ सभी जन उनके साथ गए और मुनियों ने उनके चरणों को शीघ्र नमस्कार किया।
चौपाई-
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं, नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ||
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं, सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ||१||
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए, सुनि मन मुदित पचासक आए ||
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा, सकल कहहि मगु दीख हमारा ||२||
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे, जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ||
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई, प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ||३||
ग्राम निकट जब निकसहि जाई, देखहि दरसु नारि नर धाई ||
होहि सनाथ जनम फलु पाई, फिरहि दुखित मनु संग पठाई ||४||
यह चौपाई "रामचरितमानस" में संस्कृत में लिखी गई है और इसका अर्थ हिंदी में निम्नलिखित होता है:
राम से प्रेम करने वाले मुनि यह कहते हैं, "हे नाथ! हम कुछ और मांगने को तो नहीं आते।"
मुनि जो राम के साथ मनमोहक वात्सल्य रूप में बैठे हैं, उन्होंने कहा, "आपकी सेवा करने का सब मार्ग आप ही बताइए।"
सिष्य मुनि को साथ लेकर बोले, "मेरे मन को तो अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है क्योंकि सभी मार्ग राम में ही सम्मिलित हैं।"
मुनि ने चार लोगों को संग लेकर उन्हें दिया, जिन्होंने बहुत से जन्मों तक सभी सुखानुभव किये हैं। उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया, जिससे उनके हृदय में रघुराम की प्रसन्नता फैली।
जब वह गाँव के पास जा रहे थे, तो एक स्त्री और पुरुष उन्हें देखने के लिए दौड़े। उन्होंने इस जन्म में संपूर्ण सुख प्राप्त किया, परन्तु दुखी मनुष्य को उनके साथ भेजा।
दोहा-
बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम,
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ||१०९ ||
यह दोहा भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से है और इसका अर्थ है:
"बिदाई की बातें करके बिनय करते हुए मनुष्य फिरता है, लेकिन जैसे जामुन का सरीर सूखा हुआ होता है, वैसे ही उसका मन कामनाओं से शुद्ध नहीं होता।"
चौपाई -
सुनत तीरवासी नर नारी, धाए निज निज काज बिसारी ||
लखन राम सिय सुन्दरताई, देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ||१||
अति लालसा बसहिं मन माहीं, नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ||
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने, तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ||२||
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई, बनहि चले पितु आयसु पाई ||
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं, रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ||३||
तेहि अवसर एक तापसु आवा, तेजपुंज लघुबयस सुहावा ||
कवि अलखित गति बेषु बिरागी, मन क्रम बचन राम अनुरागी ||४||
यह चौपाई

"रामचरितमानस" के एक अध्याय से हैं और इसका अर्थ है:
"तीर्थयात्रा पर जाने वाले लोग, जो प्रत्येक अपने-अपने कार्य में लगे रहते हैं, राम, सीता, और सुंदरता की कहानियाँ सुनते हैं, उनका भाग्य महान जानकर अत्यंत उत्साहित होते हैं।
मन में बहुत लालसा रहती है, पर उन्होंने समझा कि नाम की गाथाएं सब संतोष देती हैं।
जो लोग विविधता में मग्न होते हैं, वे उस जुगति से राम को पहचानते हैं।
सब कथाएं सुनकर उन्होंने सभी साधना की, और पितृलोक को प्राप्त किया।
लेकिन सब शासन का परिणाम समझने के बाद, वह राज्य की रानी द्वारा किये गए कार्यों को अच्छा नहीं माना।
इसी समय एक तपस्वी आये, जिनकी उपस्थिति ने तेजपुंज को सुंदर बना दिया। वे कवि थे, जो अनदेखा होते हुए भी वैराग्यी और राम के प्रति श्रद्धालु थे।"
दोहा-
सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि,
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ||११० ||
यह दोहा भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से है और इसका अर्थ है:
"जैसे सजल नेत्रों वाला शरीर पुलकित होकर अपने इष्टदेव को पहचान लेता है, वैसे ही यहां दंड की भी दशा में भी दशा नहीं जानता और नहीं बता सकता।"
चौपाई -
राम सप्रेम पुलकि उर लावा, परम रंक जनु पारसु पावा ||
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ, मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ||
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा, लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ||
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा, जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ||
कीन्ह निषाद दंडवत तेही, मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ||
पिअत नयन पुट रूपु पियूषा, मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ||
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे, जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ||
राम लखन सिय रूपु निहारी, होहिं सनेह बिकल नर नारी ||
यह चौपाई भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है:
"राम के प्रेम में हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं, उन्हें प्राप्त करने से अत्यन्त उत्कृष्ट योगी भी पार्स महाराज की सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करते हैं।
मनुष्य का प्रेम और परमार्थ दोनों ही मिलते हैं, जब वह अपने शरीर में सबको उचित समझता है।
बार-बार देखने से वह पुनः उसी में लीन हो जाता है और अधिक प्रेम उत्कट होता है।
फिर उसने सीता के पादों को धूलि में लेकर अपना सिर झुकाया, माता जानती हैं और उसे आशीर्वाद देती हैं।
निषाद शबरी ने भी वैसे ही दंडवत किया, और उन्हें राम से मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई।"
दोहा-
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह,
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह ||१११ ||
यह दोहा भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है:
"तब रघुकुल के धनी राम ने अनेक प्रकार से अपने मित्रों से विविध उपाय सीखाये, जिनसे वे अपने राज्य को प्रशासन करते समय सीस झुकाकर न्याय किया।"
चौपाई -
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी, जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ||
चले ससीय मुदित दोउ भाई, रबितनुजा कइ करत बड़ाई ||
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता, कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ||
राज लखन सब अंग तुम्हारें, देखि सोचु अति हृदय हमारें ||
मारग चलहु पयादेहि पाएँ, ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ ||
अगमु पंथ गिरि कानन भारी, तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ||
करि केहरि बन जाइ न जोई, हम सँग चलहि जो आयसु होई ||
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई, फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई ||
यह चौपाई भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है:
"फिर सीता, राम और लक्ष्मण ने मिलकर बड़े जोर से प्रणाम किया और फिर बहुत प्रसन्नता से चल दिया।
दोनों भाइयों ने आपस में बातचीत करते हुए सभी को बड़ी बड़ाई दी।
अनेक यात्री मिलते रहे, लेकिन वे दोनों भ्राता प्रेम से एक-दूसरे को देखते रहे।
राम ने कहा, 'लक्ष्मण! तुम्हारा सभी शासन मेरे ही अंगों में है, मेरे हृदय को देखकर सोचो।'
'अपने पादों से जो राह मिल जाए, उसे पायें, ज्योतिषों की भविष्यवाणियों को हमारा मन न भाए।'
'वह अद्वितीय पथ और भारी वन की यात्रा, उसमें साथ में छोटी सुंदरी स्त्री है।'
'जब जहाँ मन करेगा, वहाँ पहुंचेंगे, फिर फिरकर तुम्हारा माथे पर हाथ रखूँगा।'"
दोहा-
एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन,
कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन ||११२ ||
यह दोहा भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है:
"इसी प्रकार प्रेम से भरे हुए हृदय से प्रश्न पूछते हुए, आँसू बहते हुए नेत्रों से यह बात गाते हैं, 'कृपा समुंदर (भगवान) से फिर से बिनय करते हुए उन्हें वहाँ लौटने की अनुरोध करते हैं।'"
चौपाई -
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं, तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं ||
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए, धन्य पुन्यमय परम सुहाए ||
जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं, तिन्ह समान अमरावति नाहीं ||
पुन्यपुंज मग निकट निवासी, तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी ||
जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि, सीता लखन सहित घनस्यामहि ||
जे सर सरित राम अवगाहहिं, तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं ||
जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई, करहिं कलपतरु तासु बड़ाई ||
परसि राम पद पदुम परागा, मानति भूमि भूरि निज भागा ||
यह चौपाई भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है:
"जो लोग गाँवों में रहते हैं, वे ही नाग और सिद्धपुरुष भी हैं। वे कुछ सुकृतियों के कारण अपने घरों में वास करते हैं, धन्य और पुण्यवान परम सुखी होते हैं। जहाँ-जहाँ राम की चरणों की यात्रा होती है, वहाँ उन्हें अमरावती जैसी अपरिमित स्वर्गलोक में भी बराबरी नहीं मिलती। पुण्य स्थलों के निकट निवासी लोग, वहाँ रहने वाले देवताओं की प्रशंसा करते हैं। जो लोग प्रभु राम को गहरी दृष्टि से देखते हैं, वे सीता-लक्ष्मण के साथ घने श्याम को देखते हैं। जो लोग प्रभु राम के सरिता में बैठे हुए देखते हैं, वे उन्हें देवताओं के समान प्रशंसा करते हैं। जहाँ प्रभु राम वृक्ष से वृक्ष बैठते हैं, वहाँ उन्हें कल्पवृक्ष की तुलना की जाती है। प्रभु राम के पादों की धरती को पद्मराग समझती है, और वह भूमि अपने भाग्य को बड़ाती है।"
दोहा-
छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं,
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं ||११३ ||
यह दोहा भगवान तुलसीदास के "रामचरितमानस" से हैं और इसका अर्थ है: "बादल घन करके बुद्धिमान देवताएं फूलों की बरसात करती हैं, वन और पहाड़ों में मृग, पक्षी और राम के चरणों की धरती को देखते हुए मग जाते हैं।"

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