मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम अयोध्याकाण्ड भावार्थ सहित

मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम अयोध्याकाण्ड भावार्थ सहित Maasparayan, fifteenth rest with meaning of Ayodhya incident

मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम 71-81

चौपाई
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।।
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं।।
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा।।
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू।।
रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू।।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।
रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।।
सिअरें बचन सूखि गए कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें।।
यह चौपाई तुलसीदास जी द्वारा रचित है और इसका अर्थ इस प्रकार है: "ओ मेरे भाई, तुम सुनो और समझो, जैसे कि आत्मा शरीर को सेवक मानती है। वैसे ही मैं भी अपने माता-पिता को सेवा में प्रस्तुत रहूँ।जब तक इस शरीर में शत्रु-संहारक राम नहीं रहेंगे, तब तक मेरा दुख और मन में बड़ा दुख रहेगा। मैं तुम्हारा साथी बनकर तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा, ताकि सभी प्रकार के अनाथ लोग हो जाएं। गुरु, पिता, माता और परिवार से संबंधित सभी लोगों को देखकर मैं कहता हूँ कि उनका दुःख मेरे दुःख से भारी होता है।वह राजा जिसके लिए उसकी प्रजा दुखी है, उस प्रजा के लिए वह नरक में रहने वाला है।तात, तुम ऐसी नीति का पालन करो, जिससे सबको संतोष मिले, नहीं तो बड़ा दोषी हो जाओगे। वह बचन जिनका पालन करने से कष्टों का संकट मिट जाता है, वे तुलसीदास के बचनों की तरह सुखद हो जाते हैं।"
दोहा-
उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ।।71।।
इस दोहे का अर्थ है:
"प्रेम जो चरणों में नहीं उतरता, वह प्रेम अधूरा ही रह जाता है। हे नाथ, मैं तुम्हारा दास हूँ, स्वामी, तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा सकते हो?"
चौपाई
दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं।।
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी।।
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला।।
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू।।
जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई।।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी।।
धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।।
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई।।
यह चौपाई संत तुलसीदास जी की रचना है। इसका अर्थ है:
"हे गोसाईं! दीन दयालु भगवान, मुझे भी उपदेश दीजिए ताकि मैं आपकी अद्भुत महिमा को जान सकूँ। नर-नारी धर्म, शास्त्रों के ज्ञान, नीति में निपुण हैं, उनका अधिकारी है। हे प्रभु! मैं आपके सिर पर सिर रखकर प्यार से पालता हूँ। मंदर मेंरु की तरह बेधड़क हो जाता है। गुरु, पिता, माता को मैं नहीं जानता, मैं तो आपका ही दास हूँ। जहाँ प्रेम और स्नेह का बंधन जोड़ा गया है, वहाँ नीति, प्रीति, और शास्त्रों की बातें कही जाती हैं। हे स्वामी! आप ही मेरे सभी हैं, आप ही दीनबंधु हैं और जीवों के अंतर्गत हैं। उन्हीं से धर्म, नीति, और उपदेश मिलते हैं, जो कीर्ति, भूषण और सुगति को प्रिय होते हैं। मन, बुद्धि, और वचन चरणों में लगे हैं, कृपा के समुद्र को छोड़कर और कहाँ जा सकता है?"
दोहा-
करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत।।72।।
इस दोहे का अर्थ है:
"हे करुणासिंधु (दयालु और कृपालु) भगवान, मैंने सुना है आपके मृदु और बिनतीपूर्ण वचनों को। आपने समझाया है और मेरे हृदय में स्थापित किया है, हे प्रभु, सबकुछ समझते हुए।"
चौपाई
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई।।
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी।।
हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए।
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा।।
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु ओरा।।
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू।।
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की रचना है। इसका अर्थ है: "माँ से विदा मांगकर जाने के लिए कहो, शीघ्र आइए और भाई बनकर चलिए। रघुवर (श्रीराम) की बात सुनकर सब खुश हुए, लाभ हुआ बड़ा पर बड़ा हानि हुई। माता को हृदय से खुशी होती है, पर मन अंधा होकर लोचनों को पा लेता है। माँ के पांव में पाग रखकर जानकर मन रामचंद्रजी को साथी मानता है। माता से मिलते समय मन में अशुद्धि देखकर लखना ने सभी बातें विशेष रूप से कहीं। माता के कठोर बचन सुनकर वह डरकर समाधान की तलाश में चारों ओर घूमा। लखना ने अनर्थों को देखकर दुःखित होकर कहा, 'यह स्नेह अनावश्यक है, यहाँ से दूर चला जाऊँ।' विदा मांगने में सभी डर लगता है, जाते समय किसी भी तरह की सहायता की उम्मीद नहीं होती।"
दोहा-
समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ।।73।।
इस दोहे का अर्थ है:
"समझो सुमित्रा, राम का सुंदर सीता रूप, सुसील और प्रिय है। राजा का स्नेह देखकर दुर्जन महिषासुर भी सिर झुकाता है और कुदाऊं करता है।"
चौपाई
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी।।
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही।।
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।।
जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं।।
गुर पितु मातु बंधु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।।
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै।।
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें।।
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू।।
यह चौपाई तुलसीदास जी की रचना है। इसका अर्थ है:
"धीरज और संयम रखकर कुशल काल को जानो, सच्ची और मृदु भाषा से बात करो। तुम्हारी माता बैदेही हैं, और पिता राम हैं, वे दोनों स्नेही हैं। अवधी में वहाँ जहाँ राम का निवास है, वहाँ दिन में सूर्य की प्रकाश होती है। अगर सीता राम के साथ वन में चली जाती हैं, तो तुम्हारे लिए अवध का कोई काम नहीं रहेगा। गुरु, पिता, माता, बंधु और समस्त देवताओं के समान हैं, वे ही सभी प्राणियों के नेता हैं। राम प्राणप्रिय हैं, जीवन जी के सबका सखा हैं, और सबके लिए स्वार्थरहित हैं। वह जगत् में पूजनीय, प्रिय, और परम हैं, सब लोग राम के नाते हैं। ऐसे समझो कि तुम भी उनके साथ जाकर जगत् का जीवन लाभ करो।"
दोहा-
भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ।।74।।
इस दोहे का अर्थ है:
"बहुत भाग्यशाली होता है जो मुझ जैसे अज्ञानी को भी साथ छोड़कर राम के पद को प्राप्त होता है। यदि तुम्हारे मन ने मुझे छोड़कर छल किया है और राम के पदों को त्यागा है, तो मैं तुम्हें बलि चढ़ा दूँ।"
चौपाई
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी।।
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं।।
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू।।
राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू।।
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू।।
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू।।
यह चौपाई एक स्तुति है जो सीता माता के बारे में है।
"जिस तरह पुत्रवती और जुबानी (वचनवान) पुत्र जगत में सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं, वैसे ही रघुपति श्रीराम के भक्त का सुत होना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
नतरु बांझ (संतानहीन), बलि बड़ी बियानी (बातचीती) है, राम के अनुग्रहरूप सुत राम के लिए ही हित की जानकारी करते हैं।
तुम्हारा भाग है कि तुम राम को प्राप्त करो, दूसरे कारण के लिए तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा।
सब प्रकार के सुकृत करके इससे बड़ा फल मिलता है, राम और सीता के पद में सहज ही स्नेह होता है।
राग, क्रोध, ईर्ष्या, मद और मोह - ये सभी बिकार हैं, जिन्हें जानकर इनसे बचो।
सभी प्रकार के विकारों को छोड़कर, मन, बुद्धि, और वचन से सेवा करो।
तुम सभी प्रकार से पूज्य हो, सभी के संग पिता, माता, राम और सीता के जैसे हो।
जहां राम नहीं होते, वहां कामना समाप्त होती है। बेटो, यही सिखाओ, यही उपदेश दो।"
छंद –
उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई।।
यह छंद बताता है कि कैसे तुलसीदास ने श्रीराम के उपदेश को स्वीकार किया और उन्होंने सीता-राम के पद पर नित नवीनता से आस्था रखी।
छंद का अर्थ है:
"जैसे तुम्हारे पिता, माता, प्रिय और परिवार से सुख प्राप्त करते हो, ठीक वैसे ही तुम राम और सीता के पद से अच्छे सुख को भूल नहीं जानना चाहिए। तुलसीदास ने श्रीराम से उपदेश प्राप्त किया और फिर उन्होंने दीनता से आशीर्वाद प्राप्त किया। उनकी प्रेम अविरल और निर्मल थी और वे सदा सीता-राम के पादों में नवीनता से रमते रहते थे।"
सोरठा-
मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस।।75।।
गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू।।
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए।।
कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी।।
तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने।।
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं।।
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा।।
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे।।
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी।।
सोरठा छंद में लिखी गई यह दोहे वाली चौपाई श्रीरामचरितमानस का एक अंश है। इसका अर्थ है:
"माता के चरणों की धूलि पर सिर झुकाकर हीरा तेजी से उसके हृदय में भाग्यशाली हुआ। बगुल भयंकर तोड़ते हैं, मन भाग जाता है रघुकुल के नगरी में।
लखना गया जहां जानकीनाथ थे, वहाँ उसका मन आनंद से भर गया था। वह राम सीता के चरणों को बंदन करते हुए राजमहल में आए।
नर-नारी एक दूसरे से बातें कर रहे थे, लेकिन उनकी बातें बिगाड़ रही थीं। उनके शरीर दुःख से छीन रहे थे, और मन में माखी की तरह मधु छीन रहे थे।
हाथ जोड़कर शीर्ष पर धनी बने रहे, जैसे कि पंखों के बिना हंस कुछ नहीं कर सकता है।
राजदरबार में भयंकर भीड़ थी, लेकिन वहाँ भी अत्यांत दुःखी नहीं हो सकते थे।
राजा ने सचिव को उठाया और राम के पादुका को देखकर उनकी प्रिय बातें सुनाई।
दोनों बेटे सीता के साथ देखने लगे, जिससे राजा को भारी भय हुआ।"
दोहा-
सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ।।76।।
यह दोहा रामायण के कुछ भागों का हिस्सा है। इसका अर्थ है:
"सीता सहित सुन्दर बच्चों को देखकर, बार-बार उन्हें देखकर उनका मन बहुत आनंदित हो रहा था।"
चौपाई
सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।।
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै।।
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू।।
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ।।
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं।।
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी।।
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस में लिखी गई है। इसका अर्थ है:
"कान्हा ने चुपचाप नहीं बोला, पर उनके मन में दर्द और पीड़ा थी। सीता के पादों में अत्यंत प्रेम था, तब श्रीराम ने विदा माँगी। पिता ने आशीर्वाद देने का बोला, लेकिन मन में हर्ष का समय नहीं था। तात ने प्रियता और प्रेम में मोहित होकर जो कुछ किया, उससे जग में कलंक होता है। सुनकर प्रेम की वाणी, नरनारायण उठे और राजसभा में बाहों में लिया। "सुनो तात, मैं तुम्हें मुनि की तरह बताता हूँ, राम सबके चराचर का नायक है। अच्छे और बुरे कर्मों का फल स्वीकार करता है, इसे हृदय के विचार से समझो। जो कर्म किया जाता है, उसका फल मिलता है, यही नीति निगम भी सबको बताते हैं।"
दोहा-
औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।।77।।
इस दोहे में, भक्ति और अपने कर्मों के फल को लेकर एक सांस्कृतिक सिद्धांत को व्यक्त किया गया है। यह दोहा सुनिश्चित करती है कि किसी भी प्राणी को अपने किए गए अपराधों का परिणाम स्वयं भोगना पड़ता है। इसके अलावा, भगवान की अद्भुत गति को समझने के लिए योगी को अत्यन्त विचित्र ध्यान में रहना चाहिए।
इस दोहे का सारांश यह है कि हर किसी को अपने किए गए कर्मों का अपने स्वयं पर प्रभाव होता है, और उसे उसका परिणाम भोगना पड़ता है। इसके अलावा, भगवान की अद्वितीय गति को समझने के लिए योगी को अत्यंत ध्यानित और विचारशील रहना चाहिए।
चौपाई
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी।।
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने।।
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही।।
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा।।
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई।।
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी।।
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू।।
चौपाई: राजा दशरथ ने राम को जो सम्पूर्ण लोकहित के लिए रखने के लिए बहुत सारे उपाय किये, छल-छिद्र सम्पूर्णतः त्याग दिया। राम ने धर्म के धुरंधर, धीर, और सयाने होने के कारण वहाँ रहते हुए भी किसी अन्य स्थान का ज्ञान नहीं प्राप्त किया। तब राजमाता सीता ने राम के चरणों में अपना मन लगा दिया, उन्हें बहुत से तरीके से सिखाया। सीता ने वन में होने वाली दुःखों को सुनाया और स्वास, ससुर, और पिता को सुख की बात समझाई। सीता ने राम के चरणों में अपना मन लगा रखा और उन्हें प्रेम से परिपूर्ण पाया। वे न तो घर में सुख पायीं और न ही जंगल में कठिनाइयों को भोगीं। फिर भी सीता ने सभी को समझाया, और बार-बार मनुष्य के बिपदा को बढ़ावा दिया। सचिव और गुरु, दोनों ही सीता को बहुत ही संवेदनशीलता से समझते थे, और उनके साथ प्यार से बातचीत करते थे। तुम मुझसे मत पूछो कि बनवास क्यों दिया जाता है, बल्कि अपने ससुर, गुरु, और स्वास से वह कहो जो उन्होंने कहा।
इन चौपाईयों का मूल अर्थ यह है कि राजा दशरथ ने बहुत से प्रयास करके राम को सम्पूर्ण लोकहित के लिए रखने का प्रयत्न किया, लेकिन वह छल-छिद्र को त्यागकर सच्चाई में राम के लिए सहायक साबित हुए। राम ने अपने धर्म का पालन करते हुए धीरज से सभी परिस्थितियों का सामना किया और सीता ने भी उन्हें धर्म के मार्ग पर बने रहने के लिए उन्हें प्रेरित किया। सीता ने भलाई के लिए बड़ी कठिनाइयों का सामना किया लेकिन उन्होंने सभी को समझाया कि वे अपने पति राम के साथ कैसे रहें। इसके बावजूद, उन्होंने उन्हें सलाह दी कि वे अपने परिवार के सदस्यों से उनके विचारों को जानने की कोशिश करें।
दोहा-
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि।।78।।
इस दोहे में कहा गया है कि सीता जी ने सुनकर अपने सिखाए हुए उपदेशों को सुस्त और मधुर तरीके से सीखा, लेकिन वे उसमें सोहाई नहीं। वे उसे एक सरद चंदन के तरह महसूस करती हैं, जो चंदन की सुगंध को जानकर भी उसकी गहराई तक नहीं पहुंचता।
चौपाई
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।।
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी।।
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।।
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ।।
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा।।
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू।।
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रामचरितमानस से हैं, जिनमें सीता माता की अपनी दृढ़ इच्छा को प्रकट करते हैं:
"सीता से कहा गया कि वह उतरने को तैयार नहीं है, इस पर कैकेयी ने उठकर सुना। मुनियों ने उन्हें भूषण और भाजन की सलाह दी, और वह मृदु ध्वनि में आगे बढ़ी। उन्होंने कहा, 'हे रघुबीर! आपके प्राण मेरे लिए बहुत प्रिय हैं, मैंने आपके गुणों, सील और प्रेम को कभी नहीं छोड़ा है। मैंने अच्छे कर्म किए हैं, परंतु परलोक में सुख नहीं चाहती, मैंने आपको ही माना है और किसी को नहीं। जो कुछ भी हो, मैं वही करना चाहती हूँ जो आपको भावुक करे। मैंने राम जी के जन्म के बारे में सीखा है और उससे सुख प्राप्त किया है। राजा की बातों में तो मुझे जीवन की प्राण नहीं लगती, इसलिए अस्थिर मनुष्यों की बातों को मैं नहीं सुनती। विचार करने पर भी कोई अवश्य समझ नहीं आती, इसलिए तुरंत ही मुनियों ने मुझे स्वरूप बदलकर राजा जनक के पास भेजा।"
दोहा-
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।।79।।
इस दोहे में कहा गया है कि जब बंदि, बिप्र, गुरु, और प्रभु के चरणों में अच्छी तरह से समर्पित होकर समाज का सुधार किया जाता है, तो समाज सभी बंधुओं के साथ मिलकर सुधारा जाता है।
चौपाई
निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।।
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे।।
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी।।
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई।।
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।।
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रामचरितमानस से हैं, जिसमें बताया गया है:
"निकसे बसिष्ठ के द्वार पर ठहरे ठाड़े। लोगों ने वियोग के दुख को देखकर व्यथित हो गए। सभी ने प्रिय वचनों से सबको समझाया, बिप्रों और रघुबीर ने भी बोलकर सबको सम्मान दिया। गुरु ने सभी को आदर, दान, और विनय दी, और सभी ने इसे स्वीकार किया। जाँच, दान, सम्मान, संतोष, मित्रता, पवित्रता, और प्रेम सभी ने स्वीकार किया। सभी ने गुरु के समक्ष अपनी अपेक्षाएं रखी, जिन्होंने जनक और जननी का उपकार किया। बार-बार अपने जोर से युगों तक प्रणाम किया, और सब ने राम जी से मधुर भाषा में बात की। सभी विभिन्न प्रकार से मेरे हित में कार्य करते हैं, जिससे मैं सुखी रहूँ।"
दोहा-
मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।80।।
इस दोहे में, तुलसीदास जी कहते हैं:
"माता, जहां मेरा वियोग नहीं होता, वहां दुःख नहीं होता। वही आपको उपासना करते हैं, जो सभी लोग सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं।"
चौपाई
एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।
गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई।।
राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू।।
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू।।
गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे।।
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना।।
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं, जो इस प्रकार है: "राम ने इस तरह सभी को समझाया, गुरु के पादों को पूजकर हर्षित होकर सिर झुकाया। गणपति, गौरी, और गिरीस को संतुष्ट किया, और वे राघव को आशीर्वाद दिया। राम के जाने से सभी लोग बहुत व्यथित हो गए, उनकी शोक भरी विलाप को सुनकर कोई भी नगर में नहीं सकता था। वे सभी लोग अयोध्या और लंका में बहुत उदास थे, उनकी खुशी और दुःख सब स्वर्गीय लोकों में व्याप्त था। जब उन्होंने मुर्छित अवस्था में बैठा राजा जाग गया, सुमंत्र ने इस बात को देखा और बताया। राम वन में चले, लेकिन उनकी आत्मा नहीं गई, वे अपने शरीर में ही सुख पाने के लिए रहे। इससे कौन सी बात दुखदायी है बलवानों के लिए? वो जो दुःख पाते हैं, वे अपने शरीर और प्राणों को त्याग देते हैं। फिर धीरे-धीरे बोला राम, 'नरनाराय! तुम्हें साथ ले कर रथ में जाना चाहिए।'"
दोहा-
सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि।।81।।
इस दोहे में, तुलसीदास जी कहते हैं:
"सीता और राम, दोनों ही जनक की सुंदरी संतान हैं। रथ को सवार होकर देखकर वे दोनों चार दिन तक वन में घूमने चले।"

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