मासपरायण का अर्थ अयोध्याकाण्ड सहित सत्रहवाँ विश्राम

मासपरायण का अर्थ अयोध्याकाण्ड सहित सत्रहवाँ विश्राम Meaning of Maasparayan, seventeenth rest including Ayodhya incident

चौपाई
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे, बिधि हरि संभु नचावनिहारे ||
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा, औरु तुम्हहि को जाननिहारा ||
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन, जानहिं भगत भगत उर चंदन ||
चिदानंदमय देह तुम्हारी, बिगत बिकार जान अधिकारी ||
नर तनु धरेहु संत सुर काजा, कहहु करहु जस प्राकृत राजा ||
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे, जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ||
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा, जस काछिअ तस चाहिअ नाचा ||
इसका अर्थ है:

"तुम्हें देखकर जगत वाले हैरान होते हैं, तुम्हारे नृत्य से हरि और शिव भी नृत्यरूपी हो जाते हैं। वह तुम्हारा रहस्य नहीं जान सकता, और कोई और तुम्हें समझने वाला नहीं है। वही जान सकता है जिसे तुम जानना चाहो, तुम्हें जानने से ही वह तुम्हें जान सकता है। तुम्हारी कृपा ही तुम्हीं को रघुनंदन (राम) के भक्तों का ह्रदय चंदन बनाती है। तुम्हारी शुद्ध आनंदमय शरीर है, और तुम्हारा अधिकारी होकर व्यक्ति गुणों से मुक्त हो जाता है। मानव शरीर धारण करके तुम संतों और देवताओं के कार्य करते हो, कहो, करो, जैसे प्राकृतिक राजा करता है। राम के चरित्र को देखते हुए और तुम्हारे गान सुनते हुए, बुद्धि जड़ी हुई मोहित हो जाती है और सुखी हो जाती है। तुम जो कहो, करो, सब सच होता है, और तुम्हारी इच्छा के अनुसार हर कुछ नाचता है।"
दोहा-
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ,
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ ||१२७ ||
इसका अर्थ है:
"मुझसे पूछो कि मैं कहाँ रहूं, मैं तुम्हें सच्चाई बताऊं, जहाँ नहीं हो, वहाँ तुम्हें देखने के लिए मुझे भेजो।"
चौपाई
सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने, सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने ||
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी, बानी मधुर अमिअ रस बोरी ||
सुनहु राम अब कहउँ निकेता, जहाँ बसहु सिय लखन समेता ||
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना, कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ||
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे, तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ||
लोचन चातक जिन्ह करि राखे, रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ||
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी, रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ||
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक, बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ||
इसका अर्थ है:

"सुनकर मुनियों के वचनों का प्रेम रस, राम जी की कथाओं में मन में मुस्कान लाता है। बालमीकि हँसते हुए कहते हैं, उनकी बातें मधुर होती हैं और अमृत के रस की बोतलियों की तरह होती हैं। राम! अब मैं तुम्हें वह स्थान बताता हूँ, जहाँ सीता और लक्ष्मण के साथ तुम्हें बसना चाहिए। जिनके श्रवण तीर्थ समान हैं, उनके घर में तुम्हारी कथा नाना प्रकार से बहती है। जिनके हृदय तुम्हारी कथा को स्वीकार नहीं करते, उनके हृदय में तुम्हारी इच्छा असीम होती है। जैसे चातक पक्षी बादलों की प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही वे लोग तुम्हारे दर्शन के लिए तृष्णा रखते हैं। जिनके हृदय में तुम्हारी मूर्ति की इच्छा होती है, वे समुद्रों के समान भारी हो जाते हैं, जल में बिन्दु बनकर सुख पाते हैं। तुम्हारा दर्शन करने के लिए जिनके हृदय में सुखदायक स्थान होता है, वे सहित राघव के साथ सीता को बंधु समझकर बसते हैं।"
दोहा-
जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु,
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ||१२८ ||
इसका अर्थ है:

"जैसे तुम्हारी मानसिकता पवित्र बिन्दु की तरह है, जिसमें राम के मुकुटमणि गुणों को चुनने की क्षमता है, वैसे ही तुम्हारा ह्रदय भी राम के गुणों को धारण करने में समर्थ हो।"
चौपाई
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा, सादर जासु लहइ नित नासा ||
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं, प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ||
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी, प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ||
कर नित करहिं राम पद पूजा, राम भरोस हृदयँ नहि दूजा ||
चरन राम तीरथ चलि जाहीं, राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ||
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा, पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा ||
तरपन होम करहिं बिधि नाना, बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ||
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी, सकल भायँ सेवहिं सनमानी ||
इसका अर्थ है:

"प्रभु के प्रसाद से सजीवन और सुखद विचारों का स्वाद मिलता है, जिसे लेकर हमेशा संतोष रहता है। तुम्हें ही निवेदित भोजन करते हैं, और उनके प्रसाद से भूषित होते हैं। सिर को नमस्कार करके देवता, गुरु, ब्राह्मणों को प्रीति सहित बिनती करते हैं। हर दिन राम के पादों की पूजा करते हैं, क्योंकि उनके अलावा दूसरा कोई भी उनके हृदय में नहीं आता। राम के चरणों को तीर्थ के रूप में मानकर जाते हैं, उनके ध्यान में ही मन लगाते हैं। उनके मंत्र को नित जपते हैं, और उनके साथ परिवार की पूजा करते हैं। विभिन्न तरह के होम और दान करते हैं, जैसे ब्राह्मणों को भोजन देकर बहुत सारे दान करते हैं। तुमसे अधिक गुरु को मानते हैं, सबकी सेवा करते हैं और सम्मान देते हैं।"
दोहा-
सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ,
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ||१२९ ||
इसका अर्थ है:

"एक ही फल की मांग करते हुए, मैं चाहता हूं कि मेरा मन राम चरणों में लगा रहे, जहाँ सीता और रघुनाथ राम दोनों निवास करते हैं।"
चौपाई
काम कोह मद मान न मोहा, लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ||
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया, तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ||
सब के प्रिय सब के हितकारी, दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ||
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी, जागत सोवत सरन तुम्हारी ||
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं, राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ||
जननी सम जानहिं परनारी, धनु पराव बिष तें बिष भारी ||
जे हरषहिं पर संपति देखी, दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी ||
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे, तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ||
इसका अर्थ है:

"कामना, क्रोध, मोह, मान, अहंकार, लोभ, छल, दुष्टता, माया, इन सबसे मुक्त जो लोग हैं, उनके हृदय में श्रीराम विराजमान हैं। वे सबके प्रिय हैं, सबका हित करने वाले हैं, दुःख सुख को समान देखकर प्रशंसा करते हैं। सत्य और प्रिय बातें कहते हैं और लोगों को जागरूक करते हैं। जो तुम्हें छोड़कर किसी और की ओर नहीं जाते, वे लोग भगवान राम के मन में ही विचरण करते हैं। मातृभाव को जननी समझते हैं, पराये धन को विष समान समझते हैं। जो समृद्धि के समय भी नहीं हर्षाये और विपत्ति के समय भी विषेष दुःखी नहीं होते, वे जो भगवान राम को प्राणप्रिय हैं, उनके मन में ही तुम्हारा सदन होता है।"
दोहा-
स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात,
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ||१३० ||
इसका अर्थ है:

"जिनके स्वामी, मित्र, पिता, माता, और गुरु सब तुम्हारे हैं, उनके मन का मंदिर तुम्हारे पास ही है, जहाँ सीता सहित दोनों भ्राता हैं।"
चौपाई
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं, बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ||
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका, घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका ||
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा, जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ||
राम भगत प्रिय लागहिं जेही, तेहि उर बसहु सहित बैदेही ||
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई ||
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई, तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई ||
सरगु नरकु अपबरगु समाना, जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ||
करम बचन मन राउर चेरा, राम करहु तेहि कें उर डेरा ||
इसका अर्थ है:

"सभी अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ध्यान में रखो, ब्राह्मणों के हित में संकट को सहें। जो लोग नीति और निपुणता में सर्वश्रेष्ठ हैं, उनका घर ही तुम्हारा मनोरम होता है। तुम्हें सभी गुणों को समझना चाहिए, अपने दोषों को छोड़कर, और सब तरह से तुम्हारे पर भरोसा हो। जो भगवान राम के भक्त को प्यारा होता है, वही बैदेही के मन में बसता है। जाति, पाँति, धन, और धर्म की प्रशंसा करने के बावजूद, प्रिय परिवार और सुखद सदन में सुख पाना। सब कुछ छोड़कर सिर्फ तुम्हें अपना लेना, और वही भगवान राम के हृदय में रहना। स्वर्ग और नरक समान हैं, जहाँ भी देखो, वहाँ धनु और बाण दिखाई देते हैं। कर्म, वचन और मन को निर्मल रखो, राम को ही अपने हृदय में बसाओ।"
दोहा- 
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु,
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ||१३१ ||
इस दोहे में कहा गया है कि:

"जो कभी भी तुम्हें कुछ नहीं चाहिए, बस वह है तुम्हारा सहज सनेह। अपने मन को हमेशा उसी में बसाओ, राम को अपने घर में निरंतर बिठाओ।"
चौपाई
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए, बचन सप्रेम राम मन भाए ||
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक, आश्रम कहउँ समय सुखदायक ||
चित्रकूट गिरि करहु निवासू, तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ||
सैलु सुहावन कानन चारू, करि केहरि मृग बिहग बिहारू ||
नदी पुनीत पुरान बखानी, अत्रिप्रिया निज तपबल आनी ||
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि, जो सब पातक पोतक डाकिनि ||
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं, करहिं जोग जप तप तन कसहीं ||
चलहु सफल श्रम सब कर करहू, राम देहु गौरव गिरिबरहू ||
इस चौपाई में बताया गया है कि:

"इसी प्रकार मुनियों ने भवन को देखाया, और राम के प्रेमपूर्ण वचनों से मन भाया। कहो, हे सूर्यपुत्र भानुकुलनायक, आश्रम का समय सुखदायक कहां है। चित्रकूट पर्वत पर अपना निवास बनाओ, वहाँ तुम्हें सब प्रकार से आनंदित होना चाहिए। प्रशान्त समुद्र, सुंदर वन, मृगों और पक्षियों का आनंद लेना। नदी, पवित्र और प्राचीन, जो अत्रि की प्रिय पत्नी आनी हैं। सुरसरिता धारा का नाम मंदाकिनी, जो सब पापों का धोनी है। यहाँ अत्रि आदि मुनियों ने बहुत बार बसा लिया, और योग, जप, और तप किया। जाओ, सब योग्य श्रम करके श्रेष्ठ कार्य करो, राम को गौरवित करो, हे गिरिधर!"
दोहा-
चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ,
आए नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ ||१३२ ||
इस दोहे में कहा गया है कि:

"चित्रकूट की महिमा असीम है, महान मुनियों ने इसकी महिमा गाई है, वहाँ आकर नदी में स्नान किया, सीता और उनके भाई दोनों साथ थे।"
चौपाई
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू, करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू ||
लखन दीख पय उतर करारा, चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा ||
नदी पनच सर सम दम दाना, सकल कलुष कलि साउज नाना ||
चित्रकूट जनु अचल अहेरी, चुकइ न घात मार मुठभेरी ||
अस कहि लखन ठाउँ देखरावा, थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा ||
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना, चले सहित सुर थपति प्रधाना ||
कोल किरात बेष सब आए, रचे परन तृन सदन सुहाए ||
बरनि न जाहि मंजु दुइ साला, एक ललित लघु एक बिसाला ||
यह चौपाई बताती है कि:

"रामचंद्र ने कहा, 'लक्ष्मण, बहुत अच्छा घाट बना लो, कहीं ठहरने के लिए। लक्ष्मण नदी से पानी निकालकर ठंडे पानी की स्थापना की, फिर चारों दिशाओं में धनुष की भी नारा बजाई। नदी के पानी से बादलों की तरह दिन-रात चलते रहे, सभी पापों को नष्ट कर दिया। चित्रकूट पहाड़ी अत्यंत स्थिर और मानसिकता से शक्तिशाली थी, किसी ने उसे नुकसान पहुँचाने की कोशिश भी नहीं की। लक्ष्मण ने यह स्थान दिखाया, और राम ने वहाँ आकर अपने मन को देवताओं को अर्पित किया, साथ में चलते हुए सूर्य और अन्य देवताओं की सेना भी थी। वहाँ हर तरफ वन बहुत ही सुंदर था, जहाँ छोटी-छोटी घास के पौधे थे और बड़े-बड़े पेड़ भी।"
दोहा-
लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत,
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत ||१३३ ||
यह दोहा कहता है कि:

"लक्ष्मण, जहाँ जानकी समेत प्रभु श्रीराम निवास करते हैं, वहाँ वसंत ऋतु के साथ मदन देवता भी मुनियों के रूप में आकर रति और ऋतुराज के समान सुंदर दिखाई देते हैं।"

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