मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम अयोध्या काण्ड Maasparayan, last rest Ayodhya case
मासपारायण, पंद्रहवा विश्राम 82-93
चौपाई
जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई।।
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी।।
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई।।
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू।।
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी।।
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा।।
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा।।
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं, जो इस प्रकार हैं:"अगर तुम दो भाई धीर नहीं फिरते, सत्य और निष्ठावान राम। तो तुम दोनों जोड़ी बनकर भगवान से विनती करो, और फिर सीता के संग मिथिला वापस चले जाओ। जब सीता वन में आकर देखे, तो मेरे सिखाये हुए उपाय का अवसर पाओ। माता और ससुर को यह सन्देश दो, कि पुत्री को फिर से बहुत काम हो जायेगा। माता या ससुर यदि तुम्हें पितृगृह या ससुराल में रहना चाहते हैं, तो जहाँ तुम्हें अच्छा लगे वहाँ रहो। ऐसा करो कि यह उपाय प्राणों का आधार बने, ताकि मेरा मरना नहीं हो। कुछ भी न बचा हो, उसे वैसे ही छोड़ दो। ऐसे कहकर सीता ने मुर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी, और फिर लखना और राम को देखने का अवसर पाया।"
दोहा-
पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ।।82।।
इस दोहे में, तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु राम ने जल्दी से अपने रथ को तैयार किया और जहाँ उन्होंने अपने साथ सीता जी को ले जाने का निर्णय किया, वहाँ दोनों भाई लखना और राम गये।चौपाई
तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए।।
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई।।
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा।।
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं।।
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी।।
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी।।
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता।।
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रामचरितमानस से हैं, जो इस प्रकार हैं:"तब सुमंत्र ने राजा के आदेश सुनाए, राम से बिनती करके रथ को चढ़ाने को कहा। राम ने अपने साथ सीता जी को लेकर रथ में चढ़ा, और दोनों भाई अवध में हृदय को छूने लगे। राम के चलते हुए अवध में अनाथों का हृदय दुःखित हो गया, और सभी लोग उनके साथ चले। समझाने पर भी कृपाप्रवाह समुद्र बहुत प्रेम से विचार किया और फिर वापस आया। अवध का भारी भयावह स्थान लग रहा था, वहाँ कालरात्रि और अंधेरा था। जीवन्त पुरुष और स्त्री सब भयभीत थे, हर कोई डर से एक-एक को देख रहा था। घरों में मृतकों के परिजन, दोस्त, और मनुष्यों को अपने जामदूत समझ रहे थे। बगीचे, पेड़ों की छांव, झीलें देखने को नहीं जा रही थीं।"
दोहा-
हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर।।83।।
यह दोहा तुलसीदास जी के रामचरितमानस से हैं, जो इस प्रकार हैं: "हंस, गय, कोटि, चतुर, मृग, पक्षी और रथीगाड़ी के अनेक प्रकार के सुन्दर पक्षी हैं।"चौपाई
राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े।।
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी।।
बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही।।
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी।।
सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं।।
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू।।
चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई।।
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही।।
राम वियोग से सभी लोग उदास थे, हर जगह उनकी यादों का छाया था। नगर में हर जगह उनके वियोग से भरा हुआ वातावरण था, पक्षियों और जीवों में भी उनका वियोग दुःख था। कैकेई ने किरातिनी का भेद किया, जिससे दस और दस दिशाओं में उन्होंने दुःख दिया। रघुवर राम अपने वियोग से सहन नहीं कर सके, सभी लोग उदास और भागे भागे थे। सभी ने मन में सोचा कि बिना राम, लखन और सीता के, सुख नहीं हो सकता। जहाँ राम होते हैं, वहाँ सब कुछ सुखमय होता है, बिना रघुवीर के, अवध नहीं सहायक था। मंत्रु भी उस सुखमय स्थान को छोड़ कर गया, जो बहुत ही दुर्लभ था। जो लोग रामचंद्र के चरणार्विंदों में प्रेम करते हैं, उन्हें ही भोगों का त्याग करना है।दोहा-
बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ।।84।।
यह दोहा श्री तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से है। इसमें कहा गया है कि रामचंद्रजी के आगमन पर बालक और बृद्ध, सभी लोगों के घर में खुशियों का सामर्थ्य हो गया था। प्रथम दिन से ही रघुनाथ ने अन्धकार के तीर को निवास स्थान बना लिया था।चौपाई
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी।।
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई।।
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए।।
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे।।
सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।।
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई।।
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती।।
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता।।
रघुपति ने अपनी प्रजा के प्रेम और दया को देखा। वे बहुत दुःखी हुए क्योंकि उन्हें परायी पीड़ा बहुत दुःख देती थी।रघुनाथ, करुणामय होकर गोसाँई, उन परायी पीड़ा को जल्दी समझ गए। वे प्रेम से भरे और मृदु शब्दों में लोगों को अनेक प्रकार से समझाते रहे।
उन्होंने धर्म का गहना उपदेश दिया, जिससे लोगों में प्रेम की भावना और बढ़ी। वे सील और सन्मान को नहीं छोड़े और राम के विचार में ही रहे।
लोगों ने अपने सोग, श्रम और कठिनाइयों में जीवन गंवा दिया। वे देवमाया में कुछ भटक गए।
जब जगती की दौरानी बीती, तब राम के सचिव ने उनसे प्रीति से कहा, "हे रघुराज, ताता, रथ को खोजो और उसे हांको, लेकिन कोई सही उपाय नहीं मिल रहा है।"
दोहा-
राम लखन सुय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।।
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ।।85।।
राम और लक्ष्मण ने समझा कि संभु शिव जी के चरणों में शरण लेना ही सही है। सचिव तुरंत रथ को चलाने और उसे इटा इटा खोजने के लिए निकल दिया।चौपाई
जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू।।
रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिं।।
मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू।।
एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू।।
निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना।।
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा।।
एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा।।
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना।।
राम रथ को खोजते हुए सभी लोग सोए नहीं, सब जागे हुए थे। राम की खोज में सभी दिशाओं में उनका नाम ध्वनि के रूप में गूंज रहा था। मन धैर्य गवाँर जहाज की भांति समुद्र में बड़ी लहरों के साथ भारी हो गया था। बड़े व्यापारी समाज में बहुत बड़ी अनियंत्रितता उत्पन्न हो गई थी। कोई कोई अपने उपदेश बांट रहा था, कह रहा था कि राम को छोड़ दो, हमें जान दो। कुछ लोग उसकी तारीफ और बुराई कर रहे थे। इस विचार से कि मेरे प्रिय के बियोग की विधि को कैसे त्यागा जाए, उन्होंने मृत्यु को नहीं मांगा। ऐसा करके उन्होंने अपने प्रभु राम के बिना जीवन की प्राणनाथा नहीं की। इसी प्रकार की बातों के कलाप को लेकर उन्होंने अवध में दुःख भरे पल काटे। विपरीतता की स्थिति को कभी भी नहीं बताया, बल्कि उन्होंने जीवन की आशा को जीवित रखा।दोहा-
राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि।।86।।
इस दोहे में लोगों की ओर से सभी नर और नारियों ने रामचंद्रजी के दर्शन के लिए नियमित व्रत और पूजा का निर्वाह किया। उनका मन तमाल पेड़ की तरह दीनता और विनीतता से भरा था।चौपाई
सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई।।
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी।।
लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा।।
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।।
कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।।
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई।।
मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ।।
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू।।
रामचंद्र जी ने सीता और उनके सहित सुग्रीव को लेकर यात्रा की, और वे सृंगबेर पहुंचे। वहां रामचंद्रजी ने देवसर उत्सर्ग कर देखा और उन्होंने विशेष हर्ष का अनुभव किया। लक्ष्मण और सीता ने देवसर को प्रणाम किया और सभी साथियों के साथ रामचंद्रजी का दर्शन किया। गंगा नदी सभी सुखों का मूल थी, जिसने सभी दुःखों को भी हरा दिया। लोग गंगा की महिमा के बारे में कई कथाएं सुनाते रहे, और रामचंद्रजी ने गंगा की लहरों को देखा। सचिव और सुग्रीव ने प्यास बुझाने के लिए श्रम किया, और उनके मन में खुशी और संतोष का अनुभव हुआ। इसके बाद उन्होंने संसारिक कार्यों को भलीभाँति किया।दोहा-
सुध्द सचिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु।।87।।
यह दोहा बताता है कि सच्चिदानंद स्वरूपी श्रीराम वह सूर्य के समान हैं, जो संसार सागर को पार करने का सेतु बनाते हैं और मानव जीवन को दिशा देते हैं। वे सुख, ज्ञान और आनंद के स्रोत हैं जो हमें संसार के जीवन के सागर से पार करने में मदद करते हैं।चौपाई
यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई।।
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा।।
करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें।।
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई।।
नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें।।
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा।।
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ।।
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना।।
इस चौपाई में, सुधा गुहा, जब श्रीराम से मिलीं, तो वह खुशी से भरी हुई थीं और प्रिय बंधु के साथ बातचीत की। वह श्रीराम को फल, मूल, भेंट, और भार लेकर अत्यंत खुश थीं। उन्होंने श्रीराम को दंडवत की और उनके समक्ष बैठकर अत्यंत भावपूर्ण रूप से वार्तालाप किया। उन्होंने श्रीराम से कुसल पूछा और उनके पाद पंकज को देखकर अत्यधिक आनंदित हो उठीं। वह कहती हैं कि आपका धाम सभी लोगों के लिए धन्य है, आप सबको आपके पास धारण करने की कृपा कीजिए। मेरे समेटे हुए सभी लोगों को आप संभाल लीजिए। आप ही सच्चे और ज्ञानी मित्र हैं, इसलिए मुझे मेरे पिता का आशीर्वाद दीजिए और मेरे पिता को आपके पास आने दीजिए।दोहा-
बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु।।88।।
इस दोहे में गुह कहते हैं कि बरसात के चार महीने तक वे मुनि ब्रत और विशेष भोजन के बिना जंगल में रहते थे। लेकिन उन्होंने सुना कि ग्रामवासियों के लिए यह स्थान उचित नहीं है। इसे सुनकर उन्हें भारी दुःख हुआ।चौपाई
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी।।
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे।।
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा।।
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना।।
लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा।।
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए।।
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।।
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी।।
इस चौपाई में दिखाया गया है कि जब गुह ने राम, लक्ष्मण, और सीता को देखा, तो वह बहुत प्रेम से ग्राम के लोगों को बताता है। उसने उनसे पूछा कि ऐसा बच्चा कैसे पैदा हुआ, जिन्हें वे जंगल में पालकर बड़ा किया हैं। एक शिष्य ने उन्हें बताया कि एक राजा ने हमसे रागीन को किस तरह पढ़ाया, और हमने उन्हें कैसे भिक्षा दी। तब निषादराज ने अपने मन में सोचा कि राम का ध्यानकेंद्र मनोहर त्रिशिरा जंगल है। वह राम को वहां लेकर जाता है और सब प्रकार से उनकी सेवा करता है। उसने स्वच्छ वस्त्र पहना दिए, सिंसुपा को साफ कर दिया, और उनके लिए शांति की तैयारी की। गुह ने मधुर फल, मूल, और मधुर जल प्रदान किया, और पानी के दोनों भरे बर्तन रख दिए।दोहा-
सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ।।89।।
इस दोहे में बताया गया है कि सीता और सुमंत्र राजा की बहन के साथ कदम के मूल और फल खाते हैं, और रात को रामचंद्र जी ने लक्ष्मण समेत रघुकुल में पलग लिया।चौपाई
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।।
कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन।।
गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती।।
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई।।
सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस ह्दयँ बिषादू।।
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई।।
भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा।।
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।
इस चौपाई में बताया गया है कि लक्ष्मण उठ गए और बोले, प्रभु ने जागते हुए मृदु ध्वनि में कहा। वे शस्त्रों को संजोकर दूर से सजाया, फिर बीरासन पर बैठे और भगवान को निहारते हुए निषादराज को जागाते हुए प्रेम से भरा दुखी हो गये। उनके तन में कंपन हुई, आंसू बहने लगे, और वे प्रेम से उनसे कुछ कहने लगे। राजा के निवास स्थान को शोभायमान और सुंदर बनाया गया था, जो रत्नों से भरा हुआ था और राजा अपने हाथों से उसे सजाते रहते थे।दोहा-
सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।
पलँग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास।।90।।
यह दोहा सुंदर और सुबिचित स्थान की सुन्दरता का वर्णन करता है, जहाँ सुगंधित फूल, सुगंध, और सुन्दर महक होती है, पलँग, मंजुश्री, और दीपक सहित सब कुछ सुन्दरता से सजा होता है।चौपाई
बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई।।
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं।।
ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए।।
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी।।
जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईं।।
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ।।
रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही।।
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू।।
इस चौपाई में, माता कौशल्या को श्रीराम के और सीता के नींद का वर्णन किया गया है। इसमें सीता और श्रीराम निषेध्रत और निजी अनुभवों में रत होकर सोते हैं। वे एक दूसरे के साथ रहकर भी उन्हें सम्पूर्णता में अपना बनाते हैं, और सीता के बिना श्रीराम को नींद नहीं आती है। यह श्लोक इस प्रेमपूर्ण संबंध को प्रकट करता है जो श्रीराम और सीता के बीच में है।यह श्लोक रामायण में संस्कृत श्लोक के अर्थों का विवरण दे रहा है जिसमें सीता और श्रीराम निषेध्रत और निजी अनुभवों में रत होकर सोते हैं। इसमें उनकी प्रेम और संबंध का जिक्र किया गया है। श्रीराम को उनकी पत्नी सीता के बिना नींद नहीं आती है, और सीता भी उनके बिना नींद नहीं पाती हैं। इस श्लोक में उनके अद्भुत संबंध को प्रस्तुत किया गया है।
दोहा-
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहीं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह।।91।।
इस दोहे में कहा गया है कि कैकेयी ने मंद बुद्धि और कठिन कुटिलता के साथ जिस तरह से काम किया, वह सब दुःख और संकट उसने जानकी को सुख के अवसर में दे दिए। उसके माध्यम से यहाँ प्रेमपूर्ण संबंध को बिगाड़ने का संदेश दिया गया है।चौपाई
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी।।
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपती बिपति करमु अरु कालू।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।
इस चौपाई में कहा गया है कि दिनकर (सूर्य) का अपने कुल को चाकू की भाँति काट देने से सब लोगों को दुःख हुआ। निषादराज ने भारी दुःख और बिषाद का अनुभव किया, लेकिन वे राम और सीता को एक साथ निद्रा में देखकर सुखियां महसूस किया। लक्ष्मण ने मधुर और मृदु भाषा में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का रस बताया। यहाँ जीवों को सुख और दुःख के दाता नहीं हैं, बल्कि उनके द्वारा किए गए कर्मों के फलस्वरूप उन्हीं से सब मिलता है। जन्म, मृत्यु, सम्पत्ति, विपत्ति, कर्म और समय जैसे भ्रांतिपूर्ण संदेशों के बारे में भी इसमें बताया गया है। इससे सबको समझाया गया है कि धरती, स्वर्ग, नरक, धन, परिवार, सम्पत्ति, और जीवन में हुए गुणात्मक, ज्ञानात्मक और मानसिक अनुभवों में सच्चा परमार्थ नहीं होता।दोहा-
सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।।92।।
यह दोहा कहता है कि सपने एक राजा को भिखारी और नाकारी को नकारने वाला बना देते हैं। जब हम जागते हैं, तो दुनिया में कोई भी लाभ या हानि नहीं होती, क्योंकि यह सब केवल सपनों में ही होता है।चौपाई
अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू।।
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा।।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।
यह चौपाई बताती है कि हमें विचार करते समय किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए और किसी के प्रति विरोध नहीं रखना चाहिए। मोह ने सभी को सुलाया है और हम सपने देखते हैं। इस जगह में, जब तक एक व्यक्ति जागता है, तब तक वह संसार को भोगता है, परंतु एक परमार्थी हरवहिं है। जब विचार शुद्ध होता है, तो व्यक्ति राम के चरणों में प्रेम रखता है। जब विवेकी बन जाता है, तो मोह और भ्रम भाग जाते हैं और वह राम के प्रेम में लिप्त हो जाता है। उसके मन, क्रम, और बोल तभी राम के प्रेम से भर जाते हैं। राम ब्रह्म, परमार्थ, अगोचर, अनादि, और अनूप हैं। वे सभी विकाररहित हैं, गति के अभेदी हैं, और वेदों में नित्य सत्य और निरूपित किए गए हैं।दोहा-
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल।।93।।
यह दोहा कहता है कि भगवान कृपाल हैं और वे भक्तों के हित में सदा कृपाशील रहते हैं। वे मनुष्यों के शरीर में अवतरित होकर उनके आचरण को सुनकर जगत के जाल को दूर कर देते हैं। इसका अर्थ है कि भगवान की लीलाएं और उनके शिक्षाएं मानव जीवन को पवित्र और धार्मिक बनाने में सहायता करती हैं।
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