मासपारायण इक्कीसवाँ masparayan twenty first
चौपाई
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई, कहेउ भरत सन भुजा उठाई ||
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला, पाकरि जंबु रसाल तमाला ||
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा, मंजु बिसाल देखि मनु मोहा ||
नील सघन पल्ल्व फल लाला, अबिरल छाहँ सुखद सब काला ||
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी, बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी ||
ए तरु सरित समीप गोसाँई, रघुबर परनकुटी जहँ छाई ||
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए, कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए ||
बट छायाँ बेदिका बनाई, सियँ निज पानि सरोज सुहाई ||
यह चौपाई तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस से लिया गया है और इसमें वानर सेना का वर्णन किया गया है।चौपाई का अर्थ है: "तब केवट (हनुमान) ऊंची चढ़ाई करके भरत के सम्मुख अपनी भुजा उठाकर कहता है। नाथ (श्रीराम) को देखते हुए हनुमान ने बड़ा और सुंदर जंबू और तमाल पेड़ को छू लिया।
जिनकी तले और बीच में बटुआ है, वहाँ मनुष्य बहुत ही प्रियतम बड़े और सुंदर पेड़ को देखकर मोहित हो गया। वहाँ नीले, घने पल्लव और लाल फल हैं, और सब कुछ अच्छा है।
मैंने वहाँ तारे और अरुणमय राशियों को देखा, जो अद्वितीय और सुखद हैं। वहाँ एक पेड़ है, जिसकी छाया में हनुमान जी कहते हैं कि वहाँ श्रीराम के प्रिय निवास बना है।
तुलसी के पेड़ों ने भी बहुत सुंदरता बढ़ाई है, कहीं-कहीं सीता माता और कहीं-कहीं लक्ष्मण जी के बीच सुहावने दृश्य हैं। यहाँ हनुमान ने एक छोटी बेदिका बनाई है, जिसमें सीता माता को निजी स्वर्ग का पानी सुहाता है।"
दोहा
जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान,
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान ||२३७ ||
इस दोहे का अर्थ है: "वहाँ जहाँ सीता और राम सहित मुनिगण नित्य समाना रहते हैं, वहाँ सभी आगम शास्त्र, निगम और पुराणों की कथाएं सुनाई जाती हैं।"इस दोहे में कहा गया है कि वह स्थान जहाँ सीता और राम सहित मुनिगण नित्य बैठे रहते हैं, वहाँ सभी आगम शास्त्र, निगम और पुराणों की कथाएं सुनाई जाती हैं। यहाँ ध्यान देने वाली और गुणों की बात की जाती है।
चौपाई
सखा बचन सुनि बिटप निहारी, उमगे भरत बिलोचन बारी ||
करत प्रनाम चले दोउ भाई, कहत प्रीति सारद सकुचाई ||
हरषहिं निरखि राम पद अंका, मानहुँ पारसु पायउ रंका ||
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं, रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं ||
देखि भरत गति अकथ अतीवा, प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा ||
सखहि सनेह बिबस मग भूला, कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला ||
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे, सहज सनेहु सराहन लागे ||
होत न भूतल भाउ भरत को, अचर सचर चर अचर करत को ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस में श्रीराम और भरत के मिलन का वर्णन करती है।चौपाई का अर्थ है: "श्रीराम के सखा (हनुमान) के बचन सुनकर भरत ने उनको निहारा, उनकी दृष्टि में भरत की बारी आई। दोनों भाई नमस्कार करते हुए एक-दूसरे को प्रीतिपूर्वक सार्थक बातें कहते हैं।
भरत ने प्रभु राम के पादों को देखकर हर्षित होकर उनके चरणों को देखा और माना कि वह परम पवित्र धरती पर धन्य हो गया। वह अपना सिर झुकाकर और हृदय सहित आंखें लगाकर रामचंद्र जी के मिलन से सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त कर रहा है।
भरत ने राम के दर्शन से अत्यंत अद्भुत आनंद और प्रेम में लीन होकर मृग, पक्षी, पौधों और जीवों को देखते हुए अपना स्नेह भूल गया। वह सुरों से प्रेमपूर्वक बातें करते हुए सुखियों की तरह लहरा रहा है।
साधकों की प्रेम और अनुराग में समाधान होता है, और उन्हें सरलता से स्नेह की प्रशंसा करनी चाहिए। भरत का भाव धरती, आकाश, चराचर और अचर सबके प्रति उसी प्रकार से होता है।"
दोहा
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर,
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर ||२३८ ||
इस दोहे का अर्थ है: "भरत को बड़े गंभीर दुःख हुआ था जब वह विरह की समुद्र बिचा हुआ महासागर में दुखी था, परन्तु उनके ऊपर सुर, साधु और भगवान राम, जो कृपा का सागर हैं, की कृपा प्रकट हुई।"इस दोहे में कहा गया है कि भरत ने विरह की समुद्र में दुःख झेला था, लेकिन उसके ऊपर सुर, साधु और श्रीराम, जो कृपा के समुद्र हैं, की कृपा प्रकट हुई थी। यहाँ भरत का प्रेम और उसकी भावना को समझाया गया है।
चौपाई
सखा समेत मनोहर जोटा, लखेउ न लखन सघन बन ओटा ||
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन, सकल सुमंगल सदनु सुहावन ||
करत प्रबेस मिटे दुख दावा, जनु जोगीं परमारथु पावा ||
देखे भरत लखन प्रभु आगे, पूँछे बचन कहत अनुरागे ||
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें, तून कसें कर सरु धनु काँधें ||
बेदी पर मुनि साधु समाजू, सीय सहित राजत रघुराजू ||
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा, जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा ||
कर कमलनि धनु सायकु फेरत, जिय की जरनि हरत हँसि हेरत ||
संदेश की बात समझा रहा हूँ, इस चौपाई में भरत राम जी के आश्रम में पहुंचते हैं और राम जी से मिलन करते हैं।चौपाई का अर्थ है: "वह सुंदर सहायक जोड़ा, जिसे देखने से लखन भी वास्तविक बन जाता है। भरत ने प्रभु राम के आश्रम को देखकर सब सुमंगल और सुहावन धाम प्राप्त किया। वहाँ पहुंचकर सभी दुःख दूर हो गए, जैसे कोई योगी परमार्थ को प्राप्त करता है।
जब भरत ने राम को देखा, उनसे अपने अनुराग से पूछा, सिर पर जटा बाँधी, मुनि के भंगिमा पर धनु का भार रखा।
मुनियों और साधु-संतों के समूह में बैठे राम राजा ने सीता के साथ राजत रूप से राज किया। उन्होंने अपने सुंदर शारीर को कठिन तन बसन में ढाला, मुनि भेष में प्यार और काम रति में विचरण किया। उन्होंने कमल की पट्टी में धनु और सायक को घुमाया, मन की जलन को हँसी में बदला और विचार किया।"
दोहा
लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु,
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु ||२३९ ||
इस दोहे का अर्थ है: "श्रीरामचंद्रजी ने सीता जी के साथ महान मुनियों के बीच रहते हुए वहाँ एक लसत और मनोहारी रूप में विराजमान थे। उन्होंने ज्ञान सभा में सभी लोगों को भक्ति और सच्चिदानंद की शिक्षा दी।"इस दोहे में व्यक्त किया गया है कि श्रीरामचंद्रजी ने सीता जी के साथ महान मुनियों के बीच एक लसत और मनोहारी रूप में विराजमान थे। वे ज्ञान सभा में सभी को भक्ति और सच्चिदानंद की शिक्षा देते थे।
चौपाई
सानुज सखा समेत मगन मन, बिसरे हरष सोक सुख दुख गन ||
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई, भूतल परे लकुट की नाई ||
बचन सपेम लखन पहिचाने, करत प्रनामु भरत जियँ जाने ||
बंधु सनेह सरस एहि ओरा, उत साहिब सेवा बस जोरा ||
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई, सुकबि लखन मन की गति भनई ||
रहे राखि सेवा पर भारू, चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू ||
कहत सप्रेम नाइ महि माथा, भरत प्रनाम करत रघुनाथा ||
उठे रामु सुनि पेम अधीरा, कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा ||
चौपाई का अर्थ है:"सानुज और सखा समेत मन खो गए, हर्ष, दुःख, सुख, सोक - सब भूल गए। नाथ को देखते हुए कहते हैं, वह भूमि से उपर कुटी की तुलना में हैं।
लखन भरत को पहचानते हैं, नमस्कार करते हैं और भरत को जानते हैं। उनका स्नेह बहुत गहरा है, वे साहिब की सेवा में ही जोड़ा है।
उनके मिलने से बंधन नहीं बनता, लेकिन लखन की मन की गति कुछ ऐसी होती है कि वह सुखी होते हैं। वे सेवा में भारी रहते हैं, जनता को आगे बढ़ाने और खेलने में महान हैं।
प्रेमभारी भरत रघुनाथ को नमस्कार करते हैं। जब राम ने सुना, उनकी प्रेमभावना बढ़ी, कहाँ बुझाव कहाँ निशाना, धनु और तीर से तुलना करते हुए।"
दोहा
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान,
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ||२४० ||
इस दोहे का अर्थ है: "जैसे बरबस लोग अपने उठाये हुए वस्त्रों को छोड़कर अन्य कपड़े पहनते हैं, उसी तरह भरत ने भी राम के मिलन को देखकर सब कुछ छोड़ दिया।"इस दोहे में बताया गया है कि जैसे बरबस लोग अपने पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए कपड़े पहनते हैं, उसी तरह भरत ने भी रामचंद्रजी के मिलन को देखकर सभी सामान को छोड़ दिया था। यहाँ भरत का प्रेम और त्याग की भावना को दिखाया गया है।
चौपाई
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी, कबिकुल अगम करम मन बानी ||
परम पेम पूरन दोउ भाई, मन बुधि चित अहमिति बिसराई ||
कहहु सुपेम प्रगट को करई, केहि छाया कबि मति अनुसरई ||
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा, अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा ||
अगम सनेह भरत रघुबर को, जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को ||
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती, बाज सुराग कि गाँडर ताँती ||
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की, सुरगन सभय धकधकी धरकी ||
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे, बरषि प्रसून प्रसंसन लागे ||
इस चौपाई के अर्थ हैं:"क्या प्रेम और प्रीति को कैसे व्यक्त किया जाए, किस प्रकार अद्भुत कर्मों की गवाही दी जाए। दोनों भाइयों की परम प्रेमभावना, मन, बुद्धि, और चित्त को अहंकार से भर दी है। कहो, प्रेम को कैसे प्रकट किया जाए, कैसे छाया कवि की बुद्धि को अनुसरित किया जाए। कवियों ने अर्थ को सही रूप में कहा, और ताल और गति के साथ नट्य नाचा। अद्भुत प्रेम भरत को रघुकुल के प्रभु के लिए, जहाँ मन भगवान के व्यक्ति के बिना नहीं जा सकता। मैं कैसे कुछ भी कहूँ, यह बुद्धिमान कवि की बातें हैं, संगीत के सुरों की धुंधली धुंधली धड़कनों की तरह। भरत और राम का मिलन, स्वर्गीय प्राणियों को उत्साहित करता है, उनका दर्शन सुरों को जाग्रत करता है और बरसात में फूलों की प्रशंसा करता है।"
दोहा
मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम,
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम ||२४१ ||
इस दोहे का अर्थ है: "रिपुसूदन रावण से मिलकर सीता जी ने भगवान राम को मिलने के लिए केवट को भेंट की। बहुत भयभीत होकर भरत और लक्ष्मण ने राम को प्रणाम किया।"इस दोहे में कहा गया है कि सीता जी ने रावण से मिलकर भगवान राम को मिलने के लिए केवट को भेट दी। इसके परिणामस्वरूप भरत और लक्ष्मण ने भगवान राम को प्रणाम किया।
चौपाई
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई, बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई ||
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे, अभिमत आसिष पाइ अनंदे ||
सानुज भरत उमगि अनुरागा, धरि सिर सिय पद पदुम परागा ||
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए, सिर कर कमल परसि बैठाए ||
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं, मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं ||
सब बिधि सानुकूल लखि सीता, भे निसोच उर अपडर बीता ||
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा, प्रेम भरा मन निज गति छूँछा ||
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि, जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि ||
इस चौपाई के अर्थ हैं:"भरत ने भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण को मिलकर अपने हृदय में उत्कृष्ट भावना से स्वागत किया। फिर मुनियों ने दोनों भाइयों को बाँध कर देखकर उन्हें अभिमति और आशीर्वाद से आनंदित किया। सानुज भरत ने भगवान राम के पादों की धरते हुए सीता को शिरसि स्थान दिया। फिर बार-बार प्रणाम करके उठाया और सीता से आशीर्वाद लिया, लेकिन सन्देह के कारण उनका मन तृप्त नहीं हो पा रहा था। सीता ने सभी प्रकार से सानुकूलता को देखा और अपने मन में चिंतन किया, परन्तु कोई कुछ नहीं कहता था और कोई कुछ नहीं पूछता था, उनके मन में प्रेम भरा था और वह अपनी निजी भावनाओं को छूते रहे। इसी अवसर पर धीरज बनाए रखकर वे जल को जोड़कर प्रणाम किया।"
दोहा
नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग,
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ||२४२ ||
इस दोहे का अर्थ है: "जब मुनि नाथ रामचंद्रजी के साथ अपने मातुलों के साथ सभी पुरोहित और लोग, सेनापति, सचिव आदि सब लोग मिले, तो वे सभी विचलित और वियोग स्थिति में थे।"इस दोहे में बताया गया है कि जब मुनिनाथ रामचंद्रजी के साथ अपने मातुलों के साथ सभी पुरोहित, लोग, सेनापति, सचिव आदि सब लोग मिले, तो वे सभी विचलित और वियोग स्थिति में थे।
चौपाई
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू, सिय समीप राखे रिपुदवनू ||
चले सबेग रामु तेहि काला, धीर धरम धुर दीनदयाला ||
गुरहि देखि सानुज अनुरागे, दंड प्रनाम करन प्रभु लागे ||
मुनिबर धाइ लिए उर लाई, प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई ||
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू, कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू ||
रामसखा रिषि बरबस भेंटा, जनु महि लुठत सनेह समेटा ||
रघुपति भगति सुमंगल मूला, नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला ||
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं, बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ||
चौपाई का अर्थ है:सीता ने गुरुजनों की आज्ञा सुनकर शत्रु के वन के पास जाकर स्थान रखा। राम ने उसी समय धीरे-धीरे सभी धर्मों का पालन करते हुए दयालु और धर्मपरायण होकर चलना शुरू किया। उनके गुरु को देखकर सानुज ने प्रेम से उनको नमस्कार किया। मुनियों ने अपने हृदय में उनको सम्मान दिया और प्रेम से दोनों भाइयों को मिलाया। प्रेम और आनंद की भावना से केवट ने अपना नाम कहा और दूर से ही नमस्कार किया। राम के साथी ऋषि भी दूर से ही नमस्कार करते हुए, उनके हृदय में स्नेह की भावना को समझा। भगवान राम की भक्ति ही सभी सुखों का मूल है, जिसे स्वर्गीय और देवताओं ने सराहा और प्रशंसा की। इस प्रकार का समाप्तित जगत में किसी को भी नहीं मिलता, बड़े ही मुनि वसिष्ठ के समान जगत में किसी और को नहीं मिलता।
दोहा
जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ,
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ ||२४३ ||
इस दोहे का अर्थ है: "जिस रूप को लखनहु (लक्ष्मण) ने देखा, उससे अधिक मुनिराज (वाल्मीकि जी) को भी मिला। वह सीतापति (राम) भजन में प्रकट होते हैं, जिनका प्रताप अत्यंत प्रभावशाली होता है।"इस दोहे में यह कहा गया है कि लक्ष्मण जो रूप देखा, उससे भी अधिक मुनिराज को भी वही रूप प्राप्त हुआ। वह सीतापति (राम) भजन में प्रकट होते हैं, जिनका प्रताप अत्यंत प्रभावशाली होता है।
चौपाई
आरत लोग राम सबु जाना, करुनाकर सुजान भगवाना ||
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी, तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी ||
सानुज मिलि पल महु सब काहू, कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू ||
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं, जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं ||
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा, पुरजन सकल सराहहिं भागा ||
देखीं राम दुखित महतारीं, जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं ||
प्रथम राम भेंटी कैकेई, सरल सुभायँ भगति मति भेई ||
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी, काल करम बिधि सिर धरि खोरी ||
इस चौपाई का अर्थ है:"सभी लोग भगवान राम को जानते हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ और करुणामय हैं। जो कोई भी जैसा-जैसा इच्छित होता है, वैसा-वैसा ही वह रूप धारण करता है। सानुज ने सभी के साथ पल-पल में मिलन किया, लेकिन उन्होंने विशेष दुःख और पीड़ा को दूर रखा। ऐसी बड़ी बात भगवान राम की नहीं है, जैसे सूर्य को करोड़ों घटों में एक ही रूप में देखा जाता है। केवट ने मिलकर अपनी भावना से प्रेम जताया, और सभी लोग उन्हें सराहा। राम ने दुखी महात्माओं को देखा, जिन्होंने सब सहन करते हुए बर्फ से धाक लिया। पहले राम ने कैकेई से मिलकर उन्हें सरलता से भक्ति की मार्गदर्शन किया, फिर उनके पैरों पर प्रणाम किया और समय पर उठकर नमस्कार किया।"
दोहा
भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु ||
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु ||२४४ ||
इस दोहे का अर्थ है: "सभी लोग भगवान राम को मिलकर संतुष्ट हो गए, लेकिन जगत को मातृभावना रखने वाली माँ ईसा के आगे कोई दोष नहीं देता।"इस दोहे में कहा गया है कि सभी लोग भगवान राम से मिलकर संतुष्ट हो गए, लेकिन जगत को मातृभावना रखने वाली माँ ईसा के सामने कोई दोष नहीं देता। यहाँ माँ की महत्ता और उसकी दयालुता को बताया गया है।
चौपाई
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई, सहित बिप्रतिय जे सँग आई ||
गंग गौरि सम सब सनमानीं ||देहिं असीस मुदित मृदु बानी ||
गहि पद लगे सुमित्रा अंका, जनु भेटीं संपति अति रंका ||
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता, परे पेम ब्याकुल सब गाता ||
अति अनुराग अंब उर लाए, नयन सनेह सलिल अन्हवाए ||
तेहि अवसर कर हरष बिषादू, किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ||
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ, गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ ||
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू, जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू ||
इस चौपाई का अर्थ है:"गुरु के प्रति दोनों भाई जो भी पदयात्रा में साथ आए, वे बिप्रतियों के साथ भी सम्मानित होते हैं। गंगा, गौरी और अन्य सभी देवियों की तरह उन्होंने भक्ति दिखाई। उन्होंने दी हुई आशीर्वाद से मिठी और सुमधुर भाषा में बातचीत की। सुमित्रा ने उनके पादों में बांधा, जो उनके सम्मान में बहुत महत्त्वपूर्ण था। फिर माता ने उन दोनों भ्राताओं को चारों ओर से प्यार से घेर लिया, उनके आँखों में प्यार भर आया। उसी समय खुशी और दुःख दोनों बराबर थे, कौन समय में मूक जैसा रह सकता है? सानुज राघुराम से मिलकर गुरु से कहने लगे कि अब हमें जाना चाहिए। लोग सभी ओर से मुनियों को देखकर उन्हें अपना स्वागत करने लगे।"
दोहा
महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ ||
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ ||२४५ ||
इस दोहे का अर्थ है: "रामचंद्रजी ने महिषीर के मंत्री, मातुल, गुरु, और अन्य लोगों के साथ मिलकर पावन आश्रम गए। भरत, लक्ष्मण, और राम सहित।"इस दोहे में कहा गया है कि रामचंद्रजी ने महिषीर के मंत्री, मातुल, गुरु, और अन्य लोगों के साथ मिलकर पावन आश्रम गए, जहां भरत, लक्ष्मण, और राम भी थे। यह उनके आदर्शी और सम्मानित व्यवहार को दर्शाता है।
चौपाई
सीय आइ मुनिबर पग लागी, उचित असीस लही मन मागी ||
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता, मिली पेमु कहि जाइ न जेता ||
बंदि बंदि पग सिय सबही के, आसिरबचन लहे प्रिय जी के ||
सासु सकल जब सीयँ निहारीं, मूदे नयन सहमि सुकुमारीं ||
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं, काह कीन्ह करतार कुचालीं ||
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा, सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा ||
जनकसुता तब उर धरि धीरा, नील नलिन लोयन भरि नीरा ||
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई, तेहि अवसर करुना महि छाई ||
इस चौपाई का अर्थ है:"सीता जब मुनियों के पैरों में प्रणाम किया, मन में उचित आशीर्वाद मांगा। गुरुपति राम ने मुनियों के साथ मिलकर कहा कि प्रेम की बात को कहो, लेकिन जीत न करो। सीता ने सभी के पैरों को प्रणाम किया और उनके प्रिय पति के आशीर्वादों को प्राप्त किया। जब सीता ने सभी सासुनों को देखा, तो सुन्दर वस्त्रों में नील और नील का पानी भरे हुए नील के जैसी दिखाई दी। जब सभी सासुने सीता को देखा, तो उन्होंने इस अवसर में करुणा को छिपा लिया।"
दोहा
लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग ||
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग ||२४६ ||
यह दोहा अर्थ है: "सभी लोगों ने सीता जी के पैरों को अत्यधिक अनुराग से चूमा। उनके हृदय में आशीर्वाद और प्रेम से भरा वह अच्छे से सुखदायी रहता है।"
टिप्पणियाँ