मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम 317-326

मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम 317-326 Masparayan, twenty-first rest 317-326

चौपाई 
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी, अवधि आस सम जीवनि जी की ||
नतरु लखन सिय सम बियोगा, हहरि मरत सब लोग कुरोगा ||
रामकृपाँ अवरेब सुधारी, बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ||
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो, राम प्रेम रसु कहि न परत सो ||
तन मन बचन उमग अनुरागा, धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ||
बारिज लोचन मोचत बारी, देखि दसा सुर सभा दुखारी ||
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से, ग्यान अनल मन कसें कनक से ||
जे बिरंचि निरलेप उपाए, पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सभी लोगों ने उसकी कुशलता की स्तुति की, जैसे कि जीवन की आशा सभी जीवनों के लिए होती है। लक्ष्मण ने सीता के वियोग को देखा, जिससे हर कोई दुखी हो गया। राम की कृपा ने सबको सुधारा, जिससे उनकी महिमा और गुणों की चर्चा हो गई। भरत ने उनसे भेंट की और अपने भाई राम की प्रेम रस को दोबारा प्रकट नहीं किया। उनका मन, बोल, और कार्य भाई के प्रति उत्साह से भरा था। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया, जैसे धीर धरा हुआ बृहस्पति अपना त्याग देता है। उनकी आंखें जल से भर आईं, उन्होंने देखा कि सभी स्वर्गीय जीवों को दुःख हो रहा है। मुनिगण, गुरु, धर्म, धीरता, और जनक से प्राप्त ज्ञान स्वच्छ है, जैसे सोने को आग में कसा जाता है। जैसे ब्रह्मा जल को निर्लेपता से उपयोग करते हैं, वैसे ही पद्मपत्र जल को पीते हैं, जबकि वह जल जल्दी ही सूख जाता है।"
दोहा
तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार,
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ||३१७ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब भरत ने रामचन्द्र जी को देखा, तो उनकी प्रेम भरी अनूप और अपार थी। उनका मन, शरीर, वचन और विचार सब वैराग्यपूर्ण था। यह दोहा बताता है कि भरत की प्रेम और वैराग्यपूर्ण भावना जिन्हें देखकर, इसे देखने वाले के मन में भी वही भावना उत्पन्न हो जाती है।
चौपाई 
जहाँ जनक गुर मति भोरी, प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी ||
बरनत रघुबर भरत बियोगू, सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ||
सो सकोच रसु अकथ सुबानी, समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी ||
भेंटि भरत रघुबर समुझाए, पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ||
सेवक सचिव भरत रुख पाई, निज निज काज लगे सब जाई ||
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा, लगे चलन के साजन साजा ||
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई, चले सीस धरि राम रजाई ||
मुनि तापस बनदेव निहोरी, सब सनमानि बहोरि बहोरी ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"जहाँ जनक गुरु की बुद्धि विशेष होती है, वहाँ प्राकृतिक प्रेम को बड़ा खोरी देते हैं। जब भरत ने राम के वियोग की बात सुनी, तो सभी लोग उन्हें अत्यंत दुखी होते हुए जानते थे। उस असुरद्वन की रस को बिना वर्णन किये, वह अपने सन्निकट में प्रेम की बात सुनाते थे। भरत ने राम को उस रस को समझाते हुए मिला, और फिर दुश्मन के वन में खो जाने पर उनके मन में हर्ष भी लाया। सेवक और सचिव भरत ने अपने-अपने कार्यों में संलग्न होकर सभी काम कर दिए और फिर दुःख का सामाजिक संस्कृति में बहुत सारा बोझ देखा। भ्रातृहत्या के दुख से प्रभु राम और भरत ने अपने-अपने सीसे पर राम की रजाई डाली। मुनिगण, तपस्वी, और देवताओं ने सभी को श्रद्धापूर्वक सम्मानित किया।"
दोहा
लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि,
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि ||३१८ ||
इस दोहे में कहा गया है कि लक्ष्मण ने सीता माता के पादों को धूलि बनाकर नमस्कार किया और सीता माता के पादों को सिर पर धारण करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। वे सभी अनुराग से सिया की आशीर्वाद को सुनकर सभी सुमंगल समाचार सुनकर चले गए। इस दोहे में प्रेम, समर्पण, और श्रद्धा के भाव को उजागर किया गया है जो एक परिवार के सदस्यों के बीच में एक सुखद और समृद्ध वातावरण बनाता है।
चौपाई 
सानुज राम नृपहि सिर नाई, कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई ||
देव दया बस बड़ दुखु पायउ, सहित समाज काननहिं आयउ ||
पुर पगु धारिअ देइ असीसा, कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ||
मुनि महिदेव साधु सनमाने, बिदा किए हरि हर सम जाने ||
सासु समीप गए दोउ भाई, फिरे बंदि पग आसिष पाई ||
कौसिक बामदेव जाबाली, पुरजन परिजन सचिव सुचाली ||
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा, बिदा किए सब सानुज रामा ||
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे, सब सनमानि कृपानिधि फेरे ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सहनशील राम ने राजा के सिर को नमस्कार किया, वे बहुत से तरीकों से बड़ी बड़ी विनय कियीं। परमात्मा की कृपा को छोड़कर बड़ा दुःख उन्हें मिला, सोचते समाज में जा बैठे। राम ने बाबा जानकी के पैरों को पकड़कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया, वे धीरे-धीरे जामुन के पौधे की तरह स्थितिमान हो गए। मुनियों, देवताओं और साधु-संतों ने सभी को सम्मान दिया, और वे हरि-हरि समझे गए। दो भाइयों ने सास-समीप जाकर बंदिशक्ति को प्राप्त किया, उन्होंने कौसिक, बामदेव, और जाबाली जैसे श्रेष्ठ ऋषियों, और सभी जनों और परिजनों को सम्मान दिया। वे सभी नारी-पुरुषों को समान रूप से सम्मानित करते थे।"
दोहा
भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि,
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ||३१९ ||
इस दोहे में कहा गया है कि भरत ने माता के पादों को बंधकर श्री राम जी के साथ प्रेम से मिलन किया। फिर वे विचार करके सब उन्होंने विचार किया और बिना किसी आत्मसंतोष के विदा की तैयारी की, सब कुछ सोच-विचार कर समाप्त किया। यह दोहा मानवीय संदेश देता है कि हमें जिम्मेदारीपूर्ण तरीके से विचार करके अपने निर्णय लेने चाहिए और उसके बाद उसके अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए।
चौपाई 
परिजन मातु पितहि मिलि सीता, फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ||
करि प्रनामु भेंटी सब सासू, प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ||
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई, रही सीय दुहु प्रीति समाई ||
रघुपति पटु पालकीं मगाईं, करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई ||
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई, सम सनेहँ जननी पहुँचाई ||
साजि बाजि गज बाहन नाना, भरत भूप दल कीन्ह पयाना ||
हृदयँ रामु सिय लखन समेता, चले जाहिं सब लोग अचेता ||
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें, चले जाहिं परबस मन मारें ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"परिजनों ने माता और पिता के साथ मिलकर सीता को फिर से प्राणप्रिय प्रेम से लिया। सभी सासूओं ने की उनका सम्मान करने की अभिनंदना, पर कवि कहते हैं कि हर्ष नहीं था। सुनकर सीता ने सिखाया गया अभिमत आशीर्वाद प्राप्त किया और फिर वे दोनों मिलकर प्रीति में समाई। श्रीराम ने बहुत प्रबोधन किया, सब माताओं को चढ़ावा दिया। दोनों भाई बार-बार मिलकर सन्मान दिया, जैसे सासों ने प्यार से नाना बाजे बजाए। भरत ने राज्य के साथ बड़ी संख्या में भक्तों के साथ राम की दलील की। राम, सीता और लक्ष्मण के साथ सभी लोग अचेत हो गए, और बाजों और हाथी जैसे जानवर हार गए, जबकि उनके मन में परबस की ओर समर्थन था।"
दोहा
गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत,
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ||३२० ||
यह दोहा बताता है कि गुरु की शिक्षा को ध्यान से ग्रहण करके भगवान राम, सीता और लक्ष्मण सहित लोग हर्षित होकर प्रभु के निकट आते हैं। इसमें बताया गया है कि गुरु की शिक्षा का महत्त्व बहुत ऊँचा होता है और जब हम उसे मानते हैं तो हम भगवान के पास आते हैं और उन्हें प्राप्त करने में खुशी महसूस करते हैं।
चौपाई 
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू, चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ||
कोल किरात भिल्ल बनचारी, फेरे फिरे जोहारि जोहारी ||
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं, प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं ||
भरत सनेह सुभाउ सुबानी, प्रिया अनुज सन कहत बखानी ||
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी, श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ||
तेहि अवसर खग मृग जल मीना, चित्रकूट चर अचर मलीना ||
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की, बरषि सुमन कहि गति घर घर की ||
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो, चले मुदित मन डर न खरो सो ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"जब वे निषादों ने विदाई ली, तो उनके हृदय में बड़ी विरहनाक और दुखद अवस्था थी। किरात, भिल्ल और बनवासी जोहारी लगातार फिरते थे। प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण बैठे थे और उनके प्रियजन विदा हो रहे थे, जिनकी बियान और वियोग की पीड़ा बहुत थी। भरत ने सभी को सम्मान और प्रेम से साथ दिया और अपने प्रिय भाई के साथ अपनी बातें कही। वे विशेष अवसर पर चित्रकूट पर्वत में चर रहते हुए भव्य मानसिक अवस्था में थे। सभी लोगों के घर-घर में खुशियों का संचार हो रहा था और उन्होंने भगवान का नमस्कार करके अपनी आशीर्वाद दी और खुशी से डरने की सलाह दी।"
दोहा
सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर,
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर ||३२१ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति भगवान के साथ और सीता जी के साथ एक छोटे से गुहारूप आश्रम में निवास करता है, वहां भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के साथ जन्मा हुआ शरीर सुंदरता को भी प्राप्त कर लेता है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति भगवान की भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के साथ रहता है, वही वास्तविक सुंदरता को प्राप्त करता है।
चौपाई 
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू, राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ||
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं, सब चुपचाप चले मग जाहीं ||
जमुना उतरि पार सबु भयऊ, सो बासरु बिनु भोजन गयऊ ||
उतरि देवसरि दूसर बासू, रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ||
सई उतरि गोमतीं नहाए, चौथें दिवस अवधपुर आए,
जनकु रहे पुर बासर चारी, राज काज सब साज सँभारी ||
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू, तेरहुति चले साजि सबु साजू ||
नगर नारि नर गुर सिख मानी, बसे सुखेन राम रजधानी ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस की है जिसका अर्थ है:
"मुनि श्रीरामचन्द्र जी को विरही देखकर गुरु वाल्मीकि ने भरत को उपदेश दिया कि उनकी चरित्र गुणों को जानने वाले सब मन्दिर में चुपचाप चल दिया। जब वे यमुना नदी के पार गए तो वे भोजन किए बिना ही गए। उन्होंने देवासर नदी के उत्तर तीर पर अवधपुर गये और वहां रुके। सीताजी ने गोमती नदी में स्नान किया और चौथे दिन अयोध्यापुर में आए। जनक जी ने अपने नगर में चारों ओर सब कुछ सजाया और सम्पूर्ण राजकाज संभाला। वहां गुरु वाल्मीकि जी ने भरत को राज्य का प्रबंधन सौंपा, जो उन्होंने खुशियों से सजाया, और वहां श्रीरामचन्द्र जी शांति से विराजमान रहे।"
दोहा
राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास,
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस ||३२२ ||
यह दोहा बताता है कि लोग श्री राम के दर्शन के लिए सभी प्रकार के उपवास और तप करते हैं। वे अपने भूषणों और भोगों को छोड़ देते हैं, क्योंकि जीवन के सुख की आशा को त्यागते हैं। यहाँ पर संदेश है कि असली सुख और प्राप्ति उस दिव्यता में है जो भगवान के दर्शन से मिलती है, और इसी के लिए मानव को सांसारिक भोगों को त्यागना चाहिए।
चौपाई 
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे, निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे ||
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई, सौंपी सकल मातु सेवकाई ||
भूसुर बोलि भरत कर जोरे, करि प्रनाम बय बिनय निहोरे ||
ऊँच नीच कारजु भल पोचू, आयसु देब न करब सँकोचू ||
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए, समाधानु करि सुबस बसाए ||
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी, करि दंडवत कहत कर जोरी ||
आयसु होइ त रहौं सनेमा, बोले मुनि तन पुलकि सपेमा ||
समुझव कहब करब तुम्ह जोई, धरम सारु जग होइहि सोई ||
चौपाई का अर्थ: "भरत ने सचिवों और सेवकों को प्रेरित किया, और सबको उनके अपने कार्यों को सीखने के लिए प्रेरित किया। फिर उन्होंने छोटे भाई से शिक्षा दी, और सभी माताओं को सेवा करने का आदेश दिया। भरत ने भूशुर से बोलकर जोर से कहा, और विनम्रता से नम्र होकर नमस्कार किया। उन्होंने कहा कि ऊँचे-नीचे के कार्यों में भलाई की तलाश करनी चाहिए, और डरावने कार्यों से बचना चाहिए। परिजनों, पुरोहितों और जनता को बुलाकर सभी को सामंजस्य बैठाया। भरत ने सुमित्रा के साथ गुरुकुल में जाकर दंडवत किया और शक्ति से बोला। यदि मेरे आदेश के अनुसार कोई कार्य किया जाए, तो मुझसे प्रिय मुनि तन अत्यंत प्रसन्न होकर तन में पुलकित हो जाता है। समझाते हुए और कहते हुए जो तुम्हें सही लगे, वही धर्म है, जिससे सम्पूर्ण जगत् में सुख-शांति हो।"
दोहा
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि,
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि ||३२३ ||
इस दोहे का अर्थ है कि हमें सीखना चाहिए कि हमें समझना चाहिए कि कैसे हमें गर्व की आवश्यकता है और हमें दूसरों को सम्मान और आदर देना चाहिए। इसे तुलना की गई है एक राजा के सिंहासन और प्रभु की पादुका के साथ, जो अपरिमित हैं और बिना सीमा के हैं। इस दोहे का संदेश है कि हमें समझना चाहिए कि विशेषता और महानता में वास्तविकता क्या होती है और हमें इसे समझकर उसे सम्मान देना चाहिए।
चौपाई 
राम मातु गुर पद सिरु नाई, प्रभु पद पीठ रजायसु पाई ||
नंदिगावँ करि परन कुटीरा, कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा ||
जटाजूट सिर मुनिपट धारी, महि खनि कुस साँथरी सँवारी ||
असन बसन बासन ब्रत नेमा, करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ||
भूषन बसन भोग सुख भूरी, मन तन बचन तजे तिन तूरी ||
अवध राजु सुर राजु सिहाई, दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ||
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा, चंचरीक जिमि चंपक बागा ||
रमा बिलासु राम अनुरागी, तजत बमन जिमि जन बड़भागी ||
चौपाई का अर्थ:
"हे राम! माता और गुरु के पादों को सिर पर धरता हूँ, और आपके पाद और पीठ को राज्य की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ। मैंने नंदिगाव के पास पर्वत श्रृंग में कुटिया बनाई है और धर्म और धीरज से वहाँ निवास किया है। मैंने जटा और जूटे पहने हैं, मुनियों की तरह सिर पर पट्टी बांधी है, और मिट्टी को कुसुमित और साफ किया है। मैं अनुष्ठान, आश्रम और व्रत का पालन करता हूँ, और प्रेम से ऋषियों को सेवा करता हूँ। मेरे भूषण और वस्त्र का सुख बहुत है, लेकिन मैं मन, शरीर और वचन को त्याग देता हूँ। अवध के राजा से भी ऊंचा समझता हूँ, दशरथ के धनुष को सुनकर धनदु की लज्जा करता हूँ। मैं वहाँ पुर बसता हूँ, लेकिन भरत के बिना कोई राग नहीं रखता, जैसे मद्धमारी वृक्ष के बिना चम्पक का बाग। रमा (सीता) राम के भोग-सुख का आनंद लेने वाली है, वह ब्रह्माज्ञानी लोगों की भाग्यशाली भूमि को छोड़ती है।"
यह चौपाई भगवान राम के भक्त भरत के धर्म, विवेक, और समर्पण को वर्णित करती है। इसमें भरत का आदर्श, साधना, और रामभक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
दोहा
राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति,
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति ||३२४ ||
इस दोहे का अर्थ है कि राम की प्रेम भक्ति का वर्णन करना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि वह एक अनुभव है जो अद्भुत है और जिसे व्यक्त करना संभव नहीं है। इसे तुलना किया गया है चातक पक्षी के साथ, जो सिर्फ बादलों से गिरने वाली बूंदों की प्रतीक्षा करता है और वह अद्भुत अनुभव केवल अपने वास्तविक अनुभवी होते हैं।
चौपाई 
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई, घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई ||
नित नव राम प्रेम पनु पीना, बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ||
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे, बिलसत बेतस बनज बिकासे ||
सम दम संजम नियम उपासा, नखत भरत हिय बिमल अकासा ||
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी, स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ||
राम पेम बिधु अचल अदोषा, सहित समाज सोह नित चोखा ||
भरत रहनि समुझनि करतूती, भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ||
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं, सेस गनेस गिरा गमु नाहीं ||
चौपाई का अर्थ:
"दिन-दिन शरीर घटता जा रहा है, चेहरे की चमक बढ़ती है, लेकिन शरीर का तेज और बल कम हो रहा है। श्रीराम के प्रेम को हर दिन पीना, जिससे धर्म और मन साफ और निष्कलंक रहते हैं। जैसे सर्दी के समय जल घटता है और गर्मी के समय बढ़ता है, वैसे ही भरत का बना हुआ धर्म, संयम और उपासना बढ़ता है। भरत ने स्थिर विश्वास और अद्वितीय समर्पण की अवधि पाई है, जिससे वह अपनी भक्ति को विकसित करते हैं। राम का प्रेम निष्कलंक और अदोष है, जिससे समाज के साथ हमेशा खूबसूरत रहता है। भरत ने समझने और समर्पण करने का कार्य किया है, उनकी भक्ति और गुणों की सजीवता और भव्यता है। वे सभी तरह से सच्चे हैं, और उनकी प्रशंसा और उनकी गुणों की चर्चा कोई भी भूलता नहीं है।"
यह चौपाई भगवान राम के भक्त भरत के गुणों की महिमा और उनकी शुद्ध भक्ति को वर्णित करती है। इसमें भरत के धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन की महत्ता को बताया गया है।
दोहा
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ||
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ||३२५ ||
इसमें कहा गया है कि हमें नित प्रभु राम के पावन प्रेम को पूजना चाहिए, लेकिन यह प्रीति हमारे हृदय में समा नहीं सकती है। हम बहुत सारे राजनीतिक और सांसारिक काम के लिए दिन-रात प्रार्थना करते रहते हैं, लेकिन हमारे हृदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं बनता है।
चौपाई 
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू, जीह नामु जप लोचन नीरू ||
लखन राम सिय कानन बसहीं, भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं ||
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू, सब बिधि भरत सराहन जोगू ||
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं, देखि दसा मुनिराज लजाहीं ||
परम पुनीत भरत आचरनू, मधुर मंजु मुद मंगल करनू ||
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू, महामोह निसि दलन दिनेसू ||
पाप पुंज कुंजर मृगराजू, समन सकल संताप समाजू,
जन रंजन भंजन भव भारू, राम सनेह सुधाकर सारू ||
यह चौपाई भगवान राम के भक्त भरत के गुणों और भक्ति का वर्णन करती है। यह श्लोक भगवान रामचरितमानस से लिया गया है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:
"हृदय में रघुवीर (श्री राम) के नाम का जाप करते हुए, शरीर में भीगोंदे हुए आंसू बहाते हैं। लक्ष्मण राम और सीता के साथ वन में रहते हैं, और भरत भवन में बसकर तपस्या करते हैं। सभी लोग समझते हैं और कहते हैं कि भरत सभी तरह से सराहनीय हैं। व्रत, नियम, साधुता और संयम के प्रिय भरत को देखकर ऋषि भी लज्जित हो जाते हैं। भरत धर्मशील, ध्यानी, आनंदी और मंगलकारी हैं। वह कठिन कलियुग के दोषों को हरते हैं, और माया को नष्ट करते हैं। पापों के संग्रह को बिजली के समान नष्ट करते हैं, और सभी संतापों को दूर करते हैं। जनों के रंजन, भाव-भार से मुक्त करने वाले, राम के प्रेम को मिलाने वाले श्री भरत जी सच्चे सुधाकर हैं।"
इस चौपाई में भरत की भगवान राम के प्रति अद्भुत भक्ति, धर्मप्रेम और ध्यान की महिमा को वर्णित किया गया है।
छंद 
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को,
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को ||
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को,
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ||
इसका अर्थ है कि रामचंद्रजी का प्रेम पियूष की तरह है, जो जन्मों-जन्मों तक सभी को पूर्ण कर देता है। वे मुनि मन को अगम्य बनाते हैं और अपने जम नियम, सम दम और ब्रत के माध्यम से दुख, दाह, दारिद्र्य, दंभ और दुष्टता को नष्ट करते हैं। कलियुग में तुलसीदासजी ने अपने हठ और राम की अनुग्रह को स्वीकार करते हुए उनका सेवन किया।
सोरठा
भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं,
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति ||३२६ ||
इस श्लोक में कहा गया है कि जो भक्त भरत के चरित्र को नाम लेकर सुनते हैं, वे सीता और राम के प्रेम में अवस्थित होकर भवसागर से रस बिरति प्राप्त कर लेते हैं।
मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम
 द्वितीयः सोपानः समाप्तः,
(अयोध्याकाण्ड समाप्त)

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