मासपारायण इक्कीसवाँ विश्राम

मासपारायण  इक्कीसवाँ विश्राम Maasparayan twenty-first rest

चौपाई 
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा, बचन किरन मुनि कमल बिकासा ||
तेहि कि मोह ममता निअराई, यह सिय राम सनेह बड़ाई ||
बिषई साधक सिद्ध सयाने, त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ||
राम सनेह सरस मन जासू, साधु सभाँ बड़ आदर तासू ||
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू, करनधार बिनु जिमि जलजानू ||
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए, रामघाट सब लोग नहाए ||
सकल सोक संकुल नर नारी, सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ||
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू, प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"जिसका ज्ञान सूर्य की भांति है, जिसके शब्द ऋषियों के कमल जैसे खिलते हैं। वह सम्पूर्ण मोह और ममता को दूर करके श्रीराम के प्रेम को बढ़ाता है। साधकों को विष से मुक्ति दिलाने वाले सिद्ध और बुद्धिमान लोग भेद बताते हैं, लेकिन जिनके मन में श्रीराम का प्रेम है, उन्हें साधु-समाज में बड़ा आदर मिलता है। बिना राम के प्रेम के, ज्ञान के बिना, जलजान की तरह करनधार के बिना, ऋषियों ने बिदेश में अनेक प्रकार से समझाया, जहाँ लोग श्रीराम के घाट पर स्नान करते हैं। सभी संकट और चिंताएँ मनुष्यों और स्त्रियों को दुखित कर देती हैं, बिना किसी रोक-टोक के। पशु, पक्षी, और मृग भी उन्हें अहार नहीं बना सकते, तो फिर प्रियजनों की क्या बात करूँ?"
दोहा
दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात,
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ||२७७ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"दोनों समाज निमिराज और रघुराज, प्रात: समय में नहाने के लिए बैठे हुए हैं, जहां सभी लोग अपने अपने बट और बिटप में विभिन्न वस्त्रों से विभूषित हैं, और मन में कृष्ण के गुण गाते हैं।"
यह दोहा भगवान राम और समाज के साथी भक्तों के साथ उनके निमिराज वानर सेना के विविधता को बयान करता है। सभी मिलकर भगवान की पूजा करते हैं और साथी समर्थन के साथ उनके गुणों का गान करते हैं।
चौपाई 
जे महिसुर दसरथ पुर बासी, जे मिथिलापति नगर निवासी ||
हंस बंस गुर जनक पुरोधा, जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ||
लगे कहन उपदेस अनेका, सहित धरम नय बिरति बिबेका ||
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं, समुझाई सब सभा सुबानीं ||
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ, नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ ||
मुनि कह उचित कहत रघुराई, गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई ||
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू, इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ||
कहा भूप भल सबहि सोहाना, पाइ रजायसु चले नहाना ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"जो महाराज दशरथ नगर अयोध्या में निवास करते थे, जो मिथिलापति जनक नगर में बसते थे। हंसों के वंशज, गुरु, जनक की संतान, जिन्होंने संसार में परमार्थ की खोज की। उन्होंने बहुत से उपदेश दिए, धर्म और नीति के निर्णय को सही रीति से विचार किया। कौसिक ऋषि ने पुरानी कथाओं को सुनाया और सभी सभागृह को ज्ञानी बनाया। तब रघुनाथ ने कौसिक ऋषि से कहा, 'हे नाथ! समय जल बिना सभी कुछ रहेगा।' मुनि ने यह समझाते हुए कहा कि रघुराज! तुम्हें जल के बिना यहां बीता दिन और पहर गुजारना चाहिए। ऋषियों ने ऋचीराज के रुख को देखकर कहा कि यहां अनाज उपजने योग्य नहीं है। भूपाल, सबको अच्छी तरह से देखकर कहा, 'राजगद्दी पाने के लिए जाना चाहिए।'"
दोहा
तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार,
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ||२७८ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"उसी अवसर में फल, फूल, डाल, मूल और अनेक प्रकार की चीजें होती हैं। इन सबको लेकर बनचर भगवान की पूजा करने के लिए बहुत भारी काँवर लेकर आते हैं।"
यह दोहा उस अवसर की महत्वपूर्णता को बताता है जब भक्त भगवान की पूजा करने के लिए सभी प्रकार के फल, फूल, डाल, मूल आदि को इकट्ठा करता है। इसमें भगवान की पूजा के लिए विशेष भावना और समर्पण होता है।
चौपाई 
कामद मे गिरि राम प्रसादा, अवलोकत अपहरत बिषादा ||
सर सरिता बन भूमि बिभागा, जनु उमगत आनँद अनुरागा ||
बेलि बिटप सब सफल सफूला, बोलत खग मृग अलि अनुकूला ||
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू, त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ||
जाइ न बरनि मनोहरताई, जनु महि करति जनक पहुनाई ||
तब सब लोग नहाइ नहाई, राम जनक मुनि आयसु पाई ||
देखि देखि तरुबर अनुरागे, जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ||
दल फल मूल कंद बिधि नाना, पावन सुंदर सुधा समाना ||
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"रामचंद्रजी की कृपा से बादल गिरते हैं, दुःख और शोक दूर होते हैं। नदियों के समान सरोवर भूमि में विभाग होते हैं, लोग आनंद में उमड़ते हैं। सब पौधों और पेड़ों की फलन-फूलन होती है, पंछी और जानवर सुरमा से बोलते हैं। इसी अवसर पर लोग अधिक उच्छाहते हैं, वायु तीन भेदों से सबको सुखद अनुभव कराती है। राम और जनक के मिलने की चमत्कारिक कथा सुनकर, सभी लोग स्नान करने लगे। सभी लोग उनके मिलने का आनंद लेते हुए, जहाँ-जहाँ लोगों ने उतरने का आदान-प्रदान किया। फल, मूल, कंद और अनेक प्रकार के पौधों की खुशबू में समाहित होते हैं।"
दोहा
सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार,
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ||२७९ ||
इसका अर्थ है:
"सब लोग सादर होकर रामकृष्ण को पठाते हैं, और भारी भारी भंडार लगाते हैं। पितृ, देवताओं और अतिथि की पूजा करने में गुरु का समान फल प्राप्त होता है।"
इस दोहे में कहा गया है कि सब लोग समान भाव से राम की पूजा करते हैं और बहुत सारे भंडार लगाते हैं। यहां गुरु की पूजा को भी प्रमुखता दी गई है, क्योंकि गुरु को पूजने से भी उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है जो पितृ, देवताओं और अतिथि की पूजा करने में मिलता है।
चौपाई 
एहि बिधि बासर बीते चारी, रामु निरखि नर नारि सुखारी ||
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं, बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं ||
सीता राम संग बनबासू, कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ||
परिहरि लखन रामु बैदेही, जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ||
दाहिन दइउ होइ जब सबही, राम समीप बसिअ बन तबही ||
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला, राम दरसु मुद मंगल माला ||
अटनु राम गिरि बन तापस थल, असनु अमिअ सम कंद मूल फल ||
सुख समेत संबत दुइ साता, पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ||
यहाँ दी गई चौपाई का अर्थ है:
"इसी तरह समय बीता, जहाँ नर-नारी श्रीराम को देखकर आनंदित होते रहे। दोनों समाजों में राम की इच्छा मन में थी, बिना सीता के वहाँ वापस नहीं जाना चाहते थे। सीता राम के साथ वनवास में रहीं, बड़े आनंद से अनंत कोटि अमरपुरियों को संसार से ऊपर समझी गईं। लंकन को छोड़कर राम ने बैदेही को अपने घर को ही भाव समझा। जब सब सहयोगी बनकर सबको देहीन किया, तब राम ने वन में बसा लिया। अकाशकी जल में थी वह समय काल, जब राम के दर्शन से मिली खुशियों की माला। वन में राम ने तपस्या की गिरिराज की भूमि पर, वहाँ अमृततुल्य फल, मूल, फूल थे। सुख सहित वो दो सातों को पूरा करते, पल भी वहाँ के समय में गया नहीं।"
दोहा
एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ||
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ||२८० ||
इसका अर्थ है:
"यह सुख जो लोग सब कहते हैं, वह कहाँ है? यह सुख तो सहजता में है, दोनों समाज में, जो राम के चरणों का अनुराग करते हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि वह सुख जिसकी बात सभी करते हैं, वह कहीं और नहीं है, वह सुख तो उस सहजता में है जो लोगों के दोनों समाज में राम के चरणों का प्रेम करते हैं।
चौपाई 
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं, बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ||
सीय मातु तेहि समय पठाईं, दासीं देखि सुअवसरु आईं ||
सावकास सुनि सब सिय सासू, आयउ जनकराज रनिवासू ||
कौसल्याँ सादर सनमानी, आसन दिए समय सम आनी ||
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा, द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ||
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन, महि नख लिखन लगीं सब सोचन ||
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती, जनु करुना बहु बेष बिसूरति ||
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी, जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ||
यहाँ दी गई चौपाई का अर्थ है:
"इस प्रकार सभी मनोरथों को करते हुए, प्रेमपूर्वक कही गई बातें मन को हरा लेती थीं। उसी प्रकार माता सीता ने उस समय सीखा, दासियों को देखकर सुअवसर आ गया। सभी सभाएं सुनकर माता सीता स्वयं तय किया, जनक राज के आवास पर जाने का। कौसल्या माता ने सबको सज्जनता से स्वागत किया, सभी को आसन दिया और समय सम्मानित किया। सीता और राम ने एक-दूसरे को सील, स्नेह और संयम सिखाया, एक-दूसरे को देखकर पुलक सिर पर होते और नजरें झुकाने लगती थीं। सभी सीता-राम के प्रेम को देखकर हैरान हो रहे थे, कितनी कृपा और भावना भरे बेश बिसरती थी। सीता माता ने तर्क से परे अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए कहा, 'जैसे दूध में फेन टहलाने का चिंतन करता है, वैसे ही मुझे सहारा चाहिए।'"
दोहा
सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल,
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ||२८१ ||
इसका अर्थ है:
"जहां-जहां अशुद्धता और दुष्कर्म होते हैं, वहाँ-वहाँ कौआ, उल्लू, बकरा और मानसिकता मृत्यु की दशा में होती हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि जहाँ-जहाँ अशुद्धता और दुष्कर्म होते हैं, वहाँ वहाँ दुर्बुद्धि, मृत्यु की तरफ बढ़ रहे होते हैं।
चौपाई 
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा, बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा ||
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी, बाल केलि सम बिधि मति भोरी ||
कौसल्या कह दोसु न काहू, करम बिबस दुख सुख छति लाहू ||
कठिन करम गति जान बिधाता, जो सुभ असुभ सकल फल दाता ||
ईस रजाइ सीस सबही कें, उतपति थिति लय बिषहु अमी कें ||
देबि मोह बस सोचिअ बादी, बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी ||
भूपति जिअब मरब उर आनी, सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ||
सीय मातु कह सत्य सुबानी, सुकृती अवधि अवधपति रानी ||
यह चौपाई कहती है:
"सुमित्रा ने सुना और सोचा, जो बातें दी हैं वो अद्भुत और विचित्र हैं। जो सृष्टि को बनाती है और पालती है, उसके बचपन के खेल बहुत चमत्कारी हैं। कौसल्या ने किसी से नहीं कहा, कर्मों के परिणाम में सुख-दुःख छुपे होते हैं। भगवान सभी कर्मों की गति जानते हैं, जो कुछ भी अच्छा या बुरा होता है, वो सब उन्हीं का दान है। किसी भी राजा को उसकी राजा-पद्वी से मिलती है, जीवन की उत्पत्ति, स्थिति और समाप्ति किसके हाथ में हैं? सुमित्रा ने सोचा कि मरने और जन्मने का यह सिद्धांत अचल और अनादि है। राजा के जैसे ही जीवन आता है, सोचा कि निज के हित में नुकसान होता है। सीता माता ने सत्य बोला, सुखदायक अवधपुरी की रानी, सुकृतियों की अवधि।"
दोहा
लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु,
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ||२८२ ||
इसका अर्थ है:
"लखना, राम और सीता को छोड़कर जाना बहुत अच्छा है, लेकिन उसका परिणाम तक पहुंचना नहीं होता। मेरे ह्रदय में ले जाना, हे कौसल्या के पुत्र भरत, और सोचो।"
इस दोहे में व्यक्ति को समझाया जा रहा है कि राम और सीता को छोड़कर जाने का निर्णय तो बहुत अच्छा है, लेकिन उसके परिणाम को समझने के लिए उसे ध्यान में रखना चाहिए, और इसे भरत से विचार करने को कहा गया है।
चौपाई 
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी, सुत सुतबधू देवसरि बारी ||
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ, सो करि कहउँ सखी सति भाऊ ||
भरत सील गुन बिनय बड़ाई, भायप भगति भरोस भलाई ||
कहत सारदहु कर मति हीचे, सागर सीप कि जाहिं उलीचे ||
जानउँ सदा भरत कुलदीपा, बार बार मोहि कहेउ महीपा ||
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ, पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ,
अनुचित आजु कहब अस मोरा, सोक सनेहँ सयानप थोरा ||
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी, भईं सनेह बिकल सब रानी ||
यह चौपाई कहती है:
"इस प्रसाद और आशीर्वाद सभी तुम्हारे साथ हों। राम की प्रतिज्ञा मैंने नहीं की, वह करेंगे तो मैं कहूँ सकती हूँ, हे सखी, हे सती, हे भाई। भरत ने विशेष सील, गुण, विनय और बड़ाई की है, भक्ति और भरोसा दिखाया है। सारदा कहती है, मेरे मन में सच्चे भारत को, समुद्र और सीप की ऊँचाई का जानना है। मैं हमेशा भरत को प्रकाशित करती हूँ, बार-बार मुझसे यही कहता है। कैसे कनक और माणिक्य प्राप्त करें, पुरुष यहाँ परिखित होते हैं और समय से शोभा पाते हैं, मेरे अनुचित आदेश को मानना विचारणीय नहीं है, सोक सनेह बहुत ही कमजोर है। सुरसरि ने सुना और पावन बानी मिली, जिससे सभी रानियाँ सनेह को बेचती हैं।"
दोहा
कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि,
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि ||२८३ ||
इसका अर्थ है:
"हे कौसल्या की संतान, धीरे से सुनो, मैथिला के देवी ने कहा है, तुम्हारे जैसा विवेकवान और बल्लभी व्यक्ति किसी अन्य में नहीं मिल सकता, तुम्हीं उन्हें सिखा सकते हो।"
इस दोहे में माता कौसल्या को समझाया जा रहा है कि उनकी संतान, जो कि राम हैं, उनमें विशेष बुद्धिमत्ता और प्रेमशीलता है और वह अन्यों को समझाने की क्षमता रखते हैं।
चौपाई 
रानि राय सन अवसरु पाई, अपनी भाँति कहब समुझाई ||
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन, जौं यह मत मानै महीप मन ||
तौ भल जतनु करब सुबिचारी, मोरें सौचु भरत कर भारी ||
गूढ़ सनेह भरत मन माही, रहें नीक मोहि लागत नाहीं ||
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी, सब भइ मगन करुन रस रानी ||
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि, सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ||
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ, तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ||
देबि दंड जुग जामिनि बीती, राम मातु सुनी उठी सप्रीती ||
यह चौपाई कही:

"राज्य और धन्यता का यह समय मिला है, जब मैं अपनी भाषा में समझा सकूँगी। लक्ष्मण को ले जाकर भरत को बन में, जिसे यदि वह मानता नहीं है, तो इस भूमि में मन मान लें। तब ही मैं भरत के लिए अच्छे विचारों से यत्न करूँगी, और उसे मेरी श्रेष्ठता का बोझ न लगे। भरत के मन में छुपा स्नेह बहुत गहरा है, वह मुझसे बहुत अच्छे संबंध में बना रहना चाहता है। सब बहुमूल्य वस्त्रादि में डूबकर, साधु, सिद्ध, योगी और मुनियों के सन्तोष से भरी भूमि को देखकर, मैं उन्हें समझा सकती हूँ। जब वे सब वास कर बैठे हों, तब मैं सुमित्रा को समझाऊँगी। राज माता ने सुनकर प्रसन्नता से ऊठी हैं।"
दोहा
बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय,
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ||२८४ ||
इसका अर्थ है:
"तत्काल स्थान छोड़कर धारण करो, सनेह और सती के साथ जो बेहद प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। हम अब मिथिला के सहायक हैं, इस गति में अब हमारी मदद की आवश्यकता है।"
इस दोहे में एक व्यक्ति से कहा जा रहा है कि वह तत्काल अपने स्थान छोड़कर उसे स्वीकार कर ले, जो प्रेम और सती के साथ सहजता से कहा गया है। और अब वह मिथिला के लोगों की मदद के लिए तैयार हैं।
चौपाई 
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता, जनकप्रिया गह पाय पुनीता ||
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी, दसरथ घरिनि राम महतारी ||
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं, अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं ||
सेवकु राउ करम मन बानी, सदा सहाय महेसु भवानी ||
रउरे अंग जोगु जग को है, दीप सहाय कि दिनकर सोहै ||
रामु जाइ बनु करि सुर काजू, अचल अवधपुर करिहहिं राजू ||
अमर नाग नर राम बाहुबल, सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ||
यह सब जागबलिक कहि राखा, देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ||
लक्ष्मण ने चौपाई में कहा:
"सुनकर सनेह और बिनयबानी, जनकी प्रिया ने पाया पवित्र धरनी। माता, तुम्हारी विनीत विनती सही है, जो कि दसरथ के घर में राम की महिमा है। प्रभु अपने सेवकों का आदर करते हैं, वे गिरिराज हिमालय की तरह धूम्रधारी जलाते हैं। भवानी देवी! आपकी बाणी हमेशा सेवकों के काम आती है, आप महादेव की सहायता करती हैं। जिस प्रकार सूर्य और अग्नि जग के रचना में सहायता करते हैं, वैसे ही राम जी अवधपुर में राज्य करेंगे। राम जी नागराजों के समान अमर हैं, वे अपने अपने स्थानों में सुखी बैठेंगे। यह सब जागरूक करके रखो, देवी, ताकि मुनियों की बात व्यर्थ न हो।"
दोहा
अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ||
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ||२८५ ||
इसका अर्थ है:
"प्रेम की पागड़ी को पाकर सीता ने बहुत सम्मानजनक भाव से बिनय की अपील की। उसी समय जब सीता ने सीता के साथ उनकी माता को भी पाया।"
इस दोहे में सीता ने प्रेम की पागड़ी को पाकर बहुत विनम्र भाव से बिनय किया और उसी समय में उन्होंने अपनी माता को भी पाया।
चौपाई 
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही, जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ||
तापस बेष जानकी देखी, भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ||
जनक राम गुर आयसु पाई, चले थलहि सिय देखी आई ||
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी, पाहुन पावन पेम प्रान की ||
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू, भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू ||
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा, ता पर राम पेम सिसु सोहा ||
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु, बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु ||
मोह मगन मति नहिं बिदेह की, महिमा सिय रघुबर सनेह की ||
ये चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
प्रिय परिजनों को छोड़कर बैदेही मिली, जैसी जो कोई जैसा भजन करता है, वैसी ही वह दिखाई देती है। सीता जी ने तापसों के बैशे रूप में जानकी को देखा, तो सभी दुःखों का अतिशय विशेष हो गया। जनक राम और गुरु की कृपा से उसने सीता को प्राप्त किया, और फिर सीता जी ने राम को देखने के लिए राजमहल से निकला। जनक की जानकी सीता ने अपना हृदय राम और जनक में लिया, जिससे उनके प्राणों का प्यारा प्रेम हुआ। उस ऊर्मि (सीता) में अनुराग बढ़ गया, जिससे मनुष्य और मनुष्य के मन में प्याग (प्रेम) उत्पन्न हुआ। सीता का प्रेम इस कठिनाइयों को जिसे वह झेल रही थी, वहाँ भी राम के प्रेम का सिर्फ एक ही दर्शन ही सहारा था। जीवित रहने वाले मुनियों को भी ज्ञान में विचलित हो गया, उन्होंने बालक रूप में श्रीराम का सहारा लिया। विदेह की जो भावना में भगवान राम की महिमा में नहीं लिप्त हो, उसकी सीता की प्रेम की महिमा में है।
दोहा
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि,
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि ||२८६ ||
इसका अर्थ है:
"सीता ने माता-पिता के स्नेह को छोड़ दिया, लेकिन धर्म की संस्कृति को धैर्य से संभाला। वह महान समझी और सुधार का विचार किया।"
इस दोहे में सीता ने धर्म, धैर्य, और सुधार की महत्ता को बताया है। उन्होंने अपने पिता-माता के स्नेह को छोड़ दिया लेकिन धर्म की रक्षा के लिए धैर्यपूर्वक संघर्ष किया।

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