मासपारायण, बीसवाँ विश्राम

मासपारायण, बीसवाँ विश्राम Maasparayan, twentieth rest

चौपाई
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा।।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी।।
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।।
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।।
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं।।
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"तीर्थराज ने मुनियों को भी अपने साथ निमज्जित किया, और उन्हें समाज में भी शामिल किया। ऋषियों ने अपनी शिरस्त्राण सहित आशीर्वाद दिया, और बहुत विनम्रता से नमन किया। सभी ने साथ में सुखद यात्रा की, और वे चित्रकूट पहुंच गए। उन्होंने राम के साथ एक सहायक साथी के रूप में अपनी आत्मा को उपहार दिया। उन्होंने कभी भी अपने पैरों को छूने और सिर को झुकाया नहीं, उन्होंने प्यार और व्रत धर्म को अनमोल माना। लखन, राम और सीता के मार्ग की कहानी को बताते हुए, सहेली से पूछते हैं और मीठी भाषा में कहते हैं। राम को देखकर जगह जगह फूल बरस रहे थे, और मृदुता ने जगह जगह शुभ मंगल की जड़ें बोयी थीं।"
दोहा-
किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात।।216।।
इसका अर्थ है:
"जहां छाया बहुत जल्दी सुखद और बरसता है, वहां भी मुझे राम की तरह नहीं लगता है, जैसे कि भरत को भी लगता है।"
इस दोहे में व्यक्ति यह बता रहा है कि जहां छाया जल्दी सुखद और बहता है, वहां भी उसे वह सुख राम की तरह नहीं लगता है, जैसे कि भरत को भी नहीं लगता था।
चौपाई
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।।
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता।।
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।।
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू।।
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"जड़, चेतना, मन और जीवन—जो कुछ भी है, सब प्रभु की ओर इष्ट दृष्टि रखते हैं। वे सभी अनंत पद को प्राप्त होते हैं, जिन्होंने भरत के दर्शन से संसारिक रोग को दूर किया। यह बहुत बड़ी बात है कि भरत को किसी तरह का रोग नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने जिस राम को मन में ध्यान दिया था उसे स्मरण किया। राम जी की बातों में जो जगह जाते हैं, वे लोग उससे पार उतरते हैं—वे विश्वास करते हैं कि भरत राम के प्रिय छोटे भाई हैं, और वे उन्हें किसी भी प्रकार का मंगलकारी नहीं मान सकते। सिद्ध, साधु और मुनियों ने भी इसी तरह से कहा, और भरत की ध्यान से उनका ह्रदय हर्षित हो गया। जब सुर देवताएं भी भरत की ओर ध्यान देती हैं और सोचती हैं, तो हमें यही बताना चाहिए कि भरत कितने भले हैं। गुरु जी से कहना चाहिए कि राम और भरत की मुलाकात नहीं हो सकती।"
दोहा-
रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि।।217।।
इसका अर्थ है:
"राम ने प्रेम में संकोच नहीं किया, और भरत ने उसी प्रेम को समुद्र की तरह अपने हृदय में समा लिया। और उन्होंने बिना किसी को संकोच किये वहां की बातों को सुना, तकनीक से छल किया और सत्य की खोज की।"
इस दोहे में बताया गया है कि भरत ने राम के प्रेम को समझा और उसे अपने हृदय में स्थापित किया। उन्होंने सच्चाई की खोज के लिए कोशिश की, और बिना किसी संकोच के समुद्र की तरह उस प्रेम को अपने अंतर्मन में स्थापित किया।
चौपाई
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।।
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"सुरगुरु ने सुनते समय मुस्कान की। बिना आंखों को देखे जानते हैं लोचनों का ज्ञान। मायापति (मायावी) सेवक माया के साथ ही रहता है। वह उलटा काम करके सुखी होता है और धनी बन जाता है। तब कुछ किया जो राम की इच्छा के विरुद्ध था, वह बाद में नुकसान की वजह बन गया। सुनो, सुरेश्वर रघुनाथ (राम) के प्रिय होने के बावजूद, मैं अपने अपराधों को नहीं छुपाता। जो भक्त अपराध करते हैं, उनका क्रोध प्राप्त होता है, जैसे कि आग जलती है। लोग वेदों और इतिहास को जानते हैं, लेकिन दुर्बुद्धि वाले भक्त इस महिमा को नहीं समझते। भरत बहुत ही निष्ठावान थे और उन्हें राम का भक्तिमय संदेश मिला।"
दोहा-
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।218।।
इस दोहे का अर्थ है: "मन में कभी भी अमरपति रामचंद्रजी के भक्ति को न आने दें। इससे ना इस लोक में और ना ही परलोक में दिन-दिन दुःख से पीड़ित होता है।"
इस दोहे में कहा गया है कि मन को कभी भी अमरपति रामचंद्रजी की भक्ति से दूर रखना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया तो दिन-दिन दुःख से घिरा हुआ ही समाज में और परलोक में पीड़ित होता है।
चौपाई
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा।।
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"सुनो, ओ सुरेश्वर, हमारा उपदेश सुनो। राम में सेवकता ही परम प्रिय है। सेवकता करने से सुख मिलता है, सेवकता से द्वेष बढ़ता है। यद्यपि सेवा में न राग होता है, न ही क्रोध होता है, और न पाप और पुण्य का भेद होता है। कर्म ही विश्व को चलाता है, जो जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है। लेकिन भक्ति में भगवान का व्यवहार अद्भुत होता है, भक्त या अभक्ति भी उसके ह्रदय के अनुसार होती है। अग्नि का अलेप (लगाव) और अमृत (क्षीर) एक समान नहीं होते। राम गुणवान होते हुए भी भक्ति में रहते हैं। राम को हमेशा सेवकता में रुचि रहती है, वेद, पुराण, साधु और सुर सब इसकी गवाह हैं। ऐसे जानते हुए कुटिलता को त्यागो, भरत, और भक्ति से भरा हुआ पद प्राप्त करो।"
दोहा-
राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।219।।
इस दोहे का अर्थ है: "रामभक्त, परहित में निरत और दुःखी-दुःखी सब पर दयाला होते हैं। भक्तों के सिर पर सदैव भरत का डर रहता है, क्योंकि वे भक्तों का सुरक्षक हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि रामभक्त जो किसी के परहित में निरत रहते हैं और दुःखी-दुःखी सब पर दयाला होते हैं, उनके सिर पर हमेशा भरत का डर रहता है, क्योंकि भरत भक्तों का सुरक्षक हैं और उनकी रक्षा करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं।
चौपाई
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू।।
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी।।
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।।
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"सत्य-संध प्रभु, सब सुरों के हित का कर्ता हैं, भरत! राम के आदेशों के अनुसार तुम्हें चलना चाहिए। अपनी स्वार्थ को बिसारकर तुम उनका अनुसरण करो, भरत! राम का शत्रु नहीं, मित्र होओ। सुनकर सुरबर सुरगुरुओं की बातें, मन में अत्यंत प्रसन्नता हुई। बरसीं फूलों की प्रसन्नता से भरा हुआ है स्वर्ग, भरत तुम्हारी महिमा की सराहना कर रहा है। इस प्रकार भरत चला और जा रहा है, और मुनियों और सिद्धों ने भी उसको देखा है। जब राम ने उनसे ऐसा कहा, तो उनके मन में प्रेम की लहर उमड़ आई। उनके बचनों को सुनकर परिस्थितियों को समझते हुए उन्होंने जाने का निर्णय लिया। उनकी वास्तविक स्थिति को देखकर, उनकी आंखों में आंसू छाए।"
दोहा-
रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज।।220।।
इस दोहे का अर्थ है: "रामचंद्रजी को देखकर सभी वर्ण और वर्ग के लोग समूचे समाज में एकत्रित हो गए। यहाँ तक कि समुद्र के तैराने वाले जहाज भी भक्ति और विवेक के समुद्र में प्रवेश करने के लिए उत्साहित हो गए।"
इस दोहे में कहा गया है कि जब लोगों ने भगवान रामचंद्रजी को देखा, तो सभी वर्ण और वर्ग के लोग समाज में एकत्रित हो गए। इस दृश्य ने इतना प्रभाव डाला कि समुद्री जहाज भी भक्ति और विवेक के समुद्र में डूबने के लिए तैयार हो गए।
चौपाई
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू।।
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी।।
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ।।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें।।
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा।।
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"जोधपुर के तट पर रहकर उस दिन का अवसर बिताते हुए सभी अद्वितीय और सुन्दर लग रहा था। रात में हर घाट की तरणी उन्हें पार करने का समय था, लेकिन जोधपुर के तट पर जल की विस्तार तक कोई देखने वाला नहीं था। प्रात:काल, एक खेवा हुआ था, जहाँ राम के साथियों को सेवा करने का सुख मिला। वे नदी में सिर नहाने गए, वहाँ दोनों भाई निषाद नाथ के साथ थे। आगे चलते हुए, उनकी बहनें थीं, और सब लोग राजा के साथ जा रहे थे। उनके पीछे, दोनों भाइयों के पैरों में बूटे थे, और उनके वस्त्र और बनावट भी साफ-सुथरी थी। सेवक, साथी, मित्र, और राजा के पुत्र के साथी - सभी लोग लखना और सीता के पति राम की स्मृति में लिप्त थे। जहाँ-जहाँ राम ठहरे, उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा उनके साथ होती थी।"
दोहा-
मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ।।221।।
इस दोहे का अर्थ है: "वहाँ रहने वाले पुरुष और स्त्री ने सुनकर स्वर्ग को त्याग दिया और उन्होंने देखकर रूप में प्रेम की सभी जन्मों की धरती पर प्राप्ति की।"
इस दोहे में व्यक्त किया गया है कि वहाँ रहने वाले पुरुष और स्त्री ने सुनकर स्वर्ग को त्याग दिया, अर्थात् वे स्वर्ग के सुख को छोड़कर धरती पर जन्म लेने का निर्णय किया। उन्होंने प्रेम के साथ रूप को देखकर सभी जन्मों की धरती पर प्राप्ति की।
चौपाई
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।।
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा।।
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी।।
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी।।
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू।।
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"सब सहेम से एक-एक के पास जाकर पूछा, 'क्या तुम्हें राम और लक्ष्मण की सखी मिली या नहीं?' हर रूप में, हर वय में, सीता का स्नेह और सम्मान सर्वत्र दिख रहा था। वह सखी न थी, सीता भी न थी संग। वह चतुरंगी पहले निकली। उसका मन प्रसन्न नहीं था, और सखी को इसमें शंका हुई। वह तारक तीर को छोड़ दिया, और सबको बताया कि उसने सभी कुशल को समझ लिया। फिर उसने उनकी प्रशंसा की और उनकी सील और स्नेह को शोभा दी।"
दोहा-
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु।।222।
इस दोहे का अर्थ है: "पिताजी ने राज्य छोड़कर खाद्य-पदार्थों को खाने वाले साधुओं को दिया और रामचंद्रजी की ओर जाते समय भरत ने उनसे साक्षात्कार किया।"
इस दोहे में बताया गया है कि भरत के पिताजी (राजा दशरथ) ने अपने राज्य को त्यागकर साधुओं को अन्न दान किया और जब भरत ने रामचंद्रजी की ओर जाने का निश्चय किया, तो उन्होंने उनके सामने साक्षात्कार किया।
चौपाई
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं।।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा।।
इस चौपाई का अर्थ है:
"भरत ने भक्ति और आचरण में बहुत प्रेम दिखाया। सबको उनका दुख ही हर लिया। जो कुछ भी वह कहते थे, वही सही था। राम के बंधु का कोई और न हो सकता। हम सब उसे सान्निध्य में भरत को देखते हैं, उनके जीवन को धन्य लिखते हैं। उनके गुणों को सुनकर सब अपनी गलतियों को पछताते हैं। कौन बताये कैसे माँ जनकी नहीं हैं? कोई कहे कि रानी नहीं हैं। हमने सभी तरह से उसमें जो कुछ भी देखा, वह सच है। हमारे यहां जन बेद की ज्ञानी नहीं, और हमारे जीवन में लघुता और कर्तृत्व है। हमारा बसेरा घिनौना है, और हमारी उपासना बुराई में है। कहीं ऐसी जगह है जहां सब अनंत आनंद का अनुभव करते हैं, जहां मृत्यु के पाताल में कल्पवृक्ष वृक्ष बने हैं।"
दोहा-
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।223।।
इस दोहे का अर्थ है: "जब भरत ने राम के दर्शन किए, तो लोग उसके पीछे भाग गए। वे सभी लोग सिंघलबासी (सिंहल देश के निवासी) थे, जो कि बिना किसी संकोच के प्रयाग जाने लगे।"
यह दोहा महाकवि तुलसीदास जी के द्वारा बताता है कि जब भरत ने अपने भाई राम के दर्शन किए, तो उसके प्रेम को देखकर लोग भी उसके पीछे भाग गए। वे सभी लोग सिंघलबासी थे और वे बिना किसी संकोच के प्रयाग (इलाहाबाद) की ओर चल दिए, क्योंकि भरत के प्रेम और उनके दर्शन के लिए उन्होंने किसी भी संकोच को नजरअंदाज किया।
चौपाई
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा।।
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही।।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं।।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।।
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।
नीचे दिए गए चौपाई का अर्थ है:
"राम के गुणों की गाथा, अपने गुणों के साथ, सभी लोग सुनते और याद करते हैं। तीर्थों, मुनियों के आश्रमों, स्वर्गों में भी जो जाते हैं, वहां नमस्कार करते हैं। मन से इसी की प्रार्थना करते हैं, कि मुझे सीता और राम के पादरज से प्रेम मिले। वहां बनवासी किराती को मिलने पर बहुत ही उदासीनता से बैठे हुए मना करते हैं। जहां-जहां जाते हैं, वहीं प्रणाम करते हैं और पूछते हैं, कि कोई लखन या राम को देखा है। उन्होंने सब कुछ बता दिया, जिसे सुनकर भरत ने जन्म फल पाया। जो लोग अच्छा कहते हैं, उन्हीं को प्रिय राम और लखन माना जाता है। ऐसे तरीके से सभी सुनते हैं और समझते हैं, जब राम बनवास की कहानी सुनाते हैं।"
दोहा-
तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।224।।
इस दोहे का अर्थ है: "उसी स्थान पर बसे हुए, सुबह होते ही भरत ने श्री रामचंद्रजी की स्मरण किया। रामचंद्रजी के दर्शन की आशा में भरा भरत का मन सभी संगी साथियों के साथ चला।"
इस दोहे में बताया गया है कि भरत, जो कि अपने भाई राम के विचार में रहते थे, सुबह होते ही रामचंद्रजी की स्मृति करते थे। उनका मन रामचंद्रजी के दर्शन की आशा से भरा हुआ था, इसलिए वे अपने साथी साथियों के साथ उनके दर्शन के लिए चल दिए।
चौपाई
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।
चौपाई का अर्थ है:
"सभी व्यक्ति के लिए सगुन सुखद बिलोचन सुखद होते हैं। भरत के साथ समाज उछाहता है, जब राम मिलते हैं, तब दुख दहला जाता है। जैसे कोई व्यक्ति अपने मनोरथ को पूरा करता है, वैसे ही जिनका सन्देश, स्नेह और सबकुछ अच्छा होता है। उनके शांत शरीर, पांव में मात्र थोड़ी सी हिचकोलें, उनके शांत और सुंदर वचन से प्रिय राम की याद आती है। राम के सखाओं को वह समय दिखाते हैं, जब सीता सहित दोनों भाइयों ने सिर मोड़ा और प्रणाम किया। जानकी के जीवन को जय बोलकर देखकर सभी ने प्रणाम किया। प्रेम में लीन राम ने फिर अवध की ओर अपने राज्य की यात्रा की।"
दोहा-
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।225।
इस दोहे का अर्थ है: "जैसा प्रेम भरत को था, वैसा ही उस समय कोई और कह न सकता। मेरे लिए ब्रह्मसुख (अत्यंत आनंद) की तरह अगम्य जगहों में, जैसे कि मलिन लोगों में भी था।"
इस दोहे में कहा गया है कि भरत का प्रेम और समर्थन किसी और समय में नहीं पाया जा सकता। उन्होंने अपने भाई राम का त्याग किया और राम ने वनवास में रहते समय उन्हें भूतल पर जगह दी थी, जो उनके लिए ब्रह्मसुख की तरह थी। यहाँ यह भी कहा गया है कि वे अपने भाई राम के प्रति उनके अद्भुत प्रेम को दर्शाते हैं, जो कि किसी भी परिस्थिति में अमिट होता है।
चौपाई
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।।
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।
यह चौपाई इस प्रकार है:
"रघुकुल के समस्त प्रेमी बहुत ही चिंतामुक्त थे। लगभग दो दिन तक वे विचारों में डूबे रहे। उन्होंने जल और पृथ्वी को देखकर राम का विचार किया, प्रेम से वह विचलित हो गए। रात के अंतिम समय में वे शेष रात बिताने लगे, सीता ने एक सपना देखा। भरत समेत लोगों ने आने से पहले राम के बिना विभाग का तप सहा। सबका मन और मन कष्ट और दुख से भरा हुआ था, सास ने आने का अभिलाषा देखा। सीता ने सपना सुना और अपनी आंखों में आंसू भरे, और उन्होंने विचारों में भटकना बंद किया। लक्ष्मण का सपना भी उतना ही शानदार नहीं था, किसी ने कठिन अर्थ को सुनाया नहीं। इस प्रकार वे सब लोग जल को देखकर स्नान किया, और शिव को पूजा करने गए।"
"छंद
सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।।
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।।
इसका अर्थ है:
समाने सुर, मुनि, बंधु बैठे थे, उन्होंने उत्तर दिशा की ओर देखा। आकाश में पक्षी, धरती पर मृग बहुत भाग रहे थे, लेकिन प्रभु ने अपने आश्रम में जाने का निश्चय किया। तुलसीदास जी उठे और देखते हैं, कि इस घटना का कारण क्या है, और वे चमत्कार से आश्चर्यचकित रह गए। सब समाचार कोलाहल भरे आते हैं, तो उसी समय कारण को जानते हैं।" 
इस "छंद में कहा गया है कि कई लोग एक ही स्थान पर बैठे थे, परन्तु उनकी निगाहें भिन्न-भिन्न दिशाओं में थीं। वहाँ उच्चारित छंद और रचना द्वारा कहा गया है कि जीवन में हर घटना का एक कारण होता है, और हमें उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए।
दोहा-
सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।

इस दोहे का अर्थ है: "सुनते समाचार जो मंगलमय हों, मन और शरीर प्रसन्न हो जाते हैं। सरसरी पर पलने वाले तुलसी के पौधे की भांति भगवान के स्नेह से भरे नैन।"
इस दोहे में बताया गया है कि जब हम मंगलमय समाचार सुनते हैं, तो हमारा मन और शरीर प्रसन्न हो जाते हैं। यहाँ तुलसी के पौधे की भांति कहा गया है कि भगवान के स्नेह से भरे हुए नैन होते हैं, जो जीवन में खुशियों को संजीवनी देते हैं।

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