मासपारायण 247-256 इक्कीसवाँ विश्राम

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चौपाई 
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं, बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं ||
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा, कहे कछुक परमारथ गाथा ||
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा, सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा ||
मरन हेतु निज नेहु बिचारी, भे अति बिकल धीर धुर धारी ||
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी, बिलपत लखन सीय सब रानी ||
सोक बिकल अति सकल समाजू, मानहुँ राजु अकाजेउ आजू ||
मुनिबर बहुरि राम समुझाए, सहित समाज सुसरित नहाए ||
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा, मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सीता ने सभी महिलाओं के साथ सच्चा प्रेम बिखेरा, जब गुरु ने सबको ज्ञानी बताया। उन्होंने जगत को माया की गति कही, और कुछ परमार्थ की कथा कही। नृप ने स्वर्ग का सुंदर वर्णन सुनाया, जब राघव ने उस दुःख को सुना लिया। अपने मरने के लिए उन्होंने अपनी प्रेमिका को सोचा, और वे बहुत ही उदार धैर्य से वह भावना धारण करते रहे। जब वह कठोर कथा सुन रहे थे, तो सीता ने लक्ष्मण को सब कुछ कह दिया। समाज में वह बहुत दुःखी थी, लेकिन उन्होंने राजा को अपनी बात करने का अवसर नहीं दिया। मुनियों ने फिर राम को समझाया, और समाज भी सुसज्जित हो गया। वह दिन भर प्रभु ने ब्रत रखा, और मुनियों ने कहा कि वे किसी को दुःख नहीं देंगे।"
दोहा
भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ||
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ||२४७ ||
इस दोहे का अर्थ है: "सुबह होते ही जब वे मुनिराज भगवान राम के पास आये, तो उन्होंने श्रद्धा और भक्ति सहित सब कुछ आदरपूर्वक किया।"
इस दोहे में कहा गया है कि सुबह होते ही जब वे मुनिराज भगवान राम के पास आये, तो उन्होंने श्रद्धा और भक्ति सहित सब कुछ आदरपूर्वक किया।
चौपाई 
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी, भे पुनीत पातक तम तरनी ||
जासु नाम पावक अघ तूला, सुमिरत सकल सुमंगल मूला ||
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस, तीरथ आवाहन सुरसरि जस ||
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते, बोले गुर सन राम पिरीते ||
नाथ लोग सब निपट दुखारी, कंद मूल फल अंबु अहारी ||
सानुज भरतु सचिव सब माता, देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ||
सब समेत पुर धारिअ पाऊ, आपु इहाँ अमरावति राऊ ||
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई, उचित होइ तस करिअ गोसाँई ||
यह चौपाई अर्थ है:
"पिताजी की क्रिया वेदों के जैसी बताई गई है, जो पापों को नष्ट करती है। जिसका नाम पापों को जलाने वाला है, वह सुमिरन करने से सभी सुखों का मूल है। जो पवित्र हो गया है, उसे साधुओं की सहमति मिलती है, जैसे तीर्थों का आवाहन होता है देवताओं के सर्वोत्तम तीर्थों में। जब वह दो बार शुद्ध हुए, तो गुरु ने राम को प्रियता से कहा। भरत और सब सचिव माता तथा सानुज, सबने मुझे देखकर मुझे प्रेम के साथ पूजा। सब लोग मिलकर मुझे पाना चाहते हैं, अब मैं यहाँ से अमरावती की यात्रा करता हूँ। बहुत कुछ कहा और किया, अब ठीक हो जाए, हे गोसाई, ऐसा करना उचित है।"
दोहा
धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम,
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ||२४८ ||
इस दोहे का अर्थ है: "धर्म का सेतु और करुणा का उदाहरण कैसे न कहूँ, वैसे हैं भगवान राम। लोग दुखी दिन-रात दोनों दर्शन करके आराम पा लेते हैं।"
इस दोहे में कहा गया है कि भगवान राम धर्म के सेतु और करुणा का उदाहरण हैं। लोग दुःखी दिन-रात दोनों उनके दर्शन करके आराम पा लेते हैं।
चौपाई 
राम बचन सुनि सभय समाजू, जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ||
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला, भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला ||
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं, जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं ||
मंगलमूरति लोचन भरि भरि, निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ||
राम सैल बन देखन जाहीं, जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ||
झरना झरिहिं सुधासम बारी, त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ||
बिटप बेलि तृन अगनित जाती, फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ||
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं, जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ||
यह चौपाई का अर्थ है:
"समाज ने राम के वचन सुनकर सब सुखी हो जाते, जैसे जलमय जहाज समुद्र में भटकता हुआ अन्धकार को देखकर स्थिर हो जाता है। गुरु के शुभ वचन सुनकर मन में प्रसन्नता हुई और मारुति (हनुमान) को अनुकूलता फील हुई। उन तीर्थों को भी नहाया, जो देखे गए अव्याप्त दुःख से रहित थे। हर्ष से भरे हुए नेत्रों से मंगलमूर्ति को देखकर बार-बार उन्हें दंडवत किया। वहाँ जाकर राम ने पर्वतों और वनों को देखा, जहाँ सुख और दुःख का कोई अनुभव नहीं होता। जलधाराएँ बहती हैं, साफ जल की तरह, और त्रिभुजाताप (तापों की त्रिभुज) और त्रिभुज बायरी (दुःख की त्रिभुज) होती हैं। अनगिनत घास के तुकड़े और तृणों की बदसेरी जाती है, और फलों और पुष्पों के ढेरों भिन्न-भिन्न प्रकार से होते हैं। सुंदर पत्थर, सुखद पेड़ और झरने देखकर वहाँ बाँटी हुई छवि देखते हैं।"
दोहा
सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग,
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ||२४९ ||
इस दोहे का अर्थ है: "सारंगी (सागर) के तट पर जल के बिना बागीचे में पक्षियों का कूजना और गूंजना होता है, जैसे विपदा और द्वेष के संघर्ष के बाद व्यक्ति का पुनः जीवन में आना।"
चौपाई 
कोल किरात भिल्ल बनबासी, मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ||
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी, कंद मूल फल अंकुर जूरी ||
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा, कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ||
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं, फेरत राम दोहाई देहीं ||
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी, मानत साधु पेम पहिचानी ||
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा, पावा दरसनु राम प्रसादा ||
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा, जस मरु धरनि देवधुनि धारा ||
राम कृपाल निषाद नेवाजा, परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ||
यह चौपाई का अर्थ है:
"किरात, भिल्ल, और वनवासी, जिन्होंने मधुर, सुची, और स्वादिष्ट मधु को अनुभव किया। वे नदीओं के किनारे फूलों के पौधों के तने को भरकर रचते रहते थे, जिसमें फल और मूल फूट जाते थे। वे सभी उन्हें नमस्कार करते थे और उनकी महिमा, स्वाद, और गुणों को अलग-अलग स्वादानुसार वर्णन करते थे। लोग उनकी बातों को महंगा नहीं समझते थे, फिर भी उन्होंने बार-बार राम की महिमा की हे राम! उन्होंने प्रेम में डूबी हुई मृदु भाषा से बात कही, साधु उनकी प्रेम को मानते थे। हे राम! तुम सुकृतियों को उच्च मानते हो, हम नीच हैं और निषाद की जाति हैं, हमने तुम्हारे दर्शन का अवसर प्राप्त किया है राम के प्रसाद से। हम आपके दर्शन को अत्यंत अद्भुत मानते हैं, जैसे मरुस्थल में धरती पर पवन की धारा होती है। हे कृपालु राम! तुम्हारे द्वारा निषादों को परिजन और राजा की भावना को प्राप्त होती है।"
दोहा
यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु,
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ||२५० ||
इस दोहे का अर्थ है: "जिस प्रकार एक पक्षी अपनी छोटी सी बागीचा में उड़ने के लिए संकोच छोड़ देता है, वैसे ही हमें अपने कार्यों को पूरा करने के लिए संकोच नहीं करना चाहिए। हमें अपने कामों को करने में संघर्ष करना चाहिए, ताकि हम उनमें सफल हो सकें।"
चौपाई 
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे, सेवा जोगु न भाग हमारे ||
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई, ईधनु पात किरात मिताई ||
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई, लेहि न बासन बसन चोराई ||
हम जड़ जीव जीव गन घाती, कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ||
पाप करत निसि बासर जाहीं, नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं ||
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ, यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ||
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे, मिटे दुसह दुख दोष हमारे ||
बचन सुनत पुरजन अनुरागे, तिन्ह के भाग सराहन लागे ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"तुम्हारे प्रिय चरणों को सिर पर धारण कर, हम भगवान! तुम्हारी सेवा में योग्य नहीं हैं। हे देव! हम तुम्हें ही क्यों गोसाई कहें, क्योंकि तुमने ही हमारा ईधन किरात को मिलाया। यह सच्ची सेवा है, हमने न आवास की चोराई की है। हम जड़ होकर जीवन घाती हैं, कुटिल हैं, और कुमति से भरे हैं। हम नित पाप करते रहते हैं, रात और दिन बसर करते हैं, अपने भाग्य को नहीं देखते हैं। धर्म और बुद्धि का सहारा लेकर हे रघुनंदन! हम प्रभु के दर्शन करते हैं। जब से हमने प्रभु के पादारविंदों को देखा, हमारे दुःख और दोष मिट गए। जब समाज ने हमारे बातों को सुना, तब उनका प्रेम बढ़ा और उन्होंने हमारे भाग्य की प्रशंसा की।"
छंद 
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं,
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं ||
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा,
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ||
छंद का अर्थ है:

"लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं" - यहां लोग सभी अनुराग भागों को प्रशंसा कर रहे हैं और भगवान के बचनों की सुनाई जा रही है।
"बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं" - यहां सीता और राम के चरणों की भक्ति का वर्णन है और इसके माध्यम से आनंद प्राप्त होता है।
"नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा" - यहां सभी पुरुष और स्त्री अपने आप को राम के सुने कोल में लिपटा हुआ महसूस कर रहे हैं और उनका बोलना राम की प्रशंसा कर रहा है।
"तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा" - यहां तुलसीदास जी की कृपा और भगवान राम के बनमाने में शक्ति की स्तुति हो रही है, जिससे सभी लोक उनके चरणों में शरण लेते हैं।
सोरठा
बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब,
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ||२५१ ||
"बिहार में सब ओर खुशहाल लोग हैं, जैसे कि प्रतिदिन सभी ओर हरियाली बिखरी हो। मेरे मन को भी प्रथम बरसात की तरह प्रसन्नता मिली है।"
चौपाई 
पुर जन नारि मगन अति प्रीती, बासर जाहिं पलक सम बीती ||
सीय सासु प्रति बेष बनाई, सादर करइ सरिस सेवकाई ||
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ, माया सब सिय माया माहूँ ||
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं, तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं ||
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई, कुटिल रानि पछितानि अघाई ||
अवनि जमहि जाचति कैकेई, महि न बीचु बिधि मीचु न देई ||
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं, राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ||
यहु संसउ सब के मन माहीं, राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं ||
यह चौपाई का अर्थ है:
"पूरे जन स्त्रियों में लीन, बहुत प्रीति में रत, हर पल सीया के समीप बीता। सीता ने सासु के प्रति विशेष रूप से भेष बनाया, सरलता से उन्हें सेवा की। किसी को भी राम के बिना कोई रहस्य नहीं दिखाई देता, सब कुछ माया है, सब कुछ सीता ही है। सीता और सासु ने सेवा में समय बिताया, उन्होंने दीनों को सुख और आशीर्वाद की शिक्षा दी। सीता के साथ सरल दो भाइयों ने दुष्ट रानी का पछतावा किया, उन्होंने जाना कि वह यमराज के पास जाने की मांग कर रही है, और न तो बिच में जाने देगा, और न देगा उसे मीठी मौत। लोग बेदों के ज्ञानी कवियों से सुनते हैं कि राम को त्यागकर कोई भी स्थल अवधि में नरक को नहीं जाता। यह संसार में सभी के मन में है, कि राम की गाथा अवध में नहीं है।"
दोहा
निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच,
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ||२५२ ||
इसका अर्थ है:
"रात और दिन में नींद नहीं आती, भूख कभी भी नहीं लगती, बस पुरे दिन शुद्ध मन से भगवान की चिंता में रहना चाहिए। जैसे मीना जल में रहकर भी सारा समय सकुचाता रहता है, उसी रूप में नीचे, उपर और बीच में मगन रहना चाहिए।"
चौपाई 
कीन्ही मातु मिस काल कुचाली, ईति भीति जस पाकत साली ||
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू, मोहि अवकलत उपाउ न एकू ||
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी, मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ||
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ, राम जननि हठ करबि कि काऊ ||
मोहि अनुचर कर केतिक बाता, तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ||
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू, हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ||
एकउ जुगुति न मन ठहरानी, सोचत भरतहि रैनि बिहानी ||
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई, बैठत पठए रिषयँ बोलाई ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"कुछ मातृभावना और दृढ़ता से, जैसे समुद्र अपनी सतह को शुद्ध करता है, वैसे ही कुछ तरीके से राम का अभिषेक किया गया, लेकिन मुझे उनकी पहचान नहीं होती थी। फिर भी गुरु आगे आये और मुझसे राम की प्रेम भावना की जानकारी ली। मातृ ने मुझसे कहा, 'हे रघुनाथ! क्यों हठ कर रही हो? क्या तुम मेरे अनुयायी के कुछ बातों को भी अवहेलना कर रही हो? वही तो मुझे अच्छा नहीं लगता।' अगर मैं हठ करूं, तो मेरे कर्म का समापन दुःखद होगा, और मेरा गुरु का सेवक धर्म का भंडार रहेगा। ऐसा कोई तरीका नहीं है जो मन को स्थिर रखे, भरत राजा यही सोचते हैं, दिन और रात। सुबह प्रभु के चरणों को धोते हैं, बैठकर ऋषियों को भेजते हैं और उनसे बात करते हैं।"
दोहा
गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ,
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ||२५३ ||
इस दोहे का अर्थ है:
"गुरु के पद को कमल के समान समझकर हम प्रणाम कर बैठे हैं, जिससे हमें आशीर्वाद मिले। सभी विप्र और महाजन सचिव होकर सभी जुटे हुए हैं और सभी सभासद आए हैं॥ २५३॥"
इस दोहे में गुरु के पद की महिमा और गुरु भक्ति का महत्व व्यक्त किया गया है। साथ ही, सभी विप्र और महाजनों को सचिव और सभी सभासदों को समर्थन करने का भी संकेत है।
चौपाई 
बोले मुनिबरु समय समाना, सुनहु सभासद भरत सुजाना ||
धरम धुरीन भानुकुल भानू, राजा रामु स्वबस भगवानू ||
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू, राम जनमु जग मंगल हेतू ||
गुर पितु मातु बचन अनुसारी, खल दलु दलन देव हितकारी ||
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु, कोउ न राम सम जान जथारथु ||
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला, माया जीव करम कुलि काला ||
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई, जोग सिद्धि निगमागम गाई ||
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें, राम रजाइ सीस सबही कें ||
यह चौपाई इस प्रकार है:
"मुनिराज बोले, 'भरत सुजान, समय समझते हुए सभी सभासदों से सुनो। राजा राम, जो स्वयं भगवान हैं, वे धर्म की धुरी हैं, सूर्य के समान तेजस्वी हैं। वे सत्य के संस्थापक, श्रुति और समृद्धि का सेतु हैं, राम का जन्म सब लोकों के लिए मंगलकारक है। गुरु, पिता, माता के वचनों का अनुसरण करने वाले, खल के दल को नष्ट करने वाले, देवताओं के हित का चिन्हन करने वाले। नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ का ज्ञान रखने वाले, ऐसा कोई भी सबको नहीं मालूम है जैसा राम है। हरि के विधान को बिना किसी समझाने, माया, जीवन, कर्म और काल को भी कुला कर दिया। वहाँ हीप और महीप में प्रभुता थी, जिसने जोग और सिद्धियों को प्राप्त किया। इस सबको ध्यान से देखो, सबका सर्वोच्च अधिकारी राम हैं।'"
दोहा
राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ,
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ||२५४ ||
इसका अर्थ है:
"हे मन! सबका हित करते हुए राम की रजा में रहो। अब सब मिलकर सहमत होकर समझो कि सभी का यही मत हो।"
इस दोहे में व्यक्ति सभी को समझाता है कि राम की रजा में रहकर सबका हित करें। सभी मिलकर इस बात पर सहमत हों कि सभी का यही मत हो।
चौपाई 
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू, मंगल मोद मूल मग एकू ||
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ, कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ ||
सब सादर सुनि मुनिबर बानी, नय परमारथ स्वारथ सानी ||
उतरु न आव लोग भए भोरे, तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ||
भानुबंस भए भूप घनेरे, अधिक एक तें एक बड़ेरे ||
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता, करम सुभासुभ देइ बिधाता ||
दलि दुख सजइ सकल कल्याना, अस असीस राउरि जगु जाना ||
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी, सकइ को टारि टेक जो टेकी ||
इस चौपाई का अर्थ है:
"सभी कहते हैं कि राम का अभिषेक सबको सुखदायी है, मंगल का मूल है, सब मोदन हैं, परंतु राम की अवधि कैसे हो, उसे समझ कर कोई उपाय कर सको, वह सब सादरता से सुनते हुए मुनिराज की बात को, परमार्थ और स्वार्थ की बात को नया समझकर नहीं उतरा, तब जब भानु वंशी राजा संसार के घनेरे हो गए, एक से बड़े बड़े हो गए, जो इस जन्म के कारण पिता-माता से मिलता है, और कर्मों को सुख-दुख देने वाला है। सब दुःख सजाने के बाद भी सबका कल्याण करने वाले की यही असीस है, जगत् को जानना चाहिए। ऐसा गोसाईँ के गति कैसे हो, जिसने किसी को भी समझा, कोई भी ठोकर नहीं खाई?"
दोहा
बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु,
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ||२५५ ||
इसका अर्थ है:
"अब मुझे समझो, मेरे प्रिय दोस्त, मैं सब अभागा हूँ। गुरुजन के स्नेहमय बचनों को सुनकर अनुराग से उमग रहा है मेरा हृदय।"
इस दोहे में व्यक्ति अपने दोस्त से कह रहा है कि वह समझ गया है कि वह सभी के लिए दुःखी है। उसका हृदय गुरुजन के स्नेहपूर्ण बचनों को सुनकर उनसे प्रेम से भर गया है।
चौपाई 
तात बात फुरि राम कृपाहीं, राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं ||
सकुचउँ तात कहत एक बाता, अरध तजहिं बुध सरबस जाता ||
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई, फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ||
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता, भे प्रमोद परिपूरन गाता ||
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा, जनु जिय राउ रामु भए राजा ||
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी, सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ||
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे, फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे ||
कानन करउँ जनम भरि बासू, एहिं तें अधिक न मोर सुपासू ||
यह चौपाई इस प्रकार है:
"तात (भरत), बात फिर राम की कृपा ही है, राम के अनुग्रह से सिद्धि सपना नहीं होती। सकुचित तात, यह एक बात कहता है, अर्धनारीश्वर सर्वत्र समा जाता है। तुम दो भाई जंगल में जाकर लखनी (सीता) को राम के पास ले जाओ। दोनों भ्राता इस सुनकर प्रसन्न हो गए और प्रमोद से भरे हुए गाने लगे। मन और शरीर प्रसन्न हो गए, और जन और जिवन राम के प्रति भक्ति में लीन हो गए। बहुत लाभ और छोटी हानि होती है, सब दुःख और सुख सब रानी रोती हैं। भरत ने मुनिराज से कहा ऐसा किया, जो सबके जीवन को अभिमत दे दिया। जंगल में रहकर जीवन भर बासन करने से अधिक सुपासी नहीं होता।
दोहा
अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान,
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ||२५६ ||
इसका अर्थ है:
"हे अंतर्यामी राम! हे सीता! तुम्हें सब ज्ञान और सूक्ष्म बातों की जानकारी है। जो कुछ भी तुम कहती हो, वही नाथ! तुम्हारे वचन को स्वीकार करें।"
इस दोहे में व्यक्ति भगवान राम और सीता की महिमा को स्तुति कर रहा है और कह रहा है कि जो भी सीता कहती है, उसे ही भगवान राम को प्रिय होना चाहिए।

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