हिरण्याक्ष-वध ,हिरण्यकशिपु की तपस्या और नृसिंह द्वारा उसका वध
हिरण्याक्ष-वध
नारद जी बोले- हे ब्रह्मान ! आप मुझे भगवान शिव की उन उत्तम लीलाओं के विषय में बताइए, जिनकी ये लीलाएं बड़ी सुखदायिनी हैं। ब्रह्माजी बोले- जलंधर के संहार के बारे में जानकर देवी सत्यवती के पुत्र व्यास जी सनत्कुमार जी से यही बातें पूछने लगे। तब उनकी उत्सुकता देखकर सनत्कुमारजी बोले- हे व्यास जी ! अब मैं तुम्हें अंधकासुर नामक दैत्य के शिवगण बन उनकी भक्ति में लीन रहने की कथा सुनाता हूं। एक समय की बात है, देवाधिदेव भगवान शिव अपनी प्राण वल्लभा देवी पार्वती और अपने प्रिय गणों के साथ कैलाश पर्वत से काशी जा रहे थे। उनका विचार कुछ समय काशी में व्यतीत करने का था। इसलिए उन्होंने अपने वीर गण भैरव को काशी का रक्षक बना दिया और स्वयं सबके साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे। एक बार भगवान शिव, पार्वती देवी के साथ आनंदपूर्वक विहार करते हुए मंदराचल नामक पर्वत पर गए। एक दिन शिव-पार्वती बैठे आपस में वार्तालाप और मनोविनोद कर रहे थे। तभी देवी पार्वती ने अपने हाथों से भगवान शिव के नेत्र कुछ पल के लिए बंद कर दिए। भगवान शिव के नेत्र बंद होते ही चारों ओर भयानक अंधकार छा गया। उसी समय भगवान शिव के माथे से पसीने की कुछ बूंदें निकलीं। जैसे ही वे बूंदें धरती पर गिरीं, तुरंत एक जटाधारी काला, विकृत, डरावना राक्षस वहां उत्पन्न हो गया और वह जोर-जोर से हंसने लगा। उसकी भयानक आवाज सुनकर देवी पार्वती एकदम चौंक गईं कि एकाएक उनके सामने यह भयानक जीव कहां से प्रकट हो गया है? तब देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा — हे स्वामी! यह भयानक पुरुष कौन है? यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुराते हुए बोले- हे देवी! यह आपका पुत्र है। जब आपने मेरी आंखें बंद कीं, उस समय मेरे माथे से कुछ पसीने की बूंदें गिरीं। उसी से यह प्रकट हुआ है। यह जानकर कि वह पुरुष उनका पुत्र है देवी बड़ी प्रसन्न हुईं। भगवान शिव ने उसका नाम अंधक रख दिया। उसी समय हिरण्यनेत्र नाम का एक राक्षस पुत्र प्राप्ति की कामना मन में लेकर वन में घोर तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसे वरदान देने के लिए गए। उसने भगवान शिव से एक बलवान और वीर पुत्र की प्राप्ति की इच्छा प्रकट की । भगवान शिव ने कहा- हे हिरण्यनेत्र ! मेरा पुत्र अंधक बड़ा ही वीर और बलवान है। तुम चाहो तो मैं उसे तुम्हें सौंप सकता हूं।श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) बयालीसवां अध्याय समाप्त
हिरण्यकशिपु की तपस्या और नृसिंह द्वारा उसका वध
सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी! वाराहरूपधारी श्रीहरि विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का संहार किए जाने से, हिरण्यकशिपु बहुत दुखी और क्रोधित तो था ही, अतः उसने अपनी असुर सेना को देवताओं का संहार करने की आज्ञा दी तथा अपनी विष्णुभक्त प्रजा को भी दंड देने के लिए कहा। तब आज्ञा पाकर स्वामीभक्त असुरों ने देवलोक का विनाश कर दिया। उनके आतंक से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपु के राज्य में उसकी प्रजा को बहुत डराया जाता था । सबने भक्ति का मार्ग छोड़ दिया था। विष्णु भक्तों की खैर नहीं थी। एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मृत भाई हिरण्याक्ष को जलांजलि देकर उसकी स्त्री और बच्चों से मिला और उन्हें सांत्वना दी। दैत्यराज हिरण्यकशिपु के मन में विचार आया कि यदि मैं अजर, अमर, अजेय हो जाऊं और मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी न रहे तो कोई भी मुझे हरा नहीं सकेगा और तब सभी मुझे झुककर प्रणाम करेंगे। यह सोचते ही हिरण्यकशिपु मंदराचल पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करने लगा। तपस्या हेतु वह एक पैर के अंगूठे पर खड़ा था । सिर के ऊपर दोनों हाथ जोड़े आसमान की ओर देखते हुए वह घोर तपस्या कर रहा था। इधर, जब हिरण्यकशिपु तपस्या में लीन था तो देवताओं ने असुरों से अपना राज्य छीन लिया। वे आनंदपूर्वक अपना राज्य करने लगे। हिरण्यकशिपु की तपस्या का तेज दिन- प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। उसके तप की अग्नि से देवता तप्त हो उठे और भयभीत होकर ब्रह्माजी के पास गए। तब सब देवताओं ने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात उन्होंने बताया कि हे प्रभु! दैत्यराज हिरण्यकशिपु की तपस्या के तेज से सब लोक भयभीत हो रहे हैं। आप कृपा करके हमें भयमुक्त कीजिए । सब देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु को वर देने के लिए उस स्थान पर गए, जहां वह तपस्या कर रहा था। वहां जाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से कहा - वत्स ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो मांग सकते हो। मैं तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करूंगा। ब्रह्माजी के ये शुभ वचन सुनकर हिरण्यकशिपु ने आंखें खोल दीं और हाथ जोड़कर सामने खड़े ब्रह्माजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात वह बोला- हे प्रजापति! हे पितामह! मैं चाहता हूं कि मुझे कभी भी मृत्यु का भय न हो। मैं किसी अस्त्र-शस्त्र, पाश, वज्र, सूखे पेड़, पर्वत, जल, अग्नि से न मरूं । देवता, दैत्य, मुनि, सिद्धवर अथवा सृष्टि की कोई भी रचना मेरा वध न कर सके। दिन-रात, स्वर्ग-नरक, पृथ्वी-पाताल, अंदर बाहर कहीं भी किसी भी समय मेरी मृत्यु न हो सके। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होते हुए 'तथास्तु' कह दिया। तुम्हें तुम्हारे अभीष्ट फलों की अवश्य प्राप्ति होगी। जो वरदान तुमने मांगा है, वह अवश्य फलीभूत होगा। तुमने छियानवे हजार वर्षों तक तपस्या करके मुझे प्रसन्न किया है। अब तुम सुखपूर्वक राज्य करो। अपना इच्छित वरदान प्राप्त करके दैत्यराज हिरण्यकशिपु बहुत प्रसन्न हुआ और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी की स्तुति करने लगा। तत्पश्चात ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। हिरण्यकशिपु अपने घर वापस चला गया। वहां पहुंचकर उसके मन में यह विचार आया कि अब मैं अमर हो गया हूं। अब कोई भी मुझे नहीं मार सकता। इसलिए अब मुझे अपने राज्य का विस्तार करना चाहिए। यह विचार मन में आते ही उसने तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करने का निर्णय किया। उसने देवताओं से भयंकर संग्राम किया और उन्हें हराकर उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। देवता अपने प्राणों की रक्षा हेतु वहां से भाग खड़े हुए और भगवान श्रीहरि विष्णु के पास गए। भगवान श्रीहरि के पास पहुंचकर देवताओं ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई और उनसे अपनी पीड़ा और कष्टों को दूर करने की प्रार्थना की। तब विष्णुजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे स्वयं हिरण्यकशिपु का वध करके उन्हें उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाएंगे। भगवान विष्णु के आश्वासन पर देवता उन्हें धन्यवाद देकर बैकुण्ठ लोक से वापस आ गए। वे अपनी रक्षा के लिए अलग-अलग जगहों पर निवास करने लगे। उधर, श्रीहरि विष्णु ने देवताओं को उनके कष्टों से मुक्ति दिलाने हेतु दैत्यराज हिरण्यकशिपु का संहार करने का निश्चय किया । परंतु ब्रह्माजी द्वारा दिए गए वरदान को भी उन्हें पूरा करना था। तब विष्णुजी ने ऐसा रूप धारण किया जो आधा मनुष्य के जैसा था आधा शेर जैसा। ऐसा अत्यंत भयानक रूप धारण कर विष्णुजी अग्नि के समान प्रलयंकारी नजर आ रहे थे। नृसिंह के रूप में श्रीहरि ने दैत्यराज हिरण्यकशिपु की नगरी में प्रवेश किया। उस समय सूर्यास्त का समय हो रहा था। उनका यह अनोखा भयानक रूप देखकर दैत्यसेना के वीर उन पर टूट पड़े और उनसे युद्ध करने लगे। तब पल भर में ही उन्होंने सब दैत्यों को मार गिराया और राजमहल की ओर चल दिए। तभी विष्णुजी के परम भक्त और दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद की दृष्टि नृसिंह भगवान पर पड़ी । प्रह्लाद बोला- हे पिताजी! ये अद्भुत रूप धारण किए नृसिंह अवतार मुझे तो भगवान जान पड़ते हैं। इनकी वीरता की प्रशंसा करना तो असंभव है। अतः आपको इनकी शरण में चले जाना चाहिए। अपने पुत्र की इन बातों को सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु को बहुत क्रोध आ गया। वह बोला - पुत्र ! तुम बिना कारण ही भयभीत हो रहे हो। तुम दैत्यों के अधिपति के पुत्र हो, तुम्हें इस प्रकार कायरता भरी बातें कदापि नहीं करनी चाहिए। यह कहकर हिरण्यकशिपु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि शीघ्र जाकर विचित्र आकृति वाले उस जीव को बंदी बनाकर ले आओ। अपने स्वामी दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उनके वीर दैत्यगण नृसिंह भगवान को पकड़ने के लिए दौड़े, परंतु उनके समीप जाते ही वे भस्म हो गए। अब दैत्यराज स्वयं युद्ध करने के लिए अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित आगे आए। तब भगवान नृसिंह और दैत्यराज हिरण्यकशिपु में बहुत भयानक युद्ध हुआ परंतु भगवान नृसिंह के आगे दैत्यराज हिरण्यकशिपु की एक न चली। नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को खींचकर अपनी जंघा पर लिटा लिया और उसकी छाती को अपने नाखूनों से चीर दिया, उसके प्राण पखेरू उड़ गए। तभी हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ने वहां आकर नृसिंह भगवान के चरणों में अपना सिर झुकाकर क्षमायाचना की। भगवान विष्णु ने प्रह्लाद को आशीर्वाद देकर हिरण्यकशिपु का राज्य सौंप दिया। जैसे ही देवताओं को हिरण्यकशिपु के मारे जाने की सूचना मिली, वे बहुत प्रसन्न होकर नृत्य और श्रीहरि विष्णु की स्तुति करने लगे। आकाश में मंगल ध्वनि गूंजने लगी और फूलों की वर्षा होने लगी। इस प्रकार हिरण्यकशिपु का वध करने के पश्चात प्रह्लाद को राज्य सौंपकर भगवान नृसिंह वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोकों को चले गए।श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) तैंतालीसवां अध्याय समाप्त
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