गणेश गौरव ,गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन

गणेश गौरव 'गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन

गणेश गौरव

नारद जी बोले- हे विधाता! जब भगवान शिव की कृपा से पार्वती पुत्र गणेश पुनः जीवित हो गए, तब वहां क्या हुआ? जीवित होकर उन्होंने क्या कहा? नारद जी का यह प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले—हे नारद! जब श्रीहरि विष्णु ने हाथी का मस्तक गणेश के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया तब यह देखकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने गणेश को बांहों में भरकर गले से लगा लिया और उसे चूमने लगीं। फिर उन्होंने गणेश को सुंदर व मनोहर वस्त्रों एवं रत्नजड़ित आभूषणों से सजाया। अनेक सिद्धियों एवं मंत्रों से विधिपूर्वक अपने पुत्र का पूजन करने के बाद कल्याणमयी पार्वती ने गणेश के सिर पर हाथ रखकर वरदान देते हुए कहा- ऐ मेरे प्यारे पुत्र गणेश! तुझे तेरी माता की आज्ञा से बहुत कष्ट सहना पड़ा परंतु आज के बाद तुझे कभी भी किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। सभी देवता तुझे पूजेंगे। पुत्र! तुम्हारे मस्तक पर सिंदूरी रंग की आभा है, इसलिए तुम्हारा पूजन सदैव सिंदूर से किया जाएगा। जो भी सिद्धियों और अभीष्ट फलों को प्राप्त करने के लिए तुम्हारा पूजन सिंदूर से करेगा, उसके काम में आने वाली सभी बाधाएं और विघ्न दूर हो जाएंगे। इस प्रकार जब देवी पार्वती ने गणेश पर अपने आशीर्वादों की कृपा की, तब भगवान शिव भी प्रसन्नतापूर्वक गणेश के सिर पर हाथ फेरने लगे। माता पार्वती ने प्रसन्नतापूर्वक पहले भगवान शिव को देखा, फिर श्रीगणेश को संबोधित करती हुई बोलीं- पुत्र ! ये ही तुम्हारे पिता भगवान शिव हैं। तब गणेशजी तुरंत उठ खड़े हुए और भगवान शिव के चरणों पर गिरकर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। गणेश ने कहा- हे पिताजी! मैं अज्ञानतावश आपको पहचान नहीं सका, इसी कारण मैंने आपको घर के भीतर नहीं जाने दिया था । हे प्रभु, आप मेरी इस मूर्खता को कृपा करके क्षमा कर दें। अपने पुत्र गणेश को इस प्रकार क्षमायाचना करते देखकर भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें क्षमा कर दिया। तब मैं, विष्णुजी और शिवजी त्रिदेवों ने कहा- जिस प्रकार इस संसार में हम तीनों देवों की पूजा होती है उसी प्रकार गणेश भी सभी के द्वारा पूज्य होंगे। किसी भी मांगलिक कार्य में सर्वप्रथम गणेश का पूजन किया जाएगा, तत्पश्चात हम सबका । यदि ऐसा न किया गया तो पूजा सफल नहीं मानी जाएगी तथा पूजा का फल भी नहीं मिलेगा। तब शिवजी ने सभी मांगलिक पूजन वस्तुएं मंगाकर गणेश का पूजन किया। उसके बाद मैंने, विष्णुजी, पार्वती और अन्य देवताओं ने भी उनकी विधि-विधान से पूजा की। उसके उपरांत सभी देवताओं ने उन्हें यथायोग्य वरदान प्रदान किए। उसी दिन से गणेशजी को अग्रपूजा का आशीर्वाद मिला।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) अठारहवां अध्याय समाप्त

 गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार गणेश जी के जीवित होने पर सब और आनंद छा गया। सभी बहुत प्रसन्न थे। सभी देवता उन्हें विभिन्न प्रकार के वरदान प्रदान कर रहे थे। तब ईश्वरों के ईश्वर महादेव जी भी गणेश पर अपनी विशेष कृपादृष्टि बनाकर बोले- हे गिरिजानंदन! तुम मेरे दूसरे पुत्र हो। तुम्हें न पहचानने के कारण तुम्हारा यहां अपमान हुआ है। इसलिए मेरे भक्तों ने तुम पर आक्रमण किया परंतु आज से कोई भी तुम्हारा विरोध नहीं करेगा। तुम सभी के पूजनीय और वंदनीय होगे। तुम साक्षात् जगदंबा के तेज से उत्पन्न होने के कारण परम तेजस्वी और पराक्रमी हो। तुम्हारी वीरता और साहस का लोहा इस संसार में हर प्राणी मानेगा। आज से तुम मेरे सभी शिवगणों के अध्यक्ष हो। ये सभी तुम्हारे आदेशों का ही पालन करेंगे। आज से तुम गणपति नाम से भी जाने जाओगे। यह कहकर सर्वेश्वर भगवान शिव दो पल के लिए मौन हुए फिर बोले- हे गणपति ! तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को देवी पार्वती के निर्मल हृदय से चंद्रमा के उदय के समय हुआ है। इसलिए आज से इस दिन जो भी पूरी भक्तिभावना से तुम्हारा स्मरण करके व्रत करेगा उसे समस्त सुखों की प्राप्ति होगी। मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिन सुबह स्नान करके व्रत रखें। धातु, मूंगे या मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करें। तत्पश्चात मूर्ति की दिव्य गंधों, चंदन एवं सुगंधित फूलों से पूजा करें। रात्रि में बारह अंगुल लंबी तीन गांठ वाली एक सौ एक दूर्वाओं से पूजन करना चाहिए। उसके बाद धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, अर्घ्य देकर गणेशजी की पूजा करें। बाद में बाल चंद्रमा का पूजन करें। फिर ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराएं। स्वयं बिना नमक का ही खाना खाएं। इस प्रकार इस उत्तम गणेश चतुर्थी व्रत को करें। जब व्रत करते-करते एक वर्ष पूरा हो जाए तब भक्तिभावना से इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में बारह ब्राह्मणों को भोजन कराएं। व्रत का उद्यापन करते समय पहले से स्थापित कलश के ऊपर गणेश की मूर्ति रखें। वेदी तैयार कर उस पर अष्टदल कमल बनाकर हवन करें। तत्पश्चात मूर्ति के सामने दो स्त्रियों व दो बालकों को बिठाकर उनकी विधि-विधान से पूजा करें। फिर उन्हें आदरपूर्वक भोजन कराएं। पूरी रात उनका भक्तिभाव से जागरण करें। सुबह होने पर गणेशजी का पुनः पूजन करें। पूजन करने के पश्चात उनका विसर्जन कर दें। फिर बालकों से का आशीर्वाद लेकर उनसे स्वस्ति वाचन कराएं और व्रत को पूर्ण करने हेतु श्रीगणेश को पुष्प अर्पित करें। तत्पश्चात भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करें। हे गणेश! इस प्रकार जो श्रद्धापूर्वक उत्तम भक्तिभाव के साथ तुम्हारी शरण में आएगा और तुम्हें रोज पूजेगा, उसके सभी कार्य सफल हो जाएंगे तथा उसे सभी अभीष्ट फलों की प्राप्ति होगी। गणेश का पूजन सच्चे मन से सिंदूर, चंदन, चावल और केतकी के फूलों से करने वाले के सभी विघ्नों और क्लेशों का नाश हो जाएगा। उस मनुष्य के अभीष्ट कार्य अवश्य ही सिद्ध होंगे। यह गणेश चतुर्थी व्रत सभी स्त्री एवं पुरुषों के लिए श्रेष्ठ है। विशेषतः जो मनुष्य अभ्युदय की इच्छा रखते हैं, उन्हें उत्तम भक्तिभावना से इस व्रत को अवश्य करना चाहिए क्योंकि गणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले मनुष्य की सभी इच्छाएं और कामनाएं पूरी होती हैं। इसलिए सभी मनुष्यों को इस श्रेष्ठ व्रत को पूरा करना चाहिए तथा सदैव तुम्हारी भक्तिभाव से आराधना करनी चाहिए। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश को सभी मनुष्यों तथा देवताओं द्वारा पूजित होने का उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया। सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । उनके आनंद की कोई सीमा न रही। वे सभी भक्ति रस में डूबकर शिव-पार्वती पुत्र गणपति की आराधना करने लगे। यह देखकर देवी पार्वती की खुशी की कोई सीमा न रही। वे देवताओं को अपने पुत्र गणेश का पूजन करते देख मन ही मन भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए उनका धन्यवाद करने लगीं। उनका सारा क्रोध पल भर में ही शांत हो गया था। उस समय सभी दिशाओं में सुमधुर दुंदुभियां बजने लगीं। अप्सराएं सहर्ष नृत्य करने लगीं। सुंदर, मंगल गान होने लगे तथा श्रीगणेश जी पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। अपने पुत्र को गणाधीश बनाए जाने पर माता पार्वती फूली नहीं समा रही थीं। उस समय चारों ओर उत्सव होने लगा। तत्पश्चात उस समय वहां उपस्थित समस्त देवता और ऋषि-मुनि उस स्थान के निकट गए जहां भगवान शिव और देवी पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ विराजमान थे। देवताओं और ऋषियों ने भक्तिभावना से उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। फिर शिवजी से विदा लेकर सब अपने-अपने धामों को चले गए। फिर मैं और श्रीहरि भी उनसे विदा लेकर अपने लोकों को लौट गए। जो मनुष्य शुद्ध हृदय से सावधान होकर इस परम मंगलकारी कथा को सुनता है, वह सभी मंगलों का भागीदार हो जाता है। यह गणेश चतुर्थी व्रत की उत्तम कथा पुत्रहीनों को पुत्र, निर्धनों को धन, रोगियों को आरोग्य, अभागों को सौभाग्य प्रदान करती है। जिस स्त्री का पति उसे छोड़कर चला गया हो, गणेश की आराधना के प्रभाव से पुनः उसके पास लौट आता है। दुखों और शोकों में डूबा मनुष्य इस उत्तम कथा को सुनकर शोक रहित होकर सुखी हो जाता है। जिस मनुष्य के घर में श्रीगणेश की महिमा का वर्णन करने वाले उत्तम ग्रंथ रहते हैं, उस घर में सदा मंगल होता है। श्रीगणेश की कृपा अपने भक्तों पर सदा रहती हैं और वे अपने भक्तों के कार्य में आने वाले सभी विघ्नों का विनाश कर उसकी सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) उन्नीसवां अध्याय समाप्त

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