श्रीहरि विष्णु और दधीचि मुनि के बीच हुए विवाद का वर्णन

श्रीहरि विष्णु और दधीचि मुनि के बीच हुए विवाद का वर्णन

यह अमृत कथा श्रीहरि विष्णु और दधीचि मुनि के बीच हुए विवाद का वर्णन करती है और यह दिखाती है कि भक्ति और निष्काम कर्म से कैसे व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इस कथा के माध्यम से यह भी सिद्ध होता है कि दिव्य शक्तियों का आपसी संबंध और भक्ति में समर्थन कैसे होता है।
Description of the dispute between Srihari Vishnu and Dadhichi Muni

ब्रह्माजी बोले- नारद! श्रीहरि विष्णु अपने प्रिय भक्त राजा क्षुव के हितों की रक्षा करने के लिए एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके दधीचि मुनि के आश्रम में पहुंचे। विष्णुजी भगवान शिव की आराधना में मग्न रहने वाले ब्रह्मर्षि दधीचि से बोले कि हे प्रभु, में आपसे एक वर मांगता हूँ। दधीचि श्रीविष्णु को पहचानते हुए कहने लगे- में सब समझ गया हूं कि आप कोन है और क्या चाहते हैं? इसलिए में आपसे क्या कहूं। हे श्रीहरि विष्णु ! क्षुव का कल्याण करने के लिए आप यह ब्राह्मण का वेश बनाकर आए हैं। आप ब्राह्मण वेश का त्याग कर दें। लज्जित होकर भगवान विष्णु अपने असली रूप में आ गए और महामुनि दधीचि को प्रणाम करके बोले कि महामुनि! आपका कथन पूर्णतया सत्य है। में यह भी जानता हूं कि शिवभक्तों को कभी भी, किसी भी प्रकार का कोई भी भय नहीं होता है। परंतु आप सिर्फ मेरे कहने से राजा क्षुव के सामने यह कह दें कि आप राजा क्षुव से डरते हैं। श्रीविष्णु की यह बात सुनकर दधीचि हंसने लगे। हंसते हुए बोले कि भगवान शिव की कृपा से मुझे कोई भी डरा नहीं सकता। जब कोई वाकई मुझे डरा नहीं सकता तो में क्यों झूठ बोलकर पाप का भागी बनू? दधीचि मुनि के इन वचनों को सुनकर विष्णु को बहुत अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने मुनि दधीचि को समझाने की बहुत कोशिश की। सभी देवताओं ने श्री विष्णुजी का ही साथ दिया। भगवान विष्णु ने दधीचि मुनि को डराने के लिए अनेक गण उत्पन्न कर दिए परंतु दधीचि ने अपने सत से उनको भस्म कर दिया। तब विष्णुजी ने वहां अपनी मूर्ति प्रकट कर दी। यह देखकर दधीचि मुनि बोले- हे श्रीहरि ! अब अपनी माया को त्याग दीजिए। 
आप अपने क्रोध और अहंकार का त्याग कर दीजिए। आपको मुझमें ही ब्रह्मा, रुद्र सहित संपूर्ण जगत का दर्शन हो जाएगा। में आपको दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। तब विष्णुजी को दधीचि मुनि ने अपने शरीर में पूरे ब्रह्मांड के दर्शन करा दिए। तब विष्णुजी का क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने चक्र उठा लिया और महर्षि को मारने के लिए आगे बढ़े, परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी चक्र आगे नहीं चला। यह देखकर दधीचि हंसते हुए बोले कि हे श्रीहरि! आप भगवान शिव द्वारा प्रदान किए गए इस सुदर्शन चक्र से उनके ही प्रिय भक्त को मारना चाहते हैं, तो भला यह चक्र क्यों चलेगा? शिवजी द्वारा दिए गए अस्त्र से आप उनके भक्तों का विनाश किसी भी तरह नहीं कर सकते परंतु फिर भी यदि आप मुझे मारना चाहते हैं तो ब्रह्मास्त्र आदि का प्रयोग कीजिए। लेकिन दधीचि को साधारण मनुष्य समझकर विष्णुजी ने उन पर अनेक अस्त्र चलाए। तब दधीचि मुनि ने धरती से मुट्ठी पर कुशा उठा ली और कुछ मंत्रों के उच्चारण के उपरांत उसे देवताओं की ओर उछाल दिया। वे कुशाएं कालाग्नि के रूप में परिवर्तित हो गई, जिनमें देवताओं द्वारा छोड़े गए सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर भस्म हो गए। यह देखकर वहां पर उपस्थित अन्य देवता वहां से भाग खड़े हुए परंतु श्रीहरि दधीचि से युद्ध करते रहे। उन दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। तब में (ब्रह्मा) राजा क्षुव को साथ लेकर उस स्थान पर आया, जहां उन दोनों के बीच युद्ध हो रहा था। मैंने भगवान विष्णु से कहा कि आपका यह प्रयास निरर्थक है। क्योंकि आप भगवान शिव के परम भक्त दधीचि को हरा नहीं सकते हैं। यह सुनकर विष्णुजी शांत हो गए, उन्होंने दधीचि मुनि को प्रणाम किया। तब राजा क्षुव भी दोनों हाथ जोड़कर मुनि दधीचि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे, उनसे माफी मांगने लगे। और कहने लगे कि प्रभु आप मुझ पर कृपादृष्टि रखिए। 

राजा क्षुव द्वारा की गई स्तुति

ब्रह्माजी बोले- नारद! इस प्रकार राजा क्षुव द्वारा की गई स्तुति से दधीचि को बहुत संतोष मिला और उन्होंने राजा क्षुव को क्षमा कर दिया परंतु विष्णुजी सहित अन्य देवताओं पर उनका क्रोध कम नहीं हुआ तब क्रोधित मुनि दधीचि ने इंद्र सहित सभी देवताओं और विष्णुजी को भी भगवान रुद्र की क्रोधाग्नि में नष्ट होने का शाप दे दिया। इसके बाद राजा क्षुव ने दधीचि को पुनः नमस्कार कर उनकी आराधना की और फिर वे अपने राज्य की ओर चल दिए। राजा बुव के वहां से चले जाने के पश्चात इंद्र सहित सभी देवगणों ने भी अपने- अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। तदोपरांत श्रीहरि विष्णु भी बैकुंठधाम को चले गए। तब से वह पुण्य स्थान थानेश्वर' नामक तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। इस तीर्थ के दर्शन से भगवान शिव का स्नेह और कृपा प्राप्त होती है। हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह पूरी अमृत कथा का वर्णन सुनाया। जो मनुष्य क्षुव और दधीचि के विवाद से संबंधित इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता है, वह अपमृत्यु को जीत लेता है। तथा मरने के बाद सीधा स्वर्ग को जाता है। इसका पाठ करने से युद्ध में मृत्यु का भय दूर हो जाता है तथा निश्चित रूप से विजयश्री की प्राप्ति होती है। कथा से यह भी सीखने को मिलता है कि आत्मसमर्पण और अनुष्ठान के माध्यम से साधक अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सफल हो सकता है।
श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खंड  उन्तालीसवां अध्याय समाप्त

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